बीसवीं सदी की शुरुआत में रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने निबंध "भारतबर्शेर इतिहास" में भारतीय इतिहास को बार-बार आने वाले बुरे सपने की एक कड़ी के तौर पर देखा. टैगोर इस निबंध की शुरुआत इस नजीर से करते है कि, "भारत का इतिहास, जिसे हम इम्तहान पास करने के लिए पढ़ते और याद करते हैं वह कौन कहां से आया, लोग एक दूसरे से लगातार लड़े, किसके बेटे और भाइयों ने सिंहासन के लिए गुत्थम-गुत्था की, एक समूह गायब हुआ और दूसरे ने उसकी जगह ले ली, जैसी घटनाओं की कहानियां है.”
टैगोर आगे कहते हैं :
इसमें भारतीय कहां हैं? इसका जवाब ये इतिहासकार नहीं देते. मानो, जो महज युद्धों और हत्याओं में लिप्त हैं, उनका ही वजूद है, भारतीयों का नहीं. ...नौजवानी में, वह इतिहास है जो किसी को अपने देश से रूबरू कराता है. लेकिन हमारे मामले में बिल्कुल उलटी बात है. हमारे इस इतिहास ने हमारे देश को गुमनामी के जंजीरों से जकड़ रखा है.
हम भारत की कहानी को ठीक से कहना कैसे आरंभ करें? यह सवाल टैगोर ने पूछा और जवाब देने की कोशिश की. अब एक सदी से भी ज्यादा वक्त बाद, इसी सवाल को नए सिरे से पेश किया जा रहा है. जनवरी 2020 में कोलकाता में दिए भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय इतिहास लेखन में कथित गलतियों को दूर करने के लिए टैगोर के इसी निबंध का हवाला दिया था. और इस साल जून में, शिक्षा, औरतों, बच्चों, युवाओं और खेल पर संसदीय समिति ने विद्यार्थियों, शिक्षकों और विशेषज्ञों से "पाठ्य पुस्तकों से हमारे राष्ट्रीय नायकों के बारे में अनैतिहासिक तथ्यों और विकृतियों के संदर्भों को हटाने" और "भारतीय इतिहास के सभी कालखंडों के लिए समान या आनुपातिक संदर्भ तय करने" के सुझाव मांगे हैं.
यह विचार कि भारतीय इतिहास को गलत तरीके से पढ़ाया गया है, और यह तरीका भारत के अतीत के साथ न्याय नहीं करता है और हमारा इतिहास औपनिवेशिक और मार्क्सवादी पूर्वाग्रहों से लिखा गया है, और नए साक्ष्यों के आधार पर इसे दुबारा लिखने की जरूरत है, धीरे-धीरे लोकप्रिय बनता जा रहा है. यह समझने के लिए ऐसा क्यों है, नए इतिहास की जरूरत के एक खास नुमांइदे संजीव सान्याल के काम को करीब से देखने-परखने की आवश्यकता है.
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