भारत कोरोनावायरस लॉकडाउन के तीसरे चरण में है और फिलहाल करोड़ो लोगों पर इसके भयावह असर की पूरी तस्वीर सामने भी नहीं आई है. इसकी सबसे बड़ी मार प्रवासी मजदूर, भूमिहीन श्रमिकों, दैनिक वेतन भोगियों, अनुसूचित जाति और जनजाति समाज के लोगों पर पड़ी है. यही वह संदर्भ था जिसके बारे में पंजाब के संगरूर जिले के सामाजिक और दलित अधिकार कार्यकर्ता गुरमुख मान ने मुझे 23 अप्रैल को एक खत लिखा था. उन्होंने लिखा, “जिंदा रहने के दो रास्ते हैं. एक रास्ता बलद कलां गांव के उन लोगों का है जिन्होंने पंचायत की जमीन को हासिल करने की लड़ाई लड़ी और इस वजह से कोरोना संकट के समय में भी उनके घरों में अनाज की कमी नहीं पड़ी है. दूसरा तरीका है कि हाथ फैलाकर भिखारियों की तरह खाने की लाइन में लगा जाए. हम पर राज करने वाले और जमींदार लोग हमें इसी रास्ते पर चलता देखना चाहते हैं.”
मान दशकों से भूमिहीन किसानों को संगठित करने वाले आंदोलनों से जुड़े रहे हैं. उन्होंने मुझे बलद कलां में खेतों में खड़े अपने “खेत जोतने वाले कॉमरेडों” की तस्वीरें भी भेजीं. मान और उनके साथी किसान मजहबी सिख समुदाय से आते हैं जो उन दलितों का समुदाय है जिन्होंने तीन सदी पहले सिख धर्म अपना लिया था. मजहबी शब्द ब्रिटिश प्रशासन का दिया हुआ है. मेरे पास जो तस्वीर है उनमें एक में अवतार सिंह अपने नए ट्रेक्टर के साथ खड़े हैं और उनके हाथों में मार्क्सवादी लाल झंडा है. अवतार ने मुझे कहा, “जिंदा रहने के लिए रोटी चाहिए और जिनके पास रोटी होती है वे भूख से नहीं मरते. आज हमारे पास अपने जानवरों के लिए चारा भी है.”
2014 में बलद कलां के भूमिहीन किसानों ने ग्राम पंचायत की एक-तिहाई जमीन पर अपना कानूनी दावा ठोका था. ऐसा उन्होंने पंजाब ग्राम शामलात भूमि (विनियमन) कानून, 1961 तहत किया था. इसके एक साल बाद गांव के मजहबी समुदाय के 188 भूमिहीन परिवारों को 118 एकड़ जमीन सहकारिता में खेती करने के लिए लीज पर मिल गई. इस ग्राम पंचायत की कुल जमीन 354 एकड़ है. इन परिवारों को जमीन के आवंटन के अनुपात में तीन समूहों में बांटा गया और आज प्रत्येक परिवार साल में दो बार 18000 रुपए की कमाई कर लेता है. यह कमाई परिवार द्वारा उपभोग की जाने वाली फसल से अतिरिक्त है. यह मॉडल इतना सफल साबित हुआ कि लॉकडाउन में भी इस समुदाय ने अपने एक दलित साथी मदन सिंह को 118 एकड़ जमीन जोतने के काम में लगाया. मदन को इसके बदले 11000 रुपए महीना के अलावा पांच क्विंटल गेहूं, फसल की आमदानी से हिस्सा और उसके दो पशुओं के लिए चारा लेने का हक दिया गया है. मान के अनुसार, “आत्मनिर्भरता के लिए भूमिहीन दलितों के सफल संघर्ष ने लॉकडाउन में उनके जिंदा रहने को सुनिश्चित किया है जबकि असंगठित क्षेत्र के अधिकांश मजदूरों की स्थिति बदतर हुई है.”
पंजाब ग्राम शामलात भूमि (विनियमन) नियम, 1964 की धारा 6 (1) (अ) के अनुसार, “लीज में देने के लिए प्रस्तावित खेतीयोग्य भूमि का एक तिहाई अनुसूचित जाति के सदस्यों के लिए आरक्षित होगा.” मान ने बताया कि 2014 तक रसूखदार जमींदार लोग इस प्रावधान का गलत इस्तेमाल कर दलितों के बीच से अपने किसी आदमी को नामित कर व्यवहारिक तौर पर स्वयं खेती करते थे. “दलित का नाम तो बस कागजी खानापूर्ति के लिए होता था,” उन्होंने बताया. मान ने याद किया कि उस साल दलितों ने ऐसा होने देने से इनकार कर दिया और जवाब में पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज किया.
हमने 2014 में पहली बार लोगों को संगठित किया और ऐसी नौटंकी नीलामी का जमकर विरोध किया. भवानीगढ़ के ब्लॉक विकास और पंचायत अधिकारी के कार्यालयों में जब दुबारा नीलामी आयोजित की गई तो भारी संख्या में वहां पुलिस तैनात थी.” मान ने बताया, “हमारी औरतों ने आंदोलन में आगे से लाठियां खाईं.”
आंदोलन में पुलिस की लाठियां खाने वाली औरतों में परमजीत कौर भी थीं. आज वह आत्मनिर्भर हैं. वह कहती है, “यह हमारे पांच साल लंबे उस संघर्ष का नतीजा है जिसमें हमारी औरतों ने कई बार आंदोलन के दौरान पुलिस की लाठियां खाईं. आज हम तरकारी और मवेशियों के लिए चारा उगा रहे हैं और गेहूं तो हमारी मुख्य फसल है ही.”
अवतार ने परमजीत की तरह ही कहा कि “2014 के आंदोलन से पहले इस गांव के कई परिवार भूख से बेहाल थे और वे जमींदारों की कृपा पर जिंदा थे जो उनका उत्पीड़न करते थे.” उन्होंने आगे बताया, “हमारी महिलाओं को उनके खेतों से चारा काटने पर या सड़क पर चलते हुए यौन उत्पीड़न का शिकार भी होना पड़ता था.” उन्होंने बताया कि अब उन्हें ऐतिहासिक भूमिहीन किसान वर्ग का हिस्सा होने पर फक्र है जो अनाज के लिए आत्मनिर्भर है. उन्होंने कहा, “जिंदा रहने के लिए अनाज आवश्यक है और हमारे पास पर्याप्त मात्रा में अनाज है.”
उन्होंने समझाया कि अब ये 118 परिवार तीन समूह में बंटे हैं जो 345 बीघा, 108 बीघा और 117 बीघा में सहकारी खेती करते हैं. उन्होंने बताया कि पिछली फसल धान की थी जिससे हर परिवार की 18000 रुपए की आमदानी हुई. इसके अतिरिक्त समूहों ने दो लाख रुपयों की बचत की और दो लाख 60 हजार रुपए में एक सैकेंड हैंड ट्रेक्टर खरीदा. अवतार ने बताया, “60000 रुपए इकट्ठा करना कोई बड़ी बात नहीं थी. हम सबने जिससे जो बन पड़ा दिया.”
बलद कलां की कहानी कोई अपवाद नहीं है. बलद कलां और पड़ोस के दो गांव झालूर और झानेरी के मजहबी सिख कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित भूमिहीन मजदूरों और सीमांत किसानों के मोर्चे “जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति” के बैनर तले संगठित हुए. यह संगठन पंजाब के कई जिलों में सक्रिय है. 2016 में झालूर की एक 72 साल की महिला जमींदारों के हमले में उस वक्त मारी गईं जब वह दिखावटी नीलामी का विरोध कर रहीं थीं. जमींदार ऊपरी जाति के जाट सिख थे जिनका ऐतिहासिक रूप से पंजाब की खेतीयोग्य जमीन के अधिकांश हिस्से पर कब्जा है. झालूर के दलितों ने 16.5 एकड़ पंचायत की खेती की जमीन की उक्त नीलामी का विरोध किया था.
जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के एक सदस्य गुरदास ने मुझे कहा, “जब हमने समिति के बैनर तले संघर्ष किया तब जा कर हमें 2018 में 16.5 एकड़ जमीन मिली. इस जमीन में हम 15-16 परिवार सहकारी तरीके से खेती करते हैं. हम 15 एकड़ जमीन पर गेहूं लगाते हैं और अपने जनवरों के लिए चारा भी उगाते हैं.” गुरदास ने बताया कि लॉकडाउन में भी उनके पास पर्याप्त अनाज है क्योंकि “हम अपनी खेती करते हैं.” उन्होंने और कहा, “सरकार के झूठ का भांडा फूट हो चुका है” क्योंकि वह जरूरी सामान लोगों तक नहीं पहुंचा पा रही है लेकिन “हमारे पास अपने लिए पर्याप्त है.”
मलौद गांव के मुकेश मलौद जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के जोनल अध्यक्ष है. संगरुर में समिति का एक कमरे का ऑफिस भी है. उन्होंने बताया, “हमारा आंदोलन अब तक संगरुर और पटियाला के 55 गांवों में सफल रहा है जहां दलितों को सही नीलामी में अपने हिस्से की जमीन मिली है.” उन्होंने दावा किया, “ये 55 गांव वर्ग संघर्ष की सफलता की कहानी कहते हैं.”
जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति की सचिव परमजीत कौर लोंगेवाला ने मुझे बदरुखा गांव के बारे में बताया जहां 40 दलित परिवारों ने नीलामी में मिली 8 एकड़ जमीन पर खेती शुरू की. उन्होंने कहा, “उनका लोकतांत्रिक आंदोलन 5 साल चला लेकिन आज ये परिवार आत्मनिर्भर है.” वह बताती हैं, “हम कह सकते हैं कि 8-10 गांवों के भूमिहीन दलित परिवार पूरी तरह से आत्मनिर्भर हैं और यहां तक कि वे अपने हिस्से से गरीब प्रवासी मजदूरों की लॉकडाउन में मदद भी कर पा रहे हैं.” इन गांवों में झानेरी, बदल कलां, बदल खुर्द, घरंचो, बदरुखा और मंदेर खुर्द शामिल हैं.
जमीम प्राप्ति संघर्ष समिति की तरह ही पंजाब खेत मजदूर यूनियन भी भूमिहीन किसानों के लिए संघर्ष करने वाला संगठन है. तरसेम खुंडे हलाल यूनियन के मुक्तसर जिला अध्यक्ष हैं. वह कहते हैं, “बठिंडा, मुक्तसर और मानसा जैसे दूर दक्षिणी जिलों में पंचायतों के पास बहुत कम जमीन है. वहां के बड़े जमींदारों ने चरागाह की जमीन का अतिक्रमण कर लिया है जिससे दलितों के लिए एक-तिहाई के नाम पर दो एकड़ जमीन भी नहीं रह गई है.”
लेकिन मान मानते हैं कि यह “सिर्फ जमीन की लड़ाई नहीं है बल्कि यह आत्मसम्मान के लिए वर्ग संघर्ष भी है.” उन्होंने संगरूर के तोलेवाल गांव का एक किस्सा सुनाया जहां भूमिहीन दलित सिर्फ 24 बीघा जमीन, जो 5 एकड़ भी नहीं है, लिए आंदोलन कर रहे हैं. “वे लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं.”
“आत्मसम्मान वाली जिंदगानी के लिए दो एकड़ जमीन भी काफी है क्योंकि इतनी जमीन में उगने वाला चारा दलित औरतों को चारे के लिए जमींदारों की निर्भरता से आजाद कर देता है.” फिर उन्होंने कहा, “सवाल सिर्फ जिंदा रहने का नहीं है बल्कि एक सम्मानजनक जीवन की खातिर वर्ग संघर्ष का भी है.”