विभूतिभूषण का संसार

घाटशिला में विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की विरासत को यादगार बनाने की एक कोशिश

घाटशिला में विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की याद में बना एक स्मारक. यहां लेखक ने अपनी जिंदगी का एक हिस्सा बिताया. हांसदा सोवेंद्र शेखर
घाटशिला में विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की याद में बना एक स्मारक. यहां लेखक ने अपनी जिंदगी का एक हिस्सा बिताया. हांसदा सोवेंद्र शेखर

"क्या तुम घाटशिला में नहीं रहते? तुम यहीं पैदा हुए थे, है न?" सुशांतो सीत ने मुझसे पूछा. उनकी आवाज़ में उत्तेजना थी. वह विभूति स्मृति संसद के आयोजन सचिव हैं. यह सांस्कृतिक संस्था झारखंड के पूर्वी सिंहभूमि जिले में है. संस्था बंगाली लेखक विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के नाम और उनकी स्मृति को संजोए रखने के लिए बनी है. बंद्योपाध्याय ने अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा घाटशिला में बिताया था. यहीं उनकी मृत्यु भी हुई थी.

विभूति स्मृति संसद कॉलेज रोड पर एक पुराने जमाने की हवेली नुमा छोटी इमारत में है. जब मैं बड़ा हो रहा था, यह एक एक जानी-मानी जगह थी, एक लैंडमार्क. बंद्योपाध्याय की विरासत घाटशिला पर छाई हुई है. राष्ट्रीय राजमार्ग पर विभूति विहार नाम का एक होटल है और बंद्योपाध्याय के एक उपन्यास के नाम पर अरण्यक नाम का एक रिसॉर्ट घाटशिला के बाहर, बुरुडीह बांध के करीब है। यहां पर्यटक आते हैं, जबकि हाल ही में, मुख्य सड़क पर पाथेर पांचाली नाम का एक रेस्तरां खुला है. बंगाली पर्यटकों को बोलचाल की भाषा में "चेंजर्स" कहा जाता है। जिन्होंने बंद्योपाध्याय की याद को जिंदा रखने में योगदान दिया है. बंद्योपाध्याय अभी भी एक नामी लेखक बने हुए हैं और घाटशिला के आकर्षण का एक हिस्सा - इसके जंगलों, पहाड़ियों, हरियाली, झरनों और सुबर्णरेखा नदी के किनारों के अलावा, यहीं वह घर है जहां वे रहे और मरे. बंद्योपाध्याय ने अपनी पहली पत्नी गौरी देवी के नाम पर इसका नाम गौरीकुंज रखा. यह दाहीगोड़ा के एक गांव पंच पांडव में स्थित है.

दाहीगोड़ा मौभंडार और घाटशिला के बीच मुख्य सड़क पर है। सर्कस मैदान के नाम से जाना जाने वाला एक विशाल मैदान यहां है. जब मैं छोटा था तब यहां सर्कस लगा करता था. इसके बगल में एक सड़क है जो पंच पांडव सहित दक्षिण में गांवों की ओर जाती है, जो सुबर्णरेखा नदी के किनारे स्थित है. इस सड़क को अपुर पथ कहते हैं. अपू बंद्योपाध्याय के पाथेर पांचाली और अपराजितो का नायक है. आज वहां रोजाना सुबह बाजार लगता है और कभी-कबार मेले लगते हैं लेकिन 1980 और 1990 के दशक में, जब मैं बड़ा हो रहा था, तब ऐसा नहीं था. उस वक्त, यह एक शांत, निर्जन स्थान लगता था, जब तक कि यहां कोई मेला वगैरह न लगे। उस वक्त मैदान से परे गांव थे, लेकिन तब मेरे लिए इतनी दूर जाने की कोई वजह नहीं थी.

घाटशिला के जिस इलाके में मैं पला-बढ़ा उसे मौभंडार कहते हैं. वहां हिंदुस्तान कॉपर की एक फैक्ट्री है, जहां मेरे पिता काम किया करते थे। मेरी मां कंपनी के अस्पताल में काम करती थीं. मैं इकलौता बच्चा हूं। मेरी परवरिश इसी तरह की थी- मुझे इतनी बेफ्रिकी से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी और मैं अक्सर खुद को खयाली दोस्तों के साथ खेलते हुए पाता था. मैं बचपन से ही विभूति स्मृति संसद को देखता रहा हूं; जिस रास्ते से मैं आमतौर पर गुजरा करता था, उस पर यह एक बहुत ही देखने लायक जगह थी, लेकिन मैं कभी इसमें नहीं घुसा या गौरीकुंज नहीं गया था.