कटक शहर में करीब एक सदी बिताने वाले जयंत महापात्रा का कहना है कि यह शहर एक हजार साल पुराना है. कटक उनका जन्म स्थान है और वह यहीं पले-बढ़े भी. वह अपने लेखन में बार-बार इसके बारे में बात करते हैं. पिछले साल नवंबर में जब मैं एक उड़िया अखबार पढ़ रहा था तब एक छोटे से लेख ने मेरा ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया. अपने बयान्वे वें जन्मदिन के कुछ हफ्ते बाद महापात्रा ने अपने पाठकों को अपने घर से स्कूल तक के रास्ते के बारे में बताने के लिए उन्हें एक वॉक पर ले जाने का फैसला किया था जिसमें होकर वह अस्सी साल पहले रोज आया-जाया करते थे.
उन्होंने लिखा, "कटक में बहुत सारी कहानियां हैं. कुछ ऐसी भी हैं जो मुझे तब भी समझ नहीं आईं जब मुझे लगा कि मैंने उन्हें देख और समझ लिया है, और इसलिए मैं उन दिनों और उन सड़कों पर लौटूंगा जो मेरे लिए बहुत मायने रखती हैं.” वह 1940 के एक शांत दिन को याद करते हैं जब दूसरा विश्व युद्ध एक साल से चल रहा था और वह और उनका भाई स्कूल जाने के लिए तैयार थे. इसमें कुछ भी असामान्य नहीं था, वे हर दिन की तरह रिक्शा में सवार थे.
लेकिन यह दैनिक अनुभव सांसारिक भावना को संदर्भित नहीं करता है. पुराने औपनिवेशिक शहर (जिसे वह "गांव जैसा शहर" भी कहते हैं) की संकरी गलियों से होते हुए,वह पेड़ों,एक तालाब और अपने दोस्तों के घरों से गुजरे, बहुत सी चीजें उसके पास वापस आ गईं. बिलिमोरिया द्वारा चलाए जा रहे पारसी कैंडी स्टोर जिसमें उनकी पसंदीदा कैंडी बेची जाती थी और खान होटल की स्वादिष्ट मछली बिरयानी जो उन्हें अब कभी नहीं मिल सकती, बिल्कुल वैसे ही जैसे अब नहीं मिल सकते कई दोस्त और परिचित. उन्होंने अपने आस-पास के हर पेड़ और गली के बारे में ऐसी कहानियां साझा कीं, जो उनकी दुख से भरी हुई यादों के जीवंत होने की अनुभूति देती हैं. यह इस शहर की सतत जीवंतता है जिसने उन्हें उन यादों को दुबारा जीने के लिए प्रेरित किया. यह उदासीनता से दूर एक कटक निवासी द्वारा शहर का एक अभिन्न चित्रण था. उन्होंने यह लिखा भी कि उन दिनों कटक न्यूयॉर्क की तरह लगता था.
इस कल्पना की एक झलक 2013 में लिखी गई महापात्रा की आत्मकथा पाहिनी रति- द नाइट इज स्टिल टू डॉन में दिखाई देती है. इसमें वह 1976 की शरद ऋतु में संयुक्त राज्य अमेरिका में बिताए उस क्षण को याद करते हैं जब ठंडी सुबह को अपने माचिस के डिब्बे बराबर अपार्टमेंट से वह मेपल के पेड़ों से बहने वाली कोमल आयोवा नदी को देख रहे थे.पत्तियों पर नया पीला-भूरा रंग चढ़ा था और बहता पानी उन्हें आकर्षित करता था. गगनभेदी सन्नाटे ने उनके आश्चर्य को और बढ़ा दिया था. शोर-शराबे के इतने आदी होने के कारण वह मुश्किल से इस तरह के उजाड़ को बर्दाश्त कर पा रहे थे. उन्हें आश्चर्य हुआ कि “यह एक नहर ही ठीक थी, क्या भला यह कभी नदी हो सकती?" उनके लिए एक नदी की एक अलग छवि बनी हुई थी. कटक में महानदी के आसपास व्यस्त घाट स्नान, मछली पकड़ने, गाय चराने जैसे अपने दैनिक काम करते हुए लोगों से भरे हुए होते थे. महापात्रा का इन शहरों को एक साथ जोड़कर देखना एक स्वप्निल या मनमाना आवेग नहीं था. नए और अपरिचित स्थानों के बारे में लिखे अपने लेख में वह जिस तरह से उनका सामना करते हैं, वह जाना-पहचाना मालूम होता है.वे अपने लेखन और समकालीन समय में साहितिक यात्रा द्वारा - विशेष रूप से भारत के संदर्भ में, अंग्रेजी भाषा के माध्यम से दुनिया के साथ इसके संबंध के बारे में विचार व्यक्त करते हैं.
महापात्रा ने अपना लगभग पूरा जीवन कटक में ही गुजारा है, यहीं उनका जन्म हुआ. वैंकूवर पब्लिक लाइब्रेरी में महापात्रा की कविताओं का बड़ा संग्रह है, जिनके मुख्यतः अंग्रेजी और उड़िया में पच्चीस से अधिक खंड प्रकाशित हैं. जीवन के शुरुआती समय में उन्होंने लघु कथाओं में हाथ आजमाया. बाद में उन्होंने कविता के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए निबंध भी लिखे.
1970 के दशक में जब वे अपने चालीसवें वर्ष में थे और रावेनशॉ कॉलेज में भौतिकी पढ़ाते थे उस समय महापात्रा के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. अपनी रचनाओं को एक पुस्तक में प्रकाशित करने की इच्छा रखते हुए उन्होंने दो प्रकाशनों से उनके लेखन को छापने का अनुरोध किया. दोनों ने उनके लेखन को छापा और 1971 के अंत तक दो संकलन तैयार हो गए. वह अपनी आत्मकथा में बहुत गर्व किए बिना इसे याद करते हुए पूछते हैं,"किसके पास एक ही समय में दो प्रकाशन साथ होते हैं?” उस समय में भारत में अंग्रेजी कविता नई नवेली ही थी लेकिन बॉम्बे से उभरने वाली कुछ खास आवाजों के कारण कविता में कल्पना, रूपकों और कथाओं को एक विशेष पहचान मिल गई थी. महापात्रा की रचना प्रायोगिक होने के साथ नई और अनोखी थी लेकिन कई जगहों पर इसकी प्रशंसा नहीं हुई. भारतीय अंग्रेजी कविता के प्रमुख प्रतिपादकों में से एक निसिम ईजेकील ने उनकी कविताओं को पसंद नहीं किया और इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में छापने से इनकार कर दिया.हैरान महापात्रा ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "उन्हें वह क्रूर और निर्दयी लगीं. कविताओं पर की गयी उनकी आलोचना से मैं सोच में पड़ गया, शायद ऐसा इसलिए था कि मैंने अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन नहीं किया था या फिर वे मेरे लिखने के पैटर्न से परिचित नहीं थे."
कवि आदिल जुसावाला द्वारा की आलोचना उनके लिए दूसरा झटका था जिन्होंने महापात्रा के प्रकाशनों को भाषा के इस्तेमाल करने के तरीके को देखकर नकार दिया था. महापात्रा लिखते हैं,"मैं कुछ नहीं कर सकता था, मैं एक अनजान जगह का एक अनजान कवि था. लेकिन उन्होंने राहत भी महसूस की जब संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रशंसा की गई और उनकी कविताएं साहित्य अकादमी द्वारा 1971 में प्रकाशित भारतीय साहित्य में भी छापी गई. महापात्रा आश्चर्य करते हें कि उनकी "कविताओं को अपने देश के पाठकों ने इतना नहीं सराहा जबकि विदेशों में उनकी सराहना की गई. " एक ओर भारतीय अंग्रेजी कवि सामान्य रूप से उनकी कविता से घृणा करते दिखाई दिए, तो दूसरी ओर उड़ीसा के कुछ आलोचकों और लेखकों ने अंग्रेजी भाषा में कविताओं की रचना के लिए उनके खिलाफ नाराजगी जताई जिससे वह डर गए.
1972 के आखिर में उन्हें कलकत्ता में संयुक्त राज्य सूचना संगोष्ठी में एक कवि के रूप में भाग लेने के लिए अपना पहला निमंत्रण मिला जहां अमेरिकी कवि विलियम स्टैफोर्ड को भी कविता पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया था. आम तौर पर वह आखिरी बेंच पर बैठकर कार्यवाही और अपने आस-पास के कवियों के बोलने के तरीकों को ध्यानपूर्वक देखा करते थे. ऐसे ही एक दिन उन्होंने दूर से ही बंगाली विद्वान कवि बुद्धदेब बोस को देखा,जिनकी रचनाएं प्रसिद्ध पत्रिका पोएट्री शिकागो में अनुवादित रूप में प्रकाशित हुई थीं. बिना कोई अहंकार और अभिमान के खुद को एक आम आदमी मानते हुए उनसे बात करने की हिम्मत न जुटा पाने के कारण वह हर दिन शांति से हॉल से निकल जाते थे. महापात्रा उनका अभिनंदन करना चाहते थे लेकिन हार और डर ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. हालांकि उस समय वे इस बात से अनजान थे कि बोस अंग्रेजी भाषा के कवियों के प्रशंसक नहीं थे, बल्कि वह मानते थे कि कविता केवल अपनी मातृभाषा में ही लिखी जा सकती है. उसी शाम महापात्रा स्टैफोर्ड से मिले. अगले दिन वे फिर से ग्रांड होटल में मिले और कुछ समय उनके साथ पढ़ने और बात करने में बिताया.यह बीसवीं सदी के कई अमेरिकी कवियों के साथ उनके लंबे और मैत्रीपूर्ण जुड़ाव की शुरुआत थी जैसे एलन गिन्सबर्ग.
महापात्रा की आत्मकथा में विभिन्न तत्व इस बात का बोध कराते हैं कि वे किस तरह एक परंपरा और स्थान, संस्कृति और भाषा से संबंधित होने के विचार से जूझ रहे थे.1970 के दशक के आखिर तक उनकी कविताएं विभिन्न संस्कृतियों के साथ संबंध स्थापित करने में सक्षम थीं,लेकिन उसमें उड़ीसा का एक विशेष अनुभव भी निहित था. अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करते हुए भी वह कटक की सांस्कृतिक संवेदनाओं को उत्साह से बताते हैं. इसके अलावा जब वह अंग्रेजी में लिखते हैं तब निर्वासन के उन कटु अनुभवों का वर्णन नहीं करते जो उनकी पीढ़ी के अन्य लेखकों जैसे दिलीप चित्रे और आर पार्थसारथी ने किया था, लेकिन वह यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि वह एक उड़िया भाषी हैं. वह वैश्वीकरण की दुनिया में बोली जाने वाली एक भाषा पर तो काबिज हो सकते हैं, लेकिन अपने ही देश में एक अकेलेपन के साथ सीमित होकर रह जाते हैं.
उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान भारत में अंग्रेजी भाषा का प्रसार और देश में मौजूदा भाषाई संस्कृतियों पर कई तरह के प्रभाव थे, हालांकि उन्होंने एक व्यापक पैटर्न का पालन किया था. अपने निबंध "मॉडर्निटी एंड पॉलिटिक्स इन इंडिया" में अकादमिक सुदीप्त कविराज ने आधुनिकता के कई विचारों को प्रस्तुत किया, इस धारणा का विरोध करते हुए कि एक समरूप आधुनिकता उपनिवेशवाद और उपनिवेशवादियों के बीच से उभरी. उन्होंने तर्क दिया कि औपनिवेशिक आधुनिकता की शुरुआत की तुलना एक भाषा सीखने से की जा सकती है. वह कहते हैं कि "हमारी भाषाओं के उच्चारण ... अंदर से काम करते हैं, जो एक भाषा से एक दूसरी भाषा की तरफ जाते हैं, ओर पुरानी प्रथाओं की पृष्ठभूमि में उन्हें अपरिचित आकार में ढालने के लिए नए माध्यम का काम करती है” इस नजरिए से महापात्रा की कविता उत्तर-औपनिवेशिक भारत में कवियों के बीच अंग्रेजीकरण की एक प्रमुख प्रवृत्ति से प्रतिस्पर्धा कर रही थी. उन्होंने कटक में अपने जीवन को लेखन की एक नई शैली के माध्यम से पेश किया. जैसा कि उन्होंने इसको बताया, जिससे उनकी कविताओं ने एक खास अनुशसन को ना मान कर अपनी पवित्रता खो दी.
भारतीय स्वतंत्रता से लगभग एक दशक पहले उड़ीसा प्रांत अस्तित्व में आया था. अंग्रेजी भाषा कटक में बैपटिस्ट मिशन चर्च के मिशनरियों के माध्यम से पहुंची थी, जिसे रामपुर मिशन के विलियम कैरी, जोशुआ मार्शमैन और विलियम वार्ड द्वारा चलाया गया था. 1821 में एक डेनिश कॉलोनी से संचालित इस मिशनरी बेस ने पूर्वी भारत में मुद्रित पुस्तकों को लाने की शुरुआत की थी. मिशनरियों ने पुरी, बालासोर और कटक के तटीय जिलों में औपचारिक शिक्षा को प्रारंभिक रूप से शुरू किया था. जल्द ही उनकी धार्मिक परियोजना और औपनिवेशिक शासन के उद्देश्य टकराने लगे और अंग्रेजी धार्मिक शिक्षा देने के साथ-साथ शासन करने की औपचारिक भाषा बन गई.
इससे डेढ़ सदी बाद जब महापात्रा ने अंग्रेजी भाषा में लिखना शुरू किया,उनकी पत्नी और अन्य लोगों ने महसूस किया कि वह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए यूरोपीय और अमेरिकी उपन्यासकारों का अनुकरण करने की कोशिश कर रहे हैं. उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण की भाषा पूरी तरह से अंग्रेजी थी. जब वह स्कूल गए, कटक उस समय औपनिवेशिक शासन के अधीन था, तब उनमें पढ़ने का शौक जागने लगा. वह रेलवे स्टेशन के पास बुकस्टोर में अपनी सारी बचत को सभी यूरोपीय उपन्यासों को खरीदने में लूटा देते थे. यह तब भी जारी रहा जब वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने पटना चले गए और संयुक्त राज्य अमेरिका से आयात की जाने वाली सस्ती किताबों को पढ़ने लगे. वह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "अपने तीस साल के शिक्षण के दौरान इस भाषा से जुड़ाव, इस भाषा से प्यार करने के लिए और क्योंकि यह एकमात्र भाषा थी जिसे हमें स्कूल में बोलने की अनुमति थी, मैंने इस विदेशी भाषा को अपनाया." उनके नए शब्दों को प्रयोग करने के उत्साह ने उन्हें भाषा में शब्दों को असाधारण तरीकों से प्रयोग करना सिखा दिया. इस विरासत ने उनके विचारों को मौलिक रूप से आकार दिया, जबकि कटक और उसके समुदाय के प्रति उनके लगाव ने भी एक कवि और नागरिक के रूप में भारतीय राष्ट्र के साथ उनके संबंधों को दिशा दी. वैसे ही जैसा कि एके रामानुजन तमिल कविता में भक्ति परंपरा के बिल्कुल अलग संदर्भ में कहते हैं, महापात्रा के विवरण में एक ऐसा पैटर्न है जिसमें बाहरी परिदृश्य भी आंतरिक परिदृश्य को अंकित करता है. उनका लेखन उनके भौगोलिक संदर्भ से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है और संदर्भ केवल एक रूपक बतौर कार्य नहीं करता है.
लेकिन शायद ऐसा दो भिन्न दुनियाओं को स्थानांतरित कर उन्हें कल्पनाशील तरीकों से संयोजित करने के महापात्रा के रचनात्मक दृष्टिकोण के कारण भी है. जिन स्थानों की तरफ उन्होंने इशारा किया है, खासकर जिनका जिक्र किताबों में है. 1960 में संबलपुर आने के बाद वे अकेले रहे और दिन भर अध्यापन कार्य करने के बाद एकांत में डूबने लगे. इसी समय के आसपास उन्होंने हेनरी डेविड थोरो की वाल्डेन को पहली बार पढ़ना शुरू किया, हालांकि उन्होंने एक दशक पहले ही किताब खरीदी ली थी, लेकिन शायद वह अपने अकेलेपन का सदुपयोग करना चाहते थे."आज मुझे आश्चर्य है - क्या मुझे इसे केवल संबलपुर में ही पढ़ना था?" वह आत्मकथा में याद करते हुए बताते हैं कि इस जगह और इस किताब ने उनके साथ क्या किया. जंगल से घिरे पश्चिमी उड़ीसा के छोटे से शहर और वाल्डेन तालाब के आसपास थोरो की शांत दुनिया उनकी कल्पना में घुल मिल गई और यहीं उन्होंने बेहद आसानी से मानों पलक झपकते ही, साहित्य की एक पूर्णता,एक निर्बाध निरंतरता की शक्ति को महसूस किया. जीवंतता से पढ़ी गईं पुस्तकें और जिस स्थान पर वह रह रहे थे, दोनों उनके लेखन में साथ मिले हुए थे और उन्हें याद है कि "कुछ था जिसने मेरे बाहरी व्यक्तिव को अंदर देखने को मजबूर किया और उन दोनों को मिला दिया. "
उन्नीसवीं सदी में उड़ीसा में विशेष रूप से साहित्य में नई भाषाई पहचान उभर कर आई. पहली उड़िया आत्मकथा महापात्रा के जन्म से ठीक एक साल पहले 1927 में प्रकाशित हुई थी. आधुनिक उड़िया साहित्य जगत की एक प्रमुख हस्ती फकीर मोहन सेनापति ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में आत्मचरित लिखी, जिसे उनके बेटे ने उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित किया था. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सेनापति की दुनिया उड़ियावासियों के लिए एक नई कल्पना का सूत्रपात कर रही थी, भले ही अतीत कठोर रहा था. शिक्षित जनता की संख्या का बढ़ना उस समय ही शुरू हो गया था. 1868 तक उड़ीसा में दो प्रिंटिंग प्रेस थे- मिशनरियों द्वारा संचालित बैपटिस्ट मिशन प्रेस और कटक प्रिंटिंग कंपनी और दोनों ही कटक में थे. एक अन्य बालासोर में सेनापति द्वारा खोली गयी. औपनिवेशिक कलकत्ता के साथ निकटता होने से बांग्ला का शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग किया गया, जबकि उड़ीसा में ब्रिटिश सरकार की अदालतें फारसी में काम करती थीं.
सेनापति का आरंभिक साहित्य बांग्ला से शुरू हुआ था. वह विभिन्न बांग्ला पत्रिकाओं को चुनते थे,विशेष रूप से उसमें लिखे गए गद्य लेखन और उनकी प्रतिभा ने "उनके दिल को निराशा से भर दिया. " उस समय पर उड़ीया भाषा को साहित्य जगत ने मान्यता नहीं दी थी. उन्होंने सोचा कि क्या उड़िया का कोई भविष्य नहीं होगा या बांग्ला की तरह सिर्फ पत्रिकाओं और लेखों में देखी जाएगी. सेनापति ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर की जीवनी कथा जीवनचरित से रेखांकन करके बांग्ला गद्य पढ़ना सीखा, जिसका उन्होंने बांग्ला से उड़िया में अनुवाद भी किया. बाद में उड़िया में सेनापति का अपना जीवन-लेखन उनके द्वारा सीखे गए पाठों का एक सफल शैलीगत प्रयोग था. लेकिन यह बैपटिस्ट मंत्री और शिक्षाविद विलियम कैरी थे, जिन्हें कई अन्य भाषाओं के साथ-साथ उड़िया में बाइबिल का अनुवाद करने का श्रेय दिया जाता है. साथ ही उन्होंने एक काव्य परिपाटी से बांग्ला गद्य को आकार देकर विद्यासागर को प्रभावित किया,जिसने बाद में आत्मकथात्मक कथा के जरिए गद्य-लेखन के चलन को बढ़ाया. सेनापति अपने लेखन को आत्मसात करके उड़िया में एक नई तरह की अभिव्यक्ति लेकर आए और पाठकों को उनकी आत्मकथा को केवल एक मॉडल के रूप में देखने को कहा जिससे वे भाषा में रचनात्मक अभिव्यक्ति के साथ निर्माण और प्रयोग कर सकें
उनका इरादा उड़िया भाषा की दुनिया में ऐसे बदलाव लाना था जहां साहित्यिक खोज की जा सके. लेकिन यह प्लान मिशनरियों और कुछ औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा भाषाओं के क्षेत्र में किए गए प्रयासों के चलते पीछे छूट गया. मिशनरियों ने उत्साह के साथ स्थानीय लोगों को यीशु के मार्ग पर चलने के लिए मनाने के लिए उड़िया सीखना शुरू कर दिया था, जबकि औपनिवेशिक प्रशासकों ने इस तर्क को स्वीकार कर लिया था कि प्रशासन में क्या अधिक उपयोगी होगा और उड़िया को मजबूत करने के लिए विशिष्ट भाषा नीति जारी कर दी थीं. सेनापति ने इन दोनों के लाभों को देख लिया था. उन्हें मिशनरियों द्वारा एक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया जिससे उन्हें जीवन भर के लिए रोजगार मिल गया. इसलिए वह औपनिवेशिक सरकार के हितकारी बन गए और उसकी प्रशंसा करने लगे. उड़िया पहचान को अस्पष्ट करने वाली बंगाली सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दबाव में रहते हुए भाषा का इतिहास बनाने की मजबूरियां उन पर और बाद की पीढ़ियों पर हावी रही.
महापात्रा के समय तक स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ था. पटना में कॉलेज के साथियों द्वारा "हमेशा के लिए पराजित भूमि" पर पैदा होने के लिए उनका मजाक उड़ाया जाता था.वह इस नई तरह की शर्मिंदगी को याद करते हैं, जो उड़िया में व्यक्त करने से रोके जाने से जुड़ी है,जो कि अंग्रेजी के हमले और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों द्वारा पैदा की गई दुश्मनी के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई थी. वह न तो पूरी तरह से देश की अंग्रेजी-लेखन की परंपरा से जुड़े थे और न ही अपनी भाषा परंपरा से महापात्रा उड़िया से जुड़ना चाहते थे. वह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं,"वास्तव में मुझे यह महसूस करने में तीस साल लग गए कि कोई अपनी मातृभाषा के अलावा किसी अन्य भाषा में कविता नहीं लिख सकता है; ऐसा लगता था जैसे मेरी भाषा मेरे सीने में अंतहीन रूप से घूम रही हो.” लेकिन यह बाद का विचार था, उनके लिए परेशान होने का पहला कारण वह अपमान था जो उन्हें अपने ही लोगों से मिला था जब उन्होंने लिखना शुरू किया, तो उनके किसी भी काव्य-संग्रह को उन महाविद्यालयों के पुस्तकालयों में भी स्थान नहीं मिला जहां उन्होंने पढ़ाया था. उन्होंने लिखा, “आलोचकों और विद्वानों ने उन्हें खारिज कर दिया और किसी में भी, मेरी कविता सुनने का धैर्य नहीं था ...." चूंकि वह भौतिकी स्नातक थे इसलिए वे कविता लिखने की उनकी क्षमता पर विशेष रूप से शक करते थे. महापात्रा किसी अंग्रेजी विभाग की मंडली में भी नहीं थे, जिन्होंने उस समय कविता लिखने का जिम्मा उठाया हुआ था.
उन्होंने अनुवाद में भी हाथ आजमाया. सेनापति शायद पहले लेखक थे जिनका उन्होंने 1960 के दशक में भुवनेश्वर रिव्यू के लिए अनुवाद किया था. लेकिन बाद में उन्होंने उड़िया में कविताओं की रचना की और पांच खंड प्रकाशित किए. हालांकि उन्हें पहचान दिलाने वाले अनेक तरीकों में उड़िया में छपी उनकी आत्मकथा का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है. इसे केवल नाम मात्र के लिए उड़िया में कहा जा सकता है क्योंकि काफी हल्के शब्दों का प्रयोग हुआ हैं, उदाहरण के लिए वह लिखते समय नहिन को नैन में बदल देते है. अंग्रेजी की लय को बनाए रखते हुए,वह स्थितियों का वर्णन करने के लिए पद्य के साथ गद्य को मिला देते हैं. भाषा का उपयोग यथार्थवादी के बजाय अमूर्त रूप से केवल घटनाओं का वर्णन करने के साधन की तरह किया जाता है,जबकि कभी-कभी जीवन में स्मृति के उन हिस्सों को याद करने के लिए रुकते हैं जो उनकी पहुंच से परे हैं,लेकिन फिर भी वह उसे पाने की प्रत्याशा में आगे बढ़ते हैं. वह सीधे तरीके से वर्णन करने के लिए भाषा के सीधे स्वर का उपयोग करने से परहेज करते हैं. यह एक ऐसी आदत है जिसे उन्होंने अंग्रेजी से आत्मसात किया था.
महापात्रा की अभिव्यक्ति की परोक्षता को कभी-कभी खुले तौर पर शाब्दिक वाक्यांशों में जोड़ा जाता है. कटक के बारे में उन्होंने एक बार लिखा था, "कटका, घरकू, फेरिजी बी बोली मन कुद्रुधा काली मुन, गंगा घाट रे चिदामुन" - कि कटक में, अपने घर, मैं वापस लौटूंगा, गंगा के तट पर खड़े होकर मेरे मन ने यह ठान लिया था. आम तौर पर वाक्य के विषय के पीछे रहने वाली क्रिया, पहले दिखाई देती है. सेनापति ने शायद यह मान लिया होगा कि यह वाक्य अंग्रेजी का उड़िया में अनुवाद करने के मिशनरी के प्रयास से बाहर की चीज थे, फिर भी भाषा की यात्रा और इस यात्रा से उनका संबंध,उनके दोनों लेखन में दिखाई देता है.
बहुत समय बाद जब महापात्रा ने खुद को स्थापित कर लिया तब उन्होंने अपनेपन के विचारों से अलग तरह से जुड़ना शुरू किया. लेखक शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं का बांग्ला से अंग्रेजी में अनुवाद करते हुए महापात्रा ने अंग्रेजी भाषा के भीतर एक सुसंगत भारतीय पहचान की संभावना को जाना. उन्होंने साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित संग्रह आई कैन,बट व्हाई शुड आई गो के अपने परिचय में अनुवाद की जरूरत पर प्रकाश डालते हुए लिखा, "यह सच है कि हमें इसकी पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है. ” महापात्रा ने बांग्ला भाषा में अपनी कुशलता के बारे में कुछ नहीं लिखा, शायद ऐसा इसलिए कि उन्हें लगता है कि कटक में पले-बढ़े होने के कारण इस भाषा को जानना स्वाभाविक ही है. यह उड़िया और बांग्ला भाषाओं के बीच की समानता के माध्यम से उनकी दरियादिली को दर्शाता है और भारतीय कवियों और उनके सामाजिक परिदृश्यों तक पहुंचने के तरीकों के बीच संबंधों को लेकर एक महत्वपूर्ण ज्ञान प्रदान करता है.
इन दी इनवेंशेन ऑफ प्राइवेट लाइफ,में सुदीप्त कविराज उपन्यास और आत्मकथा को आधुनिकता की चेतना को प्रभावित करने वाली विधा बताते हैं, उपन्यास शब्द के शास्त्रीय अर्थ वर्णन करने की एक विधि के रूप में बताते हैं, जो महाकाव्य परंपरा से अलग है. कविराज उपन्यास के नए पात्रों में एक साधारणता पाते हैं. भारतीय संदर्भ में उपन्यास में इसे मानव चरित्र के धीमे अनुभवात्मक निर्माण के एक महत्वपूर्ण तरीके से दर्शाया गया है जहां मानव का भाग्य अनिश्चित है जो जन्म से पूर्व निर्धारित नहीं है. उन्होंने उपन्यास और आत्मकथा के बीच जो एकमात्र महत्वपूर्ण अंतर देखा, वह यह था कि उपन्यास काल्पनिक पात्रों द्वारा निभाई गई एक काल्पनिक स्थिति के बारे में थे, चाहे वे लेखक के स्वयं के जीवन से प्रेरित हों या नहीं. दूसरी तरफ आत्मकथा से "आंतरिक स्व" की अवधारणा की शुरुआत हुई, जिसका वर्णन किया जा सकता है. इस तरह के एक प्रयोग के पीछे जीवन को एक सुसंगत, समझने योग्य घटना के रूप में दर्शाने की कोशिश छिपी थी. जाति,धर्म और विभिन्न विचारधाराओं से भरी हुई पहचान से जुड़ी भारतीय धारणाओं ने औपनिवेशिक मुठभेड़ के बाद एक बदलाव का सामना किया. इसने खासकर प्रेम,विवाह,धर्म और जीवन के प्रति अभिविन्यास जैसी सार्वभौमिक अवधारणाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए आत्म-संदर्भ की एक विशिष्ट भाषा बनाई. एक आत्मकथा के विपरीत,जिसमें व्यक्ति के स्वयं के कारनामे शामिल होते हैं,
महापात्रा का लेखन उनके वैवाहिक जीवन का एक बेहिचक विवरण प्रदान करता है. वह पहली बार खुद के प्यार में पड़ने को याद करते हैं, प्यार होना, उनकी शादी और अपनी साथी के लिए उनके भाव, सब उनके शब्दों में जीवंत हो उठते हैं. रूनू और महापात्रा ने पारिवारिक आपत्तियों के बावजूद करीब एक साल तक एक-दूसरे को डेट किया और शादी की. लेकिन जल्द ही वह एक खालीपन से घिर गए जिसने उन्हें जीवन में पीछे धकेल दिया. वह अपने विवाह के बाद बिस्तर पर अपने शरीर के खालीपन का वर्णन करते हुए बताते हैं कि कैसे वह अपनी शादी की रात को स्थिर बन गए थे और अपनी पत्नी को छूने में भी असमर्थ रहे. वह प्रेम को बस एक बे सिर पैर की कहानी बताते हैं.
मैं रूनू से शादी करने से पहले अंधेरे के समुद्र में खोया हुआ था और बाद में हम दोनों ही उस अंधेरे में यात्रा करने लगे. "वह शरीर और हृदय, विचार और वास्तविक दुनिया के बीच की खाई के बारे में बताते हैं. "मुझे छिपने के लिए कोई जगह नहीं मिली. मैं जहां भी गया, मैंने अपने आप का सामना किया. मुझे कुछ भी रोक नहीं सका, उसका प्यार भरा दिल भी नहीं, मैं उसके शरीर के बारे में भी क्या कहूं? ... क्या जीवन जीने के लिए शरीरों का एक होना आवश्यक है?" वह हमें आश्चर्यचकित करते हैं या "क्या यह हमें एक समझ से बाहर शून्यता की ओर ले जाने के लिए था?" वे बचपन के शुरुआती दिनों को याद करते हैं जब उन्होंने पहली बार यौन संबंध की खुशी का एहसास किया और वही समय था जब उन्होंने शायद इसे हमेशा के लिए खो भी दिया. विशेष रूप से अपने युवा दिनों से दो स्पष्ट रूप से वर्णित क्षणों में उनके लिए यह जीवन के कर्ज से मुक्ति की तरह था. उनके लिए उस पहले स्पर्श का कोई मतलब नहीं था. यह प्रेम की एक दुखद कहानी नहीं थी लेकिन यह उनके जीवन पर छाया हुआ था. एलिस इन वंडरलैंड की तरह धीरे-धीरे यह उन्हें निगलने लगा, जहां सब कुछ स्थिर था, उनके दिमाग की भूख और बढ़ती गई. इसके बाद उन्होंने एक ऐसे जीवन की शुरुआत की जहां वह हमेशा हर जगह प्रेम के प्रलोभनों से प्रभावित होते, लेकिन रहस्यमय तरीके से उसे पूरा करने में असमर्थ रहे.
बाद में उन्होंने खुद को एक दोषी महसूस किया. और शादी के दौरान अपनी चुप्पी के बोझ और इसके लिए रूना द्वारा अदा की गई कीमत को समझा. गर्भपात के विचार जिसने उसे लगभग मार डाला था या एक नए परिवार में दुल्हन के रूप में उसकी देखभाल न किए जाने का दर्द याद किया तो उससे उन्हें अपनी अज्ञानता का एहसास हुआ. जिसका मतलब था विवाह जैसी संस्था का स्वरूप बदल जाना. वह लिखते हैं, "जब मैंने उसका चेहरा देखा,तो मुझे कुछ महसूस नहीं हुआ,न तो किसी चीज की शुरुआत हुई और न ही अंत... कई बार मैंने उनसे बहुत सी बातें पूछनी चाही, लेकिन ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सका... मैं मां के कठोर शब्दों में खो गया. "विवाह दो आत्म-जागरूक व्यक्तियों के बीच एक अधिक अनुकूल समझौते की ओर बढ़ रह था जहां उनसे बराबरी से बातचीत करने की अपेक्षा की जाती थी. लेकिन साथ ही इस स्थिति में परिवर्तन को समझने के लिए अन्य रिश्ते तैयार नहीं थे: उनकी मां को अभी भी एक नई दुल्हन से पुराने तौर तरीकों पर खरे उतरने की उम्मीद थी और जोड़े की स्वतंत्रता पर अभी भी मजबूत प्रतिबंध लगे थे. उन्होंने याद किया, "मुझे सिनेमा देखने जाना पसंद था लेकिन हम दोनों के लिए मां की अनुमति प्राप्त करना असंभव था. वह इसके नाम से ही क्रोधित हो जाती थी. "और लेखन, जिसके माध्यम से वह कहीं भी होने की काल्पना कर सकते थे, उन्हें उनके दाम्पत्य जीवन से दूर कर रहा था. “लिखने से मेरा स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया था; मेरी भीतर कुछ था जो मेरी नहीं सुन रहा था और मैंने जो कुछ भी चाहा,वह बिना सोचे समझे किया… लेकिन शायद उसके प्यार ने ही हमें एक साथ रखा.” दो एकदम उलट विश्वदृष्टियों ने उन्हें निष्क्रियता की ओर बढ़ाया.
बड़े होने के दौरान उनका विशेष रूप से अपनी मां के साथ कठिन रिश्ता था. आत्मकथा में वह उन्हें अस्थिर बताते हैं और लिखते हैं कि उनकी नियंत्रण रखने वाली आंखों के सामने होने से उनका दिल भारी हो जाता था. उसके पिता की तैनाती घर से दूर थी और कोई उनकी सुनने वाला नहीं होने के कारण वह अंदर ही घुट कर रह जाते थे. इन सब से वह अपने विचारों की सीमा तक जा चुके थे, जहां वह सोचते थे कि वह न तो अपने पिता के हो सके,न मां के,न भाई के और न ही प्रेमिका के."वह अक्सर खुद से यह पूछते थे, "क्या यह मैं ही हूँ जो सो गया था और अब जागा हूं?" कोई नहीं होने की भावना तले दबे रहकर वह एक सुखद स्पर्श और प्यार के चंद शब्दों के लिए तरसते रहे.
तीन महीने तक वे अमेरिका में रहे, उन्होंने अपने आसपास के कवियों में अकेलेपन के अभाव को पाया. जिसने कुछ देखा नहीं एक शर्मिले व्यक्ति की तरह, जिसकी शादी को कई साल हो गए थे, उन्होंने पुरुषों और महिलाओं के बीच साहचर्य की तेजी और जिस सहजता से वे एक-दूसरे को मंत्रमुग्ध करते, साथ समय बिताते और एक-दूसरे को पकड़ने के तरीकों को देखा और ऐसी निरंतर इच्छाओं को “क्षणिक मृत्यु का दास कहा”. दो दुनियाओं के बीच के बड़े सांस्कृतिक अंतर और एक के दूसरे में धीमी गति से मिलने को उनकी बढ़ती ईर्ष्या और निष्क्रियता में देखा जा सकता है.
वह आत्मकथा में लिखते हैं कि अतीत उन्हें और अधिक वास्तविक लगने लगा,जिसका एक गहरा प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा था. उनके दादा चिंतामणि महापात्रा 1866 में एक डायरी लिखा करते थे. उन्होंने अकाल के दौरान जीवन बीताने की कठिनाइयों का वर्णन किया कि एक समय उन्होंने इमली के पेड़ों के कोमल पत्तों से भी अपना पेट भरा था. ऐसे विकट समय में वह अपने गांव से कटक चले गए और मिशनरियों ने उन्हें एक नया जीवन दिया. महापात्रा के पिता ने पहले उन्हें यह घटना सुनाई थी और बाद में उन्होंने अपने दादा की पुरानी पीली नोटबुक में इसे पढ़ा था. वह लिपि आधुनिक और मानक से काफी अलग थी, प्रत्येक शब्द दूसरे से जुड़ा हुआ था; उनके बीच कोई जगह नहीं थी. लेकिन वह भूख का दर्द बयां कर रही थी.
उनके दादा ने जिन परिस्थितियों में वह सब लिखा था, उससे भली-भांति परिचित महापात्रा ने पाहिनी रति में बताया कि यही वह ताकत है जिसने उन्हें भी लिखने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने लिखा, "मैंने अपने खुद के उड़िया अनुभव और अंग्रेजी भाषा के साथ लिखना शुरू किया... मेरा दिल मेरे दादाजी की भूख के दर्द से जुड़ा था, मेरे देश की बदहाली, भुखमरी और अंग्रेजी भाषा के सहारे ने मेरी उड़िया भावनाओं को और मजबूत किया. "
लेकिन संघर्षों से उन्हें राहत नहीं मिली. धर्म उनके दादा के लिए एक प्रेरक की तरह था जो उनके जीवन में भी व्याप्त हो गय. वह हर शाम अपनी मां को बाइबल पढ़ते सुनते हुए बड़े हुए हैं यह उनके घर का एक कायदा था. लेकिन कटक में बड़ी आबादी हिंदूओं की थी, हालांकि कुछ मुसलमान भी थे. वह नोआखली में हुई हिंदू-मुस्लिम हिंसा जैसी गंभीर अस्थिरता और आग को बुझाने के गांधी के प्रयासों को भी याद करते हैं. "क्या इसका कोई मतलब है कि किसी की हत्या उसके हिंदू या मुस्लिम होने के कारण की गई थी?"
धार्मिक कारणों ने विशेष रूप से भारत में बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक समय के दौरान कई स्तरों पर अलगाव को जन्म दिया. दूसरी ओर विश्वास को धर्म की एक संकुचित धारणा तक सीमित कर दिया गया था, जिसे बंद दरवाजों के पीछे बदला जाने लगा, जबकि नए राष्ट्र की स्थापना सार्वजनिक मूल्यों पर की जा रही थी ,जो उदार मानवतावादी विचारों पर आधारित थी. हालांकि सार्वजनिक जीवन के इन दोनों नए समीकरणों ने समकालीन समाज की बहुलता को दरकिनार कर एक ठोस सामान्य आधार पर तर्क रखा जो दुनिया में अस्तित्व के अन्य सभी रूपों को मिटा सकता था.
महापात्रा ने बहुत पहले इस तरह की सामाजिक दुनिया की कल्पना को खारिज कर दिया था. उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी के एक स्वायत्त अनुभव के माध्यम से विश्वास को एक नई तरह की खोज में प्रयोग किया. इसने उन्हें ईश्वर की अपनी भावना से जोड़ा, एक व्यक्तिगत जुड़ाव जो परोपकार की कोई शक्ति नहीं बल्कि उन सभी साध्यों का स्रोत था जिनके लिए मानव प्रयास करता था. इसके माध्यम से उन्होंने धर्म की कल्पना करने का एक स्वतंत्र तरीका अपनाया. उन्होंने यह भी सोचा कि क्या उनके भीतर अकेलापन इसलिए पैदा हुआ क्योंकि वह एक ईसाई थे और अपने दादा के विलाप पर सोचते रहे कि वह एक सच्चे ईसाई नहीं थे या वह शोक करते कि उन्होंने उन्हें कैसे खोया और कहीं और से संबंधित होने की एक और कड़ी सामने आ जाती.
महापात्रा के लेखन में कटक के रहस्यमय तौर-तरीके,अंग्रेजी भाषा और भौतिकी सभी एक साथ मिलते हैं. उनके मित्र एके रामानुजन जब धर्म और विज्ञान में उनके पिता की रुचि के बारे में बात करते ठीक उसी समय ज्योतिष और खगोल विज्ञान दोनों पर मस्तिष्क में एक साथ काम करने की परेशानी के बारे में भी बताते थे,जो महापात्रा के साथ भी वैसी ही है. अपनी आत्मकथा में हाइजेनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत पर संश्रय करके वह निश्चितता की भावना पर पहुंचने की असंभवता का पता लगाते हैं. उनके लिए जो देखा जा सकता है उससे अधिक वास्तविक न देखी जाने वाली चीजें हैं .उनके मृत दादाजी की भूख उन्हें सताती है और जब उनका बेटा मोहन घर से दूर रहते हुए बीमार पड़ गया और ठीक उसी वक्त वह अंतरिक्ष में पहले कुत्ते लाइका की मृत्यु जैसे एक और मामले के लिए भी चिंतित थे. यह सब रोजमर्रा के जीवन से जुड़ा था, लेकिन केवल इसे पौराणिक कथाओं में बदलकर,इसकी गंदगी, बारिश, पेड़ों की चुप्पी और शाम के अंधेरे जैसी घटनाओं की एक रहस्यमय श्रृंखला में बना रहे थे जो आसान महसूस हो सकती है.
महापात्रा का जीवन और यह महसूस करने का संघर्ष कि वह कहां से थे, उस समय की एक नई नैतिकता को व्यक्त करते हैं जिसमें यह पता चलता है कि व्यक्ति जिसके पुराने कायदे चूर-चूर हो चुके हैं, ठीक उसी तरह जैसे 1940 के कवि के कटक में जीवन का एक नया व्याकरण विकसित हुआ था. उसे कहीं भी अपनापन महसूस ना हो पाने की चिंता सताती रहती है. दुनिया के उद्देश्यों को जानने में असमर्थता और इस प्रकार स्वयं में एक गहरी तन्मयता जैसी थोरो की परंपरा में शायद उनके लिए कुछ विशिष्टता थी. महापात्रा ने प्राकृतिक सीमा की एक स्थिति को तराशा, जैसा थोरो ने अपने चारों ओर वाल्डेन में उल्लेख किया था, अपने जीवन को अपनी जरूरत के अनुसार उन्मुख करने के लिए पर्याप्त जगह लेते हुए. राष्ट्रवाद और उनके भविष्य की व्यापक गारंटी के बड़े-बड़े आख्यान उनके लिए बहुत अशिष्ट थे.
राष्ट्र के लिए भी महापात्रा के विचार अलग तरह के थे. अपने लोगों और देश के लिए उनका प्यार उस समय उस तरह के राष्ट्रवाद में तब्दील नहीं हो सका जैसा तब चलन में था. 1951-52 में हुए पहले भारतीय आम चुनावों में जब महापात्रा को पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया तब उन्होंने ग्रामीण इलाकों का दौरा किया, वे एक दूरदराज के गांव में रहने के दिनों को याद करते हैं, जहां उन्होने जीवंत मित्रताएं कीं, अपनेपन की भावना की तलाश करने की प्रवृत्ति जो अधिक विस्तृत स्वतंत्रता के समान थी, दिखाई देने लगी. उन्हे एक नए राष्ट्र के साकार होने की खुशियां यहां शायद ही दिखाई दे रही थीं,ऐसा शायद इसलिए कि वह पहले से हो चुकी तबाही देख चुके थे.
जब दुनिया अपनी पहचान को लेकर निश्चिंत हो गई हो तब भी पाहिनी रति संदेहों पर आधारित एक आत्मकथा है. जिस समय में कवियों की राजनीतिक पहचान बढ़ रही थी तब भी महापात्रा की अभिव्यक्ति एक विशेष तरीके से भिन्न थी. यह वास्तव में एक तथ्य है कि महापात्रा का बीसवीं सदी की महत्वपूर्ण घटनाओं को लेकर रुख विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम जो उनकी युवावस्था में उग्र था,कायरता जैसा था, जिसे उन्होंने आत्मकथा में स्वीकार भी किया. उनका मानना था कि वह राजनीति से बहुत दूर थे, लेकिन इस इनकार का कारण स्वार्थ और सुख से मुंह मोड़ना नहीं था. इसके बजाय उनका लेखन यह बताता हैं कि उन्होंने मौजूदा धारणाओं को हल्के में लेने के बजाय जीवन के सिद्धांतों के साथ काम किया.
महापात्रा लिखते हैं,"ऐसे कई देश हैं और प्रत्येक की अपनी भ्रामक राजनीति है जो मेरी कविता को मैला करती है."जब उनका दिल शब्दों के जाल से गुजरता है. तभी वह कविता में मौजूद उस हल्केपन तक पहुंचता है जो उसमें होना चाहिए. बहुत कुछ वैसा ही जैसा मौरिस मर्लेउ-पोंटी ने सोचा था कि हम अपनी विशिष्टता को छोड़कर नहीं बल्कि इसे दूसरों तक पहुंचने के तरीके में बदलकर सार्वभौमिक तक पहुंचेंगे, महापात्रा भी टूटी-फूटी बाहरी दुनिया से जुड़ने के लिए हृदय से जुड़े अनजान रहस्यों की ओर मुड़ते हैं.
महापात्रा जीवन के विभिन्न अनुभवों को याद करते हुए अक्सर सक्रिया और निष्क्रियता के बीच फंसे एक चिंतनशील, आत्मचिंतन का वर्णन करते है. दूसरे अर्थ में हालांकि उन्होंने भाषा की राष्ट्रवादी राजनीति के लिए एक पूरी तरह से राजनीतिक प्रतिकार का खुलासा किया. उनका लेखन किसी भाषा विशेष से जुड़ा हुआ नहीं बल्कि कई लोगों के प्रभाव से गढ़ा हुआ है जिसका उपयोग वे अभिव्यक्ति की एक पूर्ण विधा में करते हैं. ऐसे समय में जब एक ही पहचान के आधार पर सुसंगत आख्यानों को तैयार करने के लिए भाषा, धर्म और राष्ट्रीयताओं का उपयोग किया जा रहा हो, महापात्रा का जीवन हमें इस तरह के प्रयास की निरर्थकता की याद दिलाता है. वह बस एक ऐसे कवि हैं जो एक ऐसे शहर में जीवन और भाषा की अशुद्धियों में डूब जाते हैं जहां ज्यादा कुछ नहीं घटता.