जस्टिस दीपक मिश्रा के दौर में सुप्रीम कोर्ट

जस्टिस दीपक मिश्रा के दौर में सुप्रीम कोर्ट

09 अक्टूबर 2018
भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेते दीपक मिश्रा. शपथग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद और पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर.
अरुण शर्मा/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस
भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेते दीपक मिश्रा. शपथग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद और पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर.
अरुण शर्मा/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

{एक}

जयंत कुमार दास के लिए पुरी (ओडिशा) के अपने घर के बाहर दस्तावेजों का ढेर मिलना कोई अनोखी बात नहीं थी. भारतीय वायु सेना में दो दशकों तक बतौर सार्जेंट  काम करने के बाद, दास 2001 में रिटायर हुए. उस वक्त उनकी उम्र 39 वर्ष थी. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने जमीन की खरीद-फरोख्त का धंधा शुरू किया. इस काम ने इस धंधे में फैले भ्रष्टाचार से उनका आमना-सामना करवाया. दास ने उस वक्त खुद को सशक्त महसूस किया जब 2005 में सूचना का अधिकार क़ानून पारित हुआ. दशक के अंत तक आते-आते, वे ओडिशा चिट-फण्ड घोटाले के नाम से मशहूर हुए मामले में अपने हाथ जला चुके थे. जब घोटाला उजागर हुआ तो उनका नाम भी प्रेस में उछाला जाने लगा. “तो लोग मुझे जानने लगे हैं,” दास ने हंसते हुए कहा. “और क्योंकि उन्हें मालूम है कि मैं अपना काम पूरी ईमानदारी से करता हूं, वे लगातार मुझे सूचनाएं भेजते रहते हैं.” कभी-कभी ऐसा भी होता था कि उनके दरवाजा खोलने से पहले ही उनका कुत्ता दस्तावेजों को चबा चुका होता था.

11 अगस्त 2016 के दिन उन्हें कटक से भेजे गए कुछ कागजात प्राप्त हुए. इन कागजातों में ओडिशा हाई कोर्ट के आदेश पर सीबीआई द्वारा की गई जांच की अंतरिम रिपोर्ट भी शामिल थी. रिपोर्ट में उन सार्वजनिक अधिकारियों के नाम शामिल थे, जिन पर धोखाधड़ी से सरकारी जमीन हथियाने का आरोप था.

रिपोर्ट की पृष्ठ संख्या 30 पर, जिस जगह पर लीज केस संख्या 588/79 का वर्णन दिया गया था, दास ने “दीपक मिश्रा” का नाम देखा. उन्होंने तीन दशक पुराने कटक के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के उस आदेश को ढूंढ निकाला, जो उन्होंने स्टेट बनाम दीपक मिश्रा के मामले, 1984 के लीज रिविजन केस संख्या 238 में दिया था. इसमें प्रतिवादी पक्ष ने कटक में चारागाह बनाने की घोषित मंशा से तीन एकड़ सरकारी जमीन आवंटित किए जाने के लिए आवेदन किया था. सरकारी स्कीम के अनुसार इस जमीन को आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के विकास के लिए आवंटित किया जाना था. इसके लिए अपनी योग्यता साबित करने के लिए मिश्रा ने शपथपत्र में घोषित किया था कि वे एक भूमिहीन ब्राह्मण परिवार से संबंध रखते हैं. यह सफ़ेद झूठ था और इसे आधार बनाकर प्रतिवादी की लीज़ खारिज कर दी गई. अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट “आश्वस्त थे कि प्रतिवादी ने सरकारी जमीन झूठ और फरेब के बल पर हासिल की है.”

सीबीआई ने अपनी जांच में पाया कि जनवरी 2012 में कटक के तहसीलदार ने रिकॉर्ड में फेरबदल किया था. इसका मतलब था कि अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के 26 साल पुराने आदेश के बावजूद भी विवादित जमीन पर प्रतिवादी का कब्जा बना हुआ था. इन छब्बीस सालों में प्रतिवादी के लिए बहुत कुछ बदल चुका था. 1984 में दीपक मिश्रा ओडिशा हाई कोर्ट में बतौर वकील काम करते थे. साल 2012 आते-आते तक, वे जज नियुक्त होकर ओडिशा हाई कोर्ट से होते हुए, पटना और दिल्ली उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रह चुके थे. इसी क्रम में उन्होंने अपने नाम की अंग्रेजी स्पेलिंग को मिश्रा से मिस्रा कर लिया था और अब वे देश के सुप्रीम कोर्ट में बतौर न्यायाधीश कार्यरत थे.

अतुल देव कारवां के स्‍टाफ राइटर हैं.

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