2006 में बिहार सरकार ने कृषि क्षेत्र को नियंत्रण मुक्त कर दिया और खाद्यान्न खरीद पर सरकारी निगरानी को हटा दिया. पहले खाद्यान्न खरीद का अधिकांश हिस्सा कृषि उपज मंडी समिति के माध्यम से होता था, जो राज्य सरकार द्वारा संचालित एक विपणन बोर्ड होता था जो मंडियां लगाता जहां किसान तय किए हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अपनी उपज सीधे भारतीय खाद्य निगम या राज्य कृषि निगम को बेच सकते थे. एमएसपी किसानों को बाजार में उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए सरकार द्वारा दी जाने वाली कीमत है. 2006 में बिहार इस प्रणाली की जगह पंचायत स्तर की सोसायटियों की प्राथमिक कृषि साख सोसायटियों या पीएसीएस को ले आया जो खाद्यान्न खरीद में एक बिचौलिए के रूप में काम करते हैं. पीएसीएस किसानों से अनाज खरीदते हैं और इसे एफसीआई, एसएफसी या निजी थोक विक्रेताओं को बेचते हैं. हाल के तीन कृषि कानून से वही स्थिति हो जाएगी जो बिहार की 2006 के बाद हुई है. वास्तव में राज्य एमएसपी पर किसानों से सीधे अतिरिक्त अनाज खरीदने का बोझ नहीं उठा सकता है. इन कानूनों के पारित होने के बाद भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं ने कहा कि बिहार में पीएसीएस के प्रयोग ने किसानों को आर्थिक स्वतंत्रता दी और उनकी आमदनी बढ़ाई है. बिहार में मैंने जिन किसानों और पीएसीएस के अध्यक्षों से बात की उनमें से ज्यादातर ने मुझे बताया कि गेहूं और धान के किसानों की आय उससे बहुत कम हो गई है जितनी एपीएमसी प्रणाली के तहत हुआ करती थी. निजी मिलों के शामिल होने, किसानों को समय पर भुगतान कर पाने में सरकारी संस्थाओं की अक्षमता और राज्य एजेंसियों की खराब योजना के चलते ऐसा हुआ है.
कृषि कानूनों के खिलाफ हालिया विरोध प्रदर्शन के दौरान बीजेपी के नेता अक्सर बिहार के कृषि क्षेत्र को ऐसी सफलता की कहानी के तौर पर पेश करते रहे हैं जिसका देश भर में पालन होना चाहिए. 13 दिसंबर 2019 को बीजेपी ने पटना के भक्तिपुर इलाके में किसान चौपाल का आयोजन किया ताकि किसानों को आश्वासन दिया जा सके कि तीन नए कानून उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. कृषि पर केंद्रित क्षेत्रीय पत्रिका कृषि जागरण ने राज्य के बीजेपी प्रमुख संजय जायसवाल को उद्धृत किया है. सम्मेलन के दौरान उन्होंने कहा, "किसानों को भरमाने वाले किसानों को अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं." इसके अलावा, पत्रिका ने केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को भी उद्धृत किया. उन्होंने किसानों को आश्वासन दिया कि "नए कानूनों के तहत एमएसपी जारी रहेगी और इसलिए मंडी प्रणाली भी जारी रहेगी." उन्होंने कहा कि नए कानूनों "का उद्देश्य किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए उन्हें बिचौलियों के बिना अपने कृषि उत्पादों की बिक्री का प्रत्यक्ष लाभ प्रदान करना” है. दोनों वक्ताओं ने कहा कि एपीएमसी के 2006 के निरस्तीकरण के बाद बिहार का कृषि ट्रैक रिकॉर्ड यही साबित करता है. डेक्कन हेराल्ड ने प्रसाद के हवाले से बताया, "कानून किसानों को अपनी उपज या तो मंडी या पीएसीएस में या मंडी, पीएसीएस या व्यापर मंडल के दायरे से बाहर बेचने का मौका देता है ... मैं बस यह पूछना चाहता हूं कि किसानों को ऐसी स्वतंत्रता या मौका दिया जाए या नहीं.”
पीएसीएस में प्रसाद और जायसवाल के भरोसे के उलट राज्य में किसानों और पीएसीएस के अध्यक्षों ने मुझे बताया कि इस प्रणाली में कई बड़ी खामियां हैं और अक्सर किसानों को संकट के वक्त बहुत ही कम कीमतों पर बिक्री करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. "स्वतंत्रता" के उलट प्रसाद ने प्रणाली को लेकर दावा किया कि किसानों को अक्सर लगता था कि उनके उत्पाद की कीमतें सरकारी मशीनरी पर निर्भर थीं जो धीमी तथा भ्रष्ट थीं और अक्सर उन्हें राज्य के एमएसपी से नीचे अपनी उपज बेचने के लिए मजबूर किया जाता था. नई प्रणाली में मिल मालिकों, स्थानीय व्यापारियों और पीएसीएस अध्यक्षों सहित नए बिचौलिए भी हैं जिनमें से कुछ के बारे में किसानों का मानना है कि वे भ्रष्ट हैं.
एपीएमसी प्रणाली के तहत किसान मामूली शुल्क के लिए स्थानीय मंडी में जगह के लिए आवेदन कर सकते थे. यहां वे एफसीआई और एसएफसी जैसी सरकारी एजेंसियों को या सीधे थोक विक्रेताओं को उपज बेच सकते थे. इन मंडियों को राज्य सरकार द्वारा चलाया जाता था और एक बाजार समिति द्वारा प्रबंधित किया जाता था जिनमें से कुछ स्थानीय रूप से चुने जाते और अन्य को राज्य सरकार द्वारा नामित किया जाता था. खरीदारों को एपीएमसी मंडी में पंजीकृत होना होता जिसका अर्थ था कि सरकार एमएसपी को सख्ती से लागू कर सकती है. मंडी में जगह के लिए आवेदन करने में किसी भी दस्तावेज की आवश्यकता नहीं थी. इससे कई ऐसे किसानों को मदद मिली जिनके पास अक्सर जमीन के पंजीकृत दस्तावेज नहीं होते या जिनके पास अनधिकृत रूप से पट्टे पर ली गई जमीन होती थी. एपीएमसी नमी सोख चुके धान और गेहूं के भंडारण और सुखाने के लिए जगह थी, जिससे यह सुनिश्चित होता था कि किसान अपनी उपज बेचने में देरी कर सकते हैं और अच्छी कीमत पर उसे बेच सकते हैं. कई किसानों ने मुझे बताया कि मंडियों में उन्हें उसी दिन भुगतान किया जाता था जिस दिन उन्होंने अपनी उपज बेची थी.
पीएसीएस प्रणाली ने राज्य में पंचायत स्तर पर 8463 सोसायटियों का निर्माण किया जो किसानों से अनाज खरीदते, इसे एक निजी मिल में भेजते थे, फिर इसे थोक विक्रेताओं या राज्य एजेंसियों को बेचते थे. इन सोसायटियों का प्रबंधन उनके सदस्यों में से चुना जाता है. पीएसीएस में पंजीकरण के लिए भूमि और पहचान दस्तावेजों की आवश्यकता होती है, जिसके चलते अक्सर सीमांत किसानों के लिए या जो लोग अनौपचारिक तौर पर पट्टे की जमीन लेते हैं, उन्हें व्यवस्था से बाहर रखा जाता. प्रत्येक पीएसीएस के पास अपनी खुद की निधियों का भी अभाव होता है और यह एसएफसी को हुई बिक्री से प्राप्त धन पर निर्भर करता है, जिसका अर्थ है कि किसानों को तब तक भुगतान नहीं किया जाता जब तक कि एसएफसी पीएसीएस के खाते में राशि नहीं डालता, जो कि अगले फसल सत्र की शुरुआत के बाद ही होता है. प्रणाली की जटिलता और इसकी कड़ियों में अनियमितता के कारण कई किसान पीएसीएस में अपनी उपज बेचने में असमर्थ हैं. यह पूरी प्रक्रिया किसानों को उनकी अगली फसल के लिए आवश्यक बीज, उर्वरक और कीटनाशक खरीदने के लिए एमएसपी से नीचे की कीमतों पर बिक्री करने के लिए मजबूर करती है. पीएसीएस के अध्यक्षों ने मुझे यह भी बताया कि पीएसीएस से थोड़ी-बहुत आय होती उसे भी अक्सर निजी मिल उच्च प्रसंस्करण शुल्क के नाम पर हड़प लेती हैं. कुछ मिलें अनाज की मात्रा में हेर-फेर करने की कोशिश करतीं जिसे वापस कर दिया जात. यह पीएसीएस के लिए लंबी कानूनी लड़ाई बन जाती है जिसके चलते किसानों को भुगतान में देरी होती है. पीएसीएस अपने सदस्यों को खाद और बीज वितरित करता है. हालांकि जिन भी किसानों से मैंने बात की उनमे से ज्यादातर किसानों ने बताया कि ऐसा शायद ही कभी हुआ. अन्य राज्यों में जहां पीएसीएस लागू है, उनके द्वारा अक्सर खाद और बीज उपलब्ध कराए जाते हैं. पीएसीएस भी विशेषज्ञों को काम पर रखने के द्वारा नई खेती की तकनीकों के बारे में जागरूकता बढ़ाने वाला है, हालांकि किसानों ने मुझे बताया कि यह बिहार में कभी नहीं हुआ.
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