क्या राकेश टिकैत किसान आंदोलन के जरिए धो सकेंगे मुजफ्फरनगर दंगों के दाग?

8 दिसंबर 2020 को दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ मुलाकात करने जाते हुए भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) के नेता राकेश टिकैत ने मीडिया से बात की. पत्रकारों और किसान नेताओं ने कहा कि राकेश की राजनीतिक गतिविधियों ने कृषक समुदाय के बीच उनके प्रभाव को कम किया है. एएनआई
08 February, 2021

दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित गाजीपुर में मीडिया को दिए अपने भावुक भाषण से राकेश टिकैत ने कई दिनों से चल रहे किसान आंदोलन को नई दिशा में मोड़ दिया. 28 जनवरी की शाम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने गाजीपुर सीमा पर जारी किसान आंदोलन को खत्म करने से इनकार कर दिया जबकि इससे कुछ घंटे पहले आंदोलन स्थल पर भारी पुलिस और सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया गया था.

मुख्य रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आधार रखने वाले संगठन के अन्य लोग और राकेश टिकैत सात सप्ताहों से भी अधिक समय से कृषि कानूनों के खिलाफ गाजीपुर सीमा पर आंदोलन कर रहे थे. वह आंदोलनकारियों की मांगों को लेकर सरकार से बातचीत करने वाले प्रतिनिधि दल का भी हिस्सा थे. 26 जनवरी को ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा के बाद दिल्ली पुलिस ने अन्य किसान नेताओं के साथ-साथ टिकैत के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज की थी.

28 जनवरी की शाम को मीडिया गाजीपुर में आंदोलन के समाप्त होने की भविष्यवाणी करते हुए राकेश टिकैत से बात करने पहुंच चुका था. लेकिन जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने मंच पर आई तो उन्होंने गिरफ्तारी देने से इनकार कर दिया. थोड़ी देर बाद दिए अपने भावुक भाषण में उन्होंने आंदोलनकारियों से हालात को बर्दाश्त करने की अपील की और कहा, “भारतीय जनता पार्टी के लोग किसानों को मारने की साजिश कर रहे हैं.” आंखों में आंसू लिए राकेश ने कहा कि वह आंदोलन समाप्त करने के बजाय मरना पसंद करेंगे. आंदोलकारियों को पीने के पानी से तक मोहताज करने की बात करते हुए उन्होंने कहा कि वह तब तक पानी नहीं पिएंगे जब तक उनके लिए पानी उनके गांव से नहीं आ जाता.

उनकी भावुक अपील तेजी से लोगों तक पहुंची. जैसे ही हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों को टेलीविजन और सोशल मीडिया इस बात का पता चला, लोग दूर दराज से गाजीपुर के लिए निकल पड़े. प्रदर्शन स्थल पर पहुंचने की योजना बनाने के लिए विभिन्न गांवों में रात में बैठकें शुरू हुईं. टिकैत के गांव सिसौली के किसान उसी रात गाजीपुर पहुंच गए. राज्य के अन्य हिस्सों से भी सुबह तक गाजीपुर पहुंचने के लिए ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में किसान रवाना हुए. उत्तर प्रदेश के बिजनौर से उस रात गाजीपुर पहुंचे किसान डालचंद ने कहा, "राकेश टिकैत के आंसुओं ने हर भारतीय किसान के दिलों पसीज दिया है. यहां अब किसानों की भीड़ बढ़ती रहेगी." अगली सुबह 4 बजे तक हजारों किसान वहां पहुंच गए थे.

अगले दिन हरियाणा और उत्तर प्रदेश में महापंचायतें हुईं जिसमें किसानों को गाजीपुर भेजने की तैयारियां शुरू हुईं. बीकेयू (अ) ने अपने गढ़ उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में एक महापंचायत का आयोजन किया जिसमें हजारों लोग शामिल हुए और राकेश के बड़े भाई और बीकेयू (अ) के आधिकारिक प्रमुख नरेश टिकैत ने आंदोलन जारी रखने का आह्वान किया. उस शाम तक गाजीपुर का नजारा बदल चुका था.

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, किसानों की संख्या लगभग दस हजार हो गई थी. मीडिया ने आंदोलन में उछाल का पूरा श्रेय राकेश को दिया, जिससे उन्हें किसान आंदोलन के नए प्रमुख का स्थान मिल गया. साथ ही राकेश और उत्तर भारत में किसान समुदाय के आदर्श के रूप में पहचाने जाने वाले उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत के बीच तुलना होने लगी.

राकेश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को करीब से जानने वाले लोगों के लिए किसान आंदोलन में उनका प्रभाव बढ़ जाना आश्चर्यजनक है. कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन शुरू होने से पहले तक किसान नेता होने की उनकी पहचान बीजेपी के साथ उनके संबंधों के पर्दे से ढक गई थी. वह और उनके भाई नरेश टिकैत, जो बीकेयू के अध्यक्ष हैं, हिंदुत्व की राजनीति और बीजेपी की नीतियों के मुखर समर्थक रहे थे. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगो में सांप्रदायिकता भड़काने के लिए हुई एक एफआईआर में बीजेपी नेताओं के साथ-साथ दोनों भाइयों का नाम भी शामिल था. उस साल 7 सितंबर को हुई महापंचायत में बीकेयू और बीजेपी ने सक्रिय रूप से भाग लिया था जिसकी परिणति आखिरकार दंगो में हुई. 2009 में राकेश का बीजेपी के साथ जुड़ाव और भी गहरा हो गया था. उस समय हो रहे आम चुनावों में उन्होंने बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ने की कोशिश की. तब बीजेपी का राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन था. हालांकि गठबंधन बाद में टूट गया. वास्तव में, 2004 और 2014 के बीच राकेश ने कई राजनीतिक दलों के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधान सभा और संसदीय चुनाव लड़े लेकिन वह कभी जीत नहीं पाए.

जिन पत्रकारों और किसान नेताओं से मैंने बात की उन्होंने मुझे बताया कि राकेश की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने खेतिहर समुदाय के बीच उनके प्रभाव को कम किया है. उनके पिता महेंद्र और बीकेयू की अच्छी खासी छवि के बावजूद राकेश कभी भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान समुदाय के बीच लोकप्रियता और प्रभाव हासिल नहीं कर पाए. एक समय महेंद्र टिकैत के सहयोगी रहे वरिष्ठ किसान नेता गुलाम मोहम्मद जौला ने बताया, “राकेश टिकैत के राजनाथ सिंह के साथ मंच साझा करने से लोगों में यूनियन का असर कम हुआ.”

लेकिन अब राकेश टिकैत मोदी सरकार के कृषि कानूनों को खुली चुनौती दे रहे हैं और उनके साथ हजारों किसानों का समर्थन है. राकेश के पिता महेंद्र टिकैत भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. इसकी शुरुआत 1978 में पूर्व प्रधानमंत्री और किसान नेता चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में उनके राजनीतिक संगठन भारतीय लोक दल के सहयोग से हुई थी. इसे 1986 में महेंद्र के नेतृत्व में अराजनीतिक यूनियन के रूप में पुनर्गठित किया गया. जनवरी 1988 में मेरठ आयुक्तालय का घेराव और उस साल अंत में किसानों का दिल्ली में घेराव सहित महेंद्र ने कई किसान आंदोलनों का नेतृत्व किया. इनसे उनकी छवि एक मजबूत किसान नेता के रूप में उभर कर आई. 1996 में महेंद्र ने चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह के साथ गठबंधन कर किसान कामगार पार्टी बनाई. उस वर्ष हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में गठबंधन ने 14 सीटें जीतीं. लेकिन अगले साल महेंद्र ने गठबंधन तोड़ दिया.

रिपोर्टों के अनुसार, महेंद्र ने 1993 से 1994 के बीच बीकेयू के कामकाज में अपने छोटे बेटे राकेश को शामिल करना शुरू कर दिया, जो 1985 में दिल्ली पुलिस में भर्ती हो गए थे लेकिन 1993 के आसपास उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी. 1997 में केकेपी से अलग होने के बाद महेंद्र ने बीकेयू में राकेश की औपचारिक शुरुआत कराई और उन्हें यूनियन का राष्ट्रीय प्रवक्ता नियुक्त कर दिया. 2011 में महेंद्र की मृत्यु के बाद बीकेयू का नेतृत्व महेंद्र के सबसे बड़े बेटे नरेश टिकैत के पास आ गया.

पत्रकार रविंदर राणा के अनुसार, बीकेयू जल्द ही उत्तर प्रदेश में दर्जनों गुटों में बंट गया. नरेश और राकेश बीकेयू (अराजनीतिक) के प्रमुख बन गए.

उत्तर प्रदेश में पिलाना ब्लॉक के बीकेयू के पूर्व अध्यक्ष और महेंद्र के सहयोगी रहे नाहर सिंह यादव ने बताया कि राकेश ने अपनी पहचान एकतरफा निर्णय लेने वाले नेता की बनाई और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने लोगों के बीच विश्वास को बदतर बना दिया. कई वर्षों से बीकेयू पर रिपोर्टिंग करने वाले राणा ने बताया, "राकेश के पास खेतिहर समुदाय के लिए कोई दीर्घकालिक रणनीति नहीं है लेकिन वह जितना कर सकते हैं उतना कर रहे है."

2004 में राकेश ने बीकेयू के राजनीतिक संगठन बहुजन किसान दल (बीकेडी) का गठन किया और पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 9 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा. लेकिन संगठन एक भी सीट नहीं जीत पाया. राकेश ने खुद वह चुनाव नहीं लड़ा था. 2007 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में बीकेडी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. राकेश ने उस समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खतौली निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा लेकिन वह हार गए. 2009 के आम चुनाव में राकेश ने बिजनौर से चुनाव लड़ने के लिए बीजेपी से टिकट लेने का प्रयास किया. उस समय बीजेपी ने अजीत सिंह के नए संगठन राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी/रालोद) के साथ गठबंधन किया था और राकेश को टिकट नहीं मिला. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक महेंद्र ने उस चुनाव में कांग्रेस को समर्थन देने का फैसला किया था इसलिए राकेश उस साल भी चुनाव नहीं लड़ सके. 2014 के आम चुनाव में राकेश ने उत्तर प्रदेश के अमरोहा निर्वाचन क्षेत्र से रालोद के टिकट पर चुनाव लड़ा जिसने तब कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के साथ गठबंधन किया था. उस समय राकेश ने चुनाव लड़ने के लिए बीकेयू से इस्तीफा भी दे दिया था लेकिन वह फिर भी चुनाव हार गए.

राणा ने मुझे बताया कि राकेश की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उन्हें उनके मूल निर्वाचन क्षेत्र से दूर ले गईं. उन्होंने कहा कि किसान पिता टिकैत के साथ बेहतर तरीके से जुड़े थे क्योंकि वह किसानों जैसा जीते थे. राणा ने कहा, "वह लोगों की तरह ही हवाई चप्पल पहनते थे, धोती-कुर्ता पहनते थे. बाकी लोगों की तरह तरह ट्रॉली के नीचे सो जाते थे और सभी के साथ खाना खाते थे. किसान उन्हें एक नेता के रूप में नहीं बल्कि अपना एक साथी मानते थे." राणा ने आगे कहा कि राकेश किसानों से इस तरह के संबंध नहीं बनाए और उनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी उनके रास्ते में आती रहीं. राणा ने कहा कि राकेश की नजर हमेशा लोकसभा या विधान सभा पर रहती थी. उनका पूरा ध्यान चुनाव जीतने पर रहा जिस कारण वह किसानों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाए. यदि उन्होंने अपना सारा ध्यान किसानों पर केंद्रित किया होता तो वह टिकैत की विरासत को जरूर आगे बढ़ाते. राकेश यह नहीं समझ पाए कि किसानों के हितों को एक हथियार के रूप में कैसे प्रयोग किया जाए. राणा के अनुसार अलग-अलग विचारधाराओं के राजनीतिक संगठनों के साथ जुड़ना भी राकेश की गलती थी.

उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी के हलकों में राकेश के बेईमान होने की बात फैल गई है. लेकिन राणा इस आरोप को खारिज करते हुए कहते हैं, "सरकार अब सिर्फ झूठा प्रचार करती है और यह कहना आसान है कि कोई नेता बेईमान है और उसे सिर्फ अपनी संपत्ति बढ़ाने की पड़ी रहती है.”

महेंद्र के सहयोगी रहे जौला ने मुजफ्फरनगर दंगों में बीकेयू की भूमिका को लेकर राकेश को जिम्मेदार ठहराया. महेंद्र का दाहिना हाथ माने जाने वाले 80 वर्षीय जौला जाट-मुस्लिम एकता का मुख्य चेहरा थे. उन्होने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीकेयू को स्थापित किया था. मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उन्होंने बीकेयू की निंदा की थी.

जौला ने कहा, “जाट और मुसलमान इस यूनियन का समर्थन करते थे लेकिन अब ये दोनों ही समुदाय एक-दूसरे से छिटक गए हैं. यूनियन में विश्वास गिर गया है. बीजेपी केवल दंगे करवाती है. इससे कृषक समुदाय के बीच राकेश की छवि प्रभावित हुई. दंगों के बाद से ही राकेश के कार्यों में बहुत बदलाव आया है." जौला ने आगे कहा, "वह महेंद्र की तरह नहीं सोचते. दंगों के बाद से राकेश अपनी संपत्ति बनाने में व्यस्त हो गए और उन्होंने बीजेपी नेताओं के साथ मेलजोल बढ़ाना भी शुरू कर दिया." इसके बाद जौला ने किसानों के मुद्दे उठाने के लिए किसान मजदूर मंच नाम का एक अलग संगठन बना लिया.

महेंद्र के नेतृत्व में बीकेयू का प्रभाव पूरे उत्तर प्रदेश में फैल गया था और कई स्थानीय नेता उभरे थे. राणा ने बताया, "2011 में महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु के बाद राज्य भर में 30 से अधिक किसान यूनियनें बनीं लेकिन महेंद्र के जाने के बाद राकेश अपने पिता के स्थान को भरने में असफल रहे. राकेश के पास बहुत कम अनुभव था और महेंद्र के साथी रहे जौला, हरपाल सिंह बिलारी जैसे नेता राकेश से उम्र में बड़े थे और अभी तक यूनियन में काम कर रहे थे. वे सभी वरिष्ठता के मामले में महेंद्र टिकैत के बराबर ही हैं." राणा के आगे कहा, “इन सभी नेताओं के होने के बावजूद राकेश यूनियन के नेता कैसे बन सकते हैं? इसलिए पूरी यूनियन बिखर गई. उस समय टिकैत के कद के बराबर कोई ऐसा नेता नहीं था जो उनकी जगह ले सके या उनकी विरासत को आगे बढ़ा सके."

बागपत जिले के पिलाना ब्लॉक के यूनियन के अध्यक्ष रह चुके यादव ने राकेश की कार्यशैली को यूनियन में बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए कहा, "धीरे-धीरे आपस में दरारें पड़ने लगीं और लोगों ने अपने संगठन बनाने शुरू कर दिए." यादव भारतीय सेना में कार्यरत थे और सेवानिवृत्त होने के बाद 1985 से महेंद्र से जुड़े हुए थे. यादव ने बताया, “राकेश के आने के बाद ये समस्याएं और बढ़ने लगीं. हममें से बहुत से लोगों ने साथ मिलकर अपने एक कार्यकर्ता को जिलाध्यक्ष बनाया जिसके लिए नरेश भी राजी हो गए थे लेकिन राकेश नहीं माने और उन्होंने उसे हटा दिया. उसी के बाद हम राकेश से अलग हो गए और अपना अलग संगठन बना लिया." उन्होंने आगे कहा कि "राकेश अन्य साथियों से परामर्श किए बगैर ही निर्णय लिया करते थे." यादव ने यह भी कहा कि राकेश के लगातार चुनाव लड़ने और जीतने के प्रयासों ने उन्हें कृषक समुदाय से दूर कर दिया.
राणा ने आगे बताया कि राकेश के लड़खड़ाते नेतृत्व के बावजूद बीकेयू (अ) ने आज तक जो भी काम किए हैं वह सब केवल राकेश की वजह से हुए हैं. “जो कुछ भी यूनियन में हुआ राकेश ने किया. अपने अनुभवहीन होने के बावजूद उन्होंने इसे आगे बढ़ाया. यह अलग बात है कि उनकी अपनी इच्छाएं हैं और वह हमेशा राजनीति में जाने की कोशिश करते है."

उत्तर प्रदेश में बीकेयू (अ) के इकाई प्रमुख राजवीर सिंह जादौन ने कहा कि राकेश की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से उन्हें कड़वे अनुभव मिले हैं. जादौन उत्तर प्रदेश के ही जालौन जिले के रहने वाले हैं और महेंद्र के समय से यूनियन से जुड़े हुए हैं. उन्होंने मुझे बताया, "शुरुआती वर्षों में जब वह यूनियन में शामिल हुए थे तब राकेश चीजों को अच्छी तरह से नहीं समझते थे." जादौन ने कहा कि राकेश के राजनीतिक प्रयोगों ने उन्हें सबक सिखाया है. जादौन के अनुसार, 2014 में राकेश ने लोगों और समुदाय के दबाव में आकर आरएलडी के टिकट पर चुनाव लड़ा था. चुनाव के परिणाम आने से पहले ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वह अपने जीवन में फिर कभी चुनाव नहीं लड़ेंगे." राणा ने यह महसूस किया कि अकेले सिर्फ राकेश ही नहीं बल्कि पूरा टिकैत परिवार किसानों के मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर तक ले जाने में विफल रहा है.

राणा ने कहा, "भारत में हमेशा से ही किसान आंदोलन होते रहे हैं लेकिन शायद ही उनका कोई दीर्घकालिक समाधान निकला हो. वे छोटे मुद्दों को हल कर लिया करते हैं लेकिन सरकार से कोई बड़ा सवाल नहीं करते और राकेश के साथ भी यही समस्या है."

जौला ने कहा कि राकेश उस ऊंचाई तक आंदोलनों को उठाने और नेतृत्व करने में कभी सक्षम नहीं हुए जो उनके पिता किया करते थे. “गाजीपुर आंदोलन में मोड़ आने से पहले मैंने उनसे बात की थी. उस समय वह आंदोलन के बाद अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित लग रहे थे. यह आंदोलन तब तक चलेगा जब तक यह सरकार मांगों पर सहमत नहीं हो जाती. लेकिन उसके बाद क्या?"