पिछले साल नवंबर में जब नरेन्द्र मोदी सरकार ने आंदोलनकारी किसानों को रामलीला मैदान में जमा होने नहीं दिया तो उन्होंने एक सही कदम उठाया जिससे आने वाले दिनों में उन्हें कई तरह से लाभ हुआ. किसानों ने बुराड़ी के निरंकारी मैदान में चले जाने के सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और सिंघु बॉर्डर पर तंबू डाल कर बैठ गए. सामाजिक आंदोलनों पर अध्ययन करने वाले इतिहास के प्रोफेसर हरजेश्वर पाल ने किसानों के इस कदम को “धीमा युद्ध” की संज्ञा दी है. उन्होंने कहा है, “सरकार ने किसानों को विभाजित, दबाव बनाने, थका देने और आंदोलन की धार को कम करने के लिए शक्तिशाली काउंटर हमला शुरू कर दिया...उन्हें खालिस्तानी, अमीर किसान, विदेश द्वारा प्रयोजित, शहरी नक्सल, टुकड़े-टुकड़े गैंग कहा और दूसरे किसान संगठनों से भेंट की, अन्य किसान नेताओं से समर्थन लिया और ऐसे ही अन्य काम किए.”
इसके साथ ही सरकारी दबाव में काम करने वाले मीडिया ने आंदोलनकारियों की छवि को खराब करने के सरकारी प्रयासों को हवा दी और बार-बार दोहराया कि किसान एकजुट नहीं हैं और ये ऐसे छोटे समूह हैं जो अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए काम कर रहे हैं. कम से कम किसानों के बीच तो मीडिया और सरकार असफल साबित हुए. पाल मानते हैं, “उनको लेबल नहीं किया जा सका.”
यह तथ्य है कि मीडिया द्वारा किसानों में आपसी फूट बताने से ये किसान अधिक मजबूती से साथ आ गए हैं. मीडिया और सरकार के षड़यंत्र की समझ रखने वाले पंजाब के 30 किसान संगठन के नेताओं ने, जिन्होंने आंदोलन आरंभ किया था, तुरंत उनके खिलाफ ऐसी प्रस्तुति को खारिज कर दिया. सिखों को खालिस्तानी समर्थक होने के आरोप के खिलाफ एक पोस्टर में कहा गया है, “जब हम हिंदुओं की रक्षा करते हैं तो हमें मसीहा कहा जाता है, जब हम देश के लिए कुर्बानी देते हैं तो हमें शहीद कहा जाता है और जब हम अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं तो हमें खालिस्तानी कहा जाता है.”
उनका कड़ा रुख और दिल्ली सीमा पर उनकी मौजूदगी से उन्हें और समर्थन मिला और दक्षिण में हरियाण और पूर्व में उत्तर प्रदेश के किसान पंजाब के किसानों के साथ आकर खड़े हो गए.
जारी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण चरित्र है कि हर आंदोलनकारी की जुबान पर एक ही संदेश है : कानूनों को वापस लो. यह इस लिहाज से भी जबर्दस्त है कि यह आंदोलन तीन भौगोलिक स्थानों पर फैला है और विस्तार कर रहा है. इतिहासिक रूप से देखें तो पंजाब के किसानों ने शायद ही कभी ऐसी एकता दिखाई है जहां जमीन के मालिक जट और दलित मजदूरों के बीच सामंती जातिगत विभाजन है और उतना ही पित्रृसत्तामक विभाजन मर्दों और औरतों के बीच है. राजनीतिक विभाजन भी टीक नहीं पाया. एतिहासिक रूप से सत्ताधारी सिख नेताओं ने वाम विचारधारा का विरोध किया है लेकिन इस आंदोलन में- अस्थायी रूप से ही सही- कानूनों को वापस लेने की सीधी मांग ने उपरोक्त विभाजन को सुधारा है.
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