भारत के अतीत के पुनर्लेखन की संजीव सान्याल की दलीलों की असंगतियां

आयुष्मान पोरेकर/हिंदुस्तान टाइम्स
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29 May, 2022

बीसवीं सदी की शुरुआत में रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने निबंध "भारतबर्शेर इतिहास" में भारतीय इतिहास को बार-बार आने वाले बुरे सपने की एक कड़ी के तौर पर देखा. टैगोर इस निबंध की शुरुआत इस नजीर से करते है कि, "भारत का इतिहास, जिसे हम इम्तहान पास करने के लिए पढ़ते और याद करते हैं वह कौन कहां से आया, लोग एक दूसरे से लगातार लड़े, किसके बेटे और भाइयों ने सिंहासन के लिए गुत्थम-गुत्था की, एक समूह गायब हुआ और दूसरे ने उसकी जगह ले ली, जैसी घटनाओं की कहानियां है.”

टैगोर आगे कहते हैं :

इसमें भारतीय कहां हैं? इसका जवाब ये इतिहासकार नहीं देते. मानो, जो महज युद्धों और हत्याओं में लिप्त हैं, उनका ही वजूद है, भारतीयों का नहीं. ...नौजवानी में, वह इतिहास है जो किसी को अपने देश से रूबरू कराता है. लेकिन हमारे मामले में बिल्कुल उलटी बात है. हमारे इस इतिहास ने हमारे देश को गुमनामी के जंजीरों से जकड़ रखा है.

हम भारत की कहानी को ठीक से कहना कैसे आरंभ करें? यह सवाल टैगोर ने पूछा और जवाब देने की कोशिश की. अब एक सदी से भी ज्यादा वक्त बाद, इसी सवाल को नए सिरे से पेश किया जा रहा है. जनवरी 2020 में कोलकाता में दिए भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय इतिहास लेखन में कथित गलतियों को दूर करने के लिए टैगोर के इसी निबंध का हवाला दिया था. और इस साल जून में, शिक्षा, औरतों, बच्चों, युवाओं और खेल पर संसदीय समिति ने विद्यार्थियों, शिक्षकों और विशेषज्ञों से "पाठ्य पुस्तकों से हमारे राष्ट्रीय नायकों के बारे में अनैतिहासिक तथ्यों और विकृतियों के संदर्भों को हटाने" और "भारतीय इतिहास के सभी कालखंडों के लिए समान या आनुपातिक संदर्भ तय करने" के सुझाव मांगे हैं.

यह विचार कि भारतीय इतिहास को गलत तरीके से पढ़ाया गया है, और यह तरीका भारत के अतीत के साथ न्याय नहीं करता है और हमारा इतिहास औपनिवेशिक और मार्क्सवादी पूर्वाग्रहों से लिखा गया है, और नए साक्ष्यों के आधार पर इसे दुबारा लिखने की जरूरत है, धीरे-धीरे लोकप्रिय बनता जा रहा है. यह समझने के लिए ऐसा क्यों है, नए इतिहास की जरूरत के एक खास नुमांइदे संजीव सान्याल के काम को करीब से देखने-परखने की आवश्यकता है.

सान्याल के काम से मेरा पहला साबका तब पड़ा जब मैं एक नए निजी विश्वविद्यालय में बतौर शिक्षक काम कर रही थी. खेतों के बीच बना इसका बड़ा कैम्पस था. उत्साही इंजीनियर मेरी कक्षाओं में आते, कभी-कभी सान्याल की किताबें हाथों में लेकर, इस उम्मीद में कि मैं उनके लिए भारत के अतीत को उसकी भव्यता के साथ पेश करूंगी. एक अकादमिक इतिहासकार के रूप में, मैं इसके लिए तैयार नहीं थी. मैंने अभी-अभी अपनी डॉक्टोरियल थीसिस जमा की थी. यह मेरी पहली नौकरी थी. मैं "गर्व करने" के संदर्भ में अतीत के बारे में सोचने में सहज नहीं थी.

जल्द ही, मुझे हर जगह उनकी किताबें दिखाई देने लगीं, खासकर हवाईअड्डे की किताबों की दुकानों में. वहां उनकी किताबें सस्ते सजावटी गहनों और चॉकलेटों के बगल में रखी हुई होतीं. फिर, उनके वीडियो व्हाट्सएप पर फॉरवर्ड होने लगे : “संजीव सान्याल, पूर्व बैंकर और अब एक अर्थशास्त्री, जो एक आइजनहावर फेलो भी हैं. सुनिए उनका छोटा भाषण जो भगवा नहीं है लेकिन और जानकारियों से भरा है. अब लोग भारतीय इतिहास की किताबों को फिर से लिखने की जरूरत पर सवाल नहीं उठाएंगे.”

वीडियो में, सान्याल मजाकिया और आकर्षक और सहज दिखाई देते हैं. उनकी अंग्रेजी उनके सफेद कुर्ते की तरह साफ है, शब्दों का उनका चुनाव उतना ही सटीक है जितना कि उनके करीने से कढ़े बाल. पोडियम तक पहुंचते हुए वह एक पेशेवर की सहजता, एक कहानीकार के लुत्फ, एक अच्छे बहसबाज की इठलाहट की झलक देते हैं.

लिखना और बात कहने का अंदाज सान्याल के हुनर का हिस्सा हैं. उनके विकिपीडिया पेज या उनकी अपनी वेबसाइट पर जाएं तो आपको पता चलेगा कि फिलहाल वह भारत सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार हैं. इससे पहले, वह ड्यूश बैंक में एक वैश्विक रणनीतिकार और प्रबंध निदेशक थे. रोड्स से शुरू होने वाली फेलोशिपों की एक प्रभावी सूची वहां मिलती है. सान्याल के हिस्से कई खिताब हैं जैसे "युवा वैश्विक नेता" "अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित अर्थशास्त्री" "पर्यावरणविद" "शहरी सिद्धांतकार" "भारत के इतिहास और भूगोल पर सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों के लेखक." इतना ही नहीं, वह कविताएं भी लिखते हैं.

उनकी सफलता की चमक विषयों और विचारों की उनकी उड़ान की तरह ही सम्मोहक है. उनकी पुराने को खत्म करके नए को स्थापित करने की इच्छा पारे की तरह चंचल है. सान्याल ने अपनी पहली किताब, द इंडियन रेनेसां, में उन्होंने 1991 के आर्थिक उदारीकरण को, "जब भारत को खुद को दुनिया के लिए खोलने पर मजबूर किया गया था" एक महत्वपूर्ण मोड़ बताया है. उनके अनुसार, वह लिखते हैं कि भारतीय इतिहास पर इसका दीर्घकालिक असर "पुनर्जागरण के बाद पश्चिमी यूरोप में जो देखा गया था" उससे कम नहीं है. उदारीकरण “न केवल एक आर्थिक क्रांति थी, बल्कि एक सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति भी थी. इसने भारत के बदलाव को मुमकिन बनाया और दुनिया में उसकी जगह बनाई.” अब जनसांख्यिकीय परिवर्तन, प्राथमिक शिक्षा क्रांति और एक नए मुखर मध्यम वर्ग से प्रेरित भारत प्रगति के एक नए युग में कदम रख सकता था. भारतीय “खुद पर फिर से भरोसा करना शुरू कर सकते थे.”

राजनीतिक अर्थव्यवस्था की इस नजर में उदारीकरण ने भारत को नेहरूवादी समाजवाद की बेड़ियों से आजाद कर दिया. सान्याल के पास पूर्व सरकारों के लिए सिर्फ लानत-मलानत है, जिसे वह जवाहरलाल नेहरू और उनके आर्थिक सलाहकार प्रशांत चंद्र महालनोबिस के साथ जोड़ते हैं. वह " नेहरूवादी दृष्टि" की बात करते हुए एक जबरदस्त अलंकारिक आडंबर के साथ कहते हैं कि यह "महज एक अंतर्मुखी सांस्कृतिक नजरिए की नई नवेली अभिव्यक्ति थी जिसने लगभग एक सहस्राब्दी तक भारतीय सभ्यता को दबाए रखा है, जो विदेशी विजेताओं की तुलना में कहीं अधिक लंबा दौर है."

सान्याल हमें बताते हैं कि महालनोबिस ने अर्थव्यवस्था को "यांत्रिक खिलौना" के रूप में समझा, जो इनपुट और आउटपुट की प्रणाली पर आधारित एक स्थिर गणितीय मॉडल है. इस तरह की योजना में निजी उद्यम के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी. इसने रचनात्मकता का भी गला घोंट दिया. इस चरमराती, पुरानी मशीन से भरी जगहों को सान्याल गति और चपलता पर आधारित एक नए ढांचे से बदलने की बात करते हैं, जो अर्थव्यवस्था को "जटिल अनुकूली प्रणाली" के रूप में देखती हो, जिसके प्रबंधन के लिए त्वरित जानकारी एकत्र कर सकने और दृढ़ राजनीतिक दृष्टि की जरूरत होती है.

सान्याल हमें यकीन दिलाते हैं कि संकीर्ण विशेषज्ञता का युग समाप्त हो गया है. इस विषय में उनके हस्तक्षेप की ताकत इंटर डिशिप्लीनरी की उनकी वकालत में रची बसी है. जैसा कि वह हमें बताते हैं, "साफ-सुथरे साइलो शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए उपयोगी हो सकते हैं, लेकिन असल दुनिया अलग-अलग खांचों में काम नहीं करती है."

आजकल इतिहासकार के शिल्प को ऐसा माना जाता है जिसे आसानी से सीखा जा सकता है यानी कि इसमें दार्शनिक या वैचारिक सहूलियत के आधार पर नैरेटिव गढ़ने की काबीलियत से ज्यादा और किसी कौशल की जरूरत नहीं होती है. लेकिन इतिहास में विशेषज्ञता, किसी भी अन्य विषय की तरह, कड़ी मेहनत से हासिल की जाती है, सालों की तालीम से हासिल की जाती है. सान्याल एक काबिल अर्थशास्त्री हो सकते हैं, लेकिन ऐतिहासिक शोध के प्रोटोकॉल के बारे में उनकी नासमझी का मतलब है कि उनके कई नैरेटिव बहुत ज्यादा गलतियों से भरे हैं. अगर मैं उनके ऐतिहासिक उपक्रमों पर जोर देता हूं, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके काम में अतीत की एक धारणा है, यहां तक कि उनके आर्थिक विश्लेषण में एक खास तरह के इतिहास की धारणा निहित है जो भारतीय समाज की उनकी दृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा है.

पेशावर में अशोक का शिलालेख. अगर इतिहासकार अशोक के शिलालेखों और स्तंभलेखों के प्रमाणों को तरजीह देते हैं, तो इसका कारण यह है कि वह अशोक की आवाज में उसके वक्त को बयां करते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि वे उन्हें जस का तस मान लेेते हैं. अलामी फोटो

सान्याल की इतिहास दृष्टि के साथ जो तमाम समस्याएं हैं उन्हें समझने के लिए जरूरी है कि हम उनकी कई अभिव्यक्तियों को एक साथ लें जैसे उनकी किताबें, कॉलम और वीडियो क्योंकि सभी एक ही थान से सीले गए हैं. उदाहरण के लिए, 2016 में आई उनकी किताब द ओशन ऑफ चर्न में अशोक के चरित्र के "पुनर्पाठ" को लें. सान्याल को अपने अशोक के डीकंस्ट्रक्शन पर गर्व है. उनके काम की असंगतियों का यह एक नमूना भर है.

यह कुछ इस तरह शुरू होता है : 274 ईसा पूर्व में मौर्य शासक बिंदुसार अचानक बीमार पड़ गए और उनकी मृत्यु हो गई. तख्त का दावेदार राजकुमार सुशीमा साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर घुसपैठ को रोक रहा था. जब तक मौत की खबर उसके पास पहुंची और वह वापस पाटलिपुत्र पहुंचा तो उसने पाया कि उसके सौतेले भाई अशोक ने पहले ही सिंहासन हथिया लिया था. खुद को सम्राट का ताज पहनाने के बाद अशोक ने अपने सभी मर्द प्रतिद्वंद्वियों की हत्या कर दी परंतु अपने सगे भाई तिस्सा को छोड़ दिया. खून-खराबे ने उन सैकड़ों शाही अधिकारियों को भी ​लील लिया जिन्होंने उसके कू विरोध किया था.

कहानी दमदार लगती है. लेकिन अगर आपने इसे अपनी किताबों में कभी पढ़ा या सुना नहीं है, तो इसका एक कारण यह है कि इतिहासकारों ने दिखाया है कि इस तरह की बातें पुष्ट नहीं हैं क्योंकि ये अशोक की मौत के कई सदियों बाद लिखी गई किंवदंतियां हैं. सान्याल यह बताते हैं कि वह इन पौराणिक बातों को तरजीह क्यों देते हैं. वह कहते हैं:

अशोक के समर्थक दावा करेंगे कि नरसंहार की ये बातें झूठी हैं और उन्हें बाद के समय में कट्टरपंथी बौद्ध लेखकों ने जोड़ा था. यह वास्तव में एक संभावना है, लेकिन मैं पाठकों को याद दिला दूं कि मेरी वैकल्पिक कथा बिल्कुल उन्हीं ग्रंथों और शिलालेखों पर आधारित है जिनका इस्तेमाल सम्राट की प्रशंसा करने के लिए किया जाता है. संदेहवाद को सामान रूप से सभी सबूतों पर लागू किया जाना चाहिए, न कि केवल पाठ के उन हिस्सों पर जो मुख्यधारा के नैरेटव से बेमेल हैं.

सान्याल हमें यह भरोसा दिलाते हैं कि इतिहासकारों को इन सामग्रियों के बारे में पता था लेकिन उन्होंने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि उन्हें शासक की महानता को गढ़ने का जिम्मा सौंपा गया था.

वास्तव में, इतिहासकारों का कल्पित वृत्तांतों के साथ एक लंबा और असहज संबंध रहा है. उदाहरण के लिए, 1928 में आई किताब “अशोक” के लेखक राधाकुमुदी मुखर्जी ने अशोक के शुरुआती जीवन के पुनर्निर्माण के लिए श्रीलंकाई इतिहास (दीपवंश और महावंश), चीनी तीर्थयात्रियों आई-त्सिंग और युआन च्वांग के विवरणों के साथ-साथ बौद्ध जीवनी अशोकवादन में निहित सामग्रियों का इस्तेमाल किया. इन ग्रंथों की अविश्वसनीयता पर टिप्पणी करते हुए, मुखर्जी ने लिखा, "किंवदंतियां खुद कई जगहों पर एक दूसरे का विरोध कर रही हैं और इस तरह कुल मिला कर स्वयं के साथ और अधिक धोखा करती हैं." उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इन बयानों में निहित कई प्रमुख विवरणों में विसंगतियां और मतभेद थे और अशोक के अभिलेखों में निहित जानकारी के साथ ग्रंथों की तुलना करने पर और भी अधिक विसंगतियां दिखाई दीं.

मुखर्जी जो कर रहे थे, उसे स्रोत आलोचना कहते हैं, और यह एक ऐसा तरीका है जिससे हर इतिहासकार प्रशिक्षित होता है. यह भी कुछ ऐसा है जो सान्याल के काम में पूरी तरह से नदारद है. किसी साहित्यिक पाठ के मामले में, स्रोत आलोचना के लिए जरूरी है कि हम इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए इसका इस्तेमाल करने से पहले किसी पाठ के संदर्भ, रचनाकारिता, दर्शक-पाठक और एजेंडा को समझें. नतीजतन, अगर इतिहासकार पौराणिक वृत्तांतों का इस्तेमाल किफायत और सावधानी से करते हैं, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि वे समझते हैं कि इन ग्रंथों का अपना एजेंडा है. खासकर, चूंकि इन बातों ने अशोक को सबसे बेहतरीन बौद्ध शासक के रूप में स्थापित किया है, वे अक्सर बौद्ध धर्म में उसके रूपांतरण की भव्यता को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, उसे एक तरफ भयंकर और भयानक शासक के रूप में पेश करते हैं जो एक धर्मी राजा में बदल जाता है. अगर हम अशोक के बाद के जीवन को समझना चाहते हैं कि कैसे बौद्ध परंपरा के भीतर उनकी कल्पना और पुनर्कल्पना की गई तो इसके लिए महावंश या अशोकवदान जैसे बेहद दिलचस्प स्रोत हैं. लेकिन अगर हम ऐतिहासिक शासक के जीवन और समय का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं तो उनका बहुत कम इस्तेमाल होता है.

हमें किसी ऐसे शख्स की पूरी तरह से सटीक जीवनी का पुनःलेखन की असंभवना को भी पहचानना चाहिए जो बहुत पहले हुआ था. सबूत टूटे-फूटे हैं और रिकॉर्ड में बहुत बड़ा फर्क है. अगर इतिहासकार अशोक के शिलालेखों और स्तंभलेखों को तवज्जो देते हैं, तो इसका कारण यह है कि वे अशोक की आवाज में उसके समय को दिखाते हैं. लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं है कि इतिहासकार इन स्तंभलेखों को जस का तस सही मान लेते हैं. लगभग हर इतिहासकार, जिसने अशोक के शिलालेख XIII का अध्ययन किया है, जो कलिंग की लड़ाई के बाद उसके पश्चाताप का विवरण देता है, वह मानता है कि यह प्रचार सामग्री की तरह है. वह यह भी जानता है कि यह शिलालेख ओडिशा में नहीं मिला है, जिस क्षेत्र में युद्ध हुआ था और इसमें अताविका या वनवासियों के लिए एक चेतावनी है कि राजा के पास अभी भी जरूरत पड़ने पर उन्हें कुचलने की कूबत है. इन पहलुओं पर सान्याल हमें कुछ भी नया नहीं बता रहे हैं.

सान्याल की अशोक कथा स्रोतों की व्याख्या करने में बहुत छूट लेती है. श्रीलंकाई इतिहास में बताई गई एक कहानी का इस्तेमाल करते हुए, उन्होंने अशोक की तुलना "आधुनिक समय के कट्टरपंथियों से की, जो कार्टूनिस्टों को मारते हैं, जिन पर वे अपने धर्म का अपमान करने का आरोप लगाते हैं." लेकिन, जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, पौराणिक लेख भरोसेमंद जरिया नहीं हैं जिन पर इस तरह के दावों को आधार बनाया जा सके. इसके अलावा, अशोक की मौत के कई शताब्दियों बाद रचित एक श्रीलंकाई इतिहास में एक कहानी को अशोक के खुद के शिलालेखों, जैसे रॉक एडिक्ट XII से ज्यादा भरोसे लायक क्यों माना जाता है, जहां वह विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच समन्वय के महत्व की बात करता है? इसी तरह, सान्याल अन्य किंवदंतियों को हमें यह बताने के लिए पेश करते हैं कि "अशोक की परियोजना" "भारतीय इतिहास में अब तक किए गए बड़े पैमाने के धार्मिक नरसंहारों में पहला नरसंहार था और यह कि उसके धम्म-महामत्त "धार्मिक पुलिस" थे. ये कथन न केवल उन सबूतों पर आधारित हैं जिनको साबित नहीं किया जा सकता है और वे गलत भी हैं क्योंकि वे कालानुक्रमिक हैं. वे एक ऐसे अतीत पर आधुनिक वर्गीकरण को थोपते हैं जहां ऐसी श्रेणियां मौजूद ही नहीं थीं.

सान्याल के काम में इस तरह की अराजकता आम है. इस तरह, अशोक की जगह पर, वह चाणक्य और अर्थशास्त्र का महिमामंडन करते हैं. यह तर्क देते हुए कि नेहरूवादी परियोजना के वैचारिक पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए इतिहास के ऐसे "उत्तर-समाजवादी पठन" की जरूरत है. अर्थशास्त्र के विवादास्पद लेखक कौटिल्य के चरित्रों को चंद्रगुप्त मौर्य के सलाहकार चाणक्य के साथ मिलाते हुए, वह यहां तक पूछ बैठते हैं, "तो कौटिल्य अगर आज जीवित होते तो क्या करते?" वह खुद इसका जवाब देते हैं, न्यायिक व्यवस्था को ठीक करते; आतंकवादियों, माओवादियों, अपराधियों और विभिन्न प्रकार की भीड़ को खत्म करने के लिए आंतरिक सुरक्षा में भारी निवेश करते और कराधान प्रणाली और प्रशासनिक ढांचे को नाटकीय रूप से सरल बनाते. यह खाका नीति परिवर्तन के लिए सान्याल के ब्लूप्रिंट के बारे में कौटिल्य ने जितना सोचा होगा, उससे कहीं ज्यादा हमें बताता है. यह चोरी छिपे मुंह दबाए अपनी बात कहने की हद है, क्योंकि सान्याल पाठ पर वह सब थोप रहे हैं जो वह चाहते हैं. एक बिंदु पर वह अर्थशास्त्र को अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के अग्रदूत के बतौर भी संदर्भित करते हैं.

चाणक्य के प्रति उनका आकर्षण गहरा है. सान्याल हमें बताते हैं कि वह मूल रूप से "तक्षशिला विश्वविद्यालय में राजनीतिक अर्थव्यवस्था का प्रोफेसर" था जिसने चंद्रगुप्त मौर्य के साथ मिलकर मौर्य साम्राज्य की नींव धरी, जिसने “लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप” को अपने में समा लिया. सान्याल के अनुसार, न केवल चाणक्य ने अर्थशास्त्र लिखा था, बल्कि एक समृद्ध अर्थव्यवस्था और कुशलता से संचालित प्रशासन पर उसका लेखन मौर्य राज्य की वास्तविकता के अनुरूप है.

यह व्याख्यात्मक प्रतिमान लगभग पांच दशक पुराना है. 1971 में विद्वान थॉमस ट्रौटमैन के सांख्यिकीय और भाषाशास्त्रीय विश्लेषण ने प्रदर्शित किया कि अर्थशास्त्र रचना और शैली में असमानता दर्शाता है जो इशारा करता कि यह एक संयुक्त कार्य है. बाद के शोध ने इस खोज की पुष्टि की है. अर्थशास्त्र की रचना किसी एक लेखक ने नहीं की थी. बल्कि इसमें कई परंपराओं और विचारों की छाप है. यह कोई मार्गदर्शिका नहीं है जो यह बताती है कि मौर्य राज्य कैसे संचालित होता है, बल्कि एक शास्त्र हैयानी एक ऐसा पाठ जो राजनीतिक विचार की प्रकृति को समेकित करता है क्योंकि यह प्रारंभिक ऐतिहासिक काल में विकसित हुआ था. चाणक्य और कौटिल्य के बीच की कड़ी को अब स्वीकार नहीं किया जाता है क्योंकि संस्कृत के विद्वान मार्क मैक्क्लिश और पैट्रिक ओलिवल हमें बताते हैं, "न केवल हम मौर्य काल से चाणक्य या अर्थशास्त्र के किसी भी प्रमाण को खोजने में विफल रहे, बल्कि खुद अर्थशास्त्र मूल रूप से इसके लेखक, कौटिल्या और महान चाणक्य के बीच कोई संबंध नहीं बनाता." और अंत में, जेरार्ड फ्यूसमैन से लेकर नमिता सुगंधी तक विद्वानों की एक श्रृंखला है जिन्होंने दिखाया है कि सान्याल की कल्पना के विशाल, केंद्रीय रूप से नियंत्रित साम्राज्य के विपरीत मौर्य राजनीतिक नियंत्रण परिवर्तनशील और सीमित रहा होगा, खासकर सीमाओं के बारे में अस्पष्ट होने के कारण.

इसका मकसद अशोक या चाणक्य की महानता को साबित या खारिज करना नहीं है क्योंकि इतिहासकार अब स्वर्ण युग या महापुरुषों पर काम नहीं करते हैं. इसके बजाय, इसका अर्थ यह दिखाना है कि कैसे सान्याल के इतिहास लेखन में विसंगतियां भरी हुई हैं. ठीक यही काम उनके कई अन्य केस स्टडियों के साथ भी किया जा सकता है. तो, मुद्दा अब उनके आख्यानों की सटीकता के बारे में नहीं है. इसके बजाय, हमें पूछना होगा : वह उन्हें क्यों गढ़ रहे हैं? उनके तर्कों का योग और सार कहां से आता है?

प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में शिलालेख. सान्याल की अशोक कथा स्रोतों की व्याख्या करने में बहुत छूट लेती है. विकिमीडिया कॉमन्स

सान्याल ने कहा कि वह अतीत को समझने की कोशिश करते हैं ताकि यह समझ सकें कि "भारतीय होने का क्या मतलब है." यह एक गहरी व्यक्तिगत विभक्ति के साथ एक परियोजना है जो लैंड ऑफ द सेवन रिवर से स्पष्ट है, जो 2012 में प्रकाशित हुई और जिसे उन्होंने अपने बेटों को समर्पित किया ताकि "वे जान सकें कि वे कहां से आए हैं." लेकिन उनके सार्वजनिक बयान अक्सर लोगों के लिए इतिहास के महत्व से परे जाते हैं. सान्याल कई सालों से भारतीय इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को फिर से लिखने की जरूरत पर जोर दे रहे हैं. अपने कई वीडियो में से एक में वह इस परियोजना के बारे में यही कहते हैं :

भारतीय इतिहास के बारे में यह मुद्दा अब काफी ज्वलंत विषय बन गया है.वास्तव में, कुछ सालों से ऐसा चल रहा है. और मैं आपको यह बताने जा रहा हूं कि मुझे क्यों लगता है कि भारतीय इतिहास पर पुनर्विचार करने का का केस मजबूत है. और जिस पंक्तियों का मैं इस्तेमाल करना पसंद करता हूं वह एक अफ्रीकी कहावत है जो मूल रूप से इस तरह है, "जब तक शेर अपनी कहानी नहीं कहेंगे तब तक शिकारी शिकार का महिमामंडन करते रहेंगे." इसलिए, जब तक हम अपनी खुद की कहानी बताना नहीं सीखते और अपने बारे में उसी तरह सोचना जारी रखते हैं जैसे दूसरे हमें परिभाषित करते हैं, हम उनके गुलाम बने रहेंगे. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी कहानी खुद बताएं. लेकिन एक वास्तविक समस्या यह है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम अपनी कहानी खुद नहीं बताते हैं और जब हम ऐसा करते हैं, तो भारी पक्षपात होता है.

कहावत का स्रोत लेखक चिनुआ आचेबे हैं, हालांकि सान्याल ने उनका हवाला नहीं दिया है. आचेबे के उद्धरण में थोड़ा अलग ताल है : "जब तक शेर अपने इतिहासकारों का निर्माण नहीं करते, तब तक शिकार की कहानी केवल शिकारी का महिमामंडन करेगी." यह कहावत, सभी कहावतों की तरह, परंपरा को जिम्मेदार ठहराती है. कोई भी इसका कैसे भी इस्तेमाल कर सकता है, लेकिन हम सटीक स्रोत को कमतर नहीं कर सकते. यह भी सच है कि एक परंपरा के प्रवाह के भीतर, रचनाकारिता और गुणदोष धरने के ऐसे सवाल मायने नहीं रखते.” लेकिन, जैसा कि आचेबे ने बाद में कहावत के बारे में कहा भी है कि वह पूरी तरह सच नहीं है. आचेबे यहां शाब्दिक सत्य के बजाय एक नैतिक सत्य की बात कर रहे है : "आखिर में मुझे एहसास हुआ कि दिक्कत क्या थी : खुद शेर. शेर खुद को इतना ताकतवर दिखाता है कि वह सच को लेकर कभी संतुष्ट नहीं हो सकता.”

अफ्रीका के श्वेत साहित्यिक आख्यानों से आचेबे का अलगाव भी भारतीयों के अपने इतिहास के साथ संबंधों के लिए उपयुक्त रूपक नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के लिए इतिहास का अनुशासन बिल्कुल केंद्रीय था. विवादग्रस्त क्षेत्रों, विद्वतापूर्ण कार्यों, समाचार पत्रों के स्तंभों और जर्नल लेखों में, बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं ने समान रूप से अतीत को पुनः प्राप्त करने की कोशिश की ताकि भविष्य पर दावा किया जा सके. इस बौद्धिक और सांस्कृतिक हलचल में, इतिहास उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद, क्षेत्रीय पहचान के दावे, सामाजिक विरोध की अभिव्यक्ति और सांप्रदायिक विचारधाराओं के निर्माण का औजार बन गया. और, जैसे-जैसे ये आख्यान भाषणों, नाटकों और उपन्यासों के जरिए लोकप्रिय क्षेत्र में प्रवेश करते गए-वे अक्सर अतीत की महिमा का आह्वान करने वाले तरीके बन गए.

इतिहास पर वाद-विवाद उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी की व्यापक बौद्धिक संस्कृति का हिस्सा बना गया. यह एक खुली बहस थी जो उदार और विशिष्ट थी, जो सीखने के लिए आत्मविश्वास, विनम्रता और उदारता से होती थी. इसके बिना भारतीय राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती थी. सच है, स्वतंत्रता के बाद ये बहसें कम हो गईं क्योंकि एक राष्ट्र और इसकी संस्थाओं के निर्माण के कार्य के लिए रचनात्मक ऊर्जाएं जुटाई गईं. लेकिन यह तर्क देना कि "हमारी बौद्धिक दुनिया को अपर्याप्त रूप से खत्म कर दिया गया है," जैसा कि सान्याल करते हैं, गलत है.

सान्याल शुरू से ही भारतीय इतिहास की महान निरंतरताओं की तलाश में निकल पड़ते हैं. ऐसा करते हुए वह प्राचीन काल में गोते लगाते रहते हैं. हमें बताया जाता है कि भारतीय इतिहास का "स्वर्ण युग" ग्यारहवीं शताब्दी से पहले का काल था. यह एक ऐसा समय था जब "भारतीय समाज ने अपने जोखिम लेने वालों का जश्न मनाया," जब उसने "नवाचार और परिवर्तन को प्रोत्साहित किया." यह "योग, बीजगणित, शून्य की अवधारणा, शतरंज, प्लास्टिक सर्जरी, धातु विज्ञान, हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म" का भारत था. सान्याल ने भारत के "प्राचीन विश्व भर में असाधारण आर्थिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रभाव" की तुलना बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभुत्व से की. हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत, भारत स्पष्ट रूप से पूरी तरह से शांतिपूर्ण महाशक्ति था. समय और स्थान के दायरे में, सान्याल असाधारण अंतर्संबंध बनाते हैं. वह एक महान, सुनहरे अतीत की तस्वीर बनाने के लिए संस्कृतियों और राजवंशों की एक पूरी मेजबानी को ध्वस्त करते हुए, एक सहज कथा बनाने के लिए सदी से सदी तक, राज्य से राज्य और तट से तट तक झूलते फिरते हैं.

एक एकल, सतत सूत्र के रूप में भारतीय इतिहास की यह दृष्टि सान्याल के "सभ्यतावादी राष्ट्रवाद" के विचार के केंद्र में है. इसमें उनका प्रवेश बिंदु महाभारत है. वह हमें बताते हैं:

चूंकि कुरुक्षेत्र की लड़ाई में भारत की सभी जनजातियों और राज्यों को शामिल किया गया था, इसलिए महाभारत हमें राज्यों, कुलों और शहरों की लंबी सूची देता है. उनमें से कई संभवतः बाद के समय में पाठ में जोड़े गए थे. बहरहाल, यह लौह युग के दौरान भारतीय विश्व दृष्टिकोण का एक विचार देता है. महाभारत नाम अपने आप में दिलचस्प है क्योंकि इसे 'ग्रेटर इंडिया' के रूप में पढ़ा जा सकता है. यह एक महाकाव्य के लिए समझ में आता है जो उपमहाद्वीप के सभी कुलों को शामिल करने वाली कहानी बताने का दावा करता है. यह पाठ स्वयं एक आदिम सम्राट भरत के नाम की व्याख्या करता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने पूरे देश को जीत लिया था (लेकिन केंद्रीय भूखंड में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाता). इसलिए महाकाव्य को भरत लोगों के इतिहास के रूप में बताया गया है. चूंकि एक सर्व-विजेता सम्राट भरत का कोई स्वतंत्र प्रमाण नहीं है, विचार आता है कि क्या यह ऋग्वेद में वर्णित शक्तिशाली भरत जनजाति की प्रतिध्वनि है. क्या दस जनजातियों के खिलाफ सुदास की जीत ने सभ्यतागत राष्ट्रवाद का एक सपना पैदा किया जो सहस्राब्दियों से प्रतिध्वनित होता आ रहा है?

यह हैं क्लासिकल सान्याल : उपरोक्त पूरा पैराग्राफ तथ्य के रूप में अटकलें लगाने की कवायद है. सान्याल विभिन्न संभावनाओं की सांकेतिक पहचान के साथ शुरुआत करते हैं. फिर, वह हमें बताए बिना, उन सभी संभावनाओं को पार कर जाते हैं जिनसे वह सहमत नहीं हैं. तार्किक रूप से, अगर बाद के समय में राज्यों, कुलों और शहरों की सूची को जोड़ा गया, तो वे लौह युग के दौरान भारतीय विश्व दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित नहीं कर सकते थे. पाठ का शीर्षक, महाभारत, का अनुवाद "ग्रेटर इंडिया" के रूप में नहीं किया जा सकता है. इसके बजाय, इसका अर्थ है "महा युद्ध [भरत वंश का]." भरत की आकृति के महत्व का केंद्रीय भूखंड में उनकी मौजूदगी या गैरमौजूदगी से कोई लेना-देना नहीं है. इसके बजाय, इसका इस तथ्य से लेना-देना है कि कहानी के सभी केंद्रीय किरदार कौरव और पांडव समान रूप से, उसके वंशज हैं. यही कारण है कि उन्हें "भारत" कहा जाता है. हां, यह सच है कि ऋग्वेद में दस राजाओं की लड़ाई और महाभारत की कहानी की रचना के बीच एक संबंध है, लेकिन यह हमें " सभ्यतावादी राष्ट्रवाद का एक सपना जो सदियों से प्रतिध्वनित होता है" का विस्तार समझने की इजाजत कतई नहीं देता है. आखिर में, भले ही महाभारत को संस्कृत साहित्यिक परंपरा में इतिहास के रूप में- अतीत के बारे में एक कहानी- वर्गीकृत किया गया हो, इसका मतलब यह नहीं है कि हम इसे सचमुच इतिहास के रूप में पढ़ सकते हैं.

सान्याल ने महाभारत पर अपनी चर्चा का समापन करते हुए अचानक गियर बदल दिया. 1947 में भारत का विभाजन, सान्याल कहते हैं, "आंशिक रूप से भारत की सभ्यतागत राष्ट्रवाद के विचार में एक मौलिक भिन्नता के कारण था." आप पूछ सकते हैं कि भारत के विभाजन का महाभारत से क्या लेना-देना है. सान्याल ने स्पष्ट उत्तर नहीं दिया. लेकिन उनके तर्क का कुल निचोड़ साफ है : भारतीय सभ्यता हिंदू सभ्यता है, जिसका विस्तार हमारी "सभ्यतावादी राष्ट्रवाद" है.

1953 में आम्रपाली में प्रशांत चंद्र महलानोबिस और जवाहरलाल नेहरू. सान्याल के मन में पहले के शासन के लिए बस लानत-मलानत है. सान्याल हमें बताते हैं कि महालनोबिस ने अर्थव्यवस्था को "यांत्रिक खिलौना" के रूप में समझा, जो इनपुट और आउटपुट की प्रणाली पर आधारित एक स्थिर गणितीय मॉडल है. सौजन्य प्रशांत चंद्र महलनोबिस मेमोरियल संग्रहालय और अभिलेखागार / भारतीय सांख्यिकी संस्थान.

हालांकि सान्याल के लेखों के तर्क में एक हिंदू भारत का तर्क और इसके सभ्यतागत इतिहास की केंद्रीयता, उनके व्याख्यानों और वीडियो में स्पष्ट अभिव्यक्ति पाती है. एक उदाहरण उनके 2016 के व्याख्यान "भारतीय इतिहास वास्तव में कितना सच है?” से मिलता है:

एक बात मैं अक्सर सुनता हूं, खासकर पढ़े लिखे लोगों से, कि भारतीय गैरऐतिहासिक लोग हैं, यानी, हम अपने अतीत की परवाह न करने में दुनिया में अद्वितीय हैं. अब यह यकीनन दुनिया की सबसे पुरानी निरंतर सभ्यता के बारे में चौंकाने वाला आरोप है. यहां ऐसे लोग हैं जो सामान्य बातचीत में मुहावरों और विचारों और नामों को लिखते—बोलते हैं जो कि लौह युग के महाकाव्यों में दिखाई देते हैं. हर दिन, लाखों हिंदू गायत्री मंत्र का जाप करते हैं, जिसे कांस्य युग में वैदिक संस्कृत के बहुत प्राचीन रूप में रचा गया था, जो तीन हजार पांच सौ से पांच हजार साल पहले रचा गया था, यह इस पर निर्भर करता है कि आप किससे पूछते हैं. तो, स्पष्ट रूप से हम, अगर कुछ भी हों, अतीत से ग्रस्त लोग हैं, जो हमारी सभ्यता की निरंतरता से ग्रस्त हैं. और यह एक निरंतरता है जिसे हमने अपने खून से सींचा है. तो, निश्चित रूप से यह अजीब है कि हम पर यह आरोप लगाया जाता जाता कि हमारी इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं है … मैं तर्क दूंगा कि असली समस्या यह है कि हम सहज रूप से जानते हैं कि हमें जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह इतिहास जो हमारी पाठ्यपुस्तकों में है, वास्तव में झूठा है.

ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो यह उद्धरण दो धारणाओं को चिह्नित करता है : पहला, कि वैदिक ग्रंथ भारतीय सभ्यता के स्रोत हैं और दूसरा, कि भारतीयों को बार-बार विदेशी आक्रमणकारियों से लड़ना पड़ा है. सान्याल के भारतीय इतिहास के दृष्टिकोण में, भारत में मुसलमान और ईसाई हमेशा बाहरी होते हैं- चाहे व्यापारियों के रूप में शांतिपूर्वक प्रवेश कर रहे हों या आक्रमणकारियों के रूप में हिंसक रूप से प्रवेश कर रहे हों. राणा प्रताप का संघर्ष और भील आदिवासियों की उनकी सेना, विजयनगर राज्य की आखिरी चौकी और मुगलों के खिलाफ अहोमों के दावे, सभी को प्रतिरोध की वंशावली के रूप में रखा गया है.

सान्याल की पहली किताब, द इंडियन रेनेसां : इंडियाज राइज आफ्टर ए थाउजेंड इयर्स ऑफ डिक्लाइन का उपशीर्षक दर्शाता है कि उनके इस वैचारिक पूर्वाग्रह ने शुरू से ही उनके नैरेटिव को आकार दिया है. यह मुस्लिम मध्ययुगीन और ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की "बारह सौ साल की दासता" की हिंदू दक्षिणपंथी प्रस्तुति को प्रतिध्वनित करता है. पुस्तक के शुरुआती पन्नों में हमें बताया गया है कि विभाजन ने उपमहाद्वीप को "मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान और हिंदू-बहुल भारत" में विभाजित कर दिया.

सान्याल के लिए, भारतीय सभ्यता के मूल मूल्य हिंदू मूल्य हैं. अगर हम दुनिया में अपना स्थान पक्का करना चाहते हैं तो हमें इन्हीं पर निर्माण करना होगा. मूल रूप से 2016 में इकोनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित "बिल्डिंग ए फ्रेमवर्क फॉर पॉलिसी एंड गवर्नेंस फॉर सिविलाइजेशनल वैल्यूज" शीर्षक के लेख में सान्याल और भारतीय जनता पार्टी के सांसद जयंती सिन्हा ने बताया है कि सफल "राजनीतिक अर्थव्यवस्था प्रणाली" वह है जो "अपने सभ्यतागत मूल्यों में गहराई से निहित हैं." ये सभ्यतागत मूल्य क्या हैं जिन्हें "एक वास्तविक भारतीय राज्य के लिए एक आंतरिक रूप से सुसंगत विश्वास प्रणाली को परिभाषित करने" के लिए लामबंद किया जा सकता है? वे जिन चार तत्वों का उल्लेख करते हैं, वे हैं कर्म (जिसका अर्थ यह है कि "हर व्यक्ति अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार है"), धर्म (प्रत्येक व्यक्ति "कर्तव्यों के एक जाल से बंधा हुआ है, जिसे व्यक्तिगत हित की परवाह किए बिना पूरा किया जाना है"), मंथन और कानून के शासन (मत्स्यन्याया के संदर्भ में व्याख्या की गई - ऐसी स्थिति को रोकने की आवश्यकता है जहां बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है).

इस ढांचे के साथ बहुत बड़ी समस्याएं हैं क्योंकि यह राज्य के तंत्र को धार्मिक रूप से सूचित शब्दावली के साथ बदलने के बराबर है. भारतीय संविधान को तैयार करने, विचारों के लेन-देन में हुई चर्चाओं को पर्याप्त "भारतीय" नहीं होने के रूप में देखा जाता है. इसके बजाय जो पेशकश की जाती है वह एक "सभ्यता संबंधी मैट्रिक्स" है जिसमें एक नागरिक के पास कोई अधिकार नहीं है, केवल कर्तव्य हैं. इस मिशन के बयान को संविधान की प्रस्तावना के साथ तुलना करके देखना होगा कि क्या गायब है : यहां न्याय, स्वतंत्रता, समानता या बंधुत्व का कोई उल्लेख नहीं है.

क्योंकि सान्याल के ऐतिहासिक आख्यान का मूल रोमांस हैं, उन्हें ऐतिहासिक जटिलता की बहुत कम समझ है. अगर हम एक उदाहरण के रूप में हिंदू धर्म की उनकी चर्चा को लेते हैं, तो सान्याल का तर्क है कि हिंदू धर्म को एक जटिल अनुकूली प्रणाली के रूप में समझा जा सकता है, "एक दूसरे के साथ लगातार बातचीत कर रहे परस्पर संबंधित और अन्योन्याश्रित तत्वों का एक जैविक, विकसित पारिस्थितिकी तंत्र." मैं इससे एक स्तर पर सहमत हूं. समस्या यह है कि चल रही परंपरा को समझने की कोशिश करने के बजाय, उनका व्याख्यात्मक प्रतिमान प्राचीन ऋषियों के पास लौटता है और वह हमें बताते हैं, "हो सकता है कि उन्होंने जानबूझकर स्थापित किया हो ... हिंदू धर्म की लचीली, अनुकूली वास्तुकला." यह एक विरोधाभास है क्योंकि सीएएस विश्लेषण के लिए गतिकी की समझ केंद्रीय है. इसका अर्थ यह है कि हिंदू धर्म को इतिहास के माध्यम से समझना होगा- किसी मूल क्षण या शाश्वत, अपरिवर्तनीय परंपरा के संदर्भ में नहीं, बल्कि कुछ ऐसा जो समय, स्थान, संप्रदाय और समाज की विशिष्टताओं के संबंध में विकसित हुआ. सान्याल के विश्लेषण से ऐसा बारीक विवरण पूरी तरह से गायब है. और अंत में, जबकि पदानुक्रमित संगठन भी एक सीएएस का हिस्सा है, सान्याल की हिंदू धर्म की बयानबाजी जाति के बारे में पूरी तरह से चुप है.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि निरंतरता इतिहास का हिस्सा है. अतीत असंख्य तरीकों में जीवित रहता है. हमारे द्वारा खाए जाने वाले खाद्य पदार्थों में, हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली लिपियों में, अनुष्ठान के रूप में, सोचने के तरीकों में और दुनिया में होने में. लेकिन इतिहास परिवर्तन का एक पैटर्न है जितना कि दोहराव का. उदाहरण के लिए, रामायण और महाभारत न केवल कांस्य युग के महाकाव्य हैं, बल्कि ऐसी कहानियां भी हैं जिन्हें समय के साथ बताया और दोहराया गया. हर बार कहे जाने पर, वह बदलती हैं और रुपांतरित होती हैं और ये परिवर्तन उनकी कहानी का उतना ही हिस्सा हैं जितना कि उनकी निरंतरता. इसी प्रकार सान्याल इस बात पर जोर देते हैं कि भारतीय अशोक को भूल गए थे और उन्हें उन्नीसवीं शताब्दी में जाकर फिर से खोजा गया था. यहां, वह यह उल्लेख करने में विफल रहते हैं कि यही प्रक्रिया अर्थशास्त्र के लिए भी सही है, जो इसी तरह भुला दी गई और फिर बीसवीं शताब्दी में फिर से खोजी गई.

अगर परिवर्तन, जितना कि निरंतरता, इतिहास का हिस्सा है, सान्याल भारतीय सभ्यता की निरंतरता का दावा कैसे कर सकते हैं? 2017 के जयपुर लिटरेरी फेस्ट में हिंडोला सेनगुप्ता से बातचीत में उन्होंने कहा कि, “हम सुनते हैं, आप जानते हैं, “एक राष्ट्र के रूप में भारत एक आधुनिक निर्माण है. यह वास्तव में 1947 में शुरू हुआ था.” और, अजीब तरह से, यह एक औपनिवेशिक विचार की प्रतिध्वनि है ... स्पष्ट कारणों से, उपनिवेशवादी यह कहना चाहते थे कि भारत में किसी भी तरह की सभ्यता या राष्ट्र होने की भावना नहीं थी. लेकिन, वास्तव में, भारतीयों में बहुत लंबे समय से किसी न किसी प्रकार के राष्ट्र होने की भावना रही है. पुराणों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि, "बर्फीले पहाड़ों के दक्षिण में, हिमालय और गहरे समुद्र के उत्तर में, भरतम् के पुत्र रहते थे." तो, आप जानते हैं, आपके पास वह है. उदाहरण के लिए, आपके पास तीर्थयात्राओं का क्रीस-क्रॉसिंग भी है. आपके पास आदि-शंकराचार्य जैसे चरित्र भी हैं जो देश को पार करते हैं और फिर मठों की स्थापना करते हैं, अगर आप मठों के स्थान को देखते हैं, तो वे यादृच्छिक नहीं हैं; वे देश के चारों कोनों पर हैं. इसलिए, यहां राष्ट्रीयता की भावना बहुत प्रबल है. और यह भी एक तथ्य कि यह किसी न किसी तरह एक पवित्र भूगोल से भी जुड़ा हुआ है. तो, यह एक बहुत पुराना विचार है. और यह एक विचार है जिसे न केवल भारतीयों ने बल्कि खुद बाकी दुनिया ने भी माना है.”

सभ्यतागत राष्ट्रवाद का उनका मिथक भारत के लिए उनके मूल मिथक का आधार है. लेकिन सभ्यता पर जो चर्चा उन्होंने की है, वह कोई नई नहीं है. जैसा कि इतिहासकार सब्यसाची भट्टाचार्य ने अपनी शानदार किताब टॉकिंग बैक में प्रदर्शित किया है कि भारतीय सभ्यता का विचार भारतीय राष्ट्रवाद की धाराओं के हिस्से के रूप में बीसवीं शताब्दी में उभरा. वास्तव में, सान्याल ने उपरोक्त साक्ष्य के रूप में जिन तत्वों का हवाला दिया, वे राधाकुमुद मुखर्जी द्वारा 1914 में प्रकाशित द फंडामेंटल यूनिटी ऑफ इंडिया में दिए गए तर्कों को लगभग बिंदु-दर-बिंदु दोहराते हैं. ये पुराने राष्ट्रवादी तर्क हैं, जिन्हें नए समय के लिए फिर से लिखा गया है. लेकिन, अजीब तरह से, मुखर्जी जैसे विद्वान सान्याल के उद्धरणों में कभी नहीं आते हैं. अगर उन्होंने ऐसा किया भी, तो यह इंगित करने योग्य है कि सान्याल की सभ्यता और राष्ट्र का संगम ऐतिहासिक रूप से अस्थिर है क्योंकि- सभ्यताओं के विपरीत राष्ट्रों का निर्माण आधुनिक है. अंत में, भारतवर्ष का विचार, जैसा कि इतिहासकार बीडी चट्टोपाध्याय हमें दिखाते हैं, दिक और काल में नियत जोसतत नहीं था, बल्कि इसमें एक विकसित ब्रह्मांड विज्ञान शामिल था जो कभी भी एक राजवंश द्वारा शासित क्षेत्र के अनुरूप नहीं था.

जाहिर है, सान्याल का इतिहास राष्ट्रवादी इतिहास से कहीं अधिक है. यह साफ तौर पर दक्षिणपंथी है. समस्या यह है कि उनकी चालाकी अक्सर लोगों को उनके काम की प्रकृति को समझने से रोकती है. सान्याल की किताबों की समीक्षाएं उनके "आकर्षक" आख्यानों और कहानी कहने की "चतुर" कला की सराहना करती हैं; हमें बताया गया है कि उनका लेखन, "बुद्धि और बुद्धिमत्ता दोनों से ओत-प्रोत है"; वह एक "गुप्त सुधारक" हैं;उनकी किताबें "भारत के हर जिज्ञासु युवा दिमाग के हाथों" तक पहुंचनी चाहिए और "हर भारतीय भाषा में अनुवादित" होनी चाहिए. इस बीच, पेंगुइन रैंडम हाउस अपने पाठकों को "द ग्रेट इंडियन कलेक्शन" नामक एक सेट ऑफर करता है, जिसमें सान्याल की लैंड ऑफ सेवन रीवर के साथ है शशि थरूर की इंडिया : मिडनाडट टू मिलेनियम और रामचंद्र गुहा की गांधी बिफोर इंडिया शामिल हैं इस तरह एक बेमेल खिड़ची तैयार होती है.

निबंध दर निबंध, सान्याल खुद को पुराने प्रतिष्ठान के आलोचक के रूप में पेश करते हैं, जो भारत के प्रतिष्ठित अभिजात वर्ग का एक ताना-बाना है. ऐसा करके वह खुद को सान्याल खुद को नरेन्द्र मोदी के साथ जोड़ते हैं जिन्हें वह अपने "एक नए भारत के स्वप्न की पूर्ति के रूप में देखते हैं, जो अतीत के आमूल-चूल परिवर्तन पर आधारित है." नतीजतन वह सत्ताधारी प्रतिष्ठान का हिस्सा हैं. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट की माने तो उनका फोन नंबर अमित शाह के स्पीड डायल पर है.

दक्षिणपंथी शासन के साथ जुड़ कर, सान्याल इसके विचारक हैं. वह एक नए बौद्धिक समूह का हिस्सा हैं जो हमारे समय की राजनीतिक-संस्कृति को सामान्य बनाना चाहता है. उनका उदय स्वराज्य जैसे नए ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के साथ हुआ है जो बौद्धिक रूप से जायकेदार हिंदुत्व के प्रसार को संभव करता है.

सान्याल खुद को नरेन्द्र मोदी के साथ जोड़ते हैं जिन्हें वह अपने "एक नए भारत के स्वप्न की पूर्ति के रूप में देखते हैं, जो अतीत के आमूल-चूल परिवर्तन पर आधारित है." नतीजतन वह सत्ताधारी प्रतिष्ठान का हिस्सा हैं.

इन आख्यानों को पुख्ता करने के लिए, यह तर्क देना जरूरी है कि भारतीय इतिहासकारों ने अब तक यह सब गलत पाया है. उदाहरण के लिए, सान्याल लगातार ऐतिहासिक प्रतिष्ठान को परिवर्तन के विरोधी के रूप में प्रस्तुत करते हैं. उनका तर्क है कि वे "पुरानी विद्वता को कायम रखते हैं" और औपनिवेशिक और मार्क्सवादी पूर्वाग्रहों के अलावा "अपनी राय के साथ सबूतों को मिलाते हैं". वह हमें बताते है:

इतिहास अभी भी काफी हद तक इस तरह लिखा गया है जैसे कि यह किसी एकआयामी कारक द्वारा पूर्व-निर्धारित है : ऐतिहासिक भौतिकवाद, भूगोल, जनसांख्यिकी या महापुरुष (अपना चयन करें). भारत के मामले में, इतिहास लेखन औपनिवेशिक, नेहरूवादी और मार्क्सवादी पूर्वाग्रहों के जमावड़े से और जटिल हो गया है, जिन्होंने कहानी को बेतुकेपन की हद तक विकृत कर दिया है. भारतीय इतिहास को फिर से लिखने की जरूरत है, लेकिन प्राथमिक साक्ष्य के ठीक से पुनरीक्षण के बाद ही. जैसे ही और जब नए सबूत आते हैं, हमें अपने विचारों को अपडेट करने की जरूरत होती है.

लेकिन ये "मुख्यधारा के भारतीय इतिहासकार" कौन हैं जो "आधिकारिक कथा" के प्रभारी हैं? आश्चर्यजनक रूप से, इन विद्वानों का कोई उल्लेख नहीं है. यह उनके आर्थिक स्तंभों के विपरीत है क्योंकि वहांवह नाम लेकर महलानोबिस या राज कृष्ण की आलोचना करते हैं.

सान्याल के उद्धरणों को देखें तो दो बातें ध्यान देने योग्य हैं. सबसे पहले, सबूतों पर दोबारा गौर करने के बाद इतिहास को फिर से लिखने के उनके आह्वान के बावजूद, उनकी बातों में प्राथमिक स्रोतों का लगभग कोई इस्तेमाल नहीं होता है. उनके फुटनोटों पर गौर करें और आप देखेंगे कि वे कभी-कबार अनुवाद में का हवाला देते हैं, लेकिन कोई पुरातात्विक रिपोर्ट नहीं है, कोई अभिलेखागार नहीं है, कोई शिलालेख नहीं जिसे उन्होंने व्यक्तिगत रूप से देखा हो. तो फिर, वह किस आधार पर ऐतिहासिक शोध करने का दावा करते हैं? दूसरा, और इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि अतीत का उनका पुनर्निर्माण उन माध्यमिक सामग्रियों पर आधारित है, जिन्हें अक्सर उन्हीं इतिहासकारों से लिया जाता है, जिनके खिलाफ वे आंकलन करते हैं. अशोक का उनका पुनर्पाठ उपिंदर सिंह और नयनजोत लाहिरी की किताबों पर आधारित है, ईस्ट इंडिया कंपनी का उनका इतिहास तीर्थंकर रॉय और आशिन दास गुप्ता से आता है, और बीसवीं शताब्दी का उनका सर्वेक्षण रामचंद्र गुहा से आता है. उनके फुटनोट पाठ्यपुस्तकों, लोकप्रिय नैरेटिवों और अखबारी लेखों का मेल हैं. यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि लोकप्रिय किताबों के लेखक आमतौर पर इसी पर निर्भर होते हैं. हालांकि सान्याल के उलट, वे पलटकर इतिहासकारों को इतिहास लिखने के तरीके पर व्याख्यान नहीं देते हैं.

सान्याल के साथ झगड़ा इस बात का नहीं है कि वह दक्षिणपंथी राजनीति करते हैं. कोई डीआर भंडारकर या आरसी मजूमदार से असहमत हो सकता है, लेकिन उनके सानिध्य में पढ़ना—पढ़ाना जारी रख सकता है. न ही यह इस तथ्य से उपजा है कि वह विषय के लिए एक बाहरी व्यक्ति हैं. प्रारंभिक भारत के सबसे सम्मानित इतिहासकारों में से एक, डीडी कोसंबी प्रशिक्षण से गणितज्ञ और व्यक्तित्व से बहुविज्ञ थे. उनके पास वह था जो सान्याल में बहुत कम है : पुरानी बहसों में महारत हासिल करने और स्रोतों के नए अध्ययन के साथ हस्तक्षेप करने की क्षमता. इसके बजाय, सान्याल के काम के साथ मुद्दा यह है कि यह उनके डेटा में फर्क, उनके तर्क में खामियां और स्रोतों को तौलने और मापने में स्पष्ट अक्षमता से चिह्नित है.

सान्याल की किताबों की सफलता ऐतिहासिक विशेषज्ञता को समझने में व्यापक अक्षमता से उपजी है. उनके नैरेटिव की कड़ी संदिग्ध तथ्य-जांच के साथ शुरू होती है और यह हमारी सत्योत्तर दुनिया में जानकारी से पटे दर्शकों के साथ खत्म होती है. बेशक, सान्याल की रचनाएं अकादमी के लिए नहीं लिखी गई हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह विषय-अनुशासन के मानकों से मुक्त होकर, स्वतंत्र रूप से मनचाही धुन पर नाच सकते हैं.

इतिहास का आम दृष्टिकोण खलनायकों और नायकों, महान शक्तियों और महापुरुषों की तलाश करता है. यह उन विचारों, संरचनाओं और प्रक्रियाओं के बारे में चर्चा से दूर है जो विद्वतापूर्ण बहस या विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम की विशेषता हैं. लोकप्रिय कल्पना में, इतिहास अक्सर एक नीरस विषय होता है जिसमें रटना शामिल है. सान्याल को लें, जिसका गद्य तेजतर्रार पात्रों और दिलचस्प शब्दचित्रों से भरा है. उनकी किताबें में राजकुमारों, समुद्री डाकुओं, पुजारियों और सैनिकों की कहानियां हैं. उनके पास अंतर्संबंधों और उपाख्यानात्मक विवरण के लिए एक आंख है. उनके तर्क तार्किक रूप से आकर्षक हैं जो वास्तव में अलंकारिक भव्यता और साक्ष्य के चयनात्मक उपयोग द्वारा चिह्नित है.

बेशक, इतिहास तक सबसे आकर्षक होता है जब इसे कथा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. लेकिन इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले दर्शकों को यह समझना चाहिए कि अतीत के बारे में हर कथा इतिहास के रूप में योग्य नहीं होती है. सच है, पेशेवर इतिहासकार की "अगर-लेकिन-तब-और" शैली आम पाठक को पसंद नहीं आ सकती है, लेकिन सरलीकरण से बचना भी जरूरी है. सरल नैरेटिव लुभावने होते हैं क्योंकि वे ऐसी बातें कहते हैं जो लोग पहले ही सुन चुके होते हैं. वे मोहक होते हैं क्योंकि वे लोगों को वही बताते हैं जो वे सुनना चाहते हैं. दूसरी ओर, जटिल आख्यानों पर विचार करना कठिन हो सकता है. वे कभी-कभी असहज, अनिर्णायक या झकझोरने वाले हो सकते हैं.