"प्रक्रिया ही बन गई है सजा", न्यूजक्लिक पर प्रवर्तन निदेशालय के छापे पर प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ

शाहिद तांत्रे/कारवां

9 फरवरी को सुबह लगभग 8 बजे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने डिजिटल समाचार पोर्टल न्यूजक्लिक से जुड़े आठ स्थानों पर एक साथ छापेमारी की. इनमें दक्षिणी दिल्ली के सैद-उल-अजाइब इलाके में स्थित वेबसाइट के कार्यालय, प्रधान संपादक-संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ, एक अन्य संपादक प्रांजल पांडे और संपादकीय समूह तथा अकाउंट टीम के पांच सदस्यों के घर शामिल हैं. कार्यालय में पड़ा छापा 38 घंटे तक चला और 10 फरवरी की रात को जाकर खत्म हुआ. पुरकायस्थ के घर पर छापेमारी की कार्रवाई 113 घंटों तक चली जो 14 फरवरी को सुबह 1.30 बजे समाप्त हुई. न तो पुरकायस्थ और न ही उनकी साथी गीता हरिहरन को, जो कि एक लेखक हैं, इस दौरान घर से एक पल के लिए बाहर निकलने दिया गया.

इस बीच, मीडिया रिपोर्टों ने प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों के हवाले से कहा कि छापे विदेशी धन और मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों के संबंध में मारे गए हैं. 15 फरवरी को वेबसाइट द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है, “हम कानूनी प्रक्रिया की पवित्रता का सम्मान करते हैं और मीडिया ट्रायल में शामिल नहीं होना चाहते हैं. यानी हम इस बात को साफ कर देना चाहते हैं कि मीडिया के एक वर्ग में हमारे खिलाफ लगाए जा रहे आरोप तथ्यहीन, भ्रामक और निराधार हैं. हम उचित फोरम पर इन आरोपों का जवाब देंगे.”

कारवां के मल्टीमीडिया रिपोर्टर शाहिद तांत्रे ने छापे के एक दिन बाद पुरकायस्थ से बात की. उन्होंने न्यूजक्लिक, वामपंथ के साथ इसके जुड़ाव तथा मीडिया, आपातकाल और छापे के बारे में बात की. उन्होंने कहा, “हमने जो किया है उसमें हम पारदर्शी हैं, सब कुछ कानून के मुताबिक किया गया है.''

शाहिद तांत्रे : न्यूजक्लिक की रिपोर्टिंग आम जनता के मुद्दों पर होती है. इस संदर्भ में 113 घंटे की छापेमारी को आप कैसे देखते हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ : भारतीय पत्रकारिता के साथ बढ़ती समस्या यह है कि ज्यादातर भारतीय प्रेस आंदोलनों पर रिपोर्ट नहीं करते हैं. अगर मजदूरों की हड़ताल होती है, तो जो एकमात्र मुद्दा सामने आता है वह है ट्रैफिक जाम, वह भी सिटी पेजों पर. मजदूर शहर में क्यों आए, उन्होंने हड़ताल क्यों की, क्या मांगें थीं- इन पर चर्चा नहीं होती. अब वह चीज रह ही नहीं गई है जैसे पहले हुआ करती थी, पहले मजदूरों को लेकर एक बीट हुआ करती थी, किसानों को लेकर एक बीट हुआ करती थी लेकिन अब नहीं है. किसानों की बीट के बजाय कृषि-कमोडिटी बीट होती है. कृषि को महज माल-मूल्य का मुद्दा बना दिया गया है. मजदूर बीट में दरअसल उद्योग के बारे में, शेयर बाजारों के बारे में बात होती है.

मीडिया कवरेज उसकी होती है जो विज्ञापन दे सकता है. आज विज्ञापनदाता तय करते हैं कि खबर क्या होगी. जन आंदोलनों और मुद्दों को, खासकर मुख्यधारा के मीडिया से, गायब कर दिया गया. इसलिए न्यूजक्लिक का कार्य उसे वापस लाना है. यही वजह है कि हमने वीडियो का प्रारूप चुना और क्योंकि हम आंदोलनों को दिखाते हैं, यही कारण है कि न्यूजक्लिक को मौजूदा प्रशासन नापसंद करता है.

शाहिद तांत्रे : न्यूजक्लिक ने बड़े पैमाने पर किसानों के विरोध प्रदर्शन को कवर किया है और आपके कई पत्रकार विरोध प्रदर्शन और महापंचायतों में पहुंचे हैं. क्या आपको लगता है कि आपके विरोध और छापे के कवरेज के बीच संबंध है?

प्रबीर पुरकायस्थ : ऐसा दूसरे लोगों ने अपने दिमाग से सोच लिया है. वह क्या सोचते हैं, मैं आपको इसके बारे में नहीं बता सकता. आप निष्पक्ष हो कर खुद देखिए, क्या हो रहा है और फिर खुद तय कीजिए.

शाहिद तांत्रे : क्या आप पिछले दिनों के छापे और घटनाओं के बारे में बता सकते हैं? आपको क्या लगता है कि ऐसा क्यों हुआ?

प्रबीर पुरकायस्थ : छापा उन्हीं के फंसान हो गई क्योंकि मैंने कभी अपने ईमेल डिलीट नहीं किए. शायद मेरे जीमेल अकांउट में तीन लाख से अधिक ईमेल हैं. देरी की असली बजह यही थी. उन्हें ई-मेल डाउनलोड करने में बहुत समस्याएं हुईं. हालांकि उन्होंने कहा तो कि मैंने उन्हें अपना फोन, लैपटॉप बगैरह जब्त नहीं करने दिया लेकिन सच तो यह है कि मेरा लैपटॉप, मेरा टैबलेट और मेरे दोनों फोन उन्होंने ले लिए थे. मेरे पास अभी फोन ही नहीं है.

मानता हूं कि अधिकारियों के आने का इरादा नेक ही रहा होगा. उन्होंने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया लेकिन भारत में यह प्रक्रिया ही एक सजा बन जाती है. प्रक्रिया चलती रहती है और एक संस्थान के तौर पर हमारे लिए यह तनाव पैदा करता है.

ऐसा क्यों हुआ इस सवाल का जवाब आप लोगों को देना होगा क्योंकि मैं उस पर क्या कहूं. मैं तो यही सोचता हूं कि जिस तरह की हम रिपोर्टिंग करते हैं यह उसके कारण हुआ है, प्रवर्तन निदेशालय दावा कर सकता है कि कुछ अन्य कारणों से यह हुआ. हमारे वित्तीय निवेशों और लेनदेन के बारे में सारी जानकारी सार्वजनिक है. सरकार की वेबसाइटों पर सारा विवरण है. हमने जो किया है उसमें हम पारदर्शी हैं. सब कुछ कानून के अनुसार किया गया है.

हमारे ऊपर हर दिन कोई न कोई नया आरोप लगता रहता है. लेकिन हर आरोप का  का बचाव करना हमारा काम नहीं है. मैं उन आरोपों का कोई जवाब नहीं दूंगा जिनका हमें कोई आधार नजर नहीं आता. कुछ मीडिया प्लेटफॉर्म दावा कर रहे हैं कि ईडी ने ऐसा किया है. मैं इसका जवाब नहीं दूंगा क्योंकि यह एक ऐसी चीज है जो हमें पूरी तरह से उलझा कर रख देगी और जो हम वास्तव में करना चाहते हैं, उससे भटक जाएंगे.

शाहिद तांत्रे : इंडियन एक्सप्रेस ने बताया कि ईडी के छापे एफडीआई के रूप में वर्गीकृत कुछ फंडों सहित ''कथित तौर पर कुल 30.51 करोड़ रुपए के विदेशी लेनदेन से'' संबंधित थे. इनके बारे में आपका क्या कहना है? यह फंड क्या हैं और ये आपके पास कैसे आया?

प्रबीर पुरकायस्थ : जो निवेश आए हैं वे सार्वजनिक हैं. कंपनी की बैलेंस शीट पर है और यह भारतीय रिजर्व बैंक के माध्यम से आए हैं. अब हमारी आय की बात करें तो आज डिजिटल प्लेटफॉर्म पर 26 प्रतिशत तक विदेशी निवेश कानूनी है. हमारा विदेशी निवेश उससे काफी कम है, लगभग 9 प्रतिशत. इस मामले में कुछ भी गैर कानूनी नहीं क्योंकि उस समय तक [डिजिटल प्लेटफॉर्म में एफडीआई पर कैप सितंबर 2019 में लागू किया गया था] डिजिटल प्लेटफॉर्म में विदेशी निवेश पर कोई रोक नहीं थी. तो, मुद्दा क्या है मुझे समझ में नहीं आया है. यह क्यों उठाया जा रहा है यह भी मुझे समझ में नहीं आ रहा है.

दूसरी बात, हमारा मूल राजस्व मॉडल यह रहा है कि हम विदेशों में अच्छी गुणवत्ता वाली सामग्री बेचते हैं. एक विशेष मंच इसे हमसे खरीदता है और इसे वितरित करता है. सभी लेनदेन खुले हैं, रिटर्न दाखिल किए गए हैं. कंपनियां इसी तरह चलती हैं, उनके पास पूंजी होती है और उनके पास राजस्व होता है. ऐसा व्यवसाय करना अपराध क्यों है जो पूरी तरह से वैध माना जाता है? हम राजस्व उत्पन्न करने में सक्षम हैं और हमने कुछ निवेश प्राप्त किए हैं - क्यों इसे एक समस्या माना जा रहा है? हमने जो कुछ भी किया है, उसमें कानून का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है और मुझे यकीन है कि अगर ऐसा होता है तो हम किसी भी अदालत में इसे चुनौती दे सकते हैं.

शाहिद तांत्रे : क्या आप इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में उल्लिखित लेन-देन का विवरण दे सकते हैं- 9.59 करोड़ रुपए एक बार और 20.92 करोड़ रुपए एक बार? क्या ये मासिक भुगतान थे?

प्रबीर पुरकायस्थ : मैं कोई आंकड़ा नहीं बता रहा हूं क्योंकि मुझे आंकड़ों की जांच करनी है. लेकिन यह एकमुश्त निवेश के रूप में आया. अन्य मासिक भुगतान और मासिक आय है और मुझे लगता है कि हमारे तीन महीने का भुगतान चक्र है. मुझे लगता है कि यह लगभग दो साल की अवधि के लिए है.

शाहिद तांत्रे : कुछ मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि एक महीने पहले दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा में न्यूजक्लिक के खिलाफ पहली सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी. क्या आपके पास उस एफआईआर की कॉपी है?

प्रबीर पुरकायस्थ : हमें यह भी पता नहीं है कि कोई एफआईआर हुई है.

शाहिद तांत्रे : गौतम नवलखा का न्यूजक्लिक के साथ क्या संबंध है क्योंकि कुछ मीडिया रिपोर्टों ने उनके साथ छापे को जोड़ने की कोशिश की गई है? [गौतम नवलखा एल्गर परिषद मामले में आरोपी पत्रकार हैं और अप्रैल 2020 से जेल में हैं]

प्रबीर पुरकायस्थ : गौतम एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह सहयोगी संपादक थे और वह ईपीडब्ल्यू जैसी पत्रिका के परामर्श संपादक भी रहे. मैं गौतम को लंबे समय से जानता हूं. हमने कुछ सॉफ्टवेयर कंपनियों में एक साथ काम किया था.

वह न्यूजक्लिक में क्यों थे? वह एक पत्रकार हैं और पत्रकारिता में उनका अच्छा कैरियर है. क्या ईपीडब्ल्यू से पूछा गया है कि गौतम इतने लंबे समय से वहां क्यों थे? हमसे इसके बारे में पूछताछ क्यों की जा रही है? हमारे साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं [एल्गर परिषद मामले से जुड़े], क्या उन्होंने इसके लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में छापा मारा है?

किसी विचार पर विश्वास करना हमारा मौलिक अधिकार है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अगर किसी व्यक्ति का कोई खास निश्चित विश्वास है, तो उसे काम करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. अगर उस विश्वास के चलते आप ऐसे कार्य करते हैं जो कानूनों का किसी तरह उल्लंघन करते हैं, तो निश्चित रूप से आप पर कानूनी फैसला लिया जा सकता है और अगर अदालत सहमत है तो दंडित किया जाएगा. वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट ने कई बार इस मुद्दे पर फैसला सुनाया है कि एक निश्चित विश्वास होने का मतलब यह नहीं है कि किसी व्यक्ति को इस विश्वास के आधार पर दोषी ठहराया जा सकता है. ऐसा कई मामलों में हुआ है और यह [गौतम] का मामला भी इसी तरह का है.

शाहिद तांत्रे : मुख्यधारा की मीडिया आमतौर पर क्रोनी कैपिटलिज्म के बारे में रिपोर्ट नहीं करता है लेकिन न्यूजक्लिक ने इस पहलू को कवर किया है और आपका अडाणी समूह के साथ मुकदमा चल रहा है. क्या आप इसे मीडिया को रगड़ देने की कोशिश के रूप में देखते हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ : उस मामले में हमें एक गैग ऑर्डर मिला है इसलिए हम अडाणी समूह के बारे में या अडाणी क्या कर रहे हैं इस बारे में नहीं बोलेंगे.[सितंबर 2020 में, अडाणी पावर राजस्थान लिमिटेड ने दो रिपोर्ट के लिए न्यूजक्लिक के खिलाफ फौजदारी और दीवानी मुकदमे दायर किए और 100 करोड़ रुपए की भरपाई की मांग की. मामले की कार्यवाही शुरू होनी बाकी है लेकिन अहमदाबाद की एक अदालत ने वेबसाइट में अडाणी पर आगे रिपोर्टिंग करने को प्रतिबंधित कर दिया है]. इसमें व्यापक मुद्दा यह है कि जो बड़े व्यावसायिक घरानों और बड़े व्यापारिक घरानों को कवर करना चाहते हैं यह उन लोगों के बीच हमेशा ही एक अनुचित लड़ाई रही है.

बड़े व्यावसायिक घरानों के पर्याप्त पैसा और बाहुबल होता है जो लोगों के खिलाफ कभी इस न्यायिक क्षेत्र से तो कभी उस, एक के बाद एक मुकदमा दर्ज कर सकते हैं. आप मुकदमें दर्ज करते हैं, तो मीडिया घरानों को इन्हें लड़ना पड़ता है. यह पूरी प्रक्रिया को कानूनी कहा जाता है, जहां आप कानून को आलोचना को चुप कराने के साधन के रूप में उपयोग करते हैं. वास्तव में वर्तमान परिदृश्य यही है और यह हमेशा बड़ी पूंजी की रणनीति रही है.

शाहिद तांत्रे : आप आपातकाल के दौरान एक साल तक जेल में रहे थे. क्या आप हमें तब के अनुभवों के बारे में बता सकते हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ : मैं पश्चिम बंगाल के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में था. उस समय नक्सली आंदोलन चल रहा था लेकिन सीपीएम भी उस समय बेहद मजबूत थी और हम उस दौरान नक्सलियों के साथ रिश्तों को लेकर परेशान कर रहे थे. यह सभी को पता था कि दोनों के बीच उस समय आपसी झड़पें हुई थीं. हम इस पर कैसे बातचीत करें यह मुश्किल था और मुझे नहीं लगता कि दोनों ही पक्षों ने इसे बहुत अच्छे से किया.

लेकिन उस समय बहुत बड़ी ताकतें काम कर रही थीं. न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर आंदोलन चल रहे थे. पेरिस में छात्र आंदोलन कर रहे थे [मई 1968 में छात्र विरोध प्रदर्शन फ्रांस में नागरिक अशांति का कारण बना जो लगभग दो साल तक चलता रहा था], वियतनाम आंदोलन था [1950 से 1970 के दशक तक वियतनाम में संयुक्त राज्य अमेरिका के युद्ध के खिलाफ] जिसने हमारी पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया. पश्चिम में तो वे अभी भी वियतनामी पीढ़ी के बारे में बात करते हैं. हम 60 के दशक की पीढ़ी थे और यहीं मेरी वाम राजनीति का उदय हुआ. मैं वामपंथी आंदोलन का हिस्सा बन गया. पहले पश्चिम बंगाल में फिर कानपुर, इलाहाबाद में था. इन जगहों पर मैंने ट्रेड-विंग आंदोलन और छात्र आंदोलन दोनों में भाग लिया. मैं इस तरह छात्र राजनीति में आया. जेएनयू तक मैं छात्र राजनीति में रहा जहां मैंने स्कूल ऑफ कंप्यूटर एंड सिस्टम साइंसेज में दाखिला लिया था. मैं अकेला छात्र था. एक फेलोशिप थी और मुझे वह फेलोशिप मिली.

अभी आपातकाल की घोषणा ही हुई थी और हम एक छात्र के निष्कासन का विरोध कर रहे थे. कुलपति ने अपनी राजनीति के कारण कुछ लोगों को प्रवेश सूची से बाहर कर दिया था और यह सरकार के निर्देश पर किया गया था. वह काला समय था. उस समय छात्र संघ की बैठक की अध्यक्षता करने वाली छात्रा जो मेरी मंगेतर थी, को तीन दिन की हड़ताल के कारण विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया था. हड़ताल के दूसरे दिन मेनका गांधी पढ़ने पहुंची. छात्र संघ के अध्यक्ष, डीपी त्रिपाठी, जो अभी हाल में अपनी मृत्यु तक राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के महासचिव थे, मैं और इंद्राणी मजुमदार, हम तीनों ने मेनका से कहा कि आपको क्लास अटेंड नहीं करनी चाहिए क्योंकि  निष्कासित की गई छात्रा के साथ एकजुटता दिखाते हुए छात्र कक्षा में नहीं जा रहे हैं. वह वापस चली गईं.

उस समय संजय गांधी दिल्ली के राजकुमार हुआ करते थे और पीएस भिंडर डीआईजी [उप-महानिरीक्षक] थे. भिंडर हर सुबह संजय गांधी से मिलने जाते. शाह आयोग की रिपोर्ट [28 मई 1977 को केंद्र सरकार द्वारा स्थापित आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों की जांच के लिए गठित आयोग] में इसका विवरण है. संजय ने एक दिन झिड़क दिया, “यह क्या है? मेरी पत्नी जेएनयू में अपनी कक्षा में शामिल नहीं हो सकी और आप कहते हैं कि दिल्ली में सब कुछ सामान्य है. ऐसा कैसे हो सकता है?"

भिंडर विश्वविद्यालय में आए. तब तक त्रिपाठी जा चुके थे और उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया. यह बड़ी खबर बन गई क्योंकि जेएनयू के बहुत सारे अंतरराष्ट्रीय संपर्क थे. स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज, दूतावासों के वहां कनेक्शन थे. यह अंतर्राष्ट्रीय समाचार बन गया कि एक छात्र का दिन दहाड़े परिसर से अपहरण कर लिया गया. वे वर्दी के बिना आए थे. मुझे आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत आरोपित किया गया और तिहाड़ ले जाया गया. मैं छह महीने तिहाड़ जेल में रहा और छह महीने आगरा में. तिहाड़ में मैं उसी वार्ड में था जहां अरुण जेटली, नानाजी देशमुख और कई अन्य लोगों को रखा गया था.

हमने एडीएम जबलपुर मामले में एक रिट याचिका दायर की थी [एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला बंदी प्रत्यक्षीकरण और इसके निलंबन से संबंधित एक ऐतिहासिक निर्णय है]. मेरे वकील एमआईएसए के कई मामलों को देख रहे थे. बाद में वह विधि आयोग का हिस्सा बन गए. वह आरएसएस [राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ] के आदमी थे. मुझे लगता है कि मैं उन बहुत कम लोगों में से एक था, जिन्हें अदालत से कुछ राहत मिली थी. मुझे एमए की मौखिक परीक्षा के लिए बेड़ियों में इलाहाबाद ले जाया गया. मैं बेड़ियों में जकड़ा पुलिस के पहरे में वापस भी आया.

शाहिद तांत्रे : आपातकाल को आपने अपनी आंखों से देखा है. आपको आज के वक्त के साथ क्या समानताएं नजर आती हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ : यह एक ऐसा सवाल है जो मुझसे अक्सर पूछा जाता है और इसमें समानताएं हैं लेकिन असमानताएं भी हैं. उस समय, यह सच है कि प्रशासन के पास ऐसी शक्तियां थीं जिनके द्वारा प्रेस को मोहरा बनाया गया था. जो वह चाहते थे उसे नहीं लिख सकते थे और जो कुछ भी लिखते थे उसे सेंसर को जमा करते थे. इन बाधाओं के इंडियन एक्सप्रेस भी गुजरा. उसने अभी भी अपनी अखंडता बनाए रखी है. कुछ छोटे संगठन थे. सेमिनार नामक एक पत्रिका थी जिसे रोमेश थापर निकालते थे. उन्होंने कभी चापलूसी नहीं की या सरकारी प्रोपगैंडा नहीं चलाया या जिसे स्टेनोग्राफर पत्रकारिता कहा जाता है कि डिक्टेशन लिया और इसे अपने खुद के समाचार के रूप में पेश कर दिया, जो कि आप आज भी देखते हैं, ऐसा नहीं किया. एक पूरी कानूनी संरचना थी, जिसका उपयोग लोगों की आवाज को दबाने के लिए किया जाता था. विरोध प्रदर्शन की अनुमति नहीं थी.

यह भी सच है कि भारतीय मध्यवर्ग शुरुआत में आपातकाल विरोधी नहीं था क्योंकि भारतीय मध्यवर्ग की तानाशाही सरकारों के प्रति सहानुभूति थी. उन्हें लगता था कि इस देश में गरीब बहुत ज्यादा पिछड़ रहे हैं और अगर मध्यम वर्ग का कोई बड़ा नेता होता तो देश में सब कुछ बहुत बेहतर होता. एक छिपा हुआ आकर्षण था. मध्यम वर्ग के ड्राइंग रूम में एक मजबूत नेता, एक सैन्य शासन, तानाशाही की आवश्यकता के बारे में सुना जा सकता था. आपातकाल के दौरान जब यह महसूस हुआ कि एक कांस्टेबल की शक्ति मध्यम वर्ग की तुलना में अधिक थी. जिस विशेषाधिकर का वह लाभ उठाते थे वह राज्य के किसी भी अधिकारी के खिलाफ कारगर नहीं था.

जब श्रीमती गांधी ने मान लिया कि वह मजबूत स्थिति में हैं तो उन्होंने चुनावों की घोषणा की. [18 जनवरी 1977 को चुनावों की घोषणा हुई, हालांकि आधिकारिक तौर पर आपातकाल 21 मार्च 1977 को समाप्त हुआ. इंदिरा की कांग्रेस उस चुनाव में हार गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. वह भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने]. भारतीय जनता जो आपातकाल को लेकर बहुत निष्क्रिय और आज्ञाकारी दिखाई देती थी, उसने इसके बाद अपनी सच्ची भावनाओं को दिखाया. यह श्रीमती गांधी और सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान के लिए भी एक झटका था.

यह एक अंतर है- [आपातकाल] कुछ ऐसा था जिसमें सरकार का समर्थन करने वाला एक ठोस संगठित बल नहीं था और यह कुछ ऐसा था जो प्रशासनिक मशीनरी द्वारा ऊपर से लगाया गया था. छात्र परिषद, यूथ कांग्रेस, जिसे बाद में हम "संजय गांधी का गुंडा गिरोह ब्रिगेड" कहते, को छोड़कर किसी ने अधिकार को खत्म करने का समर्थन नहीं किया गया. लेकिन यह एक संगठित आंदोलन नहीं था.

दूसरा, कांग्रेस के पास ऐसी विचारधारा नहीं थी जहां आप यह तय करते हैं कि कुछ निश्चित वर्ग भारतीय नागरिकता के दायरे से बाहर हैं. वे इसे केवल अनुशासन की एक छोटी अवधि कह सकते थे, जैसा कि उस समय विनोबा भावे ने इसे "अपातकाल का अनुशासन पर्व," कहा था. आपातकाल छोटी अवधि के लिए [निर्धारित] था. इसे राज्य के भीतर एक संरचना के तौर पर स्थापित नहीं किया जा सकता था.

लेकिन अभी हम जो देख रहे हैं वह अलग है. राज्य की संरचना स्पष्ट रूप से समान है लेकिन इसे खोखला किया जा रहा है. एक ऐसी संगठित शक्ति का उदय होता है, जो राज्य की शक्ति की प्रशंसा करता है. संगठित बल का खतरा है और अगर कहीं प्रतिरोध होता है तो वे प्रतिरोध के खिलाफ भी सामने आते हैं. राज्य और इस तरह की राजनीति के बीच एक तरह का समझौता है.

शाहिद तांत्रे : आप उन्हें राज्य की सत्ता के बाहर के लोग कहते हैं या वह उपद्रवी तत्व हैं?

प्रबीर पुरकायस्थ : वे उपद्रवी तत्व नहीं हैं. वे देश की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत हैं. यह एक प्रकार की सांप्रदायिक राजनीति है. वे तय करते हैं कि कौन नागरिक हैं और किन्हें नागरिक नहीं होना चाहिए. कांग्रेस ने अपनी आनुवंशिक संरचना के चलते कभी इस तरह की बहिष्कृत राजनीति को नहीं किया था लेकिन यह आरएसएस के गुणसूत्रों का एक हिस्सा है. यही फर्क है.

और औपचारिक रूप से हमारे पास अभी भी अदालतें हैं. लेकिन आपके पास अब एक तरह का अनौपचारिक सत्तावादी शासन है जिसमें कानून तो है लेकिन अदालत पूरी तरह से लागू नहीं करती. यह आंशिक राहत तो देती है लेकिन बहुत सारे मुद्दों पर, उदाहरण के लिए, कश्मीर के मामले पर अदालतें मामलों को लंबा खींच रही हैं. सच तो यह है कि न्याय नहीं मिलता.

तो, न्याय प्रणाली का औपचारिक जाल है. औपचारिक रूप से प्रेस की स्वतंत्रताएं हैं लेकिन तब आपके पास प्रेस को चुप कराने के लिए अलग तरह के उपकरण हैं. न्यायपालिका को शांत नहीं लेकिन अपना सहयोगी बनाने के लिए उपकरण हैं. और यही फर्क है. [आपातकाल के दौरान] राहत प्रदान करने के लिए औपचारिक संरचना मौजूद नहीं थी. औपचारिक रूप से लोग यह नहीं लिख सकते थे कि वे क्या चाहते थे. उनके अधिकार छीन लिए गए थे.

लेकिन आज यह संयोजन अधिकारों को अपेक्षाकृत और तेजी से पहुंच से बाहर करता जा रहा है और इसलिए यह एक लंबी लड़ाई है. यह ज्यादा कठिन लड़ाई है क्योंकि यह न केवल हमारे अधिकारों को बनाए रखने के लिए बल्कि लोगों के दिलो-दिमाग को कायम रखने की भी लड़ाई है.

शाहिद तांत्रे : 2014 के बाद से हमने घृणा जनित अपराधों में वृद्धि देखी है और अल्पसंख्यकों को दबाया जा रहा है. क्या आपातकाल के दौरान भी यही स्थिति थी?

प्रबीर पुरकायस्थ : हां, अत्याचार था लेकिन यह धर्मनिरपेक्ष उत्पीड़न था. उस समय एक तुर्कमान गेट कांड हुआ था जिसमें मुस्लिम समुदाय पर हमला किया गया था. [अप्रैल 1976 में, पुलिस ने दिल्ली के तुर्कमान गेट पर एक विध्वंस अभियान के दौरान आग लगा दी. कितने मारे गए और विस्थापित हुए, इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है. एक तथ्य खोजी समिति के अनुसार इस तरह हुए कई विध्वंस, राजनीतिक विचारों पर आधारित थे और जनसंघ के गढ़ों को लक्षित करता था.]

लेकिन वैचारिक रूप से, कांग्रेस अल्पसंख्यकों का बहिष्कार करने वाली सरकार नहीं थी. निश्चित रूप से वह नहीं थी. अब आप जो देख रहे हैं वह सावरकर का सिद्धांत से हो रहा है जो मानता है कि अल्पसंख्यक देश में रह सकते हैं लेकिन अनिवार्य रूप से दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में. औपचारिक रूप से आप अभी भी ऐसा नहीं कर सकते. यह मुश्किल है. लेकिन अनौपचारिक रूप से आप विभिन्न तरीकों से ऐसा कर सकते हैं.

और यही कारण है कि किसानों का आंदोलन इतना महत्वपूर्ण हो गया है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम और जाट किसान एक साथ आए हैं. मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान जो अविश्वास पैदा हुआ था उसे किसान आंदोलन ने खत्म कर दिया है.

तो उनके लिए आंदोलनों बहुत खतरनाक हैं क्योंकि तब आप एक अलग तरह की एकता का निर्माण करते हैं. जाति और समुदाय का बटवारा जिस पर बीजेपी राजनीति करती है वह तब संभव नहीं है. इसलिए किसानों के आंदोलन, मजदूरों के आंदोलन आरएसएस और बीजेपी की विचारधाराओं के लिए खतरा बन जाते हैं.