16 दिसंबर को सर्वोच्च अदालत ने तीन कृषि कानूनों के खिलाफ जारी गतिरोध को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों वाली एक समिति प्रस्तावित की. उसी दिन एक अंतरिम आदेश में अदालत में आठ किसान नेताओं को उस याचिका के खिलाफ प्रतिवादी बनाए जाने की इजाजत दी, जिसमें दिल्ली बॉर्डर में जमा किसानों को वहां से हटाने की मांग की गई थी. हालांकि आधिकारिक रूप से ऐसा नहीं किया गया है लेकिन संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि ये आठ नाम केंद्र सरकार ने सुझाए हैं.
हैरान करने वाली बात है कि सूची में भारतीय किसान यूनियन (एकता उगराहां) के नेता जोगिंदर सिंह उगराहां का नाम नहीं है जबकि वह जारी आंदोलन के प्रमुख नेता हैं.
दिल्ली हरियाणा बॉर्डर पर जारी आंदोलन में उगराहां के नेतृत्व में एक लाख से अधिक किसानों आंदोलित हैं. केंद्र सरकार ने इससे पहले 28 नवंबर की बैठक में केवल उगराहां को बुलाया था लेकिन उन्होंने बैठक में भाग लेने से यह कह कर इनकार कर दिया था कि सभी नेताओं को बैठक में बुलाना चाहिए और सरकार को किसानों को बांटने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. इसके बाद सरकार उगराहां को अलग-थलग करने के प्रयास में जुट गई. 8 दिसंबर को जब गृहमंत्री अमित शाह ने अनौपचारिक बैठक के लिए किसानों के प्रतिनिधिमंडल को निमंत्रण दिया तो उसमें उगराहां को शामिल नहीं किया गया. लेकिन बैठक बेनतीजा रही.
16 दिसंबर को मैंने उगराहां से बात की. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश केंद्र सरकार की मंशा के अनुरूप एक न्यायिक दखल है ताकि “लोकतंत्र की हत्या हो जाए.” उन्होंने आगे कहा, “जब भी कोई जन आंदोलन होता है, तो सरकार अदालत की तरफ देखने लगती हैं. मुझे लगता है कि ऐसा करना जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है. अदालत को आंदोलनरत लोग दिख रहे हैं. इनमें औरतें और बच्चे भी हैं जो शीत लहर के बावजूद अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन कर रहे हैं. न्यायपालिका को पता है कि इस देश का किसान घनघोर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है.”
जिन आठ किसान नेताओं के नाम अदालत ने मंजूर किए हैं वे भारतीय किसान यूनियन के अलग-अलग धड़े के हैं. इस सूची में जिन नेताओं के नाम हैं वे हैं, राकेश टिकैत (बीकेयू टिकैट), जगजीत सिंह दल्लेवाल (बीकेयू सिधूपुर), बलवीर सिंह राजेवाल (बीकेयू राजेवाल), हरिंदर सिंह लाखोवाल (बीकेयू लाखोवाल), बूटा सिंह बुर्जगिल (बीकेयू दकौंदा), मनजीत सिंह राय (बीकेयू दोअबा) कुलवंत सिंह सिंधू (जमहूरी किसान सभा) और प्रेम सिंह भंगू (कुल हिंद किसान फेडरेशन).
किसान यूनियनों ने अभी तक इस याचिका में प्रतिवादी बनना स्वीकार नहीं किया है. 16 दिसंबर को पंजाब के 30 प्रमुख किसान संगठनों के नेतृत्व ने सिंघू बॉर्डर के सामने जमा होकर प्रतिबद्धता व्यक्त की कि वे कोर्ट केस में प्रतिवादी नहीं बनेंगे. इन 30 संगठनों में वे आठ नेता और उनके संगठन भी हैं जिनके नाम कोर्ट ने मंजूर किए हैं. यह निर्णय 40 सदस्य संयुक्त किसान मोर्चा की 16 दिसंबर की बैठक में लिया गया. संयुक्त किसान मोर्चा किसानों का राष्ट्रीय संगठन है जिसमें 40 किसान संगठन शामिल है और इसमें 30 पंजाब के किसान यूनियन और 10 पंजाब से बाहर की यूनियनें हैं जो हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल की हैं.
40 सदस्यीय समूह के एक प्रमुख सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर मुझसे कहा कि अदालत में दायर याचिका में प्रतिवादी बनाना एक तरह का जाल था और हमने इस जाल में न फंसने का निर्णय किया. कई अन्य किसान नेताओं ने भी कोर्ट की कार्यवाही को सरकार का जाल बताया. उनका कहना था कि यह उनको वार्ता में लाने का एक तरीका था ताकि प्रमुख मांगों से समझौता करवाया जा सके जबकि उनकी मांग तीनों कानूनों को खारिज करने की है.
संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक के बाद मीडिया से बात करते हुए बलवीर सिंह राजेवाल ने बहुत तोल तोल कर बात रखी. वह कोर्ट द्वारा मंजूर आठ नेताओं में से एक हैं. उन्होंने बताया कि कोर्ट के मामले में कोई भी निर्णय वकीलों से पूछ कर लिया जाएगा. उन्होंने बताया कि किसानों ने चार वकीलों के नाम शॉर्टलिस्ट किए हैं जिनसे वे सुझाव लेंगे. उन्होंने बताया कि वे वकील प्रशांत भूषण, कोलिन गोंजाल्विस, एचएस फुल्का और दुष्यंत दवे हैं.
मैंने सरकार से बातचीत करने वाले प्रमुख नेताओं में से एक क्रांतिकारी किसान यूनियन के दर्शन पाल से भी बात की. अदालत की याचिका के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, “ऐसा लगता है कि यह हमारे साथ बातचीत की विफलता के बाद सरकार का कोई नया खेल है.” पाल भी अदालत द्वारा प्रस्तावित आठ नामों की सूची में शामिल नहीं है. 3 दिसंबर के बाद से केंद्र सरकार ने दिल्ली के विज्ञान भवन में किसान संघों के प्रतिनिधियों के साथ कई दौर की बातचीत की है. ये वार्ता विफल हो गई हैं. किसान नेता तीनों कानूनों को पूरी तरह से रद्द करने की मांग पर अड़े हैं.
17 दिसंबर को सभी किसान संघों के नेतृत्व द्वारा अदालत के मुकदमे में शामिल होने से इनकार कर देने के एक दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय ने दूसरा अंतरिम आदेश जारी किया. अदालत ने कहा, “प्रदर्शनकारियों और भारत सरकार के बीच चल रहे गतिरोध के प्रभावी समाधान के लिए हम कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों सहित स्वतंत्र और निष्पक्ष व्यक्तियों की एक समिति का गठन करने को न्याय प्रक्रिया के लिए वाजिब मानते हैं क्योंकि समाधान सभी सरोकारवाले पक्षों को सुने बिना संभव नहीं है. जब तक पक्ष हमारे सामने नहीं आते, तब तक सभी पक्षों से समिति के गठन के बारे में सुझाव प्राप्त करना उचित होगा जो मामले की अगली सुनवाई में उनके द्वारा प्रस्तुत की जा सकते हैं."
17 दिसंबर के अपने आदेश में अदालत ने कहा है, “हम स्पष्ट करते हैं कि यह न्यायालय विरोध में हस्तक्षेप नहीं करेगी. विरोध करने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और सर्वजनिक शांति को भंग किए बिना इसका इस्तेमाल किया जा सकता है.”
कार्यवाही के दौरान अदालत ने सरकार के स्थायी काउंसिल से जानना चाहा कि क्या केंद्र सरकार यह वचन दे सकती है कि जब तक अदालत किसानों के विरोध को हटाने की याचिका पर सुनवाई पूरी नहीं कर लेती वह विवादास्पद कृषि कानूनों को लागू नहीं करेगी. जब भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से पूछा कि क्या केंद्र सरकार आश्वासन दे सकती है कि कानूनों के तहत कोई कार्यकारी कार्रवाई नहीं की जाएगी, तब वेणुगोपाल ने जवाब दिया कि वह "सरकार से निर्देश प्राप्त करने के बाद ही कुछ बता पाएंगे." महाधिवक्ता तुषार मेहता ने कहा, "यह मुश्किल होगा."
सितंबर के बाद से केंद्र सरकार के कृषि कानूनों को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में तीन याचिकाएं दायर की गई हैं. आंदोलित किसानों को हटाने के लिए शर्मा की याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने इन याचिकाओं का उल्लेख तो किया लेकिन यह नहीं बताया कि उनकी सुनवाई कब होगी. तीन कृषि कानूनों का उल्लेख करते हुए न्यायालय ने कहा, “इन कानूनों को चुनौती देने वाली जो याचिकाएं इस न्यायालय में दायर की गई हैं उन पर उचित समय पर फैसला किया जाएगा." अक्टूबर में अदालत ने अटॉर्नी जनरल से छह सप्ताह के भीतर याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने को कहा था.
अदालत के विरोध प्रदर्शनों को रोकने में हस्तक्षेप नहीं करने की बात पर टिकरी और सिंघू पर जमा सीमाओं पर किसानों का नेतृत्व उत्साहित हो उठा.18 दिसंबर को उगराहां ने सिंघू बॉर्डर पर आंदोलन शुरू होने के बाद से ही सरकार के दोहरे चरित्र की और इशारा करते हुए मीडिया से कहा, “दोषपूर्ण कानूनों को लोगों पर थोपना सही नहीं है. सरकार किसानों के ऐसे संगठनों को सामने ला रही है जिनके बारे में कभी नहीं सुना और यह बताने की कोशिश की जा रही है कि किसान कृषि कानूनों के समर्थन में हैं." उन्होंने आगे कहा, “एक ओर वे कानूनों में संशोधन करने की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर वे लोगों को बता रहे हैं कि कानून सही हैं. जब तक सरकार इन कृषि कानूनों को खत्म नहीं करेगी तब तक हम दिल्ली नहीं छोड़ेंगे.”