“आप लोगों को यहां लहसुन का क्या भाव मिलता है?” राहुल गांधी ने 24 अक्टूबर को राजस्थान के झालावाड़ जिले में एक जन सभा में उपस्थित लोगों से सवाल किया. जनता के शोर के बीच दो उंगलियों को हवा में दिखाते हुए गांधी ने कहा, “दो रुपया”. फिर गांधी ने कहा, "किसानों को पानी नहीं मिलता, बिजली नहीं मिलती और फसल की सही कीमत नहीं मिलती. उन्हें बीमा का पैसा देना पड़ता है. वे अपना पैसा वसूल नहीं कर पाते." कांग्रेस अध्यक्ष की बातें कृषि संकट का सामना कर रहे राज्य के लहसुन किसानों के लिए एकदम सच है. यहां का किसान पिछले साल से उपज की बाजार कीमत में गिरावट को झेल रहा है. राजस्थान के बूंदी जिले के चंदाना गांव के किसान बाबू लाल ने मुझे बताया, “लहसुन का जो पैसा मुझे मिल रहा है वह बीज, बुवाई, मजदूरी और अन्य खर्चों के लिए भी पर्याप्त नहीं है.
अक्टूबर और नवंबर में मैंने राजस्थान के दो कृषि क्षेत्रों की यात्रा की. दक्षिण पूर्व में कोटा के हड़ौती क्षेत्र और उत्तर के बीकानेर संभाग के चुरू और हनुमानगढ़ जिलों की यात्रा की. इन सभी जिलों में मैंने पाया कि कृषि संकट ने न सिर्फ लहसुन की कीमत को गिराया है बल्कि संकट का असर दूसरी फसलों पर भी पड़ा है. मैंने पाया कि राज्य की नीति कृषि को मदद करने के लिए पर्याप्त नहीं है और सरकार ने अपने चुनावी वादे पूरे नहीं किए हैं. राज्य में 7 दिसंबर को विधानसभा चुनाव होने हैं और भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के चुनाव प्रचार में इन मुद्दों का बहुत महत्व है.
कोटा के बाहरी इलाके में स्थित उपज मंडी में हजारों बोरे लहसुन के रखे हुए थे और किसान ट्रकों से बोरे निकाल के बाहर रख रहे थे. लहसुन राजस्थानी खाने का महत्वपूर्ण हिस्सा है. बाबू लाल लहसुन के 40 बोरे लेकर मंडी पहुंचे हैं जिसे उन्होंने ने दो बीघा जमीन पर बोया था. प्रत्येक बोरे में 50 किलो फसल है. यदि बाबू लाल अपने लहसुन को 10 रुपए प्रति किलो की दर से बेच पाते हैं तो उनको अपनी लागत मिल जाएगी लेकिन वो बताते हैं कि उन्हें 5 रुपए प्रति किलो से अधिक मिलने की आशा नहीं है. उन्होंने बताया कि उन्होंने फसल उगाने में 20 हजार रुपए खर्च किए हैं.
सबसे कम स्तर के लहसुन की कीमत 5 रुपए प्रति किलो होती है और सबसे अच्छी गुणवत्ता वाला मुट्ठी के आकार और महक वाला लहसुन 30 रुपए प्रति किलो में बिकता है. छोटे किसानों को आमतौर पर 10000 रुपए मिलते हैं जिसमें से उन्हें ढुलाई और मजदूरी का भुगतान करना पड़ता है क्योंकि बहुत कम किसान के लिए ज्यादा पानी की खपत वाले उच्च गुणवत्ता लहसुन का उत्पादन करना मुमकिन है. कोटा मंडी में कृषि कंपनी मारूति ट्रेडिंग कंपनी में काम करने वाले नरेश अग्रवाल ने बताया, “रोजाना आने वाले लगभग 7 हजार बोरों में केवल 50 से 100 बोरे ही 30 रुपए प्रति किलो हासिल कर पाते हैं. “बाकि का 7 से 15 रुपए प्रति किलो की औसत दर से बिकता है.”
राज्य के कृषि विभाग के 2017-18 के आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार हड़ौती में राज्य का 82 प्रतिशत लहसुन उत्पादन हुआ था जो 755350 टन था. हड़ौती में चार जिले आते हैं कोटा, बूंदी, बारां और झालावाड़. इन जिलों से 200 सदस्यीय राज्य विधानसभा के 17 विधायक आते हैं. हड़ौती को बीजेपी का गढ़ माना जाता है. 2013 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने यहां की 16 सीटें जीती थीं. यहीं मुख्यमंत्री राजे सिंधिया झालावाड़ की झालरापाटन विधानसभा सीट लगातार तीन बार जीती है.
तीन दशकों से किसानों के बीच काम कर रहे हड़ौती किसान यूनियन के महासचिव दशरत कुमार ने लहसुन की कीमत में गिरावट को समझाया. कोटा मंडी में मुझे कुमार ने बताया, “कुछ साल पहले लहसुन की फसल का कुल क्षेत्र और उत्पाद काफी कम था इसलिए कीमत ज्यादा थी.” अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अधिक मांग और परिणामस्वरूप कीमतों में बढ़ोतरी ने किसानों को पैदावार बढ़ाने को प्रेरित किया और सरकार ने प्रोत्साहन दिया." उन्होंने कहा कि बड़ी पैदावार ने कीमतों को गिरा दिया. 2016 में लहसुन से किसानों को प्रति बीघा 25 हजार रुपए मिल रहा था जो चावल, गेहूं, या सोयाबीन जैसी पारंपरिक फसल उगाने से अधिक लाभदायक था.
राज्य के कृषि विभाग द्वारा जारी आंकड़े इस दावे की पुष्टि करते हैं. 2013-14 में, हड़ौती में 29015 हेक्टेयर में लहसुन लगाया गया, जो 2017-18 में 327 प्रतिशत बढ़कर 95044 हेक्टेयर हो गया था, जिसके चलते उत्पादन में 467 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई यानी 132601 से 619948 टन.
कोटा मंडी के सांख्यिकी विभाग के आंकड़े उत्पादन में वृद्धि और कीमतों गिरावट को दिखाते हैं. दिसंबर 2016 में, लहसुन 8800 रुपए प्रति क्विंटल या 88 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिक रहा था. जून 2017 तक कीमत 22 रुपए और अगस्त 2018 तक गिरकर 13.5 रुपए प्रति किलोग्राम हो गई थी.
गिरती कीमतों के चलते, अप्रैल 2018 में, राजस्थान सरकार ने घोषणा की कि राजस्थान राज्य सहकारी क्रय विक्रय संघ या राजफैड, केंद्र सरकार की बाजार हस्तक्षेप योजना के तहत लहसुन की खरीद करेगा. बाजार हस्तक्षेप योजना कृषि उत्पादों की खरीद के लिए एक समर्थन योजना है जिसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं है. राजफैड ने किसानों से 3257 रुपए प्रति क्विंटल की निश्चित कीमत पर 15 लाख टन लहसुन खरीदने का प्रस्ताव रखा, लेकिन यह केवल 25 मिलिमीटर से अधिक बड़े लहसुन के लिए लागू था.
हड़ौती के किसानों के बीच काम कर रहे संगठनों का संघ संयुक्त किसान यूनियन के संयोजक पन्नालाल मीणा ने बताया कि निर्देशों से साफ पता चलता है कि सरकार किसानों की उपज को खरीदने के लिए गंभीर नहीं थी. मीणा पूछते हैं, “कोई भी निश्चित आकार और विशेषता वाले लहसुन पैदा कर सकता है.” इसके अलावा, 12 मई तक, राजफैड ने केवल 1482 टन लहसुन खरीदा था- जो उसके वादा का 1 प्रतिशत भी नहीं था.
राजस्थान में लहसुन का बेतहाशा उत्पादन और साथ ही इसकी कीमत में गिरावट और सरकार का किसानों को पर्याप्त रूप से क्षतिपूर्ति ना कर पाने के चलते राजस्थान में बहुत से किसानों ने आत्महत्या की. इस साल अप्रैल और मई के बीच 5 किसानों ने आत्महत्या कर ली. हालांकि सरकार यह दावा कर रही है ये आत्महत्याएं लहसुन की कीमत में आई कमी के चलते नहीं हुई हैं. राजस्थान के गृहमंत्री गुलाब चन्द कटारिया ने अप्रैल में मीडिया को संबोधित करते हुए कहा था कि 2013 में बीजेपी की सरकार बनने के बाद मात्र 3 किसानों ने राज्य में आत्महत्या की हैं. कटारिया कांग्रेस के उस आरोप का जवाब दे रहे थे जिसमें पार्टी ने कहा था कि बीजेपी के शासन में किसानों ने आत्महत्या की है. दूसरी ओर मीणा का दावा है कि यह संख्या 150 से 200 के बीच है.
कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया है कि सत्ता में आने के 10 दिन के भीतर वह कृषि ऋण माफ करेगी. उसने यह भी वादा किया है कि वह प्याज, लहसुन, ग्वार और कपास के निर्यात को प्रोत्साहन देगी. राजस्थान राज्य बीज सहकारिता के पूर्व प्रमुख और कांग्रेस नेता धर्मेंद्र राठौड़ ने बताया कि राजस्थान का किसान पिछले 5 वर्षों से नाखुश है और तीन सालों से सिकार, हनुमानगढ़ और जयपुर में आंदोलन कर रहा है. वे कहते हैं कि यदि बीजेपी किसानों के लिए काम करती तो ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होती.
लेकिन बीजेपी के राज्य के उपाध्यक्ष सुनील कोठारी का कहना है कि हमने राजस्थान और राष्ट्रीय, दोनों स्तर पर किसानों के लिए बहुत कुछ किया है. जब मैंने उनसे लहसुन की खरीद के लिए सरकार के कमजोर प्रयासों की बारे में पूछा तो उनका कहना था, "यह स्थानीय मामलों के चलते हुआ होगा लेकिन राजस्थान के दूसरे भागों से ऐसी रिपोर्ट नहीं आ रही हैं."
कांग्रेस के घोषणा पत्र में ग्वार का उल्लेख इसलिए है कि ग्वार किसानों ने भी लहसुन किसानों की तरह एक वक्त कीमतों में चढ़ाव और फिर उतार को झेला है. देश का सबसे अधिक ग्वार राजस्थान में होता है जो देश के कुल उत्पाद का 70 प्रतिशत है. यह पशु भोजन भी है.
2012 में ग्वार की मांग में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई थी जिसके चलते मार्च महीने में उसकी कीमत रिकॉर्ड ऊंचाई 30432 रुपए प्रति क्विंटल हो गई थी. कीमत में बढ़ोतरी का मुख्य कारण शेल (भूसी) तेल उत्पादन में बढ़ोतरी थी. अमेरिका में पारंपरिक कच्चे तेल के विकल्प के रूप में शेल तेल का प्रयोग किया जाता है. ग्वार से निकलने वाली गोंद को तेल और गैस निकालने की प्रक्रिया में इस्तेमाल किया जाता है. परिणामस्वरूप 2012-13 में ग्वार का निर्यात 3.9 अरब डॉलर पहुंच गया. उस पर तेल की वैश्विक कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल थी. कच्चे तेल की बढ़ी हुई कीमत ने सस्ते ऊर्जा स्रोत जैसे कि शेल गैस में निवेश को बढ़ावा दिया. लेकिन जनवरी 2016 में कच्चे तेल की कीमत गिरकर 36 डॉलर प्रति बैरल रह गई और यह शेल से भी सस्ता हो गया. इसके बाद 30 नवंबर 2018 तक ग्वार की कीमत गिरकर 3967 रुपए प्रति क्विंटल रह गई और निर्यात भी 2018 में घटकर 64.69 करोड़ डॉलर हो गया.
राजस्थान का चुरू क्षेत्र ग्वार फसल की पैदावार के लिए उपयुक्त माना जाता है. ग्वार को किसानी से जो क्षणिक समृद्धि क्षेत्र में आई वह यहां प्रवेश करते ही दिखने लगती है. यहां के रहने वालों ने बड़े बड़े मकान बना लिए हैं, एसयूवी, ट्रैक्टर और पशुधन खरीदे हैं. बस मूंदी गांव के पूर्व सरपंच उमेश पुनिया कहते हैं, "उस थोड़े समय के लिए जब ग्वार की फसल सोना थी, समृद्धि आई थी."
जब मैंने उनसे पूछा कि ग्वार की कीमत क्यों गिर गई तो उनका कहना था कि वे इसका कारण तो नहीं जानते हैं लेकिन उन्होंने कुछ न करने के लिए बीजेपी को दोष दिया. वह कहते हैं, "यह बीजेपी सरकार पूंजीवादियों और व्यापारियों की सरकार है, यह किसानों की सरकार नहीं है." इस साल सितंबर में राजस्थान की मुख्यमंत्री ने एक करोड़ परिवारों को निशुल्क मोबाइल फोन देने की घोषणा की थी. इस योजना के बारे में पुनिया कहते हैं, "उन्हें फसलों की कीमत बढ़ाने के लिए कुछ करना चाहिए न कि फ्री में मोबाइल देना चाहिए." कोठारी कहते हैं कि बीजेपी मार्केट निवेश योजना के अंतर्गत तय कीमत पर ग्वार की फसल खरीद रही है लेकिन हाड़ौती किसान यूनियन के महासचिव इस दावे को अस्वीकार करते हैं.
राजस्थान के किसानों को अन्य फसलों की कीमत में आई गिरावट को भी झेलना पड़ रहा है. चुरू जिले के अमरपुर गांव के निवासी दिनेश कुमार बताते हैं कि 2016 में मूंग दाल की बाजार कीमत 8700 रुपए प्रति क्विंटल थी जो 2018 में गिरकर 4000 रुपए प्रति क्विंटल रह गई है. इसी तरह उन्होंने बताया कि बाजरा भी 15 सौ रुपए प्रति क्विंटल से गिरकर इसी अवधि में 13 सौ रुपए प्रति क्विंटल रह गया.
हालांकि सरकार मूंग दाल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 6975 रुपए प्रति क्विंटल और बाजरा के लिए 1950 रुपए प्रति क्विंटल प्रस्ताव किया है लेकिन दिनेश कहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल को बेचना बहुत "जटिल और भ्रष्टाचार से भरी" प्रक्रिया है. राज्य सरकार की कर्णधार योजना भामाशाह का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं, "भामाशाह प्लेटफार्म से ऑनलाइन टोकन लेना होता है. राजगढ़ तहसील में मूंग के लिए 55000 टोकन थे. किसानों को महज 112 टोकन मिले और बाकी के टोकन व्यापारियों ने ले लिए. वे बताते हैं कि ये व्यापारी किसानों से बाजार मूल्य पर फसल खरीदते हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम है और बाद में इसे न्यूनतम समर्थन मूल्य में सरकार को बेच देते हैं. इस तरह वे किसान की कीमत पर कमाई करते हैं."
गोरक्षकों द्वारा पशु धन व्यापार को नष्ट करने के चलते भी किसान परेशान हैं और वे आवारा गायों के इधर उधर घूमने की शिकायत करते हैं. चूरू में मैंने पाया कि खेतों को पशुओं से बचाने के लिए बाड़े लगाए गए हैं. चूरू के तारानगर के निवासी होशियार सिंह बताते हैं कि किसानों को गायों को अपने खेतों को चरने से रोकने के लिए रात भर लाठियों के साथ खेतों में पहरा देना पड़ रहा है. "यह सब तब से शुरू हुआ है जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं." सिंह ने यह भी बताया कि वह कांग्रेस के उम्मीदवार कृष्णा पुनिया का समर्थन कर रहे हैं जो चूरू के निर्वाचन क्षेत्र सादुलपुर से चुनाव लड़ रहे हैं.