35 साल के रिंकू कुमार मजदूरी करते हैं. उन्होंने मुझे बताया कि जब मार्च में कोरोनावायरस लॉकडाउन लगाया गया था तब वह हरियाणा के सोनीपत जिले के औद्योगिक शहर कुंडली में एक इस्पात निर्माण कंपनी में काम कर रहे थे. लॉकडाउन लगने के बाद अन्य प्रवासियों की तरह वह भी बिहार के खगड़िया जिले में अपने घर वापस चले गए. कुमार ने बताया कि उनके नियोक्ता ने उस वक्त उनकी 17 दिन की मजदूरी नहीं दी और जब वह वापस कुंडली लौटे तो उसने पैसे देने से इनकार कर दिया. कुमार ने कहा, "मैंने मान लिया था कि मुझे अपना बकाया नहीं मिलेगा." लेकिन 27 नवंबर को चीजें एकदम बदल गईं जब हजारों किसान कुंडली के जीटी रोड पर डेरा डालकर बैठ गए. यहां औद्योगिक इकाइयां हैं. कुमार ने कहा कि किसानों और मजदूर अधिकार संगठन-कुंडली ने मेरे नियोक्ता से बात की और मजदूरी दिलाने में मदद की. इन औद्योगिक इकाइयों में काम करने वाले कई मजदूरों ने मुझे बताया कि किसानों ने उनके हक की लड़ाई में समर्थन और सहयोग दिया है.
“कंपनी मालिक पैसे नहीं देते हैं भले ही आप उनके लिए 15 दिन काम कर लो. लेकिन अब किसानों और मजदूरों के दबाव के चलते वे दो दिन के काम की भी मजदूरी दे रहे हैं, ” कुमार ने मुझे बताया. मजदूर अधिकार संगठन द्वारा लगाए गए एक तंबू के पास वह अन्य मजदूरों के साथ खड़े थे. मजदूरों ने बताया कि क्यों उन्होंने प्रदर्शनकारी किसानों का समर्थन किया और उनके आतिथ्य की भी सराहना की. कुमार ने कहा, "हम किसानों के साथ बैठते हैं और वे हमें खिलाते हैं. सिर्फ इतना ही नहीं वे हमें कंबल और रजाई भी देते हैं.”
लगभग चालीस या पचास किसान जिन्होंने अपने ट्रैक्टर ट्रॉलियों को तंबू के पास खड़ा किया था, मजदूरों की मदद कर रहे थे. कई लोगों ने मुझे बताया कि इन किसानों ने संगठित रूप से मजदूरों का समर्थन करना शुरू कर दिया है. इन किसानों में सोनीपत के गोहाना क्षेत्र से आए जसमिंदर सिंह भी हैं. "कंपनी के मालिक और ठेकेदार इन मजदूरों को इनकी मेहनत की कमाई नहीं देते हैं. किसानों को भी उनकी फसल का पूरा दाम नहीं मिलता है. उचित मुआवजा नहीं मिलने का दर्द मजदूरों और किसानों के लिए एक जैसा है.” पटियाला के 56 साल के किसान सतवंत सिंह ने भी इसी तरह की बात की. "अगर किसान मजदूरों को उनके पैसे दिलाने में मदद करते हैं, तो इसमें गलत क्या है?" उन्होंने कहा. “पंजाब और हरियाणा के कई खेतिहर मजदूर भी हमारे साथ आ गए हैं. वे किसानों और मजदूरों के बीच एकता के कारण यहां आए हैं. अगर मजदूर हमारे आंदोलन में हमारे साथ खड़े हैं, तो हम किसानों को भी उनके संघर्ष में शामिल होना चाहिए.”
तंबू में मौजूद मजदूर अधिकार संगठन के सदस्य शिवा कुमार ने मुझे बताया कि कुंडली में मजदूर किसानों के आंदोलन को कैसे समझते हैं. जबसे किसानों ने बैठना शुरू किया उसके बाद से ही प्रदर्शनकारी वहां पास में काम कर रहे मजदूरों को लंगर खाने के लिए बुलाने लगे. शिवा कहते हैं, "इतनी बड़ी संख्या में जब कोई आपके आसपास आता है तो उसकी मौजूदगी महसूस होती है. 29 नवंबर को हम मजदूर इनकी मौजूदगी और इनके द्वारा हमें खाना खिलाने पर बात कर रहे थे. किसानों से हुई बातचीत के बाद हमें यह भी पता चल गया था कि ये किसान क्यों आंदोलित हैं. मजदूरों की अपनी मीटिंग में हमने किसानों के समर्थन में 2 दिसंबर को अपना काम बंद रखने और किसानों के साथ आंदोलन में शामिल होने का फैसला लिया. 2 दिसंबर को हम करीब 1500 मजदूरों ने इक्कठा होकर किसानों के स्टेज तक मार्च किया और किसानों को समर्थन दिया. किसानों के स्टेज पर कुछ मजदूरों ने भी अपनी बात रखी."
अगले दिन 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी की बरसी थी. कुंडली इलाके के मजदूरों ने भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए मजदूरों की याद में 3 दिसंबर की शाम को मशाल जुलूस निकाला. शिवा बताते हैं, "किसान भी हमारे मशाल जुलूस में शामिल हो गए और उन्होंने हमारे साथ मशालें थामकर मार्च किया. उसके बाद से हमारे अंदर गजब का आत्मविश्वास आया है." मजदूर अधिकार संगठन के साहिल ने मुझे बताया, "किसान आंदोलन में शामिल हो जाने के बाद किसान हमसे लगातार बात करने लग गए. उसके बाद धीरे-धीरे कंपनी मालिकों और ठेकेदारों द्वारा मजदूरों के पैसे न दिए जाने की बात सामने आने लगी जिस पर कई किसानों ने हमसे कहा कि कंपनी मालिकों से मजदूरों के पैसे निकलवाने वे उनके साथ चलेंगे.” कुमार की तरह साहिल ने भी बताया कि लॉकडाउन में मजदूर बिना मजदूरी लिए ही घर जाने को मजबूर हो गए थे और जब वापस लौटे तो “मालिकों ने उनका बकाया देना तो दूर उन्हें पहचानने तक से इनकार कर दिया."
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