प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय श्रमिकोंं की भुला दी गई भूमिका

30 अप्रैल 2022
वर्ष 1918 में लुईस बंदूक से फायर करता एक भारतीय सैनिक. प्रथम विश्व युद्ध में मित्र देशों की लड़ाई में गैर-श्वेत सैनिकों के योगदान बखूबी याद किया जाता है लेकिन शौचालय साफ करने वाले, निर्माण कार्य करने वाले, खच्चर चालकों, रसोइयों, कुलियों और सफाईकर्मियों के बारे में शायद ही कोई किस्सा या कहानी सुनाई जाती है.
एरियल वार्जिस/विकिमीडिया कॉमन्स
वर्ष 1918 में लुईस बंदूक से फायर करता एक भारतीय सैनिक. प्रथम विश्व युद्ध में मित्र देशों की लड़ाई में गैर-श्वेत सैनिकों के योगदान बखूबी याद किया जाता है लेकिन शौचालय साफ करने वाले, निर्माण कार्य करने वाले, खच्चर चालकों, रसोइयों, कुलियों और सफाईकर्मियों के बारे में शायद ही कोई किस्सा या कहानी सुनाई जाती है.
एरियल वार्जिस/विकिमीडिया कॉमन्स

जंग श्रम संबंधी मामलों को सुर्खियों में ला देती है. खासकर वे बड़े युद्ध जो मानव संसाधन, हथियारों और लामबंदी पर आधारित होते हैं. वे श्रमिक जो आमतौर पर नजर नहीं आते अचानक दिखाई देने लगते हैं. जवाहरलाल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर और इतिहासकार राधिका सिंघा, जिनका काम उपनिवेश काल के आपराधिक कानूनों पर है, का कहना है कि ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि युद्ध लड़ने के लिए श्रमिक वर्ग का होना बेहद महत्वपूर्ण होता है.

इसके बावजूद ये श्रमिक इतिहास के पन्नों से जल्द ही गायब कर दिए जाते हैं. 2014 प्रथम विश्व युद्ध का शताब्दी वर्ष था. तब दुनिया भर में मित्र देशों की ओर से लड़ने वाले अश्वेत सैनिकों के बलिदान को याद किया जा रहा था. लेकिन लैट्रिन साफ करने वाले, निर्माण कार्य करने वाले, खच्चरों को हांकने वाले, स्ट्रेचर उठाने वाले, पानी ढोने वाले, मालियों, लोहारों, खानसामों, झाड़ू लगाने वाले, कपड़े धोने वाले, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले और झाड़ू लगाने वाले जैसे सहायक कामगारों पर कोई बात नहीं हो रही थी.

इसी गैर सैनिक श्रमिक वर्ग की स्थिति पर प्रकाश डालती है सिंघा की किताब दि कुलीज ग्रेट वॉर : इंडियन लेबर इन ए ग्लोबल कॉनफ्लिक्ट, 1914-1921.

यह गंभीर शोध पर आधारित इतीहास है. गंभीर विषय होने पर भी सिंघा की लेखनी सहज और व्यंग भरी है. ज्यादातर वह आर्काइव सामग्री को ही अपने दावों को साबित करने देती हैं. इस किताब को उन्होंने 10 साल से अधिक समय लगा कर लिखा है और इसमें भारी तादाद में फुटनोट हैं. भारतीय मजूदर दस्ते का आर्काइव बिखरा हुआ है. सामग्री जुटाने के लिए सिंघा को डायरी एंट्री, संस्मरणों, रिपोर्टों, कुरुक्षेत्र, भुवनेश्वर और बेंगलुरु के दर्जनों आर्काइवों की खाक छाननी पड़ी.

ऐसे कई कारण हैं जिनके चलते हम इन युद्धों में भारतीय श्रमिकों के योगदान बारे में बहुत कम जानते हैं. शायद ऐसा इसलिए कि उनका इतिहास तड़क-भड़क वाला नहीं है. इतिहास हमेशा उन लोगों को गौरव से याद करता है जो ट्रेंच से गोलियां दागते हैं, न कि उनको जो ये ट्रेंच खोदते और बनाते हैं.

प्रथिनव अनिल इंडियाज फर्स्ट डिक्टेटरशिप पुस्तक के को-ऑथर हैं और ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.

Keywords: world war veterans labour rights Indentured Labour
कमेंट