लग रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से, किसान आंदोलन का दमन करने के उसके आक्रमक प्रयासों के चलते, नाराज हो रहे हैं. 28 जनवरी की घटना के बाद, जिसमें भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) के नेता राकेश टिकैट रो दिए थे, इस क्षेत्र में किसान आंदोलन तीव्र हो गया है. उस घटना के बाद इलाके में कम से कम तीन महापंचायतें हुईं जिनमें हजारों की संख्या में लोगों ने भाग लिया. इसके अलावा इस क्षेत्र के कई लोग गाजीपुर में जारी किसान आंदोलन में शामिल होने पहुंचे.
गाजियाबाद के किसान भीष्म सिंह ने मुझे बताया कि उनके गांव की दीवारों पर लिख दिया गया है कि “बीजेपी, आरएसएस चोर हैं.”
26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली के दौरान दिल्ली में हुई हिंसा के बाद मीडिया आंदोलन को बदनाम करने लगी. दो दिन बाद गाजीपुर प्रशासन ने टिकैत को गाजीपुर आंदोलन स्थल खाली करने का नोटिस दे डाला. राकेश टिकैत और उनके भाई पहले बीजेपी के करीब रहे हैं और मुजफ्फरनगर में 2013 में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों के आरोप उन पर हैं. 28 जनवरी को टिकैत ने मीडिया से कहा कि उनके साथ धोखा हुआ है. उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने बीजेपी को वोट दिया था लेकिन पार्टी के लोग किसानों को मारने का षड्यंत्र रच रहे हैं.
बागपत जिले के किसान पोविंद्र राणा ने मुझसे कहा कि जब टिकैत को लोगों ने टीवी में रोते देखा तो “हम लोगों की नींद उड़ गई.” उन्होंने बताया कि उनके गांव के लोगों ने बात की और दूसरे दिन तीन ट्रैक्टरों में दिल्ली पहुंच गए. अगले दिन हजारों की संख्या में लोग गाजीपुर पहुंचे और आंदोलन स्थल को खाली नहीं कराया जा सका. राणा ने बताया कि वह आंदोलन स्थल पर दो रातों तक रुके रहे और इसके बाद 31 जनवरी को बड़ौत में हई एक रैली में शामिल हुए.
सहारनपुर के बीजेपी के नेता वीरेंद्र गुज्जर का मानना है कि यदि यह आंदोलन लंबा खिंचा तो राज्य के चुनावों में पार्टी को नुकसान होगा. उन्होंने बताया कि बीजेपी को देखने के लोगों के नजरिए में बदलाव आया है. उन्होंने कहा, “कुछ समय बाद जब चुनाव होंगे तो इसका असर देखने को मिलेगा. अभी स्वार्थवश पार्टी के अंदर लोग खामोश हैं लेकिन भीतर बड़ी हलचल है. सरकार को किसानों की मांग मान लेनी चाहिए. इतना सख्त नहीं होना चाहिए.”
गुज्जर ने कहा कि सरकार को तब नुकसान होगा जब लोग यह मानने लेगेंगे कि सरकार उनकी नहीं बल्कि अडानी-अंबानी की सुनती है. उन्होंने बताया कि फिलहाल लोग ऐसा नहीं सोचते लेकिन यदि आंदोलन कुछ और दिन चला तो ऐसा ही होगा.” गुज्जर ने स्वीकरा किया कि 2013 में मुजफ्फरनगर हिंसा के आरोप उन पर लगे थे और कुछ दिनों बाद बीजेपी की एक मीटिंग में उन्हें सम्मानित भी किया गया था. उस मीटिंग में प्रधानमंत्री मोदी ने भी भाग लिया था. उन्होंने बताया कि उन्होंने शुरू से ही किसान आंदोलन का समर्थन किया है. उन्होंने कहा, “मैं पहले एक किसान हूं और बाद में बीजेपी का सदस्य.” उन्होंने बताया, “हम सभी समाज के किसानों की एक महापंचायत करेंगे जिसमें हिंदू, मुसलमान सब शामिल होंगे.”
मुजफ्फरनगर के किसान और फिजिकल एजुकेशन में एमए कर रहे शिवम बालियान ने आंदोलन के प्रति बीजेपी के रवैये पर मुझ से बात की. उन्होंने कहा, “किसानों को लेकर सरकार अपना रुख साफ नहीं कर रही है. वह किसानों को पढ़ा-लिखा भी नहीं समझती.” उन्होंने बताया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान बड़ी संख्या में जाट समाज से हैं और राकेश टिकैत के रोने वाली घटना ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने कहा, “इस बात को लेकर हमारे बालियान खाप के युवाओं में भी जम कर आक्रोश है. अब वे बिना कानून वापसी के समझौता नही करेंगे.” उन्होंने जोड़ा, “हम लोगों ने बीजेपी को वोट दिया था लेकिन उसने अपने वादे पूरे नहीं किए बल्कि अब हमारी जमीनें भी हथियाने की फिराक में है.”
इन महापंचयतों को कवर कर रहे पत्रकार विशाल कुमार ने मुझे बताया कि 2013 के दंगों के बाद नरेश टिकैत, गुलाम मोहम्मद जौला, जयंत चौधरी पहली बार एक मंच पर आकर आपस में गले मिलते नजर आए. उन्होंने कहा कि 2013 के दंगों के बाद मुस्लिम और जाट समुदाय एक-दूसरे से अलग हो गया था लेकिन अब किसान आंदोलन ने इनके बीच की खाई को पाटा है और यह बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुत मायने रखती है. कुमार ने बताया, “अब ये नेता ही नहीं इनके कार्यकर्ता भी एक दूसरे से मिल रहे हैं. किसान के साथ जो यह सरकार कर रही है उससे किसान होने के नाते वे ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.” कुमार ने दावा किया कि यह नाराजगी समय के साथ बढ़ती जा रही है और उत्तर प्रदेश में 2022 के चुनाव परिणाम पर इसका असर पड़ेगा.
लेकिन क्या यह आंदोलन केवल यहां के जाटों तक ही सीमित है? मेरे इस सवाल के जवाब में शामली जिले के निवासी रुबिन कश्यप ने कहा कि इसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों का आंदोलन कहना गलत होगा. उन्होंने कहा, “मेरे गांव में बड़ी संख्या में दलित रहते हैं और भीम आर्मी द्वारा आंदोलन को समर्थन देने के बाद दलित भी आंदोलन में शामिल हो गए हैं.” उन्होंने बताया कि बड़ी संख्या में खेत मजदूर ओबीसी और दलित जाति के हैं और उन्हें भी लगता है कि यदि किसानों की जमीन छीन ली जाएगी तो वे कहां काम करेंगे.”