क्या किसान आंदोलन पंजाब के भूमिहीन किसानों की समस्याओं को भी उठाएगा?

15 मार्च को पंजाब के बठिंडा जिले में कृषि कानूनों के खिलाफ आयोजित एक रैली में 4500 खेत मजदूरों ने हिस्सा लिया. आभार : रणदीप मड्डोके

21 फरवरी को एक लाख से अधिक किसान और खेतिहर मजदूर 2020 के कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन के प्रति एकजुटता जाहिर करने के लिए पंजाब के बरनाला जिले में एक रैली में शामिल हुए. रैली का आयोजन भारतीय किसान यूनियन (एकता उगराहां) और पंजाब खेत मजदूर यूनियन द्वारा किया गया था. ये दोनों भूमिहीन किसानों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली और एक दूसरे के साथ मिलकर काम करने वाली सबसे बड़ी यूनियनें हैं. बीकेयू (ईयू) के अध्यक्ष जोगिंदर सिंह उग्राहां ने मौजूद जन सैलाब को संबोधित किया और खेत मजदूरों को 27 और 28 फरवरी को शक्ति प्रदर्शन के लिए दिल्ली के टीकरी बॉर्डर पर पहुंचने की अपील की. लेकिन 28 फरवरी को पीकेएमयू के कैडर टिकरी से अनुपस्थित थे और खेत मजदूरों का कोई बड़ा जमावड़ा नहीं हुआ. जब मैंने पीकेएमयू के महासचिव लक्ष्मण सिंह सीवेवाला को फोन किया, तो उन्होंने कहा कि बरनाला रैली के बाद उन्होंने उग्राहां को बता दिया था कि कि मजदूर दिल्ली पहुंचने का खर्चा नहीं उठा सकते.

विरोध प्रदर्शन के दौरान कार्यकर्ताओं और यूनियन के नेताओं ने बार-बार जोर देकर बताया कि कृषि कानून मुख्य रूप से भूमिहीन खेत मजदूरों को भी उतना ही प्रभावित करेंगे, जितना की भूस्वामी किसानों को. ऐतिहासिक रूप से सदियों से चली आ रही वर्ग और जाति की गुत्थी, जो भू​स्वामी वर्ग के हित साधती है, के चलते पंजाब में यह दोनों समुदाय अक्सर ही एक-दूसरे से विपक्ष में खड़े ​रहते आए हैं. राज्य में अधिकांश खेत मजदूर भूमिहीन हैं और उनमें से एक अच्छी खासी संख्या अनुसूचित जाति समुदाय की है. ज्यादातर अनुमानों के मुताबिक दलित समुदाय पंजाब की आबादी का लगभग 32 प्रतिशत है लेकिन उसके पास केवल 3 प्रतिशत भूमि है. जाट सिख, जिनकी आबादी लगभग 25 प्रतिशत है, बड़े पैमाने पर खेतीहर मानी जाती है. फिर भी छह महीने तक किसान आंदोलन पर रिपोर्टिंग करने के बावजूद मुझे स्पष्ट हुआ कि वे आंदोलन के पक्ष में उस हद तक नहीं शामिल होंगे जिस हद तक किसान आंदोलन में शामिल हैं. मैंने उन मुद्दों को समझने के लिए जिनका सामना भूमिहीन मजदूरों करना पड़ता है मालवा क्षेत्र का दौरा किया, जो पंजाब का आधे से अधिक क्षेत्र है और राज्य के दक्षिणी हिस्से तक फैला हुआ है. हालांकि, उनमें से कुछ कृषि कानूनों और कानून उन्हें कैसे प्रभावित करेगा, इस बारे में नहीं जानते थे लेकिन अन्य कुछ इच्छुक होने के बावजूद किसान आंदोलन में भाग लेने में असमर्थ थे. उनमें से कई ने कहा कि उनकी कमाई अनिश्चित इसलिए वे विरोध प्रदर्शन में भाग नहीं ले सकते. वहां सक्रिय जमीनी कार्यकर्ताओं ने यह भी कहा कि आंदोलन ने किसान समुदाय से जुड़े कई सवालों पर तो रोशनी डाली लेकिन नेतृत्वकारी यूनियनों ने भूमिहीन मजदूरों की परेशानियों पर ध्यान नहीं दिया. वास्तव में, आंदोलन के बारे में फैसला लेने की प्रक्रिया में कोई मजदूर संगठन शामिल नहीं है. सीवेवाला और साथ ही अन्य कार्यकर्ताओं ने जोर देकर कहा कि इसका दायित्व जमींदार किसानों के साथ-साथ किसान यूनियनों पर भी है कि वह मजदूरों तक पहुंचे.

मार्च के पहले सप्ताह में मैं मुक्तसर जिले के एक गांव खुंडे हलाल में एक छोटी सिंचाई नहर के किनारे जंगली झाड़ियों को साफ करने के लिए फावड़े लेकर जा रही दो दर्जन औरतों से मिला. उनमें से लगभग कोई भी नए कृषि कानूनों को नहीं समझती थी. रोजमर्रे की कठिनाइयों पर ही उनका ज्यादा ध्यान था. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005, योजना के तहत भुगतान जैसी समस्याएं उनके प्राथमिक मुद्दे थे. “हमें नरेगा के तहत किए काम के लिए पिछले कई महीनों से कोई पैसा नहीं मिला है,” लगभग साठ साल की भजन कौर ने मुझे बताया .भजन बरनाला रैली में गई ​थीं.

मैंने भजन से पूछा कि वह मजदूर-किसान एक्का के बारे में क्या सोचती हैं तो उन्होंने कहा, "हम किसानों के साथ चलेंगे और बदले में हम उनसे उम्मीद करेंगे कि वे हमारे साथ दुर्व्यवहार नहीं करें और हमें अपने खेतों की मेढ़ से मवेशियों के लिए थोड़ा चारा काटने दें." वह हाल ही में पीकेएमयू के नेतृत्व वाले एक समूह के हिस्से के रूप में टीकरी बॉर्डर भी गईं थी. "लेकिन किसी ने हमसे बात नहीं की, हम बस टीकरी में थे, न जाने क्या हो रहा था."

बरनाला रैली के बाद जब मैंने बरनाला-रायकोट राज्य राजमार्ग पर बसे गांव, वाजिदके खुर्द, में औरतों के एक अन्य समूह से बात की तो उन्होंने भी कुछ इसी तरह की बात की. वे खेतीहर दिहाड़ी मजदूर थीं और सभी दलित समुदाय से थीं. उनमें से किसी को भी पास ही में हुई इस विशाल रैली के बारे में पता नहीं था. हमारी बातचीत के 15 मिनट के भीतर ही उनमें से चार ने मनरेगा के तहत जारी किए गए अपने कार्ड मुझे दिखाए जो एकदम खाली थे. उन्होंने कहा कि उन्होंने योजना के तहत काम किया था लेकिन अधिकारियों ने उनके कार्ड में इसे दर्ज करने से इनकार कर दिया और उन्हें भुगतान नहीं किया. उनके बीच लगभग चौबीस-पच्चीस साल की सोनू कौर भी थीं. लगभग दो साल पहले उनके पति की मौत हो गई थी और उन्हें अकेले ही अपने बच्चों का लालन-पालन करना पड़ता है. सोनू ने बताया कि वह कर्ज में डूबी हुई हैं और खेतों में काम कर रही हैं. उन्होंने अपना राशन कार्ड दिखाया, जिसे स्थानीय रूप से "नीला कार्ड" कहा जाता है. उनके कार्ड से पता चला कि पिछले साल जुलाई में उन्हें गेहूं मिला था. सोनू ने कहा कि उन्हें तब से सरकार से कोई अनाज नहीं मिला है. "कभी-कभी हमें इस डर से भूखे ही सो जाते हैं कि हमें अगले दिन काम नहीं मिलेगा और हमारा अनाज खत्म हो जाएगा." कुछ अन्य औरतों ने भी कहा कि उन्हें राशन लेने में परेशानी हुई है. जब मैं सोनू से बात कर रहा था, तो यह बात फैल गई कि एक पत्रकार गांव में साक्षात्कार ले रहा है और गांव की पंचायत के तीन सदस्य मुझसे मिलने के लिए दौड़े चले आए. उनमें से एक बलजीत सिंह जो दलित समुदाय से हैं, ने मुझे बताया कि “नीले कार्ड” को स्मार्ट कार्ड से बदल दिया गया है, ''और जिनको अभी तक कार्ड नहीं मिला है उनके मामले कार्यालय को भेज दिए गए हैं.” जब मैंने उनसे मजदूरों की शिकायतों के बारे में सवाल किया तो वह बचाव की मुद्रा में आ गए.

मैं जिस भी गांव में गया वहां खेत मजदूरों की मुसीबतें एक जैसी ही थीं. मार्च के पहले हफ्ते में संगरूर जिले के गंडुआ गांव की एक वृद्ध महिला परमजीत कौर ने भी कहा कि उन्हें छह महीने से सरकार से राशन नहीं मिला है. उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें छह महीने पहले अपना नीला कार्ड जमा करने और बदले में स्मार्ट कार्ड लेने के लिए कहा गया था. "हमें कोई राशन नहीं मिला है क्योंकि हमें अब तक स्मार्ट कार्ड नहीं मिला है." मैंने गांव के एक वाल्मीकि मंदिर परिसर में परमजीत से बात की, जहां उस दिन पहले पीकेएमयू के राज्य-समिति के सदस्य हरभगवान सिंह ने लगभग पचास मजदूरों की एक सभा को संबोधित किया था. वह सभा में शामिल हुई थीं. गांव का अनुसूचित जाति समुदाय मंदिर के परिसर में अपनी सभाएं आयोजित करता है, जबकि उच्च जाति के किसानों की ऐसी सभाएं, जो ज्यादातर जाट सिख हैं, गांव के दो गुरुद्वारों में होती हैं. 15 मार्च को बठिंडा में राज्यव्यापी रैली के लिए खेतिहर मजदूरों को जुटाने के लिए पीकेएमयू कैडरों ने कई सभाएं की थीं.

अन्य गांवों के विपरीत, वाल्मीकि मंदिर में एकत्रित हुए गंडुआ के निवासी कृषि कानूनों के बारे में जानते थे. इन सभी ने पीकेएमयू के झंडे थामें हुए थे. लगभग पच्चीस-छब्बीस साल की हरपाल कौर ने कहा कि उन्हें इस बात पर यकीन है कि कानूनों के खिलाफ आंदोलन में उनकी भागीदारी उनके अपने अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है. लेकिन जिस तरह वह इस आंदोलन में शिकरत करना चा​हती हैं वह उनके लिए बहुत ही मुश्किल है. "हमारे पास सरकारों से लड़ने के लिए संसाधन नहीं हैं," उन्होंने कहा. "हम उम्मीद करते हैं कि जमींदार लोग हमें दिल्ली या पंजाब में किसानों के संघर्ष के किसी भी कार्यक्रम में लाने-ले जाने की जिम्मेदारी उठाएंगे."

आने-जाने को लेकर हरपाल की चिंता गांवों में आम चिंता थी. परिवहन की कमी भूमिहीन मजदूरों के लिए कृषि कानून के विरोध में चल रहे आंदोलन में भाग लेने में बड़ी बाधा है. भूमिहीन मजदूरों के बीच काम करने वाले संगठन जमीन प्रपाती संघर्ष समिति की सचिव, जिनका नाम भी परमजीत कौर है, ने मुझे बताया, “किसी भी विरोध स्थल पर पहुंचने के लिए जो तात्कालिक समस्या है, वह वाहनों की कमी है और फिर जिंदगी चलाने के लिए वह रोज कुंआ खोदकर पीने वाले लोग हैं.” गंडुआ में सभा के दौरान, हरभजन ने मजदूरों से कहा कि 15 मार्च की रैली के लिए एक वाहन उन्हें बठिंडा तक ले जाएगा. पीकेएमयू अध्यक्ष जोरा सिंह नसराली ने मुझे बताया कि बीकेयू (ईयू) रैली के लिए पीकेएमयू के कैडरों को लाने-ले जाने के लिए वाहन उपलब्ध कराने में भी मदद कर रहा है. परमजीत ने मुझे बताया कि किसान मजदूर एक्का के नारे को अमली जामा पहनाने के लिए भूस्वामी किसानों को भूमिहीनों की समस्याओं को समझने और उन्हें हल करने में मदद करने की जरूरत है. "किसानों को यह समझने की जरूरत है कि भूमिहीन किसान वर्ग की विशाल सेना के अभाव में कृषि कानूनों के खिलाफ उनकी लड़ाई अधूरी होगी. गांवों में किसानों के बीच अभी भी यह प्रचार है कि उन्हें भूमिहीनों के समर्थन की जरूरत नहीं है." परमजीत ने कहा कि "ऐसे उदाहरण भी सामने आए हैं जहां भूमिहीनों को विरोध प्रदर्शन के लिए दिल्ली जाने के लिए बतौर पूर्व शर्त किसान संगठनों के झंडे को ले जाने के लिए कहा गया था." पीकेएमयू के जिला प्रमुख ने भी यही बात कही. उन्होंने मुझे बताया कि "जमींदारों द्वारा भूमिहीनों पर किए गए अत्याचारों" को देखने के बाद वह 2002 में पीकेएमयू में शामिल हुए थे. हालांकि वह समझ सकते थे कि किसान संगठनों को पता है कि मौजूदा आंदोलन में खेतिहर मजदूरों की भागीदारी कितनी महत्वपूर्ण है, लेकिन बड़े भूस्वामी खेत मजदूरों के साथ एकजुट होने की जरूरत को नहीं समझते हैं.

तरसेम के अनुसार, न तो किसान यूनियनें भूमिहीन किसानों के मुद्दों को उठा रही हैं और न ही मजदूरों को चल रहे आंदोलन में मंच देने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रही हैं. उन्होंने बीकेयू (ईयू) और पीकेएमयू को इसका अपवाद बताया और कहा कि अतीत में भी दोनों यूनियनें खेत मजदूरों के अधिकारों के लिए आवाज उठाती रही हैं. उनके अनुसार, यूनियनों ने तब भी अपनी आवाज उठाई थी जब राज्य सरकार ने 2017 में मजदूरों को कर्ज राहत योजना में शामिल करने से इनकार कर दिया था, हालांकि काफी संख्या में खेतिहर मजदूर कर्ज के कारण खुदकुशी कर रहे थे. यहां तक ​​कि मौजूदा आंदोलन में भी यह दिखाई दिया कि दोनों यूनियन वास्तव में परिवहन की व्यवस्था करने और भूमिहीन मजदूरों को जुटाने की कोशिश कर रही हैं. जेडपीएससी के अध्यक्ष मुकेश मालौद ने कहा, "किसानों को भूमिहीन लोगों के साथ अपने मतभेदों को दूर करना शुरू करना चाहिए, जो कि जाति के आधार पर बांटे गए हैं." मालौद ने मुझे हाल ही में जमींदारों और भूमिहीन मजदूरों के बीच के एक मुद्दे के बारे में बताया. उन्होंने कहा, "पिछले धान बुवाई के मौसम में, कोविड लॉकडाउन के दौरान गांवों में स्थानीय मजदूरों को दिहाड़ी मजदूरी न देने के प्रस्ताव पास करके परेशान किया गया था."

मालौद ने कहा कि संयुक्त किसान मोर्चा में मजदूर संगठनों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. आंदोलन में भूमिहीन किसानों की भूमिका पर चर्चा करते हुए सीवेवाला ने इस बात पर भी जोर दिया कि किसान आंदोलन और सरकार के साथ बातचीत में भूमिहीन किसानों की आवाज का होना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि वे उन मुद्दों को सामने रख सकें जो उनसे जुड़े हैं. "उनकी अपनी राजनीतिक पहचान अब उभरनी चाहिए," उन्होंने कहा.

यह पूछे जाने पर कि विरोध प्रदर्शनों में मजदूरों का दबदबा उतना क्यों नहीं है, सीवेवाला ने कहा कि उन्हें अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए पंजाब में रहना पड़ा है क्योंकि ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर हैं. उन्होंने कहा कि दिल्ली की सीमाओं पर नहीं जाते हुए और राज्य के भीतर ही रहते हुए भी वे किसान विरोधी आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं. 28 फरवरी को जब मैंने सीवेवाला से पूछा कि टीकरी में जुटने की घोषणा के बावजूद पीकेएमयू कैडर वहां क्यों नहीं दिखा तो उन्होंने कहा, “हमने 15 मार्च को बटिंडा में होने वाली खेत मजदूरों की एक राज्य स्तर की एक रैली में लोगों को जुटाने के लिए अपने पूरे कैडर को पंजाब वापस बुलाया है. लेकिन 15 मार्च को हुई रैली करीब 4500 कैडर ही जुट पाए. सीवेवाला ने इस रैली के बाद मुझे बताया, "मैंने आपको बताया कि इसका कारण यह है कि खेत मजदूर एक दिन की मजदूरी भी नहीं छोड़ सकते." बटिंडा रैली के दौरान वक्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि आंदोलन खेत मजदूरों के लिए महत्वपूर्ण है. सेवावाले ने लोगों से कहा, "अगर आपने अब अपनी आवाज नहीं उठाई तो आपकी जमीन पर आपका हक अडाणी और अंबानियों द्वारा छीन लिया जाएगा." सीवेवाला ने बरनाला रैली में भी इसी तरह की भावना व्यक्त की थी. उन्होंने भूमिहीन किसानों की मांगों पर ध्यान देने के लिए भूस्वामियों पर दबाव भी डाला. उन्होंने किसानों और मजदूरों का दुख साझा करता हुआ क्रांतिकारी कवि संत राम उदासी का एक गीत सुनाया. गल लग के सिरी दे जट रोया, बोहला विचो नीर वाग्या. ल्या तंगली नसीब नू फरोलिये, तोडी विच्चो पुत्त जग्या (फसलों ने आंसू बहाकर जमींदारों से प्रार्थना की कि वे भूमिहीन को गले लगा लें और अपने बीच की दिवार को तोड़ दें).