5 जनवरी को कला इतिहासकार कविता सिंह को मानविकी श्रेणी में ‘इंफोसिस पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया. इन्फोसिस साइंस फाउंडेशन, वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को वार्षिक पुरस्कार से सम्मानित करता है. पुरस्कार में एक स्वर्ण पदक, एक प्रशस्ति पत्र और 100000 अमेरिकी डॉलर की नकद राशि दी जाती है. कविता सिंह, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और विश्वविद्यालय के कला और सौंदर्यशास्त्र संकाय की डीन हैं. इन्फोसिस साइंस फाउंडेशन के अनुसार, कविता को “मुगल, राजपूत और डेक्कन (दक्कन) कला पर उनके अध्ययन” और “द्वंद्वरत दुनिया में संग्रहालयों की भूमिका” पर “व्यावहारिक लेखन” के लिए पुरस्कृत किया गया है.
सिंह जब पुरस्कार लेने के लिए बेंगलुरु पहुंची तो उन्हें ईमेल पर बताया गया कि जेएनयू के कुलपति ने छुट्टी के लिए उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया है. पुरस्कार लेते हुए कविता ने कहा कि समारोह में उनकी उपस्थिति “अवैध” है और जेएनयू में जो कुछ इस वक्त चल रहा है वह “हास्यास्पद स्तर तक बुरा” है. स्वतंत्र पत्रकार नंदिता जयराज और आशिमा डोगरा ने समारोह के दौरान और बाद में सिंह से बातचीत की. बातचीत में सिंह ने वर्तमान के जेएनयू प्रशासन और संग्रहालयों पर उनके शोध के राजनीतिक महत्व के बारे में बताया. उनका कहना है, “संग्रहालय महत्वपूर्ण संस्थान है जो हमारे लिए करता है कि क्या बचा रहेगा, क्या विरासत बनेगा और हम इन चीजों के बारे में कैसे सोचते हैं और इन्हें क्यों महत्व देना चाहिए.” इस क्षेत्र में मेरे लेखन ने राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय पहचान बनाने में संग्रहालय की भूमिका को संबोधित किया है.”
नंदिता जयराज और आशिमा डोगरा: हमें मुगल, राजपूत और डेक्कन कला पर अपने काम और संग्रहालयों के महत्व के बारे में बताएं. आज के समय में इसका क्या महत्व है, खासकर जब भारत में मुगल इतिहास के हिस्सों को मिटाने का प्रयास हो रहा है.
कविता सिंह: मैं कला इतिहास के दो अलग-अलग क्षेत्रों में काम करती हूं. ये हैं– भारतीय दरबारी चित्रकला और संग्रहालय के इतिहास का अध्ययन. मैंने हमेशा संग्रहालय अध्ययन के अपने काम को अधिक राजनीतिक क्षेत्र माना, लेकिन जैसे-जैसे समय बढ़ता गया, भारतीय चित्रकला पर मेरा काम अप्रत्याशित रूप से राजनीतिक महत्व लेता गया. जैसा कि आपने ठीक ही कहा है भारतीय इतिहास में मुगलों की भूमिका को मिटाने का मतलब है कि इस क्षेत्र में किया जाने वाला काम ऐसी चीजों पर प्रकाश डालता है जिसे लोग भुला देना चाहते हैं.
भारतीय चित्रकला के कई प्रतिष्ठित विद्वानों ने मुगल संस्कृति को इस्लामी और राजपूत संस्कृति को हिंदू संस्कृति माना है. दो क्षेत्रों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है जैसे वे एक दूसरे से स्वतंत्र हैं और उत्पादित कला पूरी तरह से रूप, कार्य और प्रेरणा में भिन्न हैं, यह सच नहीं है. दोनों क्षेत्र एक-दूसरे के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं. मैंने अपने कुछ कामों में यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे मुगल से राजपूत दरबारों में प्रवेश करने वाले कलाकार नई जरूरतों की पूर्ति के लिए मुगल कल्पना का उपयोग करते हैं, या मुगल बादशाह और उसकी प्रेयसी की पेंटिंग बनाते समय राधा-कृष्ण की कल्पना करते थे. मैं कोशिश करती हूं कि हमारे वर्तमान और अतीत की व्याख्या के सरलीकरण और बायनेरी बनाए जाने की विकृतियों को सामने ला सकूं.
संग्रहालय का मेरा अध्ययन हमेशा राजनीतिक रहा, क्योंकि यह दिखता है कि इन स्थिर और आधिकारिक संस्थानों का उद्देश्य क्या है और ये क्या संदेश जनता को देना चाहते हैं. “यह हमारी संस्कृति है,” “यह एक उत्कृष्ट कृति है,” “इतिहास में यह अंधकार का दौर था”. इन बातों का अध्ययन अनिवार्य रूप से सामाजिक शक्तियों के रूपों का अध्ययन बन जाता है. इस क्षेत्र में मेरे लेखन ने राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय पहचान को बनाए रखने में संग्रहालय की भूमिका को संबोधित किया है.
एनजे और एडी: संग्रहालयों के ऐतिहासिक और राजनीतिक कार्यों को देखना क्यों महत्वपूर्ण है?
केएस: संग्रहालय एक महत्वपूर्ण संस्थान है जो हमारे लिए तय करता है कि क्या बचा रहेगा, क्या विरासत बनेगा और हम इन चीजों के बारे में कैसे सोचते हैं और इन्हें क्यों महत्व देना चाहिए. मुझे इतिहास की संकटकालीन अवस्थाओं में इन चीजों के अध्ययन में विशेष रुचि है. अलग-अलग देश अपने बारे में अलग धारणा रखते हैं और उस धारणा के अनुसार विरासत पैदा करने की आवश्यकता होती है. मुझे इस बात को जानने में दिलचस्पी है कि उस महत्वपूर्ण बिंदु (संकटकालीन) पर क्या घटित होता है.
मेरी दिलचस्पी यह जानने में भी है कि प्रत्यावर्तन (रीपैट्रीऐशन) के संबंध में राष्ट्रीय पहचान और राष्ट्रवाद पर संग्रहालयों का क्या असर होता है. आजकल संग्रहालय अध्ययन की केंद्रीय चिंताओं में से ‘प्रत्यावर्तन’ एक है. बहुत से उत्तर उपनिवेशवादी देश पूर्व उपनिवेशवादियों द्वारा उनकी कलाकृतियां ले लिए जाने पर सवाल उठा रहे हैं. कई “स्रोत देश” उपनिवेश के समय में लंदन, पेरिस या बर्लिन ले जाई गई कीमती वस्तुओं की वापसी की मांग कर रहे हैं.
चूंकि प्रत्यावर्तन की मांग यह मानती है कि वस्तु के वापस लौटने के लिए एक “सही” स्थान है इसलिए मैं यह जानना चाहती हूं कि “प्रत्यावर्तन” के लिए सही स्थान “क्या” है. जहां एक राष्ट्रीयता है लेकिन राष्ट्र नहीं है इस प्रकार की स्थिति में प्रत्यावर्तन का क्या मतलब है?
इसने मुझे “भारत और अन्य जगहों पर तिब्बती निर्वासित समुदाय और तिब्बती कला का स्थान कहां है?” जैसे सवालों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया. कई कीमती तिब्बती कलाकृतियों को हिंसक औपनिवेशिक अभियानों द्वारा बाहर ले जाया गया. आज ये कीमती और पवित्र कलाकृतियां पश्चिमी संग्रहालयों में हैं, लेकिन तिब्बत में बची बहुत सी कलाकृतियां बीसवीं सदी में चीन में हुई सांस्कृतिक क्रांति में नष्ट हो गईं. आज, विरासत के प्रति चीन का रवैया अंतरराष्ट्रीय मानदंडों को ध्यान में रखते हुए है. वे क्षतिग्रस्त वस्तुओं को बहाल कर रहे हैं और नई वस्तुओं को कमीशन कर रहे हैं, लेकिन तिब्बती समुदाय का कहना है कि ये बेमतलब है. इस तरह के अध्ययनों से जो कुछ भी सीखने को मिलता है, वह न केवल तिब्बत के विशेष उदाहरण पर प्रकाश डालता है, बल्कि यह उन केंद्रीय मान्यताओं पर भी सवाल उठाता है जो कहती हैं कि वस्तुओं के वापस लौटने के लिए एक “सही” जगह है.
एनजे और एडी: जिन समाजशास्त्रियों से हमने बात की, उनका कहना है कि भारत को अब पहले से कहीं अधिक मानविकी आख्यानों की आवश्यकता है. क्या आप इस कथन से सहमत हैं? जिस तरह का आपका शोध है उसकी चुनौतियां क्या हैं?
केएस: एक कला इतिहासकार के लिए यह बहुत दिलचस्प समय है. संस्कृति, विरासत और परंपरा से जुड़े मुद्दे सिर्फ बहस नहीं बल्कि दंगे बन गए हैं. लोग एक तरह की वीभत्सता के साथ कुछ मान्यताओं का पालन कर रहे हैं, जैसे उनका जीवन और पहचान इस पर निर्भर है. ऐसा कुछ हुआ है जो बहुत आक्रमक है. और यह सिर्फ भारत में नहीं है, यह एक वैश्विक परिघटना है.
इस वैश्विक परिघटना के हिस्से के रूप में, हम देखते हैं कि कई जगहों पर मानविकी और उच्च शिक्षा संस्थानों पर निरंतर हमला हो रहा है. मैं अपने संस्थान में जो अनुभव कर रही हूं वह वैश्विक स्तर पर होने वाली ऐसी ही चीजों का हिस्सा है. हंगरी में एक बहुत ही महत्वपूर्ण संस्थान ‘सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी’ को नई सरकार द्वारा बंद किया जा रहा है. इसी तरह, ब्राजील के नए राष्ट्रपति भी विश्वविद्यालयों और शिक्षाविदों के खिलाफ बातें कर रहे हैं.
मुझे समझ में आ रहा है कि बहुत से लोग ऐसे विचारों को उठा कर, जो सच या झूठ हो सकते हैं, मजबूत सामूहिक पहचान बनाने के लिए परंपराओं को गढ़ रहे हैं. इसलिए हम जो काम कला इतिहास और सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन में करते हैं वह महत्वपूर्ण है. यहां से, एक काउंटर नैरेटिव बन सकता है. कम से कम, आपके पास चुनाव से पहले कुछ जानकारी होगी ताकि आप तय कर सकें कि जिसकी रक्षा आप करना चाह रहे हैं वह खून बहाए जाने लायक है या नहीं. इस तरह के काम इन संकट के समय में पहले से कहीं अधिक महत्व और प्रासंगिकता लाते हैं. फिर भी, ये ऐसा समय है जब हमारी आवाज, अनुशासन, संस्थागत पद, प्रकाशन की स्वतंत्रता, प्रकाशित करने के लिए उपलब्ध मंच कम हो रहे हैं. कुछ लोगों के लिए इन विकल्पों को उपलब्ध कराना हित में नहीं है.
एनजे और एडी: जेएनयू के कुलपति ने पुरस्कार समारोह में भाग लेने के लिए आपके अवकाश आवेदन को अस्वीकार करने के लिए क्या कारण बताए?
केएस: फिलहाल हमारे विश्वविद्यालय पर हमारा ही प्रशासन हमला कर रहा है. ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं जिनसे हमारे संकाय और छात्र दोनों को समस्या और कठिनाई हो रही हैं. हर स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को जेएनयू प्रशासन विकृत कर रहा है. अक्सर समिति की बैठक के मिनट के बीच कोई संबंध नहीं होता. इस प्रक्रिया का उपयोग कर अनिवार्य उपस्थिति की नीतियों को पहले छात्रों के लिए और फिर शिक्षकों के लिए लागू किया गया. जेएनयू के अधिकांश लोगों ने इन नीतियों का विरोध नहीं किया बल्कि उन झूठों का विरोध किया जिसके जरिए इन नीतियों को थोपा गया.
मैं फिलहाल अपने स्कूल की डीन हूं जो दुर्भाग्य से मुझे प्रशासन और स्कूल के बीच मध्यस्थ बनाता है. मैंने ऐसे कई उदाहरण देखे जब निर्णय लेने की प्रक्रिया विकृत की गईं और मुझे अपना असंतोष दर्ज कराना पड़ा. इसने मुझे प्रशासन के समक्ष बहुत अलोकप्रिय बना दिया है. इन्फोसिस के एवार्ड समारोह के लिए बेंगलूरु जाने या दिल्ली में एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए मेरे अनुरोधों को कथित तौर पर उपस्थिति का हवाला देकर ठुकरा दिया गया. लेकिन अगर विश्वविद्यालय जानना चाहता था कि मैं ऐसा करने जा रही हूं, तो उसे आवेदन को लंबित रखना चाहिए था और मेरा वक्तव्य लेना चाहिए था. प्रतिष्ठित फेलोशिप के लिए अगले वर्ष छुट्टी के लिए मेरे आवेदन को बिना किसी कारण के ठुकराए जाने से पहले पांच महीने तक लंबित रखा गया है. प्रशासन द्वारा इसे छुट्टी माने जाने से इनकार किया गया है क्योंकि उन्हें पता है कि उनके ऐसा करने से हमें शैक्षणिक और वित्तीय नुकसान होता है.
एनजे और एडी: आप सात विभागों के उन प्रमुखों में से एक हैं जिन्हें मार्च 2018 में जेएनयू प्रशासन ने हटा दिया था और अप्रैल में दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद बहाल कर दिया गया. ऐसे माहौल में जेएनयू में काम करने का क्या अनुभव है?
केएस: अन्य विभागों के कई सहयोगियों और मुझे, डीन और चेयरपर्सन के प्रशासनिक पदों से हटा दिया गया. लेकिन हमें संकाय पदों से नहीं हटाया गया. न्यायालय द्वारा बहाल किए जाने के बाद अपने प्रशासनिक कार्यों को फिर से शुरू करना एक चुनौती रही है. कागजात बहुत धीमी गति से चलते हैं, जो चीजें कभी संभव थीं वे अचानक असंभव हो जाती हैं. धन और अवसर जो हमारे पास हैं उनका उपयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि हर किस्म की बाधाएं खड़ी हो जाती हैं. लेकिन यह कहानी का केवल एक पक्ष है. दूसरी तरफ, जेएनयू समुदाय के बीच जबरदस्त एकजुटता है, क्योंकि हम इन कुप्रयासों के दौर के साथ गुजर रहे हैं. इससे पहले, मैं मुश्किल से अपने विभाग से परे किसी को जानती थी. अब मैं सभी विषयों के वस्तुतः सैकड़ों सहयोगियों से जुड़ा हुआ महसूस करती हूं. यह जबरदस्त रूप से हौसला देने वाला एहसास है.
हर दिन का शिक्षण चल रहा है, हालांकि कई बार, अनुसंधान जैसी चीजें प्रभावित होती हैं. यात्राओं पर रोक और धन की कमी, यहां कार्यक्रमों के आयोजन कराने और सम्मेलनों में भाग लेने में रुकावटें डालती हैं जो अपने काम पर राय लेने और दुनिया भर में क्या चल रहा है जानने के लिए जरूरी है. फिर पुस्तकालय और पत्रिका सदस्यता के लिए धन में भारी कटौती की गई जिसने हमारे शोध छात्रों को प्रभावित किया. मुझे पूरी उम्मीद है कि निकट भविष्य में बदलाव आएगा.
एनजे और एडी: मानविकी को आमतौर पर जैंडर विविधता वाला विषय माना जाता है. एक महिला के रूप में आपका अनुभव क्या रहा है?
केएस: मिसोजिनी या स्त्री विरोध सभी जगह है. मुझे याद है कि मेरे एक प्रोफेसर अपने पुरुष सहकर्मी का, जो काफी औतस दर्जे का था, उत्साहवर्धन कर रहे थे और मेरी कक्षा की कई प्रतिभाशाली महिलाओं को ऊपर आने नहीं दे रहे थे. उन्होंने मान लिया था कि हम एकेडमिया में नहीं टिकने वाली थीं और बस लड़के ही यहां बने रहेंगे. इसलिए वे हम पर निवेश नहीं करना चाहते थे.
इस बात के बावजूद मेरे क्षेत्र में महिलाओं ने अच्छा काम किया है क्योंकि इस क्षेत्र में पुरुष अधिक नहीं हैं और फंड भी कम है. मेरे लिए यह एक सामान्य बात है कि मेरे अधिकांश साथी और विद्यार्थी महिलाएं हैं. यह देखना एक चुनौती है कि क्यों पुरुष संस्थागत पायदानों में ऊपर चढ़ जाते हैं और संग्रहालय के निदेशक या न्यास के प्रमुख बन जाते हैं जबकि महिलाएं मध्यम स्तर के पदों तक ही पहुंच पातीं हैं.
एनजे और एडी: एकेडमीया में लैंगिक विभेद को आप कैसे देखती हैं? क्या पुरुषों की तुलना में महिलाओं के साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाता है?
केएस: मुझे यह देख कर खुशी और गर्व होता है कि युवा महिलाएं वह सब सहन करने से इंकार कर रहीं हैं जो हमें खामोशी से स्वीकार करना पड़ा. हर कोई यौन उत्पीड़न के गंभीर मुद्दों के बारे में बोल रहा है. मेरी पीढ़ी में भी इसे चुनौती मिली लेकिन हमने मान लिया कि हम मजदूर मधुमक्खियों की तरह हैं. हमारे विचारों को चुरा लिया जाता और यह इतनी बार होता कि बार-बार लड़ना, थका देने वाला काम होता. मैंने निराशाओं और छोटे-छोटे अन्याय को झेला और सिर्फ अपने काम पर ध्यान देना सीख लिया. भले ही इसे स्वीकार किया जाता हो या नहीं. कहीं न कहीं, किसी न किसी तरह आपको ब्रेक मिल जाता है. यह संयोग नहीं है कि मुझे अपने करियर के शुरुआती चरणों में जो महत्वपूर्ण ब्रेक मिले, वे उन महिलाओं के माध्यम से आए, जो संस्थानों की प्रमुख थीं. मुझे पुरुषों के जरिए ब्रेक नहीं मिला. मैं इसके लिए बहुत आभारी हूं और मुझे उम्मीद है कि मैं इस एहसान का बदला अगली पीढ़ी को चुका सकूंगी.
लेकिन अब भी, यहां तक कि मेरे स्तर पर भी जहां मैं एक पूर्ण प्रोफेसर हूं, पितृसत्ता और कुप्रथाएं व्याप्त हैं. बैठकों में, पुरुष सहयोगियों को गंभीरता से लिया जाता है और महिला साथियों और मेरे विचारों को रियायती माना जाता है. मैं बता नहीं सकती कि कितनी ही बार मेरे विचारों को खारिज कर दिया जाता है और फिर पांच मिनट बाद जब वही विचार कोई पुरुष सहयोगी शब्दों को इधर-उधर कर कहता है तो उसे महान विचार कहा जाता है. चलिए मैं इस बात का संतोष कर भी लूं कि मेरे विचार से, चाहे वह किसी और के नाम से आया हो, नीतियों में बदलाव आएगा लेकिन मुझे तब गुस्सा आता है जब वही पुरुष सहयोगी “अपने विचार” की महानता का बखान मेरे सामने करता है. यह बात मैं अपने छात्रों में भी देखती हूं. वे लोग पुरुष प्रोफेसरों की बातों को कोट करते वक्त उनके नाम का उल्लेख करते हैं लेकिन महिला प्रोफेसरों की बातों की चोरी करते हैं.
एनजे और एडी: इस पुरस्कार का आपके लिए क्या महत्व है?
केएस: मेरे और मेरे कई सहयोगियों के लिए, कला इतिहास में पुरस्कार का मिलना एक अद्भुत बात थी क्योंकि भारत में इस पर बहुत कम काम होता है. हम निश्चित रूप से इसे सामूहिक उपलब्धि के रूप में देखते हैं और मेरे विश्वविद्यालय के लिए भी जो फिलहाल उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है.
मुझे उम्मीद है कि यह पुरस्कार मेरे उन कामों को भी प्रकाश में लाएगा जो रुके पड़े हैं. एक शिक्षक के रूप में, मैं अलग-अलग पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों के लिए चिंतित रहती हूं. अंग्रेजी भाषा में सहज न होने वाले छात्रों को जब कोई टर्म पेपर लिखना पड़ता है तो उनके पास बहुत कम साहित्य उपलब्ध होता है. यह वास्तव में उस बौद्धिक ब्रह्माण्ड को प्रभावित करता है जिसमें ये छात्र निवास करते हैं. मैं एक बड़ी अनुवाद परियोजना करने के बारे में विभिन्न मंचों पर बात करती हूं ताकि नवीनतम छात्रवृत्ति भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हो सके. वह अभी तक जमीनी हकीकत नहीं बन पाया है लेकिन अब लगता है कि मैं बोलूंगी तो लोग सुनेंगे.