पिछले साल नवंबर में जब नरेन्द्र मोदी सरकार ने आंदोलनकारी किसानों को रामलीला मैदान में जमा होने नहीं दिया तो उन्होंने एक सही कदम उठाया जिससे आने वाले दिनों में उन्हें कई तरह से लाभ हुआ. किसानों ने बुराड़ी के निरंकारी मैदान में चले जाने के सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और सिंघु बॉर्डर पर तंबू डाल कर बैठ गए. सामाजिक आंदोलनों पर अध्ययन करने वाले इतिहास के प्रोफेसर हरजेश्वर पाल ने किसानों के इस कदम को “धीमा युद्ध” की संज्ञा दी है. उन्होंने कहा है, “सरकार ने किसानों को विभाजित, दबाव बनाने, थका देने और आंदोलन की धार को कम करने के लिए शक्तिशाली काउंटर हमला शुरू कर दिया...उन्हें खालिस्तानी, अमीर किसान, विदेश द्वारा प्रयोजित, शहरी नक्सल, टुकड़े-टुकड़े गैंग कहा और दूसरे किसान संगठनों से भेंट की, अन्य किसान नेताओं से समर्थन लिया और ऐसे ही अन्य काम किए.”
इसके साथ ही सरकारी दबाव में काम करने वाले मीडिया ने आंदोलनकारियों की छवि को खराब करने के सरकारी प्रयासों को हवा दी और बार-बार दोहराया कि किसान एकजुट नहीं हैं और ये ऐसे छोटे समूह हैं जो अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए काम कर रहे हैं. कम से कम किसानों के बीच तो मीडिया और सरकार असफल साबित हुए. पाल मानते हैं, “उनको लेबल नहीं किया जा सका.”
यह तथ्य है कि मीडिया द्वारा किसानों में आपसी फूट बताने से ये किसान अधिक मजबूती से साथ आ गए हैं. मीडिया और सरकार के षड़यंत्र की समझ रखने वाले पंजाब के 30 किसान संगठन के नेताओं ने, जिन्होंने आंदोलन आरंभ किया था, तुरंत उनके खिलाफ ऐसी प्रस्तुति को खारिज कर दिया. सिखों को खालिस्तानी समर्थक होने के आरोप के खिलाफ एक पोस्टर में कहा गया है, “जब हम हिंदुओं की रक्षा करते हैं तो हमें मसीहा कहा जाता है, जब हम देश के लिए कुर्बानी देते हैं तो हमें शहीद कहा जाता है और जब हम अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं तो हमें खालिस्तानी कहा जाता है.”
उनका कड़ा रुख और दिल्ली सीमा पर उनकी मौजूदगी से उन्हें और समर्थन मिला और दक्षिण में हरियाण और पूर्व में उत्तर प्रदेश के किसान पंजाब के किसानों के साथ आकर खड़े हो गए.
जारी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण चरित्र है कि हर आंदोलनकारी की जुबान पर एक ही संदेश है : कानूनों को वापस लो. यह इस लिहाज से भी जबर्दस्त है कि यह आंदोलन तीन भौगोलिक स्थानों पर फैला है और विस्तार कर रहा है. इतिहासिक रूप से देखें तो पंजाब के किसानों ने शायद ही कभी ऐसी एकता दिखाई है जहां जमीन के मालिक जट और दलित मजदूरों के बीच सामंती जातिगत विभाजन है और उतना ही पित्रृसत्तामक विभाजन मर्दों और औरतों के बीच है. राजनीतिक विभाजन भी टीक नहीं पाया. एतिहासिक रूप से सत्ताधारी सिख नेताओं ने वाम विचारधारा का विरोध किया है लेकिन इस आंदोलन में- अस्थायी रूप से ही सही- कानूनों को वापस लेने की सीधी मांग ने उपरोक्त विभाजन को सुधारा है.
पंजाब में सिख विचारधारा और वाम विचारधारा के बीच संघर्ष का इतिहास पंजाब के नक्सलबाड़ी आंदोलन तक जाता है जो 1960 के अंतिम सालों में और 1970 के शुरुआती सालों में जारी था और उसे तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने न्यायेतर कार्रवाई से कुचल दिया था. इसके बाद 1970 के अंतिम सालों से लेकर 1993 तक रक्तरंजित उग्रवाद का इतिहास है. और इस बार पहली बार ऐसा हो रहा है जब वाम विचारधारा और सिख संवेदनशीलता, दोनों आंदोलन की संस्कृति से समृद्ध हैं, एक साथ आए हैं. इनकी भाषा और इनके प्रतीक साथ आ रहे हैं. मिसाल के लिए, पिछले 30 दिनों में लगभग 400 आंदोलन गीत रचे गए हैं.
पिछले कुछ सालों में मैंने वाम संगठनों में इस बदलाव की झलक देखी है. जब ये लोग समाजवादी स्वतंत्रता सेनानी उधम सिंह की बात करते हैं, उसी वक्त वे लोग सिख शूरवीर बादल सिंह बहादुर की भी बात उठाते हैं. ये लाल सलाम के साथ “जो बोले सो निहाल सत श्री काल” भी कहते हैं.
जमीनी स्तर का सिख कैडर खुद को वाम विचारधारा वाले संगठनों के नजदीक पाता है और आंदोलन को अन्याय के खिलाफ साझा संघर्ष के रूप में देखता है. ये दो धाराएं आपसी प्रतिस्पर्धा से चमकती हैं और इससे पैदा होने वाली बिजली कृषि कानूनों के खिलाफ जारी प्रतिरोध की मोटर को चलायमान बनाती है. आंदोलन स्थल पर भगत सिंह पुस्तकालय हैं और साथ ही नानक हट (झोपड़ी) पुस्तकालय भी है. किसान ट्रॉली टाइम्स और मोर्चा जैसे आंदोलनकारियों के समाचार पत्र ट्रॉली टाइम्स से प्रतिस्पर्धा कर रहा है और ये समाचार पत्र सिख और वाम नेतृत्व चला रहे हैं. आंदोलनकारी यूनियनों ने बुजुर्ग और युवा साहेबजादे यानी गुरु गोविंद सिंह के बेटों की शहादत दिवस मनाई. विभिन्न यूनियनों के झंडे और बैज के रंग और निशान पर बहस हो सकती है लेकिन एक बात साफ है इन सब का एक साझा विरोधी है यानी सरकार.
टिकरी प्रदर्शन स्थल पर मेट्रो लाइन के नीचे मैंने कुछ सिख लोगों से बात की जो आंदोलन पर मंडरा रहे खालिस्तान के भूत से संबंधित थी. सिख किसान हरमिंदर सिंह ने मुझसे पूछा, “हिंदू राष्ट्र में खालिस्तान? पहले जाकर उनसे पूछिए कि उन्होंने राष्ट्र को क्या बना दिया है?” वहीं मौजूद एक अन्य नौजवान परमिंदर सिंह ने आगे जोड़ा, “विभाजन में हमने नानकान साहिब और करतारपुर साहिब खो दिया. यदि खालिस्तान सच्चाई बन जाता है, तो हम पटना साहिब और हुजूर साहिब भी खो देंगे. फिर हमारे पास क्या बचेगा? चारों तरफ देखिए, लोग सिख लोगों को पहचान रहे हैं, लंगर बांटा जा रहा है, जयकारा लगाया जा रहा है. इससे ज्यादा सिख क्या हो सकता है?” फिर हरमिंदर ने कहा, “सिख गुरु सारी दुनिया के हैं. हम किसानों की अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं. हम जीत रहे हैं. हमें भटकना नहीं है.”
1966 तक हरियाणा पूर्वी पंजाब का हिस्सा था और तब से और आंशिक रूप से विरोधाभासी पंजाब रीऑर्गेनाइजेशन कानून के शब्दों के चलते, जो दो स्वतंत्र राज्यों के बीच नदियों के जल के बंटवारे के नियम तय करता है, पंजाब और हरियाणा राजनीतिक रूप से एक दूसरे के आमने सामने रहे हैं. 1982 में पंजाब में इस आक्रोश के चलते धर्म युद्ध मोर्चा के तहत सतलज और यमुना नदियों के बीच प्रस्तावित लिंक के खिलाफ जन रैलियां निकाली गई. और साथ ही यह वहां उग्रवाद के शुरुआती साल भी थे और इसने राज्य की शक्ल बदल दी.
लेकिन हैरानी की बात है कि सर्व खाप हरियाणा की पहली खाप थी जिसने पंजाब के आंदोलनकारी किसानों को समर्थन देने की घोषणा की. निर्वाचन वाला लोकतंत्र कृषि कानूनों को पारित होने से नहीं रोक सका लेकिन खाप इन कानूनों के विरोध में खड़ा हो गया. खाप पर हरियाणा के जाट समुदाय का प्रभुत्व होता है और अक्सर ये खाप पंचायतें सामाजिक भेदभाव वाली पुरातनपंथी मान्यताओं को लागू करती हैं. और यहां भी किसानों को दिया जाने वाला समर्थन आंशिक रूप से जाति आधारित है जो पंजाबी जट को हरियाणवी जाटों का समर्थक बनाती है. ये दोनों ही जातियां ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था में एक समान स्थान रखती हैं.
हरियाणा के झज्जर जिले के अहलावत खाप के सदस्य तस्वीर अहलावत ने मुझसे कहा कि जब जून में पंजाब में कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन शुरू हुए, तो हरियाणा के गांव भी इन आंदोलनों से जाग उठे. पंजाब में हो रहे प्रदर्शनों के साथ-साथ हरियाणा में भी प्रदर्शन होने लगे. सितंबर के प्रदर्शनों के दौरान हरियाणा सरकार ने हरियाणा के किसान नेताओं पर धारा 307 के तहत मामले दर्ज करने शुरू किए और उन्हें जेलों में डालने लगी. लेकिन दिल्ली चलो रैली के आह्वान से हरियाणा के किसान पंजाबी किसानों के समर्थन में खड़े हो गए. अहलावत ने कहा, “जब पंजाबी किसानों ने दिल्ली की ओर कूच किया, तो उनको खालिस्तानी कहा गया. पंजाब के जट और हरियाणा के जाट भाई-भाई हैं. जब हमारे भाइयों पर गलत आरोप लगाया गया, तो हमें यह मंजूर नहीं हुआ.”
अहलावत ने बताया कि कैसे हरियाणा के भारतीय किसान यूनियन के चढूनी समूह के नेता गुरनाम सिंह चढूनी सहित अन्य सदस्यों को दिल्ली आते वक्त पुलिस की कार्रवाई का सामना करना पड़ा. उन्होंने बताया, “हमें पता चला कि भारतीय किसान यूनियन (चढूनी) के सदस्यों को पंजाब में आंदोलन शुरू होने से पहले ही पीटा गया था.” पंजाब के यूनियनों ने सर्व खाप से संपर्क किया. 29 नवंबर को सर्व खाप ने पंजाब के किसानों को समर्थन देने का फैसला लिया. इस वक्त तक हरियाणा-पंजाब सीमा पर रोके गए किसान दिल्ली की सीमाओं पर कैंप लगाकर बैठ चुके थे. इसके घंटों में ही खाप दिल्ली पहुंच गए और टेंट लगाकर आंदोलनकारियों के साथ खड़े हो गए. नवंबर में आंदोलन का समर्थन करते हुए बीजेपी के पूर्व विधायक सोमवीर सांगवान ने हरियाणा पशुधन बोर्ड से इस्तीफा दे दिया. सांगवान अपनी खाप के प्रमुख भी हैं.
महती भूमिका के बावजूद ये खापें सरकार के साथ बातचीत में बाहर रही हैं. अहलावत ने कहा, “हमने किसान यूनियन और संगठनों को फैसला लेने की जिम्मेदारी सौंपी है. किसान का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार किसान संगठनों को है. खापों ने उन्हें बिना शर्त समर्थन दिया है. यदि यूनियन हम से आगे आने को कहेंगे तो हम आगे आएंगे वर्ना पीछे ही रहेंगे. हम पूरी तरह से उनके साथ हैं.”
अहलावत ने आगे कहा, “देखिए, सरकार हमें तोड़ना चाहती है. कभी वह हरियाणा और पंजाब के नाम पर ऐसा करती है, कभी वह नदियों के जल के नाम पर ऐसा करती है और इसलिए खापों ने तय किया है कि यूनियनें मंच संभालेंगी और खाप समर्थन करेंगे. हम यहां एक लंबी लड़ाई करने के लिए आए हैं, जो साल भर भी चल सकती है.” उनके अनुसार, खाप के समर्थन का राजनीतिक असर भी होगा. मैंने अहलावत से हरियाणा के उपमुख्यमंत्री और जननायक जनता पार्टी के सह संस्थापक दुष्यंत चौटाला के बारे में पूछा जो जाट वोटो पर जीते हैं और जिनकी पार्टी बीजेपी का समर्थन करती है. चौटाला के बारे में अहलावत ने कहा, “उनका जाट आधार कमजोर हो गया है. उन्होंने हमारा समर्थन गुमा दिया है. एक अच्छे राजनीतिज्ञ को यह समझ तो होनी ही चाहिए कि हवा किस दिशा में बह रही है.”
किसान आंदोलन की एकजुटता पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक पहुंच गई है. 1988 में महेंद्र सिंह टिकैत, जिन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीकेयू की स्थापना की थी, दिल्ली के बोट क्लब तक रैली निकाली थी और ट्रैक्टर ट्रॉलियों के साथ किसान लगभग एक सप्ताह तक डेरा डाले रहे थे. मुजफ्फरनगर के रणबीर सिंह भी उस रैली का हिस्सा थे. मैं उनसे गाजीपुर फ्लाईओवर के नीचे मिला, जहां उत्तर प्रदेश के किसान अपना धरना प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं. उन्होंने ऋण माफी और किसान के हित अनुरूप कानून लाने की मांग का उल्लेख करते हुए बताया, “हम दो साल पहले भी आए थे लेकिन कुछ गलतियां कर दी थीं. कुछ नौजवान शराब पी कर पुलिस बैरिकेड के समीप हिंसक हो गए थे. इस बार हम अहिंसा के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन इन कानूनों को निरस्त करना होगा और हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य देना होगा."
इस आंदोलन की आश्चर्यजनक एकजुटता पितृसत्तावादी पंजाबी महिलाओं की महत्वपूर्ण उपस्थिति में देखने को मिलती है. मैंने भारतीय किसान यूनियन (एकता उग्रहां) के कार्यवाहक महासचिव हरविंदर बिंदू से बात की. आंदोलन में इस यूनियन का एक लाख से अधिक का कैडर है. बिंदू 14 साल के थे जब उनके पिता की हत्या उग्रवाद में हुई थी. बिंदू 2012 से जमीनी स्तर पर सक्रिय है और ट्रक चलाकर अधिक से अधिक महिलाओं को यूनियन की रैलियों में ला रही हैं. जब मैंने कहा कि मैं खासतौर पर उनसे बात करना चाहता हूं, तो वह हंसी और कहा, "अब हमने अपनी जगह बना ली है भाई, अब हमने दिखा दिया है कि हम महिलाओं का भी अस्तित्व है."
2019 और 2020 में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ होने वाले विरोध प्रदर्शन में भी महिलाओं की प्रमुख भूमिका रही है. वे मंच पर, दर्शकों के बीच, टेंट में और लंगरों में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर दिखाई देती हैं. वकील और बीकेयू दकौंडा की मनसा इकाई की प्रमुख बलबीर कौर ने कहा, “लंगरों से लेकर मंच प्रबंधक और वक्ताओं के रूप में महिलाएं विरोध प्रदर्शन में हिस्सा ले रही हैं. वे विरोध प्रदर्शन स्थलों और हरियाणा के गांवों में बैठकें कर रही हैं. फिलहाल हम 18 जनवरी को महिला किसान दिवस की तैयारियों में व्यस्त हैं. हम उन महिलाओं को बुला रही हैं जो वाहन चलाकर मार्च में शामिल हो सकती हैं."
नरिंदर कौर को, जो ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेन एसोसिएशन, से जुड़ी हैं, टिकरी बॉर्डर पर थीं लेकिन सड़क दुर्घटना में मारी गई एक अन्य महिला आंदोलनकारी के अंतिम संस्कार के लिए पंजाब लौटना पड़ा. कौर के अनुसार, "यह 1947 के बाद आजादी की दूसरी लड़ाई है. हम पितृसत्ता के बारे में जानते हैं, हम इसके खिलाफ काम करते हैं लेकिन फिलहाल हमारा ध्यान कानूनों को निरस्त कराने पर है."
नरिंदर मानती हैं कि महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए भीख नहीं मांगनी चाहिए. उन्होंने कहा, "पुरुषों के साथ हमारी समानता की गारंटी संविधान देता है. जिस तरह हम घर संभालतीं हैं, खेतों में काम करतीं हैं, घरेलू जानवरों का रखरखाव करतीं हैं, हम इन आंदोलन के माध्यम से यह सब जारी रखेंगी. आंदोलन में शामिल पुरुष हमें अपने बराबर मानते हैं, हमें सम्मान देते हैं. जब अन्य पुरुष भी ऐसा ही करेंगे तब समानता आएगी."
कम से कम विरोध स्थलों पर नए और अधिक समान सामाजिक व्यवहार आकार ले रहे हैं. कई लोगों ने मुझे बताया कि कैसे पुरुष एक दूसरे पर नजर रखते हैं और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार या उत्पीड़न को बर्दाश्त नहीं करते. परिवर्तन की गति धीमी हैं लेकिन वह स्पष्ट हैं. दंत चिकित्सक और फिल्मकार नवकिरण नट ने बताया कि यह विरोध सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों के व्यवहार को बदल रहा है. नट ने कहा, "हालांकि निजी तौर पर उनकी भाषा में महिलाओं की गालियां हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से वे सतर्क रहे हैं. हमारे जैसे पितृसत्तात्मक समाज में जमीन पुरुषों के साथ जुड़ी होती है लेकिन जब महिलाएं कहती हैं कि वे इस विरोध में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, तब वे इस समाज में अपनी सही जगह का दावा कर रही होती हैं."
जाति, जो सभी भारतीय समाजों की बुनियादी समस्या है, पंजाब में भी प्रमुख है. अभी के लिए, मुख्य रूप से दलित मजदूर अपनी एकजुटता से जाटों का साथ से रहे हैं. सभी नारों में, कभी-कभी संगठित रूप से और कभी-कभी याद दिलाए जाने पर, किसान और मजदूर दोनों का उल्लेख होता है. सदियों से जाति को लेकर रक्तरंजित लड़ाई वाले पंजाब जैसे अर्ध सामंती समाज के लिए यह अच्छा संकेत है.
संगरूर बरनाला स्थित दलित मजदूरों के भूमि अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के संस्थापक गुरमुख मान ने दिसंबर की शुरुआत में एक साक्षात्कार में कहा था कि दलित श्रमिकों का किसान आंदोलन का समर्थन करना अनिवार्य है.
मान ने कहा था, “वर्तमान संरचना के भीतर जाटों के खिलाफ हमारा संघर्ष संभव है. अगर यह ढांचा नष्ट हो जाता है, तो कृषि के निगमन के खिलाफ हमारा संघर्ष और खराब हो जाएगा." विरोध किए जा रहे तीन कानूनों में से एक का उल्लेख करते हुए, उन्होंने कहा था, “भले ही हमें सरकार से खैरात मिलें लेकिन आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) के खत्म होने का मतलब है कि हम आधारभूत भोजन भी नहीं खरीद पाएंगे."
पंजाब खेत मजदूर यूनियन के महासचिव लक्ष्मण सेवेवाला ने कहा, “किसान फसल लगाता है और फिर उसे समय-समय पर संभालता है लेकिन एक श्रमिक को हर दिन काम करना पड़ता है. यहां तक कि अगर श्रमिक भोजन के लिए दिन में पर्याप्त कमाई नहीं कर पाता है, तो उन्हें आग के लिए लकड़ी ढूंढनी पड़ती है. हालांकि एकजुटता है लेकिन आंदोलन में किसानों के बराबर श्रमिक मौजूद नहीं हो सकते."
जनवरी की शुरुआत में सेवेवाला ने महिलाओं और बच्चों सहित लगभग 1000 मजदूरों को विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए संगठित किया था. बीकेयू (ईयू) ने उनके रहने और खाने की व्यवस्था की. 8 जनवरी में किसान यूनियनों ने श्रमिक नेताओं को मंच पर जगह दी. उन्होंने पूरे दिन लोगों को संबोधित किया. किसान नेता अक्सर दोहराते रहे हैं कि आंदोलन के लिए श्रमिक एकजुटता कितनी महत्वपूर्ण है. सेवेवाला ने कहा, “इस एकजुटता के बावजूद आंदोलन की छवि है कि यह किसानों का संघर्ष है. ईसीए में संशोधन को देखते हुए, यह संदेश जाना चाहिए कि यह कानून राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा पर चोट पहुंचाते हैं. इस तरह समाज के अधिक वर्ग आंदोलन में शामिल होंगे."
मैंने जिन लोगों से बात की उनसे पूछा कि भविष्य में वे क्या करेंगे? क्या आंदोलन की एकजुटता समाज के पुनर्गठन में भूमिका निभाएगी? इन सवालों को लेकर वे आशावादी थे. पंजाब के प्रदर्शनकारियों ने जोर दिया कि वे हरियाणा के लिए पानी छोड़ेंगे. यूनियन के नेताओं ने हाल ही में लगे कुछ शरारती पोस्टरों की निंदा की और कहा कि महिलाएं आंदोलन की ताकत हैं. सेवेवाला ने कहा, "जब तक श्रमिक इसका हिस्सा बना है, जाटों को इसे याद रखना होगा."
समर्थन बढ़ रहा है. भारत के अन्य राज्यों के किसान भी साथ आ रहे हैं. कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात के किसान प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं और उन्होंने अपने-अपने राज्यों में आंदोलन की घोषणा की है. तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में हुए बड़े विरोध प्रदर्शन को सरकारों ने दबाया है.
दिसंबर की शुरुआत तक किसानों को दिल्ली में दाखिल होने से रोकने की नाकामी से घबराकर सरकार ने घोषणा की कि वह किसानों के लिए कृषि कानूनों में संशोधन कर महत्वपूर्ण रियायतें देने के लिए तैयार हैं. यह एक स्पष्ट स्वीकारोक्ति थी कि किसान सही थे. फिर भी किसान कानूनों को निरस्त करने की मांग पर अड़े रहे. कीर्ति किसान यूनियन के उपाध्यक्ष राजिंदर सिंह ने कहा, “कानून बक्से की तरह हैं, कोई भी उनमें कुछ भी डाल सकता है. अगर सरकार मानती है कि कानून गलत हैं, तो बक्सों को खुला क्यों छोड़ दें? जब हम वापस चले जाएंगे, तो सरकार फिर से कानूनों में संशोधन करेगी इसलिए हम इन्हें निरस्त कराने पर जोर दे रहे हैं."
12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों पर रोक लगा दी और कानूनों की समीक्षा के लिए चार लोगों की एक समिति बना दी. समिति में शामिल सभी लोग ऐसे हैं जो सार्वजनिक रूप से इन कानूनों का समर्थन कर चुके हैं. किसान नेता दर्शनपाल ने प्रदर्शनकारी यूनियनों की तरफ से मीडिया को संबोधित करते हुए कहा, “सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान है लेकिन यह समिति एक व्यर्थ की कवायद है और किसान इसका हिस्सा नहीं बनेंगे.” आंदोलनकारी तीनों कृषि कानूनों को निरस्त कराने के अपने संकल्प में और प्रतिबद्ध हुए हैं. इस युद्ध की स्थिति में वे वैसे ही हैं जैसे पहले दिन थे. आगे भी यह एकता मजबूत ही होगी.