8 दिसंबर को सेवानिवृत्त इंजीनियर सुमन मलिक हरियाणा और दिल्ली के बीच सिंघु बॉर्डर पर चल रहे किसानों के आंदोलन में शामिल थे. वह 70 के आस-पास की उम्र में सांस की समस्या से पीड़ित है. कोविड-19 लॉकडाउन के लागू होने के बाद से उन्होंने खुद को घर के भीतर ही रखा था लेकिन किसानों का आंदोलन शुरू होने के बाद, वह उसमें शामिल होने से खुद को रोक नहीं पाए.
मलिक ने दक्षिण-पश्चिम दिल्ली से सिंघू बॉर्डर तक लगभग 35 किलोमीटर की दूरी तय की. मैंने मलिक से पूछा कि उन्होंने अपने स्वास्थ्य को जोखिम में क्यों डाला तो उन्होंने कहा, "सरकार और मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा आंदोलनकारी किसानों को खालिस्तानी और राजनीतिक रूप से प्रेरित कहने से मैं आहत था. किसानों के साथ जिस प्रकार का सरकार का व्यवहार रहा है, यह देखकर मुझे बहुत दुख हुआ. इसलिए मैंने किसानों की सभा में शामिल होने और अपनी उपस्थिति से उनकी संख्या बढ़ाने का फैसला किया."
उत्तराखंड के लगभग 50 साल के रमेश मुमुक्षु अस्थमा से पीड़ित हैं लेकिन वह भी 8 दिसंबर को सिंघू बॉर्डर पर थे. मुमुक्षु गांधी शांति प्रतिष्ठान के उत्तराखंड केंद्र के अध्यक्ष हैं. इस संगठन का उद्देश्य है गांधी के शिक्षा और अभ्यास पर अध्ययन और अनुसंधान करना. उन्होंने मुझे बताया, "मैं यहां आंदोलनकारी किसानों का एक हिस्सा बनकर आया हूं. उत्तराखंड के किसानों की हालत कमजोर है और वहां बुनियादी सुविधाओं की कमी है और प्राकृतिक जल संसाधन तेजी से घट रहे हैं. किसान के लिए आजीविका अर्जित करना और ऐसी दयनीय स्थिति में केवल कृषि पर निर्भर रहना संभव नहीं है. हालांकि, मैं बचपन से अस्थमा का मरीज हूं, फिर भी मैं खुद को यहां आने और उन लोगों की आवाज में आवाज मिलाने से नहीं रोक सका जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए लड़ रहे हैं. वे जीतने के लिए पूरी दृढ़ता के साथ आंदोलन कर रहे हैं."
26 नवंबर के बाद से हजारों किसान, मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा के किसान, हाल ही में लागू किए गए तीन विवादास्पद कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं. यह आंदोलन “दिल्ली चलो” रैली का हिस्सा है जिसमें 26 और 27 नवंबर को देश भर के किसानों को राष्ट्रीय राजधानी पहुंचने का आह्वान किया गया था. पंजाब से हरियाणा होते हुए दिल्ली की ओर आ रहे किसानों को हरियाणा और दिल्ली सीमा पर रोकने के लिए पुलिस ने विभिन्न सड़कों पर मोर्चाबंदी की और आंसू गैस और वाटर कैनन से हमला किया.
मलिक और मुमुक्षु की तरह ही कई आम लोग किसानों के समर्थन में आंदोलन में भाग ले रहे हैं. देश भर के सामुदायिक समूह, सामाजिक संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता अपनी एकजुटता जता रहे हैं. नागरिक समाज संगठनों और लोगों के समूहों द्वारा विभिन्न राज्यों में जिला और ब्लॉक स्तरों पर आंदोलन किए जा रहे हैं. यहां तक कि शिक्षकों, प्रोफेसरों और कारपोरेट पेशेवरों ने भी अपना समर्थन देना शुरू कर दिया है. वाराणसी में एक प्रोफेसर और और नागरिक समाज समूह ऑल इंडिया सेक्युलर फोरम यूपी के संयोजक मोहम्मद आरिफ को 8 दिसंबर को वाराणसी में आंदोलन करते हुए गिरफ्तार किया गया था. उन्होंने मुझसे कहा, "पूरा देश किसानों के समर्थन में है. इन बिलों को वापस लिया जाना चाहिए. अब बुद्धिजीवी, सामाजिक संगठन, राजनीतिक संगठन सभी ने किसानों से हाथ मिला लिया है और वे लोकतंत्र को बचाने के लिए दृढ़ हैं. पर्चे बांटने हो या गांवों में जुलूस और सभाएं करनी हो हम किसानों के समर्थन में अपनी पूरी ताकत लगा देंगे."
मैंने महिलाओं के संगठन ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमेन्स एसोसिएशन की उपाध्यक्ष जगमती सांगवान से बात की. उन्होंने कहा, "मेरी 35 वर्षों की सक्रियता में यह पहली बार है कि मैंने इतना व्यापक प्रतिरोध देखा है. नेतृत्व कर रहे संगठनों की संख्या और जमीनी स्तर पर इस आंदोलन को मिल रहे भारी जनसमर्थन, व्यापक जनाधार पर टिका है. हम पंजाब के किसानों की पहल, साहस और प्रतिबद्धता को सलाम करते हैं. उनके साहस के साथ-साथ उनके आचरण, अनुशासन और गरिमा ने दुनिया का दिल जीता है. कलाकारों, खेल से जुड़े लोगों और अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा दिया गया सहज समर्थन इस आंदोलन को मिल रहे समर्थन को दर्शता है."
सांगवान वॉलीबॉल खिलाड़ी भी हैं. हरियाणा सरकार द्वारा प्रदान किए गए एक खेल पुरस्कार का उल्लेख करते हुए, उन्होंने कहा, “हरियाणा की भीम अवार्डी होने के नाते, जिस तरह से राज्य से गुजरने वाले प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाया गया और हमला किया गया, उससे मैं बहुत गहराई से आहत हूं. यह सभी लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों के खिलाफ है.”
जगमती ने आगे कहा, “एक छोटे से किसान परिवार का हिस्सा होने के नाते और किसानों के बीच बढ़ती आत्महत्यों के मद्देनजर मैं कह सकती हूं कि हमारे देश का शासन कभी भी किसानों के प्रति ईमानदार नहीं रहा. महिलाओं के आंदोलन के दृष्टिकोण से भी इस विद्रोह में हमारी भूमिका हैं. भारत मे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना महिला कार्यकर्ताओं के लिए काम के प्रमुख क्षेत्रों में से एक रहा है." तीन कृषि कानूनों का उल्लेख करते हुए, उन्होंने कहा, "यह स्पष्ट है कि ये अधिनियम गरीब वर्गों और महिलाओं के साथ-साथ वंचित समुदायों के लिए भोजन को दुर्लभ बना देंगे. इन कानूनों को पूरी तरह वापस लेना ही हमारी कृषि को आगे बढ़ाने और बिकने से रोकने का एकमात्र तरीका है."
नोएडा में एमिटी विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ लेक्चरर श्रीश के. पाठक ने 7 दिसंबर को दिल्ली और उत्तर प्रदेश के गाजीपुर बॉर्डर पर किसान आंदोलन में भाग लिया. उन्होंने काम से छुट्टी ली और पूरा दिन किसानों के साथ बिताया. पाठक ने कहा, "देश के कोने-कोने से किसान अपना विरोध दर्ज कराने के लिए राजधानी पहुंच रहे हैं. इन प्रदर्शनकारियों किसानों में भारत का अंश देख जा सकता है क्योंकि लगभग सभी राज्यों के किसान राजधानी की सीमाओं पर एकत्र हैं. इसलिए यह कहा जा सकता है कि पूरे देश के किसान इन नए कानूनों को लेकर चिंतित हैं." सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि देश भर के छोटे शहरों और गांवों में भी लोग किसान आंदोलन पर चर्चा कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि किसानों का चल रहा आंदोलन जन आंदोलन बनने की राह पर है.
अखिल भारतीय कांग्रेस वर्कर्स यूनियन के दिल्ली के संयुक्त सचिव विक्रम सिंह ने मुझे बताया, "हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जिले के पालमपुर तहसील के एक दूरदराज के गांव में, सात युवा लड़के किसानों के समर्थन में हस्तलिखित तख्तियों लेकर सड़क पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. यह इस आंदोलन का प्रभाव है. बड़े जनाधार, प्रतिबद्धता, आत्मविश्वास, अपार धैर्य और शांत स्वभाव ने लोगों को आंदोलन के प्रति आकर्षित किया है. ये ऐसे लोग हैं जो समाज में व्याप्त कई मुद्दों के प्रति असंवेदनशील रहे." सिंह ने कहा कि भारत अभी भी एक कृषि प्रधान समाज है और लोगों के पास किसानों का समर्थन करने के भावनात्मक कारण भी हैं. उन्होंने कहा, "दैनिक श्रमिकों से लेकर टीवी एंकर तक सभी लोग कृषि और किसानों के मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं. कई लोग जो सत्ता पक्ष के समर्थक हैं, उन्होंने भी इस संघर्ष के प्रति सहानुभूति जताई है. जो संघर्ष सभी सामाजिक पृष्ठभूमि, धर्मों, राज्यों और राजनीतिक रंगों के लोगों को एकजुट कर रहा है वह सफल जरूर होगा."
मैंने बिहार के मुजफ्फरपुर के रहने वाले एनके शुक्ला और किसान संगठन अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव से भी बात की. शुक्ला 1970 के दशक के जयप्रकाश नारायण आंदोलन के सक्रिय सदस्य थे और उन्होंने उस समय छह महीने जेल में बिताए थे. जेपी आंदोलन बिहार में छात्रों के नेतृत्व किया गया आंदोलन था, जिसकी शुरुआत इंदिरा गांधी सरकार के दौरान कांग्रेस नेताओं द्वारा सामंती जमींदारों और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता जयप्रकाश नारायण ने की थी. नारायण ने "संपूर्ण क्रांति" का आह्वान किया था.
शुक्ला ने बताया कि वह प्रदर्शनों और बैठकों में शामिल होकर किसानों का समर्थन करते रहे हैं.
उन्होंने कहा, "मैं इस आंदोलन की दिशा देख सकता हूं क्योंकि यह जेपी मूवमेंट की तरह आगे जा सकता है. उस समय छात्रों को किसानों और समाज के अन्य वर्गों का समर्थन प्राप्त हुआ था और इस बार किसानों को छात्रों, शिक्षकों और अन्य लोगों का समर्थन मिलना शुरू हो गया है. यह अब एक जन आंदोलन का रूप ले रहा है इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यह दूसरी संपूर्ण क्रांति होगी."
अनुवाद : अंकिता