लगभग 150 सालों से जाति अध्ययन का विषय है लेकिन इसको लेकर हमारा नजरिया एथनोग्राफिक या नृजाति विज्ञान संबंधी ही बना हुआ है. जाति को समझने के लिए बहुजनों को शोध का विषय बना कर इसका अध्ययन किया जाता है गोया जाति की समस्या उनकी है और सवर्णों का इससे कोई लेना देना नहीं है. यह नजरिया साहित्य तक पसरा हुआ है. उदार पाठकों के लिए साहित्य तभी जाति के सवाल को उठा रहा होता है जब उसमें हाशिए की जाति, खासकर दलित आवाजें, अपने संसार और अनुभवों को नृवंशविज्ञान संबंधी आंकड़े सामने रख रही होती है. पिछले साल हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित इमयाम के उपन्यास बीस्ट्स ऑफ बर्डन की समीक्षा में कहा गया है कि वह "पारिवारिक जीवन और रोजमर्रे की गतिविधियों के बारे में नृवंश विज्ञान के ब्यौरे के साथ लिखते हैं."
टी जानकीरमन के उपन्यास भी मद्रास में रहने वाले ब्राह्मणों, जिनकी जड़ें तंजावर तक जाती हैं, के परिवेश का विस्तार से वर्णन करते हैं लेकिन उन्हें कभी भी "नृवंशविज्ञानी" नहीं कहा जाता है.
पाठकों और आलोचकों के मन में जाति इंसानीयत से जुदा चीज होती है. फेमिनिज्म इन इंडिया में एक समीक्षक बामा की प्रसिद्ध आत्मकथा कारुक्कू के बारे में लिखते हुए कहते हैं कि इसकी "बारीकियां अविश्वसनीय हैं क्योंकि यह न केवल दलित और एक औरत बतौर अपने अनुभवों को बयान करती हैं, बल्कि अपने रोजमर्रे के जीवन के अकेलेपन का भी वर्णन करती हैं." यह कुछ कुछ ऐसा कहना है जैसे कि बारीक फर्क केवल जाति या लिंग के दायरे के अनुभवों से परे जाकर पाया जा सकता है. ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, जो डी'क्रूज़ के उपन्यास अज़ी सूज़ उलगु के अंग्रेजी अनुवाद ओशन रिमेड वर्ल्ड का प्रचार "तूतीकोरिन तट के मछली पकड़ने वाले समुदाय का एक अंदरूनी वर्णन" के रूप में करती है, जैसे कि डी'क्रूज़ एक लेखक के बजाए कोई स्थानीय मुखबिर हो.
2019 की स्क्रॉल में छपी समीक्षा पूमनी के उपन्यास वेक्कई (ताप) के बारे में कहती है : "पूमनी जाति के बारे में नहीं कहना चाहते लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रणालीगत हिंसा हमारे सामाजिक ढांचे की नींव पर मौजूद चकित करने वाली असमानता से पैदा होती है." लेकिन बुनियादी गैरबराबरी जाति है. उपन्यास एक भूमिहीन दलित परिवार के एक लड़के के बारे में है जो एक उच्च जाति के जमींदार की हत्या कर देता है, लेकिन इसमें जाति के बारे में भी बहुत कुछ है. आलोचक लगभग एक प्रतिबिंब के रूप में सोचता है कि एक सार्वभौमिक मानव जीवन जाति जैसे कथित रूप से सांप्रदायिक मामलों से परे है. भारतीय उदारवाद- या बाद का ब्राह्मणवाद- जातिविहीनता और सार्वभौमिकता को पर्यायवाची मानता है जबकि उसका पूरा ब्रह्मांड ही जाति पर टिका है.
दलित लेखक उस बोझ से दबे हैं जिसका सामना ब्राह्मण लेखकों को कभी नहीं करना पड़ता. उन्हें किसी एक चुनना होता है : दलित या साहित्यिक, दलित या सार्वभौमिक. इसने कई लोगों को निराश किया है. सबसे प्रसिद्ध इमायम हैं. जिन्होंने पूछा कि कैसे जब आप इसे लिखते हैं तो साहित्य लिखते हैं, लेकिन जब मैं इसे लिखता हूं तो दलित साहित्य हो जाता है? एनीहिलेशन ऑफ कास्ट में बीआर आंबेडकर दृढ़ता से तर्क देते हैं कि जाति दलितों की समस्या नहीं है. जाति से बाहर होने के कारण दलित इसके उन्मूलन के लिए जिम्मेदार नहीं हो सकते. हिंदू जिम्मेदार हैं. यह उनका घर है और उन्हें ही इसे तोड़ना होगा. आंबेडकर का जाति को एक घर रूप में और मेरा जाति को ब्रह्मांड के रूपकों में उपयोग करना मनमाना नहीं है. हिंदू धर्म में, शरीर, घर, गांव और ब्रह्मांड समरूप हैं. प्रत्येक एक-दूसरे के समान है.
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