3 अप्रैल 2020 को राजकमल प्रकाशन ने लेखक विनोद कुमार शुक्ल और उनके पाठकों के बीच एक आभासी बातचीत की मेजबानी करने के लिए फेसबुक लाइव किया. वीडियो उनके यह कहने के साथ शुरू होत है कि “मैं, विनोद कुमार शुक्ल, अपने घर पर हूं.” यह एक पंक्ति उनके लेखन की मैटर-ऑफ-फैक्ट शैली की नजीर है जो गहराई से उनके लेखन में दिखाई देती है. उनके लाइव वीडियो को फेसबुक पर 17000 से अधिक बार देखा गया है. देश भर के पाठकों ने उस पर टिप्पणियां कीं. ये ऐसे पाठक हैं जिनको शायद ही कभी शुक्ल को घटनाओं पर या साहित्य समारोह में सुनने का अवसर मिलता है. आज हमारे समय के सबसे प्रसिद्ध समकालीन हिंदी लेखकों में से एक शुक्ल छत्तीसगढ़ के रायपुर में रहते हैं और साहित्यिक सुर्खियों से दूरी बनाए रखते हैं.
"कहने के लिए इतना अधिक और बिखरा हुआ है कि मैं अपने को समेट नहीं पाता," एफबी लाइव में उन्होंने कहना जारी रखा, “मैं अपने विचारों को अपनी किताबों के माध्यम से व्यक्त करना पसंद करता हूं न कि सोशल मीडिया पर बोल कर. वास्तव में मेरा कोई फेसबुक पेज भी नहीं है.”
शुक्ल तकनीक के साथ सहज नहीं हैं और उन्हें अपने बारे में बात करना या अपने जीवन या काम के बारे मे बात करना असहज करता है. शुक्ल लिखते हैं क्योंकि वह यही करते हैं. उन्होंने अपने लाइव सत्र के दौरान कहा कि “जब वह सोचते हैं कि क्या लिखना है, तो उनके दिमाग में एक देखा हुआ पक्षी पिंजड़े में आ जाता है और मैं लिख कर उस पिंजड़े में आए पक्षी को पिंजड़े का दरवाजा खोल कर स्वतंत्र करने की कोशिश करता हूं. इसीलिए लिखता हूं. लिखना मेरे लिए लोगों से बात करने का तरीका है.” वह कहते हैं कि कभी-कभी वह यह भी नहीं जानते कि वह क्या लिखने जा रहे हैं और शुरू करने के बाद ही पता चलता है कि वह क्या लिख रहे हैं.
83 वर्ष की आयु में शुक्ल दिन में सात से आठ घंटे और रात में दो या तीन घंटे पढ़ते और लिखते हैं. आठ साल पहले दिल का दौरा पड़ने से वह शारीरिक रूप से कमजोर हो गए थे लेकिन कोई भी चीज उन्हें अपनी किताबों से दूर नहीं रख सकती. वह अपनी आंखों के कमजोर होने के कारण अब खुद टाइप नहीं कर पाते लेकिन अपनी कहानियों, कविताओं को अपनी पत्नी और बेटे शाश्वत को डिकटेट करते है जिन्हें वे उनके लिए कंप्यूटर पर टाइप कर देते हैं.
शुक्ल को उनकी विशिष्ट लेखन शैली के लिए पहचाना जाता है. वह उन लोगों और विषयों के बारे में लिखते हैं जिन्हें वह गहराई से जानते हैं. उसके द्वारा रचित संसार कल्पनाओं से भरा हुआ है. उनकी शैली को अक्सर "जादुई यथार्थवाद" के करीब माना जाता है. लेकिन इस विधा के बारे में शुक्ल को लिखना शुरू करने से पहले खुद भी पता नहीं था. उनकी भाषा और शैली अंतरराष्ट्रीय लेखन या वैश्विक साहित्यिक आंदोलनों से प्रभावित नहीं हुई. मैंने उनसे पूछा कि उन्हें अपने लेखन में जादू बिखेरने की प्रेरणा कहां से मिली, तो उन्होंने कहा, "जादू और खुशी जीवन की चाहत में हैं."
1 जनवरी 1937 को छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में जन्में शुक्ल की जड़ें हमेशा अपने जन्मस्थान में रही हैं. इस साल अगस्त में जयपुर लिटररी फेस्टिवल के वर्चुअल सत्र में उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि स्थानीय हुए बिना मैं सार्वभौमिक नहीं हो सकता."
शुक्ल का जन्म नंदग्राम के पहले सिनेमा हॉल कृष्णा टॉकीज के उद्घाटन के साथ हुआ. उनका मानना है कि सिनेमा खोलने में उनके पिता और चाचा की भी भूमिका थी. शुक्ल अपने काम की काल्पनिक प्रकृति के लिए आंशिक रूप कृष्णा टॉकीज को जिम्मेदार ठहराते हैं. इंडियन एक्सप्रेस के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, "मेरे जन्म के बाद मेरी मां ने फिल्मों को देखने से एक महीने का ब्रेक लिया था इसलिए मैं हमेशा मानता हूं कि मेरे पास एक महीने का जीवन और एक महीने कम फिल्में हैं."
शुक्ल हिंदी, बैस्वरी (अवधी), छत्तीसगढ़ी और बंगाली सहित कई भाषाएं सुनते और बोलते हुए बड़े हुए हैं. उनके पिता लखोली गांव में एक खेत में काम करते थे. उनकी की मां, जो विभाजन पूर्व बंगाल में एक चीनी मिल मालिक की बेटी थीं, ने अपने शुरुआती साल बांग्लादेश में बिताए थे. वह शुक्ल की युवावस्था में उन्हें बंगाली साहित्य पढ़ने पर जोर देती थीं. उनके लेखन को प्रेरित करने वाला दूसरा शहर रायपुर है, जहां वह आज रहते हैं. उन्होंने मुझे बताया, "मैं तब से लिख रहा हूं जब मैं पंद्रह या सोलह साल का था. मुझे लिखते-लिखते पता चला कि मैं भाषा में नहीं सोचता. मैं छवियों में सोचता हूं. मैं चित्रों के बारे में सोचता हूं और उन्हें शब्दों में लिखता हूं.” इस प्रक्रिया को वह छत्तीसगढ़ी लोक-रंगमंच की एक विधा नाचा के साथ तुलना कर समझाते हैं कि जब मंच पर दुख का मजाक उड़ता है लोग दुख का मजाक उड़ाते देखते हैं, तो वे दुख से लड़ने का साहस पाते हैं. उन्होंने कहा, “मुझे नहीं पता कि मेरी कल्पना में कब कुछ वास्तविक होता है और कब सपना आ जाता है. मेरे उपन्यासों में मेरी कल्पना के धागे में बंधे मेरे वास्तविक अनुभव के मोती शामिल हैं.”
शुक्ल छह उपन्यासों के लेखक हैं लेकिन उन्हें उनकी कविताओं के लिए अधिक जाना जाता है. उनकी कविताओं को अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित किया गया है, जिनमें ग्रांटा, मेटामोर्फोसिस और मॉडर्न पोएट्री इन ट्रांसलेशन शामिल हैं. 1971 में उनका पहला कविता संग्रह “लगभाग जयहिंद” प्रकाशित हुआ. उसके बाद 1981 एकदम अलग शीर्षक “वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार की तरह” से छपे कविता संग्रह ने उन्हें अलग पहचान दिलाई. शुक्ल उन गिने-चुने कवियों में से एक हैं जिन्हें उनकी सीधी-सादी शैली के कारण उनकी कविता के माध्यम से पहचाना जा सकता है. उन्होंने कभी भी अपनी कविताओं को शीर्षक नहीं दिया यह मान कर कि शीर्षक पाठकों की कविता के क्रिएशन की प्रक्रिया में मौजूद रहने की स्वतंत्रता से रोकता है. उनके लिए शीर्षक कविता के शरीर से अलग एक कटे हुए सिर जैसा दिखता है और इसलिए उनकी सभी कविताओं को उनकी पहली पंक्तियों से पहचाना जाता है.
कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी, जिन्होंने शुक्ल को अपना पहला कविता संग्रह प्रकाशित करने के प्रेरित किया था, और उनके दूसरे कविता संग्रह का शीर्षक भी चुना था, ने 1960 में शुक्ल की पहली कुछ कविताओं को पढ़ा था. वह बताते हैं, "वे कविताएं मुझे मुक्तिबोध ने भेजी थीं जो “कृति” पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं. ये कविताएं अनगढ़, फ्रैश थीं. नई कविता की मौजूं की लेकिन फिर भी उनसे अलग. शुक्ल की मुख्य देन हमारे समय की मानवीय स्थिति में एक तरह के दुखद मानवोचित ज्ञान की एकदम सामान्य, पूरी तरह से सांसारिक अंतर्दृष्टी की खोज करने में रही है.”
नई कविता हिंदी कविता की आधुनिकतावादी परंपरा में एक साहित्यिक आंदोलन था जिसकी शुरुआत 1943 में कवि एसएच वात्स्यायन ने, जिन्हें अज्ञेय भी कहा जाता है, अन्य कवियों के साथ मिल कर अग्रणी संकलन तार सप्तक के प्रकाशन के साथ शुरू किया था. इस प्रकाशन से उभरने वाले सबसे उल्लेखनीय कवियों में से एक गजानन माधव मुक्तिबोध थे, जिन्होंने शुक्ल के लेखन को प्रभावित किया. इस परंपरा से जुड़े कवि प्रयोगवाद की शैली में भी फिट बैठते हैं. प्रयोगवाद प्रगतिवाद से एक एकदम अलग था. बाद में रामधारी सिंह "दिनकर" और भगवती चरण वर्मा जैसे कवियों की अगुवाई में इस आंदोलन ने उपनिवेशवाद के प्रभाव, निम्न और मध्यम वर्गों की रहने की स्थिति या जाति व्यवस्था के अन्याय जैसी सामाजिक असमानताओं पर ध्यान केंद्रित किया. इसने पहले के काव्य रूपों और भाषा को बाधित कर दिया और पहले से स्थापित साहित्यिक परंपराओं से अलग हो गया. नई कविता काव्य शिल्प और प्रक्रिया के बारे में पूरी तरह से आत्म-जागरूक है. यह छायावादी आंदोलन से एकदम विपरीत है जो लगभग 1918 और 1938 के बीच चला था. लेखक सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला," जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत द्वारा समर्थित यह आंदोलन प्रेम और प्रकृति के आसपास के विषयों पर केंद्रित भारतीय नव रोमांसवाद (स्वच्छंदतावाद) था.
शुक्ल को व्यापक तौर पर नई कविता या प्रयोगवाद परंपरा में समेटा जा सकता है क्योंकि उनकी कविता में भाषा के साथ प्रयोग किए गए हैं. कवि मंगलेश डबराल, जिनका हाल ही में कोविड-19 के कारण निधन हो गया, ने मुझे बताया कि “शुक्ल की कविता को अभिव्यक्ति की खामोशी और सटीकता से परिभाषित किया जा सकता है. उनकी अवलोकन की शैली अद्वितीय है और मेरा मानना है कि वह हिंदी भाषा के निर्माताओं में से एक हैं." उनकी कविता में गूढ़ और अपरंपरागत अभिव्यक्तियों की एक विशिष्ट शैली, स्वर, रूप और भाषाई किफायत का उपयोग किया गया है. उदाहरण के लिए इनकी इस कविता में एक भी अक्षर अनावश्यक नहीं लगता :
वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह
रबड़ की चप्पल पहनकर मैं पिछड़ गया
जाड़े में उतरे हुए कपड़े का सुबह छह बजे का वक्त
सुबह छह बजे का वक्त, सुबह छह बजे की तरह.
उनकी तीव्रता अमेरिकी कवि ईई कमिंग्स की याद दिलाती है, जो काव्यात्मक रूप के साथ अपने अभिनव प्रयोगों के लिए जाने जाते थे. (यह कविता, विशेष रूप से, कमिंग्स के "मान लीजिए" के साथ प्रतिध्वनित होती है : "क्या आप देखते हैं/ जीवन? वह वहां है और यहां,/ या वह, या यह/ या कुछ नहीं या एक बूढ़ा आदमी 3 तिहाई/ सो रहा है").
शुक्ल ने फंतासी कविता की अपनी शैली बनाई है जो लगातार व्याकरण, शब्द और वाक्य रचना के साथ खेलती है और सवाल करती है. इस कारण उन्हें मौजूदा साहित्यिक परिभाषाओं में वर्गीकृत करना मुश्किल हो जाता है. आलोचक नंद किशोर नवल के साथ एक फोन पर हुई बातचीत में शुक्ल ने कथित तौर पर उल्लेख किया है कि उन्हें कभी भी एक प्रगतिशील कवि के रूप में स्वीकार नहीं किया गया लेकिन उनकी कविता सामाजिक पदानुक्रम के बारे में जागरूकता और समझ को प्रकट करती है. उत्पीड़न पर शुक्ल की कविताओं में से एक, "हताशा से एक व्यक्ति बैठा था" का बार-बार उल्लेख किया जाता है :
हताशा से एक व्यक्ति बैठा था
व्यक्ति को मैं नहीं जनता था
हताशा को जनता था
इस लिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़ कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जनता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जनता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जाने थे
साथ चलने को जाने थे
शुक्ल के लेखन, विशेष रूप से उनकी कविता पर एक और महत्वपूर्ण प्रभाव लेखक भवानी प्रसाद मिश्रा का था, जिनके काम को उन्होंने स्नातकोत्तर छात्र के रूप में जाना था. एक दिन शुक्ल के चचेरे भाई ने शुक्ल को कविता में मिश्रा के वाक्यांश की नकल करने का दोषी ठहराया. इससे शुक्ल को महत्वपूर्ण सबक मिला. इस घटना के बाद उन के लिए चाय बनाते समय उनकी मां ने छलनी दिखाते हुए कहा कि उनको इसकी जरूरत है. इंडियन एक्सप्रेस के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने उन्हें याद किया, "अच्छी कविता को आपकी चेतना पर अपनी छाप छोड़नी चाहिए लेकिन उसे कभी भी आपके विचारों को प्रभावित नहीं करना चाहिए."
अपने बड़े भाई के आग्रह पर शुक्ल मुक्तिबोध से मिलने गए, जो उनकी साहित्यिक प्रेरणा होने के साथ ही खुद मध्य प्रदेश के थे. 1958 में राजनांदगांव की उनकी यात्रा के दौरान, उन्होंने मुक्तिबोध को अपनी प्रारंभिक कविताएं दिखाने का फैसला किया. मुलाकात के तुरंत बाद शुक्ल को साहित्यिक पत्रिका “पुस्तक कृति” के संपादक श्रीकांत वर्मा द्वारा कविता भेजना का आमंत्रण मिला. यह आमंत्रण उन्हें जल्द ही प्रसिद्ध कवि बनने की यात्रा पर ले जाने वाला था. शुक्ल ने मुझे बताया कि अगर वह स्कूल में बारहवीं की हिंदी की परीक्षा में फेल नहीं होते और राजनांदगांव में कृषि का अध्ययन करने के बजाय एक इंजीनियर या मेडिकल छात्र के रूप में दाखिला लेते, तो वह पूरी तरह से अलग रास्ते पर होते.
इसके बाद शुक्ल ने जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्व विद्यालय से कृषि में स्नातक डिग्री पूरी की, जिसके बाद उन्होंने रायपुर में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाना शुरू किया. उनका शोध क्षेत्र कृषि विस्तार था, जिसमें उन्हें नई कृषि तकनीकों को आसपास के गांवों में परिचित कराने के लिए जाना होता था. इस शिक्षण कार्यकाल के दौरान उन्होंने 1976-77 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शुरू की गई मुक्तिबोध फैलोशिप हासिल की. फिर उन्होंने अपने अध्यापन से विश्राम लिया और पहले छह महीनों के लिए रायपुर में दुर्गा टाइपिंग संस्थान में टाइपिंग सीखने का फैसला किया. यह अपेक्षा के अनुरूप नहीं हुआ. उन्होंने लगभग फैलोशिप छोड़ ही दी थीं लेकिन 1000 रुपए के मासिक वाजीफे और अपनी पत्नी के दबाव के चलते फैलोशिप जारी रखी. उन्होंने अपना पहला उपन्यास “नौकर की कमीज” छह महीनों के भीतर लिख कर पूरा कर दिया. इस उपन्यास पर 1999 में निर्देशक मणि कौल ने फीचर फिल्म बनाई. कौल को भारतीय सिनेमा के पारंपरिक रूप और कथा तकनीक में अलग किस्म के प्रयोगों के लिए जाना जाता था. नौकर की कमीज भारत में उदारीकरण के पहले मध्य प्रदेश के छोटे कस्बे के मजदूर वर्ग के संघर्ष की कहानी है. यह नायक संतू बाबू के इर्दगिर्द केंद्रित है, जो एक सरकारी कार्यालय में क्लार्क है और जिसे नियोक्ता ने नौकर की शर्ट पहनने के लिए मजबूर किया जाता है. शुक्ल वर्ग संघर्ष, अपमान और पीड़ा के एक ऐतिहासिक अनुभव को पकड़ने में कामयाब रहे जो आज भी गूंजता है.
एक बार जब उन्होंने उपन्यास पूरा कर लिया तो अशोक वाजपेयी ने भोपाल में अपने घर पर उपन्यास के दो दिवसीय वाचन की मेजबानी की जिसमें मंगलेश डबराल और मंजूर अहतेशम जैसे साथी कवियों ने भाग लिया. डबराल ने इस अनौपचारिक सभा को प्यार से याद करते हुए मुझे बताया था, “उन्होंने अभी-अभी नौकरी की कमीज उपन्यास लिखा था और अशोक वाजपेयी के घर पर दो दिनों तक हमने उसे पढ़ा. वह मुझे बहुत अच्छे से याद है. उनकी मौजूदगी ऐसी नहीं है कि आपको ठीक से याद रहे कि आप उनसे पहली बार कहां मिले थे. वह लो-प्रोफाइल रहते हैं." पत्रकार रवीश कुमार ने मुझसे इस पुस्तक की निरंतर प्रासंगिकता के बारे में बात करते हुए कहा कि उनका मानना है कि कहानी का नायक ही कमीज है जिसे समाज के सदस्यों पर यह सुनिश्चित करने के थोपी जाती है कि वे दबे रहें. रवीश कहते हैं, “मैं आज भी नौकरी की कमीज को घटते हुए देखता हूं. दफ्तर जा रहा या दफ्तरर से लौट रहा हर आदमी नौकरी की कमीज में नजर आता है.”
शुक्ल के अगले दो उपन्यास- खिलेगा तो देखेंगे, 1996 और दीवार में एक खिड़की रहती थी, 1997- उस दौरान लिखे गए थे जब वह 1994 और 1996 के बीच भोपाल में निराला सृजनपीठ, भारत भवन में रचनात्मक लेखन के अध्यक्ष थे. यह लगभग वही समय था जिसमें उन्होंने अपने कृषि कर्म और शिक्षण से भी संन्यास ले लिया था. शुक्ल ने स्वीकार किया है कि उनके उपन्यासों में उनका पसंदीदा उपन्यास “खिलेगा तो देखेंगे” है. इस उपन्यास का नायक गावों के स्कूल का एक सेवानिवृत्त शिक्षक हैं जिसका परिवार, घर की छत आंधी से उड़ जाने के बाद, एक परित्यक्त पुलिस स्टेशन में रहने के लिए मजबूर हो जाता है. शुक्ल का मानना है कि यह उनका अभी तक का "सबसे अधूरा काम" है और जिसने उन्हें अपने जीवन के एक अत्यंत कठिन चरण को बताने का अवसर दिया.
दीवार में एक खिड़की रहती थी एक नवविवाहित जोड़े- रघुवर प्रसाद, जो कि एक कस्बे के कॉलेज में गणित का प्रोफेसर है और उनकी पत्नी सोनसी- की कहानी है. उनके सभी उपन्यासों में यह उपन्यास अपनी समृद्ध कल्पना के लिए जाना जाता है. इसके लिए 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. साथ ही साथ इस उपन्यास ने उन्हें अपने समय के सबसे प्रमुख लेखकों में से एक के रूप में स्थापित किया. साहित्यिक आलोचक योगेश तिवारी ने सुझाव दिया है कि शुक्ल के पहले तीन उपन्यास वास्तव में एक ही कहानी के हिस्से हैं (शुक्ल इस पठन से शुक्ल इनकार नहीं करते हैं क्योंकि वह मानते हैं कि उनकी सभी कहानियां लगभग आत्मकथात्मक हैं). उनका प्रत्येक उपन्यास उन लोगों से प्रेरित होता है जिन्हें उन्होंने वास्तविक जीवन में देखा है या देखते हुए बड़े हुए हैं. शुक्ल के बाद के उपन्यासों हैं, हरी घास की छप्पर वाली झोपडी और बौना पहाड़, यासि रासा त और एक चुप्पी जगह. ये उपन्यास जो युवा पाठकों को ध्यान में रख कर लिखे गए हैं. इनके साथ ही कुछ कहानियां उन्होने हिंदी पत्रिका चकमक के लिए भी लिखी हैं. एक चुप्पी जगह के अलावा उनके सभी उपन्यास अंग्रेजी में उपलब्ध हैं.
आश्चर्यजनक रूप से शुक्ल के लेखन में दृश्यात्मकता है. ये तुलनाओं से भरे हुए हैं. उनके पात्र और प्लॉट भौगोलिकता में बंधे होने के बावजूद असीम संभावनाएं रखते हैं. उदाहरण के लिए, दीवार में एक खिड़की थी के रघुवर और सोनसी एक कमरे में रहते हैं और उनके पास केवल एक बक्सा और कुछ रसोई के बर्तन हैं. लेकिन उनके पास एक खिड़की है जो उनकी दीवार में "रहती है" जो उन्हें उनके आम जीवन से कल्पना में खो जाने देती है जहां चांदनी के तालाब हैं, मार्गोसा के पेड़ हैं, जहां की हवा में कविताएं और रंगोली उड़ती है. यहां उनके संवाद एकदम सच्चे हैं, जो उनके मासूम और खिलते रिश्ते को बयां करते हैं : "क्या चांद तालाब में डूब गया है?" "हां उसी में है." “चांद और तारे तालाब के पानी में धुल गए हैं. साफ और शांत तारों को आसमान में देखो.”
एक हाथी और एक साधु कॉलेज प्रोफेसर रघुवर को हर सुबह काम पर छोड़ देते हैं, एक ऐसी घटना है जिसे सोनसी बिना किसी हिचकिचाहट के अपने सामान्य जीवन का हिस्सा मान लेती है. कोई सवाल नहीं पूछती. सांसारिक ही जादुई हो जाता है; अनोखा ही रोज का एक हिस्सा हो जाता है. वाजपेयी उनके उपन्यास में विडंबना, अतिशयोक्ति, बेतुकेपन, शांत भूमिगत गीतवाद और प्रतिध्वनिसे भर हुई, रोजमर्रा की जिंदगी की धीमी लय से परिपूर्ण शूक्ल की कथा को कवि की कल्पना कहते हैं.
टेलीपैथिक वार्तालाप खिलेगा तो देखेंगे में भी प्रदर्शित होता है. शुक्ल संयोग से उपन्यास के बीच में इसे दिखाते हैं. "यह संभव है कि अगर लोग जोर से सोचते हैं, तो दूसरे उन्हें सुन लेते हैं." इस गांव में पुलिसकर्मी और निशानेबाज किसी का नाम लेकर लकड़ी की बंदूकों से निशाना लगाते हैं और "धमाका!" चिल्लाते हैं. इससे गांव के लोग, जैसे कि दुकानदार जीवराखान, सुरक्षित महसूस करते हैं. शुक्ल इस बात पर जोर देते हैं कि वास्तव में बेतुका कितना सामान्य है. एक नीली शर्ट वाला आदमी ट्रेन को स्टेशन में बुलाने के लिए बांसुरी बजाता है और अपने आस-पास के सभी लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता है. उसकी बांसुरी सुनने के लिए सूरज जल्दी उठता है. एक दम नीरस कामों के बीच केवल इस बांसुरी का बजना इसे जादुई और अलौकिक बना देता है.
उनकी कहानियों में नाटकीय कथानक नहीं हैं. वह गहरे छिपे हुए विचारों के रूप में मौलिक सत्य तक पहुंचाते हैं. उनके काव्यात्मक संवाद उनके पात्रों को उनके नियमित अस्तित्व से परे ले जाते हैं. इस दीवार में एक खिड़की रहती थी के रघुवीर प्रसाद या खिलेगा तो देखेंगे के सेवानिवृत शिक्षक के दैनिक जीवन का कठिन परिश्रम और अंतरंग संसार का शुक्ल का चित्रण जितना ही जटिल है उतना ही यह सरल है. शुक्ल ने मुझे बताया कि “गद्य विचार का सरलीकरण है लेकिन गद्य की जकड़न में भी मुझे आमतौर पर गहराई का पता चलता है. गद्य की गहराई ही काव्य की गहराई है. और इस गहराई को सतह के नीचे से बाहर निकालने के लिए कविता की जरूरत होती है.”
शुक्ल गहरे परिचित क्षणों की भी खोज करते हैं, जैसे कि यह महसूस करना कि जब आप काम के लिए बाहर निकलते हैं तो आप अपने सामने के दरवाजे को बंद करना भूल जाते हैं या एक पेड़ से गिरने वाले एक पत्ते का वजन आपकी जेब में आ जाता है. उनकी पूरी लघुकथा उस एक पल के इर्द-गिर्द घूम सकती थी और नाटकीयता नायक के मनोरंजक और दार्शनिक विचारों से उत्पन्न होता है. वह यात्रा करता है और "सामान्य" लोगों की आंतरिक दुनिया में रहता है और उत्तरोत्तर भीतर की यात्रा में, वह सार्वभौमिक पर ठोकर खाता है. शुक्ल ने फेसबुक पर अपने लाइव सत्र के दौरान समझाया था, "सारी दुनिया के लोगों को तो नहीं जनता, लेकिन मनुष्य को जनता हूं."
लेखक-अनुवादक अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा ने ब्लू इज लाइक ब्लू, शुक्ल के लघुकथा संग्रह के परिचय में लिखा है, "शुक्ल मेरी चिंताओं को संबोधित तो करते हैं लेकिन वे कभी भी मेरी चेतना का हिस्सा नहीं बनतीं. वे हाशिए पर हैं, उन्हें भुला दिया जाता है.” मेहरोत्रा कहते हैं, “शुक्ल के अनुवाद में सबसे कठिन होता है सरल शब्दों का अनुवाद जो हिंदी में इतने स्वाभाविक रूप से प्रकट होते हैं. ब्लू इज लाइक ब्लू ने पुरस्कार जीते, जिनमें सर्वश्रेष्ठ फिक्शन के लिए अट्टा गलाट्टा बैंगलोर लिटरेचर फेस्टिवल बुक प्राइज 2019 और पहला मातृभूमि बुक ऑफ ईयर अवार्ड शामिल है. शुक्ल को पुरस्कार मिलने पर मेहरोत्रा और राय ने कहा, "यह खुशी की बात है कि यह पुरस्कार विनोद कुमार शुक्ल जैसे किसी व्यक्ति को मिला है, जो पिछले साठ वर्षों से रायपुर के अस्वाभाविक शहर से ऐसी कहानियां बुन रहा है जो जादुई होने के साथ-साथ जमीन से जुड़ी हैं."
मैंने सत्ती खन्ना से पूछा कि उन्हें पहली बार शुक्ल के उपन्यासों की ओर किस चीज ने आकर्षित किया. उन्होंने कहा कि वह 1991 में बॉम्बे इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में थे, दूरदर्शन के लिए एक वृत्तचित्र श्रृंखला पर काम कर रहे थे, जो विभिन्न भारतीय भाषाओं के लेखकों पर आधारित थी. इस समय के दौरान मणि कौल ने सुझाव दिया कि वह शुक्ल की नौकरी की कमीज पढ़ लें और यदि उन्हें वह दिलचस्प लगे तो रायपुर में शुक्ल से मिल लें. उन्होंने बताया, "मैंने उपन्यास में संगीत सुना और मौका मिलते ही रायपुर चल दिया." खन्ना ने आगे कहा, "उपन्यास का अंग्रेजी में अनुवाद करने का विचार कुछ साल बाद मेरे मन में आया. मैं संतू बाबू और उसकी पत्नी के किराए के क्वार्टर में बहुत देर तक रहना चाहता था. मैं कस्टम वेयरहाउस में उन क्लार्कों के साथ अधिक समय बिताना चाहता था जिन्होंने कार्यालय के नियमों के उल्लंघन का बड़ी सरलता से फारमुला निकाल लिया था. अपने उपन्यासों में भी शुक्ल जी कवि हैं. एक उपन्यासकार आमतौर पर अपनी दुनिया के यथार्थवाद से पाठकों को आकर्षित करता है लेकिन कवि संकेत देता है." खन्ना की संपादक और प्रकाशक मीनाक्षी ठाकुर बताती हैं कि “पिछले कुछ वर्षों में शुक्ल जी के काम के बारे में हमारी समझ बढ़ी है और हमने, उनके उत्सुक पाठकों के रूप में उनके भ्रामक सरल लेखन की कई परतों को छुआ है.”
शुक्ल के काम की एक आलोचना सार्वजनिक स्थान पर अपने राजनीतिक विचारों के बारे में मुखर होने से बचने के उनके निर्णय से उपजी है. शुक्ल छत्तीसगढ़ में बड़े हुए और वहीं रहते हैं. यह एक ऐसा राज्य है जहां 1960 के दशक से संघर्ष जारी है और सेना की बड़ी उपस्थिति देखी है. मध्य प्रदेश के एक अन्य कवि महेश वर्मा के अनुसार, शुक्ल 2000 में राज्य के गठन से खुले तौर पर निराश थे लेकिन उन्होंने इसके बारे में सार्वजनिक बयान देने से इनकार किया. उनके मूल प्रकाशक और राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी ने कहा कि वह कभी भी पक्ष नहीं लेते, “वह बहुत सरलता से रहते हैं. वह सब कुछ बहुत सरलता से कहते हैं. बिना किसी तामझाम के.”
हालांकि यह पब्लिक ओपिनियन है, लेकिन उनकी कविता और उपन्यासों को बारीकी से पढ़ने से पता चलेगा कि उनकी प्रतीत होने वाली गैर-राजनीतिक शैली कैसे गलत दृष्टिकोण है. उनकी इस कविता पर विचार करें : "बाजार का दिन है." एक अकेली आदिवासी लड़की को/ घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता/ बाघ-शेर से डर नहीं लगता/ पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से डर लगता है.” झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के उरांव आदिवासी समुदाय की कवयित्री जैकिंटा केरकेट्टा ने कहा कि यह कविता उनके लिए एक विशेष प्रभाव रखती है. उसने मुझे बताया कि ये लाइनें आदिवासी समुदायों और बाजार की लाभ-संचालित, भ्रामक दुनिया के बीच मूल्यों के टकराव को सटीक रूप से दर्शाती हैं. “जब मुख्यधारा के, गैर-आदिवासी कवि आदिवासी जीवन के बारे में लिखते हैं, तो मैं आमतौर पर इससे अपनी पहचान नहीं बना पाती. लेकिन [शुक्ल के] शब्दों का मुझ पर गहरा असर हुआ. केवल चार पंक्तियों में, वह एक मूल मुद्दे को समझते हैं और संबोधित करते हैं जिसे वह बिना किसी अतिशयोक्ति के सरलता से व्यक्त करने में सक्षम हैं. मै यह तो नहीं कह सकती कि वह जो कहते हैं, उसके अनुसार जीते भी हैं लेकिन उनके शब्द इतने मार्मिक हैं कि यह निश्चित रूप से उनके पाठकों को आदिवासी जीवन की बारीकियों को समझने और एक स्टैंड लेने में मदद करेंगे. यही अच्छी कविता का उद्देश्य है." उन्होंने कहा कि शब्दों के माध्यम से समर्थन व्यक्त करना भी पर्याप्त नहीं है. "सहानुभूतिपूर्ण शब्दों को खूबसूरती से लिखा जा सकता है लेकिन यह आपके कार्यों में कहां है? आपका स्टैंड क्या है? आदिवासी इस बात की परवाह करते हैं कि आप अपने वास्तविक जीवन में क्या करते हैं, और यदि आप अपने शब्दों को नहीं जीते तो वे निराश होते हैं.”
"सरल” एक ऐसा शब्द है जिसका उपयोग लोग अक्सर शुक्ल का वर्णन करने के लिए करते हैं. शुक्ल के साथ माहेश्वरी का रिश्ता 1980 का है, जब वह पहली बार रायपुर में मिले थे. नौकरी की कमीज को शुरू में आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया था, जिसके बाद इसे राजकमल प्रकाशन द्वारा अधिग्रहित किया गया, जिसने उसके बाद उनके कई अन्य उपन्यास प्रकाशित किए. जब उनसे पूछा गया कि शुक्ल के लेखन के बारे में उन्हें क्या लगा, तो उन्होंने कहा, “शुक्ल अपनी कहानियों और टिप्पणियों के बारीक विवरण में जाते हैं. अन्य लेखक अपने पाठकों को उस स्तर का विवरण प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं जो वह करते हैं. जिस तरह से वह व्यक्त करते हैं वह अद्वितीय और अपनी तरह का अनूठा है." उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि वह किसी अन्य लेखक को नहीं जानते जिन्होंने अपने काम के लिए इतनी मान्यता प्राप्त करने के बाद बच्चों के लिए लेखन की ओर रुख किया हो. मैंने भोपाल के सुशील शुक्ल (कोई पारिवारिक संबंध नहीं) जो एकतारा के निदेशक और हिंदी में छपने वालीं दो बच्चों की पत्रिकाओं, साइकिल और प्लूटो के संपादक हैं, से संपर्क किया. "मैं कॉलेज में था तभी से शुक्ल जी का प्रशंसक रहा हूं," उन्होंने मुझे बताया. “जब मैंने पहली बार उनकी कविता सुनी, तो मुझे नहीं पता था कि मुझे क्या लगा. कई सालों के बाद 2004 में मैंने उन्हें पत्र लिख कर पूछा कि क्या वह बच्चों के लिए लिखेंगे तो उन्होंने कहा कि वह बच्चों के लिए नहीं लिखते हैं और मुझसे पूछा कि वह किस बारे में लिख सकते हैं. सुशील ने उनसे एक पक्षी की डायरी लिखने का अनुरोध किया कि उसने अपना दिन कैसे बिताया. लेकिन शुक्ल के पास एक बेहतर विचार था. उन्होंने एक पक्षी पर आधारित उपन्यास में एक संपूर्ण चरित्र का निर्माण किया.
यह हरे घास उपन्यास का जन्म था जो इसके नायक बोलू के इर्द-गिर्द केंद्रित था, जो पत्रांगी पक्षी की तरह केवल चलते समय बोलता है और रुकने पर शांत रहता है. जब वह अपनी कहानियां सुना रहा होता है, तो उसकी मां को रुकना मुश्किल होता है और उसके शिक्षकों को सवालों के जवाब सुनने के लिए उसके साथ स्कूल परिसर में घूमना पड़ता है. यह कहानी रचनात्मक और विचित्र है और इसमें शुक्ल के गद्य का क्लासिक जादुई स्पर्श है. इसमें एक दुकान पर गिलहरी और बाघ चाय पीते हैं, हवा से बने अस्थायी पक्षी हैं और एक चांद जिसे हरी घास की छत से छुआ जा सकता है वह भी है.
शुक्ल द्वारा चार नए शीर्षक प्रकाशित करने जा रहे सुशील शुक्ल ने कहा, "वह जिस भाषा का आविष्कार करते हैं और उनका दृष्टिकोण बहुत मौलिक है. उन्होंने मुझे बच्चों की पत्रिका साइकिल के लिए साठ नई कविताएं भेजीं. तब मैं लालची हो गया और उससे बहुत छोटे पाठकों के लिए छपने वाली प्लूटो के लिए लिखने को कहा. उन्होंने मुझे प्लूटो के लिए सत्रह या अठारह कविताएं भेजीं. कविताओं में से एक का शीर्षक था “और नाम का गोंद”. वह लिखते हैं,
कागज के टुकड़े को
जोड़ कर लांबा करने
गोंद लगाते हैं.
वाक्या को लम्बा करना हो तो
और लगाते हैं.
अपने पहले फेसबुक लाइव सत्र के अंत में विनोद कुमार शुक्ल आभासी बातचीत के विचार से वॉर्म-अप करते दिखाई दिए. "मैं आमतौर पर साहित्यिक कार्यक्रमों में शामिल नहीं होता और कई वर्षों तक यात्रा नहीं करता लेकिन अपने पाठकों से बात करने में सक्षम होना बहुत अच्छा लगा. मुझे एक और लाइव फेसबुक सत्र से कोई आपत्ति नहीं है,” उन्होंने कहा. अपनी अभी तक प्रकाशित होने वाली कविताओं को पढ़ते हुए वह मजाक भी कर लेते हैं कि हम इसे प्रकाशित होने के बाद "छपेगा तो देखेंगे."
वह आज भी लिखना जारी रखते हैं, ज्यादातर बच्चों के लिए. उन्होंने युवा पाठकों के लिए हिंदी में तीन और पुस्तकें अभी समाप्त की हैं : एक कविता संग्रह, एक लघु कहानी संग्रह और एक डायरी. यहां तक कि उनके बच्चों के लिए किया गया लेखन भी इस मायने में अद्वितीय है कि वह अपने लहजे में उपदेशात्मक नहीं है, न ही वह युवा पाठकों से "नीचे" देख कर बात करने में विश्वास करते हैं. वह बच्चों में वयस्कों और वयस्कों में बच्चों से बात करते हैं और अपने पाठकों को चीजों को समझने के अपने तरीके से आमंत्रित करते हैं. वह स्वयं एक स्थायी, कठोर जीवन जीने के लिए जाने जाते हैं जो उनके आसपास के वातावरण के अनुरूप हो. देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान, शुक्ल ने कहा, उन्हें दोगुना बंद महसूस हुआ : पहला ताला उनका बुढ़ापा और दूसरा कोरोनावायरस. वह एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते-जाते थक गए लेकिन लिखते-लिखते कभी नहीं थकते. उन्होंने कहा कि उन्होंने अभी तक अपना सर्वश्रेष्ठ काम नहीं लिखा है और उनका मानना है कि कोई भी लेखक कभी भी अपना सर्वश्रेष्ठ काम नहीं लिख सकता. जिस दिन वह अपना सर्वश्रेष्ठ लिख देगा उसके पास लिखने के लिए और कुछ नहीं होगा.
(कारवां अंग्रेजी में 1 जनवरी 2021 को प्रकाशित इस आलेख का अनुवाद पारिजात ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)