कैग की रिपोर्ट के बाद अडानी की विझिनजाम परियोजना विवादों में

केरल की राजधानी तिरुवनन्तपुरम के नजदीक प्रस्तावित अडानी का विझिनजाम अंतर्राष्ट्रीय सीपोर्ट दिसंबर 2019 के लिए तय समय सीमा से पीछे चल रहा है. एस गोपकुमार/द हिंदू
02 November, 2018

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अगस्त 2015 में केरल सरकार और अडानी समूह ने राज्य की राजधानी के नजदीक बनने वाले विझिनजाम अंतर्राष्ट्रीय डीपवॉटर बंदरगाह परियोजना समझौते किया. मई 2017 में परियोजना की माली हालत और इसे सौंपने की प्रक्रिया पर गंभीर एतराज वाली नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट जारी होने के यह समझौता विवादों में फंस गया. दो महीने बाद, ‘‘राज्य सरकार ने कैग की रिपोर्ट में उल्लेखित चिंताओं के मद्देनजर राज्य के हितों के खिलाफ निर्णय करने वाले लोगों की पहचान करने के लिए” तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया. लगभग एक साल तक इस आयोग ने कैग के निष्कर्षों के परिप्रेक्ष में पक्ष और विपक्ष की दलीलों को सुना, पर्यावरणविदों, सरकारी अफसरों और अडानी समूह के प्रतिनिधियों के शपथपत्र प्राप्त किए. लेकिन हैरतअंगेज करने वाले घटनाक्रम में आयोग की अंतिम सुनवाई से ठीक पहले इसके जनादेश को बदल दिया गया और आयोग को कैग की ही रिपोर्ट की सत्यता की जांच करने को कहा गया.

कैग की रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि राज्य सरकार और अडानी के बीच हुए समझौतों की शर्तों ने निजी साझेदार को अनुचित लाभ पहुंचाया है. शुरू में केरल उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश सीएन रामचंद्रन नायर की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग का गठन इसलिए किया गया था कि वह राज्य सरकार को दोषियों का पता लगा कर दे और उन प्रक्रियाओं के बारे में भी बताए जिससे सरकार को हुए घाटे की परिपूर्ति हो सके. इस साल 18 जुलाई को अंतिम सुनवाई से एक सप्ताह पहले आयोग के गठन की संदर्भ शर्तों अथवा टर्म्सऑफ रेफरेन्स (टीओआर) को संशोधित कर दिया गया. सुनवाई समाप्त होने के बाद भी बदले हुए टीओआर को सार्वजनिक नहीं किया गया जिससे सरोकार वालों को परियोजना के बारे में अपनी चिंताओं को जाहिर करने का अवसर नहीं मिला. आयोग को जनवरी 2019 में अपनी रिपोर्ट जमा करानी है.

पिछले साल मई की अपनी रिपोर्ट में कैग ने उन परिस्थितियों के बारे में गंभीर सवाल उठाए थे जिसके चलते 7 हजार 525 करोड़ रुपए की इस परियोजना पर बोली लगाने के लिए केवल अडानी समूह उपयुक्त पाया गया था. कैग के अनुसार, केरल सरकार के पूर्ण स्वामित्व वाली विझिनजाम अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह लिमिटेड (वीआईएसएल) ने बोली प्रक्रिया के बीच में ही परियोजना की पूरी संरचना को मनमाने ढंग से बदल दिया. राज्य सरकार ने ऐसा करने को यह कह कर उचित ठहराया कि निजी बोली लगाने वालों के लिए परियोजना को आकर्षक बनाने के लिए योजना आयोग द्वारा उल्लेखित मॉडल रियायत समझौते या एमसीए को अपनाया गया था. एमसीए बंदरगाह परियोजनाओं में निजी-सार्वजनिक साझेदारी या पीपीपी के लिए केंद्र सरकार का प्ररूप है. हालांकि, न्यायिक जांच के दौरान, राज्य सरकार के पूर्व आईटी कंसलटेंट जेम्स मैथ्यू ने एमसीए की वैधता और इसे अपनाने पर सवाल उठाते हुए विस्तृत बयान आयोग के समक्ष दर्ज कराया था. इसके अतिरिक्त कैग ने यह भी देखा कि अंतिम रियायत करार में एमसीए का पूरी तरह पालन नहीं किया था. कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘राज्य सरकार मनमाने तरीके से प्रवधानों का प्रयोग कर रही है और इससे अडानी समूह को अतिरिक्त लाभ मिल रहा है.’’

रिपोर्ट के मुताबिक रियायत समझौते के पक्षों, मिसाल के लिए रियायत अवधि को बढ़ाने और वाणिज्यिक रियल एस्टेट डिवेलपमेंट के कारण राज्य के कीमत पर अडानी समूह को बड़े पैमाने पर फायदा पहुंचा. रियायत अवधि के बढ़ाने से अडानी समूह को 29000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त अनुमानित लाभ हुआ है जबकि राज्य को इससे कुछ हासिल नहीं हुआ. कैग ने नोट किया कि केरल सरकार ने इस परियोजना की 67 प्रतिशत फंडिंग की है और इसके बावजूद ‘‘रियायत समझौते में उसके हितों को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए गए’’. कैग का निष्कर्ष है कि ‘‘बाहर के परामर्शदाताओं द्वारा बनाए गए तकनीकी और वित्तीय अनुमान के मूल्यांकन में जरूरी सतर्कता के आभाव के परिणाम स्वरूप लागत अनुमान बढ़ गया’’ और राजकोष की कीमत पर अडानी को लाभ पहुंचाने के लिए समझौते में कई भारी छूट दी गईं.

राजधानी तिरुवनंतपुरम के पास केरल के दक्षिण-पश्चिमी तट के पास निर्मित होने वाली विझिनजाम परियोजना अपने शुरुआती चरण से ही विवादित है. यह परियोजना 20 सालों तक कागजों में सीमित रही. इसे शुरू करने के आरंभिक प्रयास इसकी आवश्यकता, वित्तीय औचित्य और पर्यावरण पर इसके असर जैसी गंभीर चिंताओं के चलते विफल हो गए. आखिरकार साल 2013 के नवंबर में केरल सरकार ने एक नए मॉडल को मंजूरी दे दी. इस मॉडल को परामर्शदाता कंपनी एईसीओएम इंडिया ने तैयार था और इसमें राज्य सरकार को बहुत कम निवेश करने की आवश्यकता थी. इस मॉडल के तहत, जिसे ‘‘मकान मालिक बंदरगाह मॉडल’’ कहा गया, वीआईएसएल जमीन खरीद, बाहरी अवसंरचना और बांध के निर्माण के लिए जिम्मेदार होगा और निजी साझेदार को निकर्षण, भूमि सुधार और बंदरगाह का निर्माण और संचालन करना होगा. इस पीपीपी मॉडल को डिजाइन, निर्माण, वित्त, संचालन और हस्तांतरण (डीबीएफओटी) के आधार पर प्रस्तावित किया गया था.

इसके बाद 2013 के दिसंबर में वीआईएसएल ने दो वैश्विक टेंडर जारी किए- एक पीपीपी रियायत के लिए और दूसरा बांध और बाहरी अवसंरचना के काम के -इंजीनियरिंग, खरीद और निर्माण (ईपीसी) - ठेकेदार के लिए. इस अनुरोध-योग्यता (आरएफक्यू) चरण में पांच आवेदकों को शॉर्टलिस्ट किया गया था. इस समय तक ईपीसी कार्य को छोड़कर कुल परियोजना लागत 3900 करोड़ रुपए की थी. ईपीसी काम के लिए 767 करोड़ रुपए निर्धारित था. हालांकि जब 12 मई 2014 को परियोजना के लिए प्रस्ताव अनुरोध (आरएफपी) जारी किया गया तब न केवल परियोजना लागत को बढ़ा कर 4089 करोड़ रुपए कर दिया गया बल्कि दूसरा टेंडर रद्द कर दिया गया.

राज्य सरकार ने ईपीसी काम को पीपीपी के अंतर्गत प्रयोजित कार्यों (फन्डेड वक्र्स) में समाहित करने का निर्णय लिया. प्रयोजित कामों के मूल्य को पहले 1210 करोड़ रुपए निर्धारित किया गया जिसे अप्रैल2015 में बढ़ाकर 1463 करोड़ रुपए कर दिया गया. यह कीमत आरंभिक लगात से लगभग दो गुना थी. विनिमय दर स्फिति के मूल्यांक के बाबजूद कैग इस बढ़ी हुई कीमत को सही नहीं मान सका. कैग ने नोट किया कि ‘‘टेंडरों को आपस में मिला देने का अर्थ है कि किए जाने वाले काम के बाजार मूल्य का पता सरकार नहीं लगा सकती.’’ मैथ्यू ने यह भी बताया कि ईपीसी निलामी को रद्द करने का मतलब है कि अंततः ‘‘1463 करोड़ रुपए का काम बिना किसी टेंडर के प्रदान कर दिया गया.’’

ईपीसी लागत अनुमानों में अंतिम संशोधन बाहरी वित्तीय सलाहकार, अर्नेस्ट एंड यंग (ई एंड वाई) ने किया था जिसे फरवरी 2014 में परियोजना में शामिल किया गया था. परियोजना के लिए सभी बाद के वित्तीय लाभप्रदता (फाइनेन्शिअल वाइबिलटी) अनुमान ई एंड वाई ने किए. गौरतलब है कि ई एंड वाई ने केवल निजी साझेदार के निवेश के लिए लाभप्रदता अध्ययन किया राज्य सरकार के लिए नहीं.

उन टेंडरों के अतिरिक्त जिन्हें मिलाकर एक कर दिया गया था, मसौदा रियायत करार (डीसीए) में, जिसे आरएफपी के साथ जारी किया गया था, परियोजना की संरचना में भी बड़े बदलाव कर दिए गए. इनमें मुख्य प्ररूप को मकान मालिक और निजी सेवा मॉडल (प्रयोजित कार्यों) में बदलना, रियायत अवधि को बढ़ाना, वाणिज्यिक और आवासीय रियल एस्टेट डेवलेपमेंट को शामिल करना, ऐसे प्रवाधान को शामिल करना जिससे अडानी को परियोजना के धन के लिए भूमि सहित अन्य सम्पत्ति को गिरवी रखने की छूट देना और बंदरगाह को अनुमानित क्षमता के अनुरूप निर्माण करने के लिए समय सीमा को बढ़ाना शामिल था. कैग ने नोट किया कि आरएफक्यू चरण में इन प्रावधानों को शामिल न करने से बोली लगाने वाले योग्य लोगों को ‘‘अनुचित लाभ’’ मिला. इन बुनियादी परिवर्तनों के प्रकाश में, कैग ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की कि टेंडर की पूरी प्रक्रिया को रद्द कर देना चाहिए और दोबारा वैश्विक टेंडर आमंत्रित किए जाने चाहिए.

वीआईएसएल ने उपरोक्त बदलावों को यह कह कर सही ठहराया कि ये योजना आयोग द्वारा राज्य बंदरगाहों के लिए बताए गए उस एमसीए पर आधारित हैं जिसमें पहली बार ‘‘प्रायोजित कार्यों’’ की अवधारणा पेश की गई थी. लेकिन आयोग के सामने अपने बयान में मैथ्यू ने कहा है कि जिस वक्त डीसीए को मकान मालिक मॉडल से हटा कर एमसीए मॉडल किया गया था उस वक्त वह तथाकथित एमसीए मॉडल अस्तित्व में ही नहीं था. उन्होंने बताया कि 12 मई 2014 को एमसीए मॉडल को राज्य सरकार ने मंजूरी दी थी. उसी दिन वीआईएसएल ने नई विशेषताओं के साथ आरएफपी जारी किया था.

मैथ्यू ने अपने बयान में यह भी कहा है कि बाहरी परामर्शदाताओं- ई एंड वाई और एचएसए एडवोकेट्स- को आवश्यक प्रक्रिया के बिना ही शामिल किया गया. मैथ्यू के अनुसार 25 मार्च 2014 को जब राज्य सरकार एमसीए का मसौदा बना ही रही थी कि उपरोक्त बाहरी परामर्शदाताओं ने विझिनजाम परियोजना की उच्चअधिकार प्राप्त समिति के समक्ष एक विस्तृत प्रस्तुति दी. यह देखना बाकी है कि कैसे एक निजी लेखा कंपनी के पास राज्य सरकार के उस दस्तावेज तक की पहुंच और संपूर्ण जानकारी थी जो, कहने के लिए, अभी तैयार हो रहा था.

मैथ्यू ने यह भी आरोप लगाया कि एमसीए का मसौदा तैयार करने वाले गजेंद्र हल्दिया ने, जो योजना आयोग के पूर्व मुख्य सलाहकार (इंफ्रास्ट्रक्चर) हैं, अडानी के लाभ पहुंचाने के लिए काम किया. उन्होंने कहा कि हल्दिया द्वारा बनाया गया एमसीए ऐसी चीज है जिसे ‘‘डीसीए को लाभ पहुंचाने के लिए तैयार किया गया था - निजी कंपनी को आर्थिक लाभ और राजकोष को नुक्सान पहुंचाने वाली चीज.’’ मैथ्यू ने आयोग को बताया, चूंकि विझिनजाम बंदरगाह एक छोटा बंदरगाह है इसलिए मूल प्ररूप को छोड़ने और एमसीए को अपनाने के लिए केरल सरकार बाध्य नहीं थी. ऐसा लगता है कि कैग ने भी इस दावे का समर्थन किया है. कैग ने माना है कि केरल सरकार इसे अपनाने के लिए बाध्य नहीं थी.

हल्दिया ने मुझे बताया कि योजना आयोग ने अप्रैल 2014 में अपने सभी दस्तावेजों को दोबारा प्रकाशित किया था, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि वे उसी साल मूल रूप में प्रकाशित हुए थे. हालांकि, यह उच्चअधिकार प्राप्त समिति की मई 2015 की बैठक के मिनट्स में कही बात से अलग है. उसमे कहा गया है कि ‘‘फरवरी 2014 में योजना आयोग ने उस वक्त आयोग द्वारा निमार्ण किए जा रहे राज्य बंदरगाहों के लिए मॉडल रियायत करार (एमसीए) में ‘प्रायोजित कार्यों’ की अवधारणा पेश की गई थी. उच्चअधिकार प्राप्त समिति के मुताबिक, ‘‘प्रायोजित कार्यों की अवधारणा को किसी एक परियोजना में ‘विभिन्न एजेन्सियों को लगाने से उत्पन्न विवादों’ से बचने के लिए लाया गया है ताकि परियोजना को समय में पूरा किया जा सके.

आरईपी चरण के लिए पांच में से तीन आवेदकों का चयन किया गया था. ये थे- मलेशिया की एसआरईएल-ओएचएल परिसंघ, अडानी पोर्टस् और ऐस्सार पोर्टस्. 23 सितंबर 2014 को एसआरईएल ने वीएसएल को लिखा कि वह इस परियोजना के लिए बहुत इच्छुक है और उसने नया परिसंघ गठन करने के लिए और समय मांगा क्योंकि ओएचएल बाहर हो गया था. उच्चअधिकार प्राप्त समिति ने काई जवाब नहीं दिया. 24 अप्रैल 2015 उच्चअधिकार प्राप्त समिति की बैठक के मिनिट्स में लिखा है समिति को एसआरईएल का पत्र बोली लगाने के लिए तय अंतिम समय के मात्र पांच घंटे पहले मिला. लेकिन इस पत्र में 23 सितंबर 2014 की तारीख है. इस अनियमितता के बावजूद समिति ने तय किया कि अनुरोध को स्वीकार नहीं किया जा सकता. इस बात का उल्लेख करते हुए मैथ्यू ने आयोग के समक्ष दिए अपने वक्तव्य में कहा है- ‘‘इसका मतलब है कि सितंबर 2014 और मई 2015 के बीच- जिस वक्त बोली खत्म हुई- उच्चअधिकार प्राप्त समिति को इस अनुरोध के बारे में नहीं बताया गया था. हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि इस वक्त यह दावा करते हुए कि सिर्फ एक ही बोली प्राप्त हुई है अतिरिक्त रियायत दी जा रही थी.’’

उच्चअधिकार प्राप्त समिति की बैठक के मिनिट्स के अनुसार मार्च 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता ओमान चांडी, जो वीआईएसएल के अध्यक्ष भी थे, ने आरएफपी देने वाली तीन कंपनियों के अध्यक्षों से बातचीत की. चांडी की इस मुलाकात का उद्देश्य ‘‘विश्वास कायम करना था और बोली प्रक्रिया के कानूनी फ्रेमवर्क से जुड़ी चिंताओं को चिन्हित करना था.’’ लेकिन, मैथ्यू ने आयोग को बताया, ‘‘चांडी ने अडानी समूह के अध्यक्ष गौतम अडानी से ही मुलाकात की.’’ मैथ्यू का कहना है, ‘‘उपरोक्त सभी परिवर्तन अडानी पोर्टस् के साथ परामर्श कर उसे लाभ पहुंचाने के लिए किए गए. ये बोली नहीं थी बल्कि यह राज्य की सम्पत्ति को एक निजी कंपनी को सौंपना था.’’

16 मई 2015 को सीपीएम के राज्य अध्यक्ष, जो अब मुख्यमंत्री हैं, पिनाराई विजयन ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा-‘‘मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने इस मामले में गलत हस्ताक्षेप किया है. खबरों के अनुसार उन्होंने अडानी से फोनपर बात की है. 3 मार्च 2015 को एक सांसद के आवास में श्री चांडी ने गौतम अडानी से मुलाकात की. इन लोगों ने क्या बात की? मुख्यमंत्री गुपचुप तरीके से बोली लगाने वाली एक कंपनी से क्या कहना चाहते थे.’’ कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन राज्य अध्यक्ष वीएम सुधीरन ने भी कहा, ‘‘यह समझौता एक कंपनी के हित के लिए किया गया है न कि राज्य के.’’ तीन सदस्यीय आयोग के समक्ष चांडी ने अपने शपथपत्र में कहा है, ‘‘सफल बोली लगाने वाले के साथ कोई सौदेबाजी नहीं की गई.’’

विजयन की फेसबुक की पोस्ट में यह भी आरोप लगाया गया कि- ‘‘मल्यालियों के विकास के सपने को पूरा करने के नाम पर विझिनजाम परियोजना में भ्रष्टाचार के जरिए अडानी को छह हजार करोड़ रुपए की जमीन दे दी गई. परियोजना की कुल अनुमानित लागत 2400 करोड़ रुपए है. इसमें से 1600 करोड़ रुपए सरकारी वित्त संस्थाओं से लिया जाएगा. बचे हुए 800 करोड़ रुपए के लिए अडानी को छह हजार करोड़ रुपए की जमीन दे दी गई. यह किसी बड़े षड़यंत्र का हिस्सा है.’’

दूसरी कंपनी ऐस्सार पोर्टस् बोली को लेकर उत्साहित नहीं दिखा क्योंकि उस वक्त अडानी पोर्टस् उसके बंदरगाह व्यवसाय को खरीदने की बात कर रहा था. परीणामस्वरूप अप्रैल 2015 में बोली के आखिरी वक्त मात्र अडानी पोर्टस् ही रह गया था.

परियोजना में राज्य को सबसे अधिक लाभांश देने या सबसे कम अनुदान मांगने वाले का चयन किया जाना था. राज्य ने अधिकतम अनुदान 1635 करोड़ रुपए निर्धारित किया था. अडानी, जो एकमात्र बोली लगाने वाली कंपनी थी, ने इतने ही अनुदान की बोली लगाई. जुलाई 2015 में टेंडर दे दिया गया और रियायत करार अगस्त 2015 में किया गया.

जिन परिस्थितियों में अडानी को यह टेंडर दिया गया- वैश्विक टेंडर की टाइमलाइन, रियायत करार के प्ररूप में बदलाव, एमसीए को अपनाया जाना, चयनित बोलीकर्ताओं पीछे हट जाना, बाहरी परामर्शदाताओं की भूमिका और चांडी के साथ बैठक- उससे पता चलता है कि अडानी को यह परियोजना सौंपने के लिए सोचासमझा प्रयास किया गया. कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि जबकि राज्य ने परियोजना के प्ररूप को मध्य में बदल दिया-एमसीए के आधार पर- अडानी के साथ हुए अंतिम करार में एमसीए और उसके बाहर के भी प्रावधान शामिल किए गए हैं. सच तो यह है कि अंतिम रियायत समझौते के वित्तीय प्रावधानों के बारीक अध्ययन से साफ पता चलता है कि इस करार को अडानी के पक्ष में बहुत अधिक तोड़ामरोड़ा गया है.

किसी पीपीपी परियोजना में रियायत अवधि वह अवधि होती है जिसमें निर्माण, संचालन और रखरखाव के लिए एक्सक्लूसिव अधिकार और प्राधिकृत शक्ति प्रदान की जाती है. आदर्श हालत में ये निजी साझेदार को अपने निवेश और ब्याज वसूलने के लिए दिए जाने वाला न्यूनतम समय होता है. कैग की रिपोर्ट के अनुसार पीपीपी परियोजनाओं के लिए 30 वर्ष मानक रियायत अवधि है और विश्व बैंक की परामर्शदाता इंटरनेशनल फाईनेंस कोर्पोरेशन ने विझिनजाम परियोजना के लिए इसी अवधि की सिफारिश की थी. लेकिन अंतिम समझौते में रियायत अवधि को 40 वर्ष कर दिया गया. कैग की रिपोर्ट कहती है, ‘‘अतिरिक्त 10 साल की रियायत देने से कंपनी (अडानी पोर्टस्) को 21217 करोड़ रुपए अतिरिक्त बसूल करने की अनुमति दी गई.’’ रिपोर्ट में आगे लिखा है, ‘‘अवधि को बढ़ाने के बावजूद अडानी समूह द्वारा मांग की गई अनुदान को कम नहीं किया गया.’’

कैग ने नोट किया कि 2 प्रतिशत की कमी होने पर भी रियायत अवधि को संशाधित किया जा सकता है जबकि नियम अनुसार 10 प्रतिशत की कमी होने पर ही ऐसा किया जाना चाहिए. रिपोर्ट में लिखा है कि आर्थिक मामलों के विभाग के अनुरोध के बावजूद ऐसा नहीं किया गया. ‘‘रियायत प्राप्तकर्ता को ट्रैफिक कम या ज्यादा होने, दोनों ही परिस्थियों में लाभ मिलेगा. परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए कैग की रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रस्तावित ट्रैफिक और मिली छूटों के चलते अडानी समूह को 6381 करोड़ रुपए से 24620 करोड़ रुपए के बीच फायदा होगा.

कैग ने यह भी बताया है कि एमसीए के अनुसार परियोजनाओं की सम्पत्ति को रियायत प्राप्तकर्ता की उस सम्पत्ति से अगल रखा गया है जिसे वह गिरवी रख सकता है. अंतिम रियायत करार में अडानी को ‘‘ऋणदाताओं को अतिरिक्त सुरक्षा देने के उद्देश्य’’ का तर्क देकर सभी सम्पत्ति को गिरवी रखने का अधिकार प्रदान किया गया है. कैग ने पाया कि जब 2015 की मार्च में एक अन्य बोली लगाने वाले ने इसी प्रकार के संशोधन की मांग की थी तो उच्चअधिकार प्राप्त समिति ने इसे खारिज कर दिया था.

कैग के अनुसार यह संशोधन तकनीकि पशमर्शदाता के ‘‘सुझाव के विरुद्ध था और रियायत प्राप्तकर्ता को केरल सरकार द्वारा 548 करोड़ रुपए में खरीदी भूमि के साथ अन्य सम्पत्ति को भी गिरवी रखने का अधिकार दे दिया गया.’’ खबरों के मुताबिक जब इस बारे में हाल्दिया से पूछा गया तो उन्होंने आयोग को बताया था कि यह प्रवधान इस लिए जोड़ गया कि बैंकों को ऐसे वक्त में जब देश आर्थिक मंदी से गुजर रहा था, लोन देने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. उन्होंने यह भी बताया कि समूह ने जब एक निजी बैंक से 500 करोड़ रुपए का लोन लिया तब भूमि को गिरवी नहीं रखा.

पर्यावरण कार्यकर्ता और वकील हरीश वासूदेवन ने भी आयोग के समक्ष शपथपत्र दाखिल किया. उन्होंने इस तथ्य पर आयोग का ध्यान आकर्षित कराया कि विझिनजाम बंदरगाह परियोजना के लिए निर्माण कार्य अभी शुरू ही हुआ है और कंपनी 15 साल की अवधि के दौरान भूमि को गिरवी रख लोन ले सकती है. वासूदेवन ने कहा, ‘‘आयोग ने सही नोट किया है कि यह भारत के सभी बंदरगाह परियोजनाओं के लिए मिसाल बन जाएगा. निजी कंपनियां भूमि को गिरवी रखने का अधिकार मांगना शुरू कर देंगी.’’ उन्होंने मुझे बताया कि आमतौर पर भूमि को गिरवी रखने की अनुमति केवल बिजली परियोजनाओं में ही दी जाती है क्योंकि उन परियोजनाओं में अधिकतर बंजर भूमि का उपयोग होता है. ‘‘लेकिन बंदरगाह परियोजनाओं के मामले में जमीन तटीय है जिसमें बहुत से सरोकारवाले, मछुवारा समुदाय भी, के हित शामिल होते हैं. यह भूमि तटीय नियामक क्षेत्र के दिशानिर्देशों से मुक्त है क्योंकि यह सरकारी भूमि है.’’ जब इस बारे में पूछा गया, तो हल्दिया ने मुझसे बताया, ‘‘जिस भूमि पर बंदरगाह बनाया जा रहा है वह ‘भूमि ही नहीं है’ - इसे समुद्र से काट कर बनाया गया है. यह बंजर भूमि पर किए जाने वाले किसी भी काम की तुलना में अधिक महंगा और जटिल है.’’

कैग की रिपोर्ट में करार के अंतिम स्वरूप में बंदरगाह से असंबंधित वाणिज्यिक और आवासीय परियोजनाओं सहित बंदरगाह संपत्ति विकास को शामिल करने बारे में भी गंभीर ध्यानाकर्षण किया गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि उस शर्त को अंतिम समझौते में शामिल नहीं किया गया है जिसमें डीईए परियोजना के लिए अनुमोदन केवल बंदरगाह से संबंधित गतिविधियों के लिए अचल संपत्ति के उपयोग की अनुमति दी गई है. समझौता में इस बात को भी साफ तौर पर नहीं कहा गया कि साइट क्षेत्र किसे माना जाएगा, क्या समुद्र को काट कर बनाए गई जमीन को साइट क्षेत्र माना जाएगा और यह भी नहीं बताया गया है कि अडानी, यदि वो ऐसा करते हैं, तो कब 88.92 एकड़ जमीन का 232 करोड़ रुपए लौटाएंगे.

कैग की रिपोर्ट में कहा गया है कि परियोजना में अधिकांश निवेश के बावजूद 40 साल की छूट अवधि के अंत में राज्य सरकार को अपने निवेश में घाटा होगा. रिपोर्ट में कहा गया है कि अडानी को परियोजना से होने वाला वित्तीय लाभ 15 प्रतिशत होगा जबकि राज्य को केवल 3.72 प्रतिशत का ही लाभ मिल पाएगा. इसके अलावा, करार में खारिज करने का प्रावधान भी जोड़ा गया है जो मानक एमसीए का हिस्सा नहीं है. वासुदेवन ने समझाया कि आमतौर पर जब बोली लगाने वाला ‘‘समय की समाप्ति’’ के कारण किसी परियोजना से बाहर होता है तो वह पैसा लौटता है और खारिज के प्रावधान का दावा नहीं कर सकता. समय की समाप्ति उसे कहते है जब परियोजना को समय में पूरा न कर पाने की वजह से करार रद्द हो जाता है न कि कोई विशेष घटना के कारण. यह प्रैक्टिस जहाजरानी मंत्रालय के रियायत करार के लिए सितंबर 2016 को सुझाए दिशानिर्देश के अनुरूप है. वासूदेवन ने बताया, ‘‘लेकिन इस परियोजना के लिए मात्र रियायत प्राप्तकर्ता को इसके लिए पैसा दिया जाएगा.’’ वो बताते हैं, विझिनजाम के खारिज प्रावधान के अनुसार 40 साल के बाद अडानी को 19555 करोड़ रुपए पेआउट मिलेगा और राज्य की कुल वसूली 5608 करोड़ रुपए का घाटा होगा.

कैग ने यह भी नोट किया कि राज्य सरकार ने किसी भी प्रकार की आपत्ति के बिना ही ई एंड वाई के सभी सुझावों को स्वीकार कर लिया. केरल सरकार और वीआईएसएल इस परियोजना में राज्य के निवेश का विश्लेषण नहीं किया...यहां तक कि पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण भी निजी साझेदार ने किया था.’’

हल्दिया ने मुझे बताया कि परियोजना की वित्तीय लाभप्रदता की कैग की गणना ‘‘तथ्यात्मक रूप से गलत है.’’ उन्होंने दावा किया कि पूर्व लेखा परीक्षा अधिकारी तुलसीधरन पिल्लई जो इस परियोजना के आलोचक थे, को कैग ने परामर्शदाता के रूप में नियुक्त किया थाऔर उन्होंने कैग को कई मामलों में गुमराह किया. जब मैंने उनसे अंतिम समझौते में एमसीए से विचलन पर कैग के कथन के बारे में पूछा तो हल्दिया ने इसे ‘‘एक सफेद झूठ’’ कह कर खारिज कर दिया. उन्होंने कहा, ‘‘इसे आधिकारिक दस्तावेजों के आधार पर संदेह से परे स्थापित किया जा सकता है. यदि कैग रिपोर्ट सही साबित हुई है तो सरकार को जिम्मेदार लोगों को दंडित करना चाहिए. कोई उन्हें नहीं रोक रहा. लेकिन सच्चाई यहां कोई गलती नहीं हुई है.’’

12 मार्च 2018 की सुनवाई में न्यायिक आयोग ने भी इस बात का शक जाहिर किया था कि कहीं कैग को धोखे में तो नहीं रखा गया. आयोग ने रिपोर्ट पर संदेह व्यक्त किया और कहा कि इस बंदरगाह परियोजना को सरकारी परियोजना मान कर कैग को नुकसान का मुल्यांकन नहीं करना चाहिए था. आयोग ने कहा कि इस परियोजना में राज्य के 67 प्रतिशत निवेश के बावजूद यह एक पीपीपी परियोजना है ‘‘इसलिए कैग की खोज में प्रक्रियागत कमजोरी है.’’आयोग ने इस रिपोर्ट की जांच बिना कैग के प्रतिनिधी की मौजूदगी में की. 26 जुलाई को अंतिम सुनावई के वक्त आयोग ने कहा कि ‘‘हम किसी को समन नहीं भेजने वाले जिसे इच्छा हो वह आयोग के समक्ष मौजूद हो सकता है.’’

परियोजना पर जारी राजनीति भी अब ठंडी पड़ने लगी है. मई 2015 में इस परियोजना को षड़यंत्र बताने वाली विजयन के नेतृत्व वाली वामपंथी सरकार ने अपने रुख को नरम किया है. जून 2016 में सीपीएम के नेतृत्व वाली वाम सरकार के गठन के एक महीने बाद विजयन ने घोषणा की कि ‘‘हम लोग निर्माण कार्य को समय सीमा के अंदर पूरा करने की योजना बना रहे हैं. हम लोग चिंतित हैं लेकिन हम इस परियोजना को बंद नहीं कर सकते. हम इसे जल्द से जल्द पूरा करना चाहते हैं. अब एक ही विकल्प शेष रह गया है कि हम निर्माण कार्य को जल्द से जल्द पूरा करें.’’

वर्तमान में अडानी पोर्टस् काम में तेजी दिखा रहा है और तय समय से पीछे चल रहा है. 16 अक्टूबर 2018 को अडानी समूह ने राज्य सरकार को सूचना दी कि वह अपनी पहली समय सीमा- 4 दिसंबर 2019- का पालन नहीं कर पाएगा. इस बीच बंदरगाह के भविष्य का सवाल परियोजना पर बना हुआ है. विजयन ने कहा है कि न्यायिक जांच से परियोजना प्रभावित नहीं होगी. ‘‘यदि परियोजना में अनियमित्ता देखने को मिलती है तो सरकार कड़े कदम उठाएगी. सरकार परियोजना को इस तरह पूरा करना चाहती है कि लोगों को इसका फायदा मिल सके. आरोपों के आधार पर परियोजना को बंद नहीं किया जा सकता.’’ न्यायिक आयोग के समक्ष इस प्रक्रिया और अंतिम करार को चुनौती देने वाले कार्यकर्ता के अनुसार अंतिम सुनवाई से पहले संदर्भ शर्तों को बदलना सरकार के निष्पक्ष जांच के वादे पर संदेह पैदा करता है.