बिहार के नालंदा जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग-33 से कुछ ही दूरी पर स्थित है सहारा इंडिया का एक जिला कार्यालय. वैसे तो अपने आकार और स्वरूप में यह किसी बैंक जैसा ही है : 1500-2000 वर्ग फीट का क्षेत्रफल, लंबी-लंबी डेस्कें और कुर्सियां, कोने में बने शीशे के कैबिन और ग्राहकों के खड़े होने के लिए बड़ा सा लॉबी एरिया. हालांकि यह अब सिर्फ समय में जम चुके किसी परित्यक्त भवन जैसा दिखता है. यहां सिर्फ दो कर्मचारी काम करते हैं. एक निवेश एजेंट, सी.एस. प्रसाद, जो दरवाजे से सटी कुर्सी पर एक डेस्क के पीछे बैठे होते हैं. और दूसरे इस कार्यालय के मैनेजर, जो सूट और टाई पहनते हैं, और कोने पर बने एक कैबिन में कुर्सी पर बैठते हैं. मैनेजर को लोग "तिवारी जी" के नाम से जानते हैं. बाकी की मेज और कुर्सियां खली पड़ी रहती हैं. जबकि एक बड़े कमरे में बोरियों में भर-भर के कागज और फाइल्स रखी हैं. इस कार्यालय के सामने ही, उसी माले पर, इतना ही बड़ा कंपनी का एक और ऑफिस है जिसमें प्रसाशनिक काम होते हैं. वहां भी इक्के-दुक्के कर्मचारी ही थे, जबकि बाकी की कुर्सियां और मेज खाली थीं.
27 तारीख की दोपहर जब मैं वहां पहुंचा तो निवेश एजेंट प्रसाद के सामने एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी थी. उसका नाम निर्मला देवी था. निर्मला पास के ही एक गांव से थी और सहारा की एक छोटी निवेशकर्ता भी है. उसने सहारा की रियल एस्टेट की किसी योजना में अपने पड़ोस के एक एजेंट के कहने पर अपने जेब खर्च से बचाया हुआ पैसा लगाया था. उसके निवेश की अवधि साल भर पहले ही पूरी हो गई थी मगर कंपनी ने वादे के मुताबिक उनका करीब पांच लाख रुपए नहीं लौटाया है. एक साल तक वह कार्यालय आती रही मगर कर्मचारी उन्हें बार-बार अगली तारीख देकर दौड़ाते रहे. पिछली बार प्रसाद ने निर्मला को अपने निवेश को सहारा की ही एक सहकारी समिति की योजना में हस्तानांतरण करने की सलाह दी थी, और तीन साल बाद पैसे दोगुने होने का लालच भी दिया. निर्मला को विश्वास नहीं हुआ कि तीन साल बाद उनके पैसे कंपनी सूद समेत वापस करेगी मगर कोई रास्ता न जान कर 27 तारीख को उसने पैसे हस्तानांतरण करने की हामी भर दी. मेरे सामने ही उसके फॉर्म भरे जा रहे थे. उस फॉर्म पर एक रेवैन्यू टिकट लगा था मगर कोई न्यायिक स्टाम्प नहीं था. मैंने जब उर्मिला को बताया कि बिना स्टाम्प उस फॉर्म का कोई महत्व नहीं है तो प्रसाद मुझ पर भड़क गए. निर्मला अपने साथ अपना पासपोर्ट साइज फोटो, पैन कार्ड और आधार कार्ड भी लाई थी. उसे नहीं पता था कि प्रसाद कौन सी योजना में उसके पैसे आगे निवेश कर रहे हैं.
अभी यह मामला निपटा भी नहीं था कि कुछ ही दूरी पर कैबिन में मैनेजर तिवारी के सामने बैठा एक हट्टा-कट्टा, अधेड़ उम्र का आदमी प्रसाद पर बिफर पड़ा. वसीम अपने निवेश प्रतिभूति के पूरा होने पर 15 लाख रुपए मांगने आए थे. निर्मला की तरह वसीम की योजना की अवधि भी महीनों पहले पूरी हो गई थी. वसीम तेज आवाज में तिवारी को भला बुरा कह रहे थे. उनका कहना था कि वह हमेशा की तरह आज भी कंपनी से अपने पैसे मांगने आए हैं मगर मैनेजर उन्हें सुनने की बजाए उन पर हंसने लगा. वसीम को अपने पैसे के लिए लड़ता देख एक बूढ़े निवेशकर्ता, अशोक कुमार, को भी हिम्मत आ गई. वसीम की तरफदारी में वह भी मैनेजर की मेज के सामने खड़े हो गए. अशोक पास के किसी दुकान में काम करते हैं. उनके जीवन की जमापूंजी, कुछ 7 लाख रुपए, भी कंपनी खा गई. मैंने सहारा के नालंदा जिले के कार्यालय में करीब दो घंटा बिताए. इस बीच कई छोटे निवेशकर्ता आए, कुछ ने मिन्नतें की, कुछ गुस्सा हुए, कुछ चुप-चाप रहे, तो कुछ प्रसाद के बहकावे में आकर अपना निवेश हस्तानांतरण करवा कर लौट गए.
मेरे वहां रहने के दौरान मुझे पता चला कि सहारा इंडिया के कर्मचारी अपने छोट-छोटे निवेशकर्ताओं को उनके पैसे लौटने के बजाए उन्हें बरगला कर लगातार उनके निवेश का हस्तानांतरण अपनी दूसरे योजनाओं में कर दे रहे हैं. वे निवेशकर्ताओं से हवाई वादे कर उनकी पूंजी को तीन से पांच साल तक के लिए आगे निवेश कर दे रहे हैं. न्यायालाओं के पूर्व फैसलों की अनदेखी करते हुए वह उन योजनाओं में भी निवेश का हस्तानांतरण कर रहे हैं जिन्हें कानूनन प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसके आलावा, कंपनी अपने निवेशकर्ताओं के सामने इस प्रचार को भी बल दे रही है कि कानून के पूरे प्रकरण में कंपनी ही पीड़ित है, जबकि निवेशकर्ताओं के पैसे छीनने वाले सरकार और न्यायलाय हैं. उनकी यह धोखाधड़ी अनवरत जारी है. सहारा से जुड़े न्यायिक मामलों को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम उनके अतीत को थोड़ा समझें.
अगर लोकप्रिय चेतना की बात करें तो सहारा इंडिया वही कंपनी है जो 10 साल पहले तक भारतीय क्रिकेट टीम को स्पॉंन्सर करती थी और लगभग तीन सीजन में मशहूर क्रिकेट टूर्नामेंट, इंडियन प्रीमियर लीग, की पुणे वारियर्स टीम की मालिक भी थी. दो दशकों तक कंपनी एक एयरलाइन्स, सहारा इंडिया एयरलाइन्स, की मालिक भी रही.
सहारा इंडिया परिवार की स्थापना 1978 में हुई और इसके मालिक सुब्रत रॉय हैं. सहारा इंडिया एक राष्ट्रीय कंगलोमेरट (कंपनियों का समूह) है जिसका मुख्य व्यापार वित्तीय निवेश, रियल एस्टेट, बीमा, खेल, मीडिया, फिल्म, हेल्थकेयर, होटल और कोओपरेटिव सोसाइटी के क्षेत्र में रहा है. करीब 15 साल पहले जब भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने कंपनी को आर्थिक अनिमितताओं में संलग्न पाया तब से इसका पतन शुरू हो गया.
सेबी भारत सरकार की एक संवैधानिक संस्था है जिसकी स्थापना संसद में एक कानून पारित करके 1992 में की गई थी. सेबी का कार्य क्षेत्र बहुत बड़ा है, जिसमें प्रमुख है स्टॉक मार्केट और सभी तरह के प्रतिभूतियों का विनिमयन. मोटे तौर पर कहें तो यह संस्था सभी निजी कंपनियों के व्यापर पर नजर रखती है ताकि ये कम्पनियां निवेशकर्ताओं के पैसे लेकर भाग न जाएं या किसी कानून का उलंघन न कंरे. 2008 और 2009 के बीच सेबी ने निवेशकर्ताओं की शिकायत पर सहारा की जांच शुरू की. पता चला कि सहारा की दो कंपनियां, एक रियल एस्टेट और एक आवास निवेश की, गैर कानूनी तरीकों से आम लोगों से पैसे उठा रही थीं. ये पैसे वह एक प्रतिभूति की शक्ल में उठा रही थीं. ये कंपनियां सेबी से निर्धारित अनुमोदन लिए वगैरह ही लोगों से पैसे उठा रही थीं. सहारा ने सेबी की जांच रुकवाने के लिए सर्वोच्या न्यायलय का दखल मांगा. सहारा ने कानून में तकनीकी कमजोरी को आधार बनाते हुए दावा किया कि उन्हें प्रतिभूति के लिए सेबी के अनुमोदन की कोई जरूरत नहीं है और उन्होंने इसके लिए केंद्र सरकार के कारपोरेट मंत्रालय से पहले ही अनुमोदन ले रखा है. न्यायलय ने बदले में न सिर्फ सेबी की जांच के अधिकार को सही करार दिया बल्कि सहारा के रियल एस्टेट और आवास निवेश कंपनियों को तीन महीने के अंदर 15 फीसदी सूद समेत निवेशकर्ताओं के पैसे लौटने का आदेश दिया. यह आदेश 2012 में पारित हुआ.
इसी आदेश में न्यायधीशों ने लिखा था कि सहारा ने आम गरीब लोगों से पैसे उठाये थे, जिनमें शामिल थे जूते सिलने वाले लोग, मजदूर, विभिन्न कारीगर और किसान. सहारा ने इस आदेश को चुनौती दी. अगर सार कहा जाए तो यूं कहें कि चुनौतियों का दौर पिछले 10 सालों से जारी है. देश के विभिन्न राज्यों के हाई कोर्ट और भारत के सर्वोच्च न्यायलय से आदेश निकलते रहते है और इससे पहले कि जनता को राहत मिले सहारा के वकील उसे रुकवा लेते हैं. जमीन पर न्यायलयों के आदेशों का बहुत ज्यादा असर नहीं हुआ है.
2016 में सर्वोच्च न्यायलय की तरफ से आदेश आया कि सहारा की अचल संपत्तियों को बेचकर उनके निवेशकर्ताओं के पैसे वापस कर दिए जाएं. इन पैसों को एक एस्क्रो अकाउंट में रखे जाने का आदेश हुआ और उन्हें वितरित करने का काम सेबी को दिया गया. एस्क्रो अकाउंट सहारा और सेबी का एक संयुक्त अकाउंट है जिसे एक तठस्थ पक्ष प्रबंधित करता है. मगर अब तक इस अकाउंट में सहारा ने आधे पैसे ही डाले हैं और सेबी उन आधे पैसों का एक फीसदी से भी कम वितरित कर पाई है. हालांकि सेबी समय-समय पर आम सूचना निकलती रहती है जिसमें लोगों को अपने ओरिजिनल प्रतिभूति कागज सेबी को भेजना होता है. सेबी उनकी जांच करने के बाद निवेशकों को उनका पैसा एस्क्रो अकाउंट से वापस करती है. पैसे देने की शुरुआत छोटे निवेशकों, जिनका दावा 2500 रुपए तक का है, को देने से होती है. इस महीने की अप्रैल से जून महीने के बीच में सेबी ने 10000 रुपए तक का दावा करने वाले निवेशकों से कागज जमा करने को कहा है.
पिछले साल मार्च में सेबी के वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक सहारा ने सर्वोच्च न्यायलय के 2012 के फैसले के विरुद्ध सिर्फ 15000 करोड़ के करीब ही एस्क्रो अकाउंट में डाले थे जबकि उनके पास 25781 करोड़ रुपए का बकाया अब भी था. ये 15000 करोड़ रुपए सिर्फ ब्याज के पैसे हैं. पिछले साल दिसंबर महीने में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी संसद को बताया था कि सहारा की रियल एस्टेट और आवास निवेश कंपनियों ने 25781 करोड़ मूलधन के विरुद्ध सिर्फ 15485 रुपए ब्याज जमा किए हैं. पिछले साल की सेबी रिपोर्ट के मुताबिक सेबी निवेशकों को सिर्फ 129 करोड़ ही वितरित कर पाई है. ये पैसे कब तक सारे निवेशकों को वितरित कर दिए जाएंगे किसी को नहीं पता. 2012 में सर्वोच्च न्यायलय ने तो कंपनी को सिर्फ तीन महीने का समय दिया था और 15 फीसदी सूद के साथ पैसे लौटने को कहा था. मगर हमारे देश का कानून गरीबों के लिए अक्षरसः लागू होता, तो दस साल बाद भी लोग अपना कागज लेकर घूम नहीं रहे होते.
समस्या यह भी है की न्यायलय का आदेश 2012 में सहारा की सिर्फ दो कंपनियों के निवेशकर्ताओं के लिए आया था. मगर सहारा ने अपनी हर योजना में निवेशकर्ताओं को पैसे देने बंद कर दिए. इसके फलस्वरूप बड़े शहरों, जैसे दिल्ली और मुंबई के निवेशक, जिन्होंने सहारा की अन्य कंपनियों में निवेश किए थे, वे निजी रूप से अदालतों में मुकदमे दाखिल करते गए. इन मुक़दमों से हुया यह कि सहारा की बाकी योजनाओं को बंद करने का आदेश कोर्ट ने जारी कर दिया. मगर इन योजनाओं में डूबे पैसे को कौन देगा इसकी जानकारी किसी को नहीं है. मिसाल के तौर पर इस साल ही मार्च में दिल्ली हाई कोर्ट ने सहारा की तीन कोओपरेटिव सोसाइटीज को आम लोगों से पैसे लेने से प्रतिबंधित कर दिया. अगले ही महीने सरकार के कारपोरेट मंत्रायल ने सूचना जारी कर तीनों सोसाइटीज को प्रतिबंधित कर दिया. ये सोसाइटीज थीं : सहारा क्रेडिट कोओपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड लखनऊ, सहारायण यूनिवर्सल मल्टीपरपस सोसाइटी लिमिटेड भोपाल और हमारा इंडिया कोओपरेटिव सोसाइटी कोलकाता.
मगर सवाल है कि जब सरकार को 2012 में ही सहारा इंडिया के घोटालों की खबर हो गई थी तो उसने उसकी बाकी कंपनियों की जांच क्यों नहीं शुरू की? पिछले 10 सालों में केंद्र में सरकारें भी बदलीं फिर भी सहारा की कई गुमनाम कंपनियां आम लोगों को ठगती रही. सवाल यह भी है की कोर्ट के आदेशों का जमीन पर पालन हो यह राज्य या केंद्र सरकारें क्यों नहीं सुनिश्चित कर रहीं है? सहारा को अपने कार्यालयों से ठगी करने क्यों दिया जा रहा है? मिसाल के तौर पर जिस दिन मैं सहारा के नालंदा जिले के कार्यालय गया उस दिन प्रसाद निर्मला के पैसे रियल एस्टेट की कंपनी से हस्तानांतरण करके सहारायण कोओपरेटिव सोसाइटीज में वापस निवेश करवा रहे थे. जबकि दिल्ली हाई कोर्ट के आदेशानुसार, सहारायण को आम लोगों से पैसे उठाने के लिए मार्च में ही प्रतिवंधित कर दिया गया था. कार्यालय में ही सहारायण और हमारा इंडिया के भी बोर्ड लगे थे.
अगर हम इस कार्यालय के क्लाइंट शहर (नालंदा जिले का बिहार शरीफ शहर) के सामाजिक और आर्थिक स्थिति की विवेचना करेंगे और यहां के छोटे निवेशकों से बात करेंगे तो समझ आएगा कि सहारा इंडिया ने क्यों छोटे शहरों में अपने कार्यालओं को अब भी चालू रखा है. ये ऑफिस लगातार इन शहरों में अपने नए प्रोडक्ट्स बेचने की कोशिश में लगे होते है क्योंकि इनको लगता है वे अब भी यहां के लोगों को अपनी योजनाएं बेच सकते हैं.
2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार शरीफ शहर की आबादी लगभग तीन लाख है जो अब पांच-सात लाख तक मानी जा सकती है. शहर की लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है-- 47200 घर गरीबी रेखा से ऊपर हैं, तो 33519 घर गरीबी रेखा के नीचे. शहर की नगरपालिका अपनी अलग अलग सुविधाओं, जैसे पानी, आवास, सिवरेज, से दस फीसदी से कम टैक्स इकट्ठा कर पाती है. तमाल बंदोपाध्याय की किताब सहारा : द अनटोल्ड स्टोरी के मुताबिक, सहारा ग्रुप ने देश की लगभग 4799 जगहों पर अपने कार्यालय खोले हुए हैं. जिसमे करीब 12 लाख कर्मचारी काम करते हैं. बंदोपाध्याय के मुताबिक सहारा के लगभग 10 करोड़ जमाकर्ता और निवेशकर्ता देश के छोटे शहरों और गांव में हैं जो इस देश के 670 बिलियन डॉलर, लगभग 520 करोड़ की अनियंत्रित "शैडो बैंकिंग इंडस्ट्री" (छद्म बैंकिंग उद्योग) का एक हिस्सा हैं.
मैं जिस दिन सहारा के बिहार शरीफ कार्यालय गया था, उस दिन मैनेजर तिवारी अपने जोनल मैनेजर के साथ फोन पर वीडियो कॉल में लगे थे. उनकी मेज पर कोई कंप्यूटर नहीं था. उन्होंने अपने मोबाइल फोन को ही एक स्टैंड पर रखा हुआ था. तिवारी ने मुझे अपना पूरा नाम नहीं बताया. वह वहां मौजूद अपने किसी निवेशकर्ता या जमाकर्ता को भी पूरा नाम बताने को तैयार नहीं थे. शायद वह जानते थे कि कोई भी निवेशकर्ता धोखाधड़ी का आरोप लगाकर उनका नाम किसी एफआईआर में डाल सकता है. जब वसीम उन पर चिल्ला रहे थे तो तिवारी ने उनको सांत्वना देते हुए कहा था कि उनकी बातचीत उनके साहब से वीडियो कॉल पर चल रही थी. "देखिए हम अभी निवेशकर्ताओं की बात ही अपने बॉस से कर रहे हैं," उन्होंने कहा था. मैंने तिवारी को अपनी बात साबित करने के लिए अपने कॉल को लाउडस्पीकर पर लगाने को कहा और यह भी कहा की वह दिखाएं कि सहारा इंडिया के और कौन कौन लोग उस कॉल से जुड़े थे. तिवारी ने अपना फोन दिखने से माना कर दिया.
करीब एक घंटे बाद, जब मैंने पूछताछ का सिलसिला बंद कर उन्हें यकीन दिलाया कि मैं उनकी बात पर यकीन करता हूं, तब तिवारी मुझसे मुखर हुए. उन्होंने बताया कि वीडियो कॉल पर असल में उनकी ट्रेनिंग हो रही है. सहारा के जोनल मैनेजर, जो गया जिले में बैठे थे, वह तिवारी और बाकी अफसरों को अपने एक नए पेमेंट ऐप के बारे में समझा रहे थे. यह पेमेंट ऐप अभी औपचारिक रूप से लांच नहीं हुआ था. तिवारी के मुताबिक, सहारा यह पेमेंट ऐप छोटे किराने की दूकानों के लिए बना रही थी. तिवारी का काम था वह बिहार शरीफ के हर किराने की दुकान में अपने एजेंट्स को भेज कर उन्हें समझाए कि वह अपने ग्राहकों को सहारा के ऐप से पैसे देने के लिए बोलें. सहारा बदले में दुकानदारों को कुछ गिफ्ट देगी. तिवारी ने बताया कि इस तरह की नए प्रोडक्ट्स की ट्रेनिंग लगातार होती रहती है. तिवारी वीडियो कॉल में अपने बॉस से निवेशकर्ताओं की कोई बात नहीं कर रहे थे. तिवारी के एक एजेंट ने मुझसे कहा कि सहारा के नाम से लोग अब दूर भागते हैं और उन्हें यह ऐप ग्रोसर्स को बेचने में मुश्किल आ रही है.
शायद ऐसी परेशानी से निपटने के लिए सहारा ने सहारा से मिलते जुलते, मगर नए नामों की प्रतिभूतियां निकली थी. इन प्रतिभूतियों में से ही थीं सहारायण और हमारा इंडिया जैसी कोओपरेटिव सोसाइटीज. बड़े शहरों, जैसे दिल्ली और मुंबई, के निवेशकर्ताओं को सहारा की जालसाजी की खबर 2012 से ही होनी शुरू हो गई थी मगर बिहार शरीफ जैसे छोटे शहरों के लोगों को इतना तकनीकी फर्क करना संभव नहीं था. उनके लिए सहारा नाम में कोई फर्क नहीं था. न वह समझ पाते कि उनके पैसे रियल एस्टेट में लगे हैं या आवास योजना में या कोओपरेटिव सोसाइटी में, न उनके एजेंट ने उन्हें कभी खुल कर इन सबका फर्क समझाया था. उनके लिए सब-कुछ सहारा ही था. जब उनके पैसे उनके एजेंट्स कंपनी की ही अलग इकाइओं में हस्तनांतरण कर रहे होते तो ग्राहकों को यह नहीं समझते कि उनकी कंपनी की इकाई बदल दी जा रही है. उनसे बस इतना कहते कि पैसा और दोगना हो जाएगा अगर उसे कंपनी में ही दोबारा लगा दिया जाए. ग्राहकों को लगता उनके पैसे सहारा में ही हैं. कइयों ने इसी वजह से अपने पैसे 2012 से पहले और इसके शुरुआत में हस्तानांतरण के लिए राजी हो गए थे.
बिहार शरीफ की एक ग्रहणी उर्मिला देवी उन्ही में से एक थी. उन्होंने अपने जेब खर्च से बचाकर 50000 रुपए सहारा के रियल एस्टेट कंपनी में लगाए थे. जिसकी अबधि 2009 में ही पूरी हो गई थी मगर एजेंट के कहने पर उन्होंने 10 साल के लिए पैसे और लगा दिए. मगर इस बार एजेंट ने उनके पैसे रियल एस्टेट से बदल कर हमारा इंडिया कोओपरेटिव सोसाइटी में कर दिया. उर्मिला को नहीं पता था कि दोनों अलग-अगल इकाइआं हैं. यह वही समय था जब सेबी सहारा इंडिया के रियल एस्टेट और आवास निवेश की कंपनियों में हो रही अनियमितताओं को पकड़ा था. कंपनी ने जानते हुए सैकड़ों निवेशकर्ताओं और जमाकर्ताओं के पैसे हस्तनांतर कर दिए. इस साल जनवरी में उर्मिला के निवेश की अवधि पूरी हो गई. उनके पैसों का सेबी या कोर्ट से कोई लेना देना नहीं है. मगर बिहार शरीफ का सहारा कार्यालय उन्हें कहता है कि उनके पैसे तब ही मिलेंगे जब कोर्ट वह पैसा सहारा को देगी. यह दावा सच से बिलकुल परे है. न कोर्ट ने निवेशकर्ताओं का पैसा रोका है, न जारी मुकदमेबाजी से सहारा की हमारा इंडिया का कोई लेना देना है. फिर भी यह झूठ बिहार शरीफ के लोकल एजेंट्स और उनके कार्यालय के मैनेजर लगातार फैला रहे हैं.
इस महीने मार्च में दिल्ली हाई कोर्ट ने सहारा के कोओपरेटिव सोसाइटीज को लोगों से पैसे लेने को प्रतिबंधित करते हुए लिखा था, "सहारा क्रेडिट कोओपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड ने 45245 करोड़ रुपए अपने चार करोड़ जमाकर्ताओं से लिए हैं, सहारायण यूनिवर्सल मल्टीपरपस कोओपरेटिव सोसाइटी ने 18000 करोड़ रुपए अपने 3.71 करोड़ सदस्यों से लिए, स्टार मल्टीपरपस कोओपरेटिव सोसाइटी योगदान के रूप में 8470 करोड़ रुपए अपने 37 लाख सदस्यों से लिए और हमारा इंडिया क्रेडिट कोओपरेटिव सोसाइटी ने 12958 करोड़ रुपए अपने 1.8 करोड़ सदस्यों से लिए. सहारा के प्रबंधकों के मुताबिक इन चार कोओपरेटिव सोसाइटीज ने 86673 करोड़ अपने जमाकर्ताओं से लिए. ये लगभग 47 हजार करोड़ रूपए सहारा निवेशकर्ताओं को कब और कैसे लौटाएगा इसकी कोई जानकारी नहीं है. मगर सहारा के कर्मचारियों को अदालत के मुकदमों से बहरहाल एक बहाना मिल गया है कि वह अन्य योजनाओं में भी निवेशकर्ताओं को उनके पैसे न लौटाएं.
इनमें से कुछ होशियार नागरिक जब उपभोक्ता अदालत का रास्ता अपनाते हैं तब भी जमीन पर कुछ खासा बदलता नजर नहीं आता है. अभी 26 मई को ही बिहार शरीफ की उपभोक्ता अदालत ने एक शिकायतकर्ता के याचना पर यह फैसला दिया कि सहारा अपने जमाकर्ताओं के पैसे वापस लौटाए. मगर 27 मई को भी सहारा इंडिया के कार्यालय में लोगों को उनका पैसा नहीं दिया जा रहा था. पटना हाई कोर्ट में भी सहारा के खिलाफ एक मुकदमा चल रहा है जिसे विभिन्न निवेशकर्ता लड़ रहे हैं. 16 मई को हाई कोर्ट के आदेश के बाबजूद सुब्रत रॉय कोर्ट में हाजिर नहीं हुए. उन्होंने कोर्ट के समक्ष बीमार होने की अर्जी डाल दी. कोर्ट ने अगली सुनवाई 22 जून को रखी है मगर बिहार शरीफ के लोगों को अब अदालतों से कोई आस नहीं है. सहारा के मालिक के द्वारा एक हाई कोर्ट के आदेश की इस तरह खुलेआम अवेलहना आम जनता में न्यायायलों के प्रति विश्वास को भी कम करता है.
अगर हम सहारा के देश के 4799 कार्यालयों के ऑपरेशनल खर्च को देखें तो बिहार शरीफ के कार्यालय का किराया ही 86000 रुपए मासिक है. प्रसाद ने बताया था कि वह कमीशन पर काम करते हैं. तब भी टाई पहने मैनेजर को सैलरी तो देना होता होगा. सामने वाले उनके प्रशासनिक कार्यालय में भी कम से कम तीन कर्मचारी तो कंप्यूटर पर कुछ काम कर रहे थे. उन्होंने बताया कि थोड़ी बहुत सैलरी देर सवेर आती रहती है. अगर बिहार शरीफ के कार्यालय के ऑपरेशनल खर्च का एक संकुचित अनुमान भी लगाएं तो दो लाख रुपए महीने तो लगता ही होगा. अगर हम इसे 4000 गुना भी करें तो यह करीब 80 करोड़ मासिक होता है. सहारा ये पैसे कहां से कमा रही है? अगर वह यह पैसे कानूनी तरीके से कमा रही है तो इसका इस्तेमाल निवेशकर्ताओं के पैसे लौटने में क्यों नहीं किया जाता? बिहार शरीफ जैसे शहर में वह एक कमरे से भी अपना कार्यालय चला सकती है जिसका खर्च सिर्फ 2000 महीना आएगा.
कइयों के मन में यह सवाल आना भी लाजिम है कि आखिर सहारा इतने आराम से कानून और सरकार से कैसे बचती आई है. पिछले 10 साल में सरकारें भी बदलीं मगर सहारा की जबाबदेही अपने निवेशकर्ताओं के लिए जीरो की जीरो रही. प्रख्यात पत्रकार प्रंजॉय गुहा ठाकुरता ने 2016 में कारवां के लिए लिखा था कि 2016 में कुछ वित्तीय कागजों से यह समझ आता है कि अक्टूबर 2013 से नवंबर 2013 के बीच सहारा के मालिक ने कई राजनेताओं को घुस दी थी. इन नेताओं में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्य मंत्री रमन सिंह, बीजेपी की कोषाध्यक्ष शाइना एनसी सहित दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का भी नाम था. मैं इस कागज को स्वंतंत्र रूप से सत्यापित नहीं कर पाया हूं. ठाकुरता लिखते हैं कि इस कागज को एक एनजीओ ने एक दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट में भी दाखिल किया था. ठाकुरता ने लिखा था कि यह कागज इनकम टैक्स के सहारा कंपनी के ठिकाने पर एक छपे के दौरान जब्त किया गया था. हालांकि नवंबर 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने इस दस्तावेज को अविश्वसनीय बताया और किसी तरह की जांच का आदेश देने से इनकार कर दिया था.
दस्तावेज का सच जो भी हो मेरा मकसद इसका जिक्र करने का इतना ही था कि लोग इतिहास के इस हिस्से को भी जाने. बिहार शरीफ जैसे हजारों शहरों के निवेशकर्ता अपनी जमा पूंजी खो चुके हैं मगर थोड़ी सी उम्मीद बाकी है कि शायद कोई जज सच में सुब्रत रॉय से उनके पैसे निकलवा दे.
जाते हुए तिवारी ने मुझसे कहा था कि वह इसलिए भी बैठे हैं ताकि जनता शांत रहे. उनका रहना इस बात का प्रमाण है कि उनके पैसे एक न एक दिन शायद मिल जाएंगे. तिवारी ने कहा कि अगर वह ताला मार कर भाग जाते तो लोग समझेंगे कि सहारा ख्तम हो गई. मगर सहारा को इन शहरों में अभी और व्यापार करना है. इस तरह कंपनी के कार्यालय उसकी ठगी की रणनीति का हिस्सा हो गए हैं.