विभूतिभूषण का संसार

घाटशिला में विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की विरासत को यादगार बनाने की एक कोशिश

घाटशिला में विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की याद में बना एक स्मारक. यहां लेखक ने अपनी जिंदगी का एक हिस्सा बिताया. हांसदा सोवेंद्र शेखर
28 January, 2023

"क्या तुम घाटशिला में नहीं रहते? तुम यहीं पैदा हुए थे, है न?" सुशांतो सीत ने मुझसे पूछा. वे बहुत उत्तेजना में थे. सीत विभूति स्मृति संसद के आयोजन सचिव हैं. यह सांस्कृतिक संस्था झारखंड के पूर्वी सिंहभूमि जिले में कार्यरत है. संस्था बंगाली लेखक विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के नाम और उनकी स्मृति पर बनी है. बंद्योपाध्याय ने अपनी जिंदगी का एक हिस्सा घाटशिला में बिताया, यहीं उनकी मृत्यु भी हुई थी.

विभूति स्मृति संसद कॉलेज रोड पर एक पुराने जमाने की हवेली नुमा, लेकिन छोटी इमारत में है. जब मैं बड़ा हो रहा था, इसका सफेदी हुआ मुहरा एक जानी-मानी जगह थी, एक लैंडमार्क की तरह. बंद्योपाध्याय की विरासत घाटशिला पर छाई हुई है. राष्ट्रीय राजमार्ग पर विभूति विहार नाम का एक होटल है और बंद्योपाध्याय के एक उपन्यास के नाम पर अरण्यक नाम का एक रिसॉर्ट घाटशिला के बाहर, बुरुडीह बांध के करीब है। यहां पर्यटक आते हैं, जबकि हाल ही में, मुख्य सड़क पर पाथेर पांचाली नाम का एक रेस्तरां खुला है. बंगाली पर्यटकों को बोलचाल की भाषा में "चेंजर्स" कहा जाता है। जिन्होंने बंद्योपाध्याय की याद को जिंदा रखने में योगदान दिया है. बंद्योपाध्याय अभी भी एक नामी लेखक बने हुए हैं और घाटशिला के आकर्षण का एक हिस्सा - इसके जंगलों, पहाड़ियों, हरियाली, झरनों और सुबर्णरेखा नदी के किनारों के अलावा, यहीं वह घर है जहां वे रहे और मरे. बंद्योपाध्याय ने अपनी पहली पत्नी गौरी देवी के नाम पर इसका नाम गौरीकुंज रखा. यह दाहीगोड़ा के एक गांव पंच पांडव में स्थित है.

दाहीगोड़ा मौभंडार और घाटशिला के बीच मुख्य सड़क पर है। सर्कस मैदान के नाम से जाना जाने वाला एक विशाल मैदान यहां है. जब मैं छोटा था तब यहां सर्कस लगा करता था. इसके बगल में एक सड़क है जो पंच पांडव सहित दक्षिण में गांवों की ओर जाती है, जो सुबर्णरेखा नदी के किनारे स्थित है. इस सड़क को अपुर पथ कहते हैं. अपू बंद्योपाध्याय के पाथेर पांचाली और अपराजितो का नायक है. आज वहां रोजाना सुबह बाजार लगता है और कभी-कबार मेले लगते हैं लेकिन 1980 और 1990 के दशक में, जब मैं बड़ा हो रहा था, तब ऐसा नहीं था. उस वक्त, यह एक शांत, निर्जन स्थान लगता था, जब तक कि यहां कोई मेला वगैरह न लगे। उस वक्त मैदान से परे गांव थे, लेकिन तब मेरे लिए इतनी दूर जाने की कोई वजह नहीं थी.

घाटशिला के जिस इलाके में मैं पला-बढ़ा उसे मौभंडार कहते हैं. वहां हिंदुस्तान कॉपर की एक फैक्ट्री है, जहां मेरे पिता काम किया करते थे। मेरी मां कंपनी के अस्पताल में काम करती थीं. मैं इकलौता बच्चा हूं। मेरी परवरिश इसी तरह की थी- मुझे इतनी बेफ्रिकी से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी और मैं अक्सर खुद को खयाली दोस्तों के साथ खेलते हुए पाता था. मैं बचपन से ही विभूति स्मृति संसद को देखता रहा हूं; जिस रास्ते से मैं आमतौर पर गुजरा करता था, उस पर यह एक बहुत ही देखने लायक जगह थी, लेकिन मैं कभी इसमें नहीं घुसा या गौरीकुंज नहीं गया था.

हम बंगाली नहीं थे और हमारे पास बंद्योपाध्याय को इज्जत देने की कोई वजह नहीं थी. मेरे परिवार ने उनके बारे में सुना था, लेकिन उनकी कोई किताब किसी ने नहीं पढ़ी थी, न ही उन्होंने उनकी किसी रचना पर आधारित कोई फिल्म देखी थी. न ही बंद्योपाध्याय की लघुकथा 'हिंगर कोचुरी' पर बनी फिल्म अमर प्रेम ही देखी थी. हालांकि उन्हें धर्मेंद्र, मनोज कुमार, आशा पारेख और माला सिन्हा के बारे में पता था.

कहा जाता है कि बंद्योपाध्याय का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास पाथेर पांचाली, घाटशिला में ही लिखा गया है. 1929 में प्रकाशित इसी किताब पर फिल्म निर्माता सत्यजीत रे ने अपनी पहली फीचर फिल्म बनाई थी, जिसके लिए उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर तारीफ बटोरी.

1943 के बंगाल के अकाल पर आधारित और 1959 में मरणोपरांत प्रकाशित बंद्योपाध्याय के उपन्यास अशानी संकेत पर भी रे ने फिल्म बनाई. शायद यह बंद्योपाध्याय की प्रतिभा ही थी कि उन्होंने विभिन्न विषयों पर लिखा और उनकी लिखाई की यह एक खासियत ही थी कि वह आसानी से सिनेमा के पर्दे लायक होती. उन्होंने गांवों के बारे में, दलितों के बारे में लिखने में माहिरी हासिल की. अशानी संकेत एक गांव पर फिल्माई गई कहानी है, इसी तरह उनकी कहानी, किन्नर दाल भी, जिसके आधार पर निर्देशक तरुण मजूमदार ने आलो नाम से बंगाली फिल्म बनाई. आलो के साउंडट्रैक में रवींद्रनाथ टैगोर रचित गीत थे. बंद्योपाध्याय के लेखन में एक निश्चित सहानुभूति थी जो पाठकों को प्रभावित करती थी. चंदा चंट्टोपाध्याय बेवतरा ने अशानी संकेत का अंग्रेजी अनुवाद "डिस्टेंट थंडर" नाम से किया है. जब वह लिखती हैं, ''हालात इतने खराब हो गए थे कि छोटे बच्चों सहित पूरा परिवार चावल के मांड की भीख मांग रहा था,'' गला रुंध जाता है. यह यथार्थवाद था. 1930 के दशक में उन्होंने अफ्रिका में सेट की गई एक कहानी भी लिखी थी, चंदेर पहाड़. हालांकि वह कभी उस महाद्वीप में गई नहीं थी.

ग्रेजुएट हो जाने के बाद जब मैं घाटशिला से निकल गया तब जाकर मैंने बंद्योपाध्याय को पढ़ा. मैंने टी डब्ल्यू क्लार्क और तारापद मुखर्जी के अंग्रेजी अनुवादों को पढ़ा. पाथेर पांचाली से मैंने शुरुआत की. इसके पात्र दुर्गा और इंदिर ठाकुरुन की मौत ने मुझे कसमसा दिया. गांव की जिंदगी को और खासकर अमीर और गरीब के बीच की खाई को इसने जिस तरह दिखाया उसने मेरे मन को बेचैन कर दिया. बंद्योपाध्याय को पढ़ना काफी जानकारी भरा था, लेकिन अब इसके बारे में सोचते हुए, मुझे हैरानी होती है कि क्या लेखक का ज्ञान केवल घाटशिला के एक निश्चित दायरे तक सीमित था, जो लोग बंगाली पढ़ सकते थे, साहित्य में रुचि रखते थे और उनकी लिखाई से वाकिफ थे.

उनके काम के साथ बंगाली भाषी, शिष्ट, उच्च वर्ग के जुड़ाव को भुलाया नहीं जा सकता है और घाटशिला की ज्यादातर आबादी इस बिरादरी से नहीं है. घाटशिला का विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित है, जिनकी अपनी भाषाएं हैं. यहां तक कि अगर इस इलाके की कुछ अनुसूचित जनजातियां, जैसे कि महाली और भूमिज, बंगाली बोलती हैं, तो उनकी बोली बंद्योपाध्याय और टैगोर की किताबों की बंगाली जैसी नहीं है. शायद इसीलिए बंद्योपाध्याय का मेरे लिए या मेरे परिवार के लिए तब तक कोई मतलब नहीं था, जब तक कि मैंने उनका अंग्रेजी अनुवाद नहीं पढ़ा.

मैं अब भी यह देखता हूं कि बंद्योपाध्याय की विरासत और याद को ज्यादातर चेंजरों और उन लोगों को भी आकर्षित करने के लिए लुभावने ढंग से पेश किया जाता है, जो उन जगहों पर रहा करते करते थे जिनका नाम बंद्योपाध्याय की रचनाओं से पड़ा. चेंजर्स खासकर उस समाज के लोग हैं जहां बंद्योपाध्याय जाने जाते हैं और उनकी सराहना की जाती है। वैसे भी, बंद्योपाध्याय के बारे में जानने के बावजूद, मैंने पिछले साल तक यकीनन और जानने की कोशिश नहीं की थी, जब तब सीत की नाराजगी ने मुझे एक अज्ञानी की तरह महसूस नहीं कराया. 11 सितंबर 2022 को आखिरकार मैं विभूतिभूषण के संसाद में दाखिल हुआ. घाटशिला में बंद्योपाध्याय की याद को जिंदा रखने की कई कोशिशों पर नज़र रखने के दौरान मैंने जो सफर ​तय किया, वह कई मायनों में विचारोत्तेजक था. यह बेशक ज्ञानवर्धक था, लेकिन इसने मुझे उस जगह से फिर से जुड़ने में मदद की, जहां, जैसा कि वे बंगाली में कहते हैं, मानुष होयेछी - "जहां मैं बड़ा हुआ," या इसका शाब्दिक अर्थ लें, "जहां मैं एक इंसान बन."

गौरीकुंज में एक छोटा सा बरामदा और सिर्फ दो कमरे थे. इनमें हस्तलिखित पांडुलिपियां, लेखक को मिले पत्र और उनकी विभिन्न किताबों की प्रतियां थीं. हांसदा सोवेंद्र शेखर

जब मैं विभूति स्मृति संसद में गया तो मैंने देखा कि पूरी इमारत को सजाया जा रहा है. सामने वाले हॉल की सफाई हो रही थी और फर्श पर अल्पना बनाई जा रही थी. मैंने देखा, हवेली में पांच कमरे थे. सामने हॉल था और उसके दोनों ओर एक-एक कमरा था. जब मैं गया तो वे दोनों कमरे बंद थे. हॉल के पीछे एक बरामदा था और इसके दोनों छोरों पर कुछ और बंद कमरे थे. हवेली की बाहरी दीवारों पर बंद्योपाध्याय के जिंदगी को चित्रित किया गया था. जैसे लेखक अपने बेटे तारादास के साथ सुबर्णरेखा नदी के किनारे बैलगाड़ी की सवारी करते हुए या गिरि जलप्रपात धारा पर खड़े हुए, जहां उन्हें अपना उपन्यास इच्छामती लिखने की प्रेरणा मिली. किशोर गायेन नाम के एक स्थानीय कलाकार ने इन्हें चित्रित किया है. यह चित्रण पैतकर शैली में है. निश्चित रूप से आज यह शैली गिरावट के कगार पर है.

मैंने अल्पना बना रहे व्यक्ति से पूछा कि वे घर की सफाई क्यों कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि अगले दिन बंद्योपाध्याय की जयंती है और उसी दिन एक पुस्तकालय का भी उद्घाटन किया जाना है. मारे खुशी के हैरान, मैंने समारोह में शामिल होने का फैसला किया. पुस्तकालय, हॉल में था, जो ज्यादातर खाली था। वहां किताबों के दो रैक थे, जिनमें से हरेक लगभग तीन फीट लंबा था और दीवार से सटा कर रखा गया था. कुल मिलाकर लगभग डेढ़ सौ किताबें उसमें थी. एक नए बने पुस्तकालय के लिए यह काफी किताबें थी. हवेली को शुरू में एक आर्ट गैलरी बनाने का इरादा था, जिसका उद्घाटन 2004 में हुआ था.

मैंने रैक पर रखी किताबों को खंगाला. वे सभी बंगाली में थी. विभूति रचनावली के आठ खंड थे, साथ ही शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की संग्रहित कृतियों के तीन खंड. उनमें निमाई भट्टाचार्य, शक्ति चट्टोपाध्याय, बुद्धदेव गुहा, संजीब चट्टोपाध्याय, समरेश मजूमदार और तसलीमा नसरीन की किताबें थी.

मैंने अल्पना बनाने वाले व्यक्ति से पूछा कि इस इमारात और संस्था के बारे में मुझे ज्यादा जानकारी कौन दे सकता है, तो उन्होंने मुझे लगभग पचास फीट दूस एक विशाल हॉल की ओर जाने का इशारा कर दिया. विभूति स्मृति मंच नाम के सभागार पर उस वक्त तक मेरी नजर नहीं पड़ी थी. उन्होंने कहा, "वे कल वहां एक नाटक करने वाले हैं." घाटशिला के कवि और लेखक शेखर मलिक इस नाटक का मंचन करने वाले थे. यह लियो टॉल्सटाय की कहानी टू डियर के प्रेम चंद के किए हिंदी अनुवाद महंगा सौदा का रूपांतरण था.

रिहर्सल के लिए मंच तैयार किया जा रहा था. ज्यादा जानकारी के लिए मुझे एक सफेद शर्ट वाले जिस व्यक्ति से बात करने को कहा गया, वह चल रही तैयारियों के प्रभारी लग रहे थे. मुझे ठीक-ठीक समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं या कैसे अपने मन में उठ रहे सवालों को पूछना शुरू करूं. वजह यह थी कि घाटशिला में पला-बढ़ा होने के बाद भी मैं खुद को इतना नावाकिफ महसूस कर रहा था. मैं फिलहाल चांडिल में काम कर रहा हूं और वहां मेरी खुद की एक पहचान है, लेकिन घाटशिला में, वह जगह जहां मैं पढ़ा, बढ़ा, जहां मैंने अपनी पहली किताब लिखी, वह जगह जो जाहिर तौर पर मेरा गृहनगर है, वहां मेरी कोई ज्यादा पहचान नहीं है.

मैंने उस आदमी से पूछा कि नाटक कब शुरू होगा और सभागार कब खुलेगा. जब मैंने मुख्य इमारत के बारे में पूछा, तो उसने जवाब दिया, "वह इमारत काफी पुरानी है," और फिर रुक गया. वह मेरी ओर मुड़ा, उसका चेहरा काफी उखड़ा हुआ था। उसने पूछा, “ई शोब जिज्ञेश कोरचेन केनो? के आपनी?” -आप ये सब सवाल क्यों पूछ रहे हो? आप कौन हो? जब मैंने उन्हें बताना शुरू किया, तो उन्होंने यह कहते हुए मेरी बात काट दी कि वह जानते हैं कि मैं कौन हूं और मेरे पिता की पहचान से मुझसे पूछा. "तुमी तसीलदार बाबूर छेले? - तुम तहसीलदार बाबू के बेटे हो? "आप आज रात रिहर्सल में क्यों नहीं आते?" उन्होंने फिर पूछा. "आपको ऐसे बहुत से लोग मिल जाएंगे जो आपको विभूति स्मृति संसद के बारे में बता सकेंगे.” मुझे पता चला कि उनका नाम सुशांतो सीत था.

मैंने कहा कि मैं आउंगा और फिर जिक्र किया कि मैं गौरीकुंज, विभूतिभूषण के घर को देखना चाहता हूं और उनसे दिखा देने की गुजारिश की. सीत ने मुझे अविश्वास की नजर से देखा और पूछा, "तुमी एखाने थाको ना की? तोमर तो जोन्मो होएछे एखाने! - क्या तुम यहां नहीं रहते? तुम तो यहीं पैदा हुए थे, हैं न? मैंने उनके साथ खुलकर बात करने का फैसला किया. "मैं अब चांडिल में रहता हूं और मैं घाटशिला में पैदा नहीं हुआ था. मेरा जन्म रांची में हुआ है. मेरी परवरिश घाटशिला में हुई है, लेकिन मुझे बाहर जाने, घूमने, भटकने की इजाजत नहीं थी, इसलिए…” मैंने अपने कंधे उचकाए, आगे कुछ कह न सका. "आपने अपुर पथ देखा है, है न?" सीत ने पूछा. मैंने सिर हिलाया और उन्होंने मुझे वहां का रास्ता दिखा दिया. और फिर मुझे वह करने के लिए छोड़ दिया जो मुझे अपने बचपन और जवानी में करना चाहिए था : तलाश करना.

बंद्योपाध्याय ने अपनी पहली पत्नी गौरी देवी के नाम पर अपने घर का नाम गौरीकुंज रखा. यह दाहीगोड़ा के एक गांव पंच पांडव में स्थित है. हांसदा सोवेंद्र शेखर

उस दोपहर मैं अपुर पथ से होते हुए गौरीकुंज गया. मुझे याद आया कि 2000 के दशक में एक बार मैं अपनी मां के साथ एक शादी में इसके आसपास के इलाके में आया था. लोगों से पूछते-पाछते, कुछ घूमने के बाद मुझे घाटशिला के सबसे प्रसिद्ध पतों में से एक मिल ही गया. मैं थोड़ा शर्मिंदा था- मुझे गौरीकुंज खुद से क्यों नहीं मिला? रविवार का दिन था और वहां ताला लगा हुआ था इसलिए मैंने अगले दिन फिर से आने का फैसला किया.

शाम को मैं विभूति स्मृति मंच में महंगा सौदा की रिहर्सल में शामिल हुआ. मुझे याद नहीं आ रहा था कि मैंने आखिरी बार मंच पर कब कोई नाटक देखा था. चांडिल में, छाऊ नृत्य प्रदर्शन एक सनक है, जबकि घाटशिला में ग्रामीण और शहरी संवेदनाओं का मिश्रण है और बौद्धिकता की काफी हवा है - खासकर मौभंडार और मोसाबोनी में, जहां क्रमश: तांबे के कारखाने और खदानें हैं. कॉपर कंपनी की मौजूदगी ने एक क्लब संस्कृति को जन्म दिया। कंपनी द्वारा संचालित कर्मचारियों का क्लब. उदाहरण के लिए, मौभंडार में एक कॉपर क्लब, एक गोल्फ क्लब और एक महिला क्लब था, जबकि मोसाबोनी में एक मनोरंजन क्लब और एक सिनेमा क्लब था. (सिनेमा क्लब की इमारत बहुत पहले गिर गई थी और मनोरंजन क्लब आज केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल का क्षेत्रीय प्रशिक्षण केंद्र है.) इनके अलावा, घाटशिला में नागरिक संचालित क्लब भी थे- वे नागरिक मुख्य रूप से बंगाली थे. हर मामले में घाटशिला की प्रमुख संस्कृति हमेशा बंगाली ही थी - खासकर 1990 के दशक में, यह भद्रलोक और रवींद्र संगीत, भव्य दुर्गा पूजा उत्सव के इर्द-गिर्द घूमती थी और कलकत्ता से इसका जुड़ाव होना आम बात थी.

रिहर्सल के दौरान सीत ने मुझे अनूप दत्ता नाम के एक सज्जन से मिलवाया और मुझसे कहा कि मैं जो जानना चाहता हूं वह उनसे पूछूं. दत्ता, जो अब रिटायर हो चुके हैं, भारतीय रेलवे के कर्मचारी हुआ करते थे और जमशेदपुर में तैनात थे. मूल रूप से पश्चिम बंगाल के नदिया जिले के कृष्णानगर से, वह 1980 में घाटशिला में आकर बस गए थे, जहां की उनकी पत्नी थीं. वहीं से दत्ता शीतल प्रसाद भट्टाचार्य के संपर्क में आए, जो एक शिक्षाविद थे और पुरुलिया में रघुनाथपुर कॉलेज के प्रिंसिपल रह चुके थे. दत्ता ने याद किया कि भट्टाचार्य भी काफी अच्छी तरह से जुड़े हुए थे और वे कलकत्ता के विभिन्न लेखकों और बुद्धिजीवियों के संपर्क में थे, जो सालों से सर्दियों के दौरान घाटशिला आते थे. उन्होंने सामूहिक रूप से तय किया था कि घाटशिला में बंद्योपाध्याय का स्मारक होना चाहिए .

भट्टाचार्य ने उनके साथ मिलकर 1964 में विभूति स्मृति संसद की स्थापना की और इसके अध्यक्ष रहे. गौरीकुंज से नजदीकी के चलते उन्होंने दाहीगोढ़ा में जमीन मांगी, लेकिन उन्हें जमीन नहीं मिली. दत्ता ने समझाया कि उन्होंने गौरीकुंज में ही एक स्मारक बनाने की कोशिश की थी लेकिन उस संपत्ति को हासिल करना इतना पेचीदा था कि उन्हें लगा कि लेखक के नाम पर एक नया, अलग स्मारक बनाना ही आसान होगा. आखिरकार उन्होंने कॉलेज रोड पर एक संपत्ति देखी और वहीं विभूति स्मृति संसद अस्तित्व में आई. वह जमीन और उस पर बनी हवेली पर मालिकाना असल में कलकत्ता के एक जमींदार का था लेकिन इसे घाटशिला के एस कुमार एंड कंपनी को बेच दिया गया था, जो वहां एक सिनेमा हॉल बनाना चलाती थी. दत्त ने मुझे बताया, "भट्टाचार्य और कलकत्ता के बुद्धिजीवियों ने एस कुमार एंड कंपनी से जमीन के लिए इतनी मिन्नतें की कि वे मना नहीं कर पाए. आखिरकार, दान के जरिए जुटाए गए पैंतीस हजार रुपए का अग्रिम भुगतान उस भूमि के लिए कर दिया गया." मैंने पूछा कि जमीन के लिए उनसे किसने संपर्क किया था और उन्होंने सौमित्र चटर्जी साथ ही अभिनेता रॉबी घोष और अनुभा गुप्ता जैसे लोगों का नाम गिनाना शुरू किर दिया. चटर्जी ने सत्यजीत रे की फिल्म अपूर संसार में वयस्क अपू की भूमिका निभाई थी.

दत्ता ने कहा, "यह पूरी जमीन 33 या 34 छोटे टुकड़ों में बांटी गई थी और हर टुकड़ा उस शख्सियत के नाम पर पंजीकृत किया गया था जिसने इसके लिए धन दान किया था." जमीन लेने और इसके लिए बना-बनाया भवन मिलने के बाद भी विभूति स्मृति संसद पैसे की कमी के चलते करीब दो दशकों तक कुछ खास नहीं कर सकी.

आखिरकार, जब कुछ पैसा इकट्ठा हो गया, तो स्मारक बनाने का कार्य बंद्योपाध्याय की अर्धप्रतिमा की स्थापना से शुरु हुआ. अर्धप्रतिमा कलकत्ता के प्रसिद्ध मूर्तिकार गौतम पाल ने बनाई थी और 1982 में घाटशिला में इसे स्थापित किया था. इसके रखरखाव के लिए धन इकट्ठा करने के लिए अन्य योजनाएं बनाई गई थीं- मेघ मल्लार संगीत विद्यालय, जिसका नाम बंद्योपाध्याय की कहानियों के संग्रह के नाम पर रखा गया था, 1980 के दशक के दौरान इसी इमारत में चलता था और इसी तरह पेंटिंग स्कूल भी यहां था. लेकिन पैसे की कमी ने उन गतिविधियों की विफलता को भी सुनिश्चित कर दिया था.

हालांकि, ऐसा लगता है कि विभूति स्मृति संसद ने इतने दशकों के बाद अब खुद को पुनर्जीवित किया है. मैं 12 सितंबर को बंद्योपाध्याय के जन्मदिन के कार्यक्रम में शामिल हुआ था. मुख्य अतिथि जाने-माने हिंदी लेखक रणेंद्र थे, जो रांची में झारखंड सरकार के डॉ. राम दयाल मुंडा जनजातीय अनुसंधान संस्थान के निदेशक और प्रगतिशील लेखक संघ की झारखंड इकाई के अध्यक्ष हैं. उन्होंने पुस्तकालय का उद्घाटन किया. साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें पहला सुबर्णशिला पुरस्कार भी दिया गया.

जैसे-जैसे कार्यक्रम आगे बढ़ा, मुझे याद आया कि बंगालियों के घाटशिला आने का एक कारण गौरीकुंज भी था. मैं समझने लगा था कि एक अलग स्मारक की जरूरत क्यों पड़ी जबकि बंद्योपाध्याय के जीवन का एक हिस्सा गौरीकुंज पहले से ही था. मैंने विभूति स्मृति सांसद के अध्यक्ष, देबी प्रसाद ​मुखर्जी से पूछा, क्या वह गौरीकुंज के साथ काम करने का स्वागत करेंगे. "बेशक," उन्होंने बिना पलक झपकाए कहा. "हम प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं." दोपहर के भोजन का कार्यक्रम जैसे ही खत्म हुआ, मैं गौरीकुंज के लिए निकल पड़ा.

मुझे पता चला कि गौरीकुंज का प्रबंधन एक संस्था कर रही थी जो वहीं अपुर पाठशाला नामक एक स्कूल भी चलाती थी. बंद्योपाध्याय के बेटे के नाम पर एक तारादास मंच भी वहां है. हांसदा सोवेंद्र शेखर

बंद्योपाध्याय ने गौरीकुंज नहीं बनवाया था. वहां बसने का फैसला करने से पहले ही वे नियमित घाटशिला आते रहते थे. गौरीकुंज के नाम से जाना जाने वाला घर असल में घाटशिला के निवासी अशोक दत्ता की संपत्ति थी, जो लेखक से परिचित हो गए थे और कभी उनसे पांच सौ रुपए उधार लिए थे. वह उस पैसे को चुका नहीं पा रहे थे और कलकत्ता में बंद्योपाध्याय के साथ रास्ता पार करने पर इतना शर्मिंदा हुए कि उन्होंने अपना छोटा सा घर, पंच पांडव, लेखक को दे दिया. दत्ता के मुताबिक, यह 1930 के दशक में हुआ था और उस वक्त घर में एक खैराती संगठन चलाया जाता था. दत्ता ने आगे बताया कि वास्तव में बंद्योपाध्याय के घर खरीदने की एक वजह यह भी थी कि उनका डॉक्टर भाई, नट बिहारी इस इलाके में आकर लोगों की सेवा कर सके। वह लगभग सोलह किलोमीटर दूर धालभूमगढ़ में एक डिस्पेंसरी चलाते थे.

बंद्योपाध्याय की गौरी से कोई संतान नहीं थी. बाद में उन्होंने रामा चट्टोपाध्याय से शादी की, जिनसे उनका एक बेटा हुआ। उनकी एकमात्र संतान, बंगाली लेखक तारादास बंद्योपाध्याय, जिनका जन्म 1947 में हुआ था. बंद्योपाध्याय का तीन साल बाद निधन हो गया. उनकी मृत्यु के बाद, रामा ने हमेशा के लिए घाटशिला छोड़ने का फैसला किया और अपने बेटे के साथ बराकपुर में बंद्योपाध्याय के परिवार के घर लौट आई. तापस चटर्जी नाम के एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि गौरीकुंज बिना किसी लिखत-पढ़त के घाटशिला के एक निवासी को चला गया, जो एक पुजारी था और बंद्योपाध्याय के जिंदा रहते अक्सर वहां आया करता था.

जब मैं गौरीकुंज पहुंचा, तो वह खुला हुआ था लेकिन शांत था. उसमें न तो ज्यादा जगह थी और न ही विभूति स्मृति संसद की तहर चहल-पहल. उस वक्त वहां होने वाला मैं अकेला आगंतुक था, हालांकि दिन में हुए उत्सव के संकेत जाहिर थे. घर के सामने बंद्योपाध्याय की अर्धप्रतिमा थी, जिसके चारों ओर गेंदे की माला थी. इसके एक छोर पर तारादास मंच नाम का एक मंच था, जिसका नाम बंद्योपाध्याय के बेटे के नाम पर रखा गया था.

मुझे पता चला कि गौरीकुंज का संचालन गौरीकुंज उन्नयन समिति नाम की एक संस्था कर रही थी, जो वहीं अपुर पाठशाला नाम से एक स्कूल चलाती थी. मैंने उस आम के पेड़ को देखा जो बंद्योपाध्याय के छोटे भाई ने जाहिर तौर पर उनके लिए लगाया था. दीवारों पर उसी पैतकर शैली में, बंद्योपाध्याय के जीवन की कहानी कहते, उसी कलाकार के बनाने चित्र थे. गौरीकुंज में एक छोटा सा बरामदा और सिर्फ दो कमरे थे. इनमें बंद्योपाध्याय के पहनने कपड़े, हस्तलिखित पांडुलिपियां, उन्हें मिले पत्र और उनकी विभिन्न किताबों की प्रतियां, जिनमें आम अंतिर भेपू, किन्नर दल, मेघ मल्लार और पाथेर पांचाली शामिल हैं, सभी कांच के शोकेस में संरक्षित हैं, साथ ही उनके जीवन और उनके काम की सूची का विवरण देने वाले चार्ट भी हैं.

चटर्जी और गौरीकुंज उन्नयन समिति की वेबसाइट ने मुझे बताया कि बंद्योपाध्याय हर साल दुर्गा पूजा से ठीक पहले घाटशिला आते थे और होली के बाद तक यहीं रहते थे और सजनीकांत दास, राधारमण मित्र, सुशील कुमार डे और नीरद चौधरी सहित उनके लेखक मित्रों ने भी गौरीकुंज में उनसे मुलाकात की थी.

पैतकर कला के रूप में लेखक के जीवन के कुछ हिस्सों का चित्रण किशोर गायेन नाम के एक स्थानीय कलाकार ने किया था. हांसदा सोवेंद्र शेखर

अभी मैं चटर्जी से मिलने की सोच ही रहा था कि दो ऑटोरिक्शा रुके, दोनों पर्यटकों से भरे हुए थे. एक ऑटोरिक्शा वाले ने बताया कि वे पर्यटक कोलकाता से आए थे. वे पुरुलिया में दुआर्सिनी जंगल घूमना चाहते थे, लेकिन जब उन्हें याद आया कि आज बंद्योपाध्याय का जन्मदिन है, तो वे गौरीकुंज चले आए.

चटर्जी ने बताया कि यह लोकप्रियता कोई नई भी नहीं है. "मैं 1990 के दशक की शुरुआत में एक टूर गाइड था. मेरे पास एक ऑटोरिक्शा हुआ करता था जिसमें मैं चेंजर्स को घाटशिला की सैर कराता था. वे सभी बिना चूके गौरीकुंज जाते. उनके यात्रा कार्यक्रम में यह सबसे पहला यही होता. लेकिन गौरीकुंज की जीर्ण-शीर्ण हालत को देखकर वे निराश हो गए. उन्होंने इस तरह की टिप्पणियां कीं, 'तुम सबने विभूतिभूषण के घर का क्या किया है?' और मुझे बहुत बुरा लगा. तभी मैंने फैसला किया कि मैं गौरीकुंज के जीर्णोद्धार की दिशा में काम करूंगा.

बंगालियों द्वारा संचालित घाटशिला के विभिन्न क्लबों ने जीर्णोद्धार में अपनी भूमिका निभाई. चटर्जी ने योगदान के लिए बंगाली मूल के पांच क्लबों से, जिनमें से एक, संस्कृति संसद के वह खुद प्रमुख थे, यह बताते हुए संपर्क किया कि कैसे इसे एक निजी आवास से सार्वजनिक क्षेत्र में वापस लाया गया और बंद्योपाध्याय के नाम पर उनके अपने पूर्व निवास के बजाए यहां पर एक स्मारक क्यों स्थापित किया गया. चटर्जी ने बताया कि गौरीकुंज को बहाल करने की कोशिशें 1995 में शुरू हुईं. वह कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे और स्थानीय राजनीति में सक्रिय थे. 1997 में, उन्होंने स्थानीय विधायक से बहाली का समर्थन करने की गुजारिश की, लेकिन विधायक की कोशिशों के बावजूद कुछ भी नहीं किया जा सका, क्योंकि गौरीकुंज के संबंध में अनापत्ति प्रमाण पत्र लेखक के बेटे और कानूनी उत्तराधिकारी से प्राप्त नहीं किया जा सका. आखिर में, 2008 में, विभूति स्मृति संसद ने घाटशिला में एक कार्यक्रम आयोजित किया, जिसमें तारादास को आमंत्रित किया गया था; वहां, नागरिकों ने उनसे तब तक लगभग खंडहर हो चुके गौरीकुंज को नागरिकों को सौंपने का अनुरोध किया ताकि एक वहां एक स्मारक स्थापित किया जा सके. वह आखिरकार सहमत हो गए.

इसके तुरंत बाद गौरीकुंज उन्नयन समिति अस्तित्व में आई और पुनर्निर्मित गौरीकुंज का उद्घाटन फरवरी 2009 में हुआ. अपुर पाठशाला, जो मुफ्त बंगाली शिक्षा देती है, 2018 में ही खोली गई थी. चटर्जी ने मुझे बताया कि वह गौरीकुंज के रखरखाव के लिए हर महीने सात हजार रुपए के करीब खर्च करते हैं. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि गौरीकुंज और विभूति स्मृति संसद के बीच कोई टकराव नहीं है. उन्होंने कहा, "वास्तव में, विभूति स्मृति संसद में आज जिस पुस्तकालय का उद्घाटत हुआ है उसके लिए मैंने भी कुछ किताबों का सहयोग किया है." हालांकि, वह आज के समय में पुस्तकालयों की भूमिका को लेकर चिंतित थे. "कौन पुस्तकालय में जाएगा और विश्वकोश या कोई शब्दकोश पलटेगा? संस्कृति संसद के पुस्तकालय में हमारे पास करीब तीन हजार किताबें हैं. आजकल कौन पढ़ता है? कोई नहीं."

आज जनता की पढ़ने की आदत में गिरावट के बारे में चटर्जी का विचार निर्विवाद है, लेकिन बंद्योपाध्याय की विरासत के सामूहिक संरक्षण के लिए उन्होंने और दूसरे लोगों ने जो कोशिशें की हैं, उससे पता चलता है कि मजबूत इरादे बहुत आगे तक ले जा सकते हैं. लेकिन अभी भी कई मुद्दों पर सवाल उठ रहे हैं.

विभूति स्मृति संसद के कार्यक्रम में मुझे बस एक आदिवासी, संथाल, ही दिखा, लेकिन वह भी शायद इसलिए था क्योंकि वह उस थिएटर समूह का सदस्य था जिसने महंगा सौदा के रूपांतरण का मंचन किया था. जिस समय नाटक का मंचन हो रहा था, उस समय मेरी मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से हुई जिसने स्मारक को "होटल" कहा. मेरा मानना है कि ऐसे कई लोग हैं जिनके लिए बंद्योपाध्याय नाम सुनते ही शायद दिमाग में कोई बात आए. भले ही उनकी शिक्षा या साक्षरता या सामान्य ज्ञान का स्तर कुछ भी हो. बंद्योपाध्याय और उनकी रचनाओं के नाम पर रखे गए व्यावसायिक उद्यमों के चलते उनका कुछ परिचय हो सकता है, लेकिन उनकी विरासत भाषा या पृष्ठभूमि की बाधाओं को नहीं लांघ पाती है. भले ही घाटशिला में बंद्योपाध्याय की याद को जिंदा रखने की दिशा में वहां के बुद्धिजीवियों ने सराहनीय योगदान दिया हो, लेकिन तथ्य यह है कि यह योगदान देने वाला बस बुद्धिजीवी वर्ग है. बहरहाल, यह देखना दिलचस्प था कि किस तरह घाटशिला ने बंद्योपाध्याय को समृद्ध किया और उनकी विरासत अपने तरीके से घाटशिला को समृद्ध कर रही है.