अक्टूबर में दलित अधिकार कार्यकर्ता मार्टिन मैकवान ने उत्तर प्रदेश के हाथरस में बलात्कार और शारीरिक हमले की शिकार 19 वर्षीय दलित युवती के लिए श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया. मैकवान गुजरात स्थित गैर लाभकारी दलित संस्थान के संस्थापकों में से एक हैं जो दलित समुदायों के सशक्तिकरण की दिशा में करता है. भीम कन्या नाम के एक कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र और तेलंगाना सहित कई राज्यों के दलित समुदाय के लोगों ने 19 साल की उस यवती की तस्वीर पर हल्दी लगाकर श्रद्धांजलि दी. मैकवान के अनुसार, 14 अक्टूबर को आयोजित हुए इस कार्यक्रम में एक हजार गांवों के तीस हजार से अधिक लोग शामिल हुए.
1 अक्टूबर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने हाथरस के अपराध का संज्ञान लेते हुए कहा था कि 29 सितंबर को दलित महिला के साथ हुई ज्यादती और उसकी मौत की घटना ने न्यायपालिका की अंतरात्मा को झकझोर दिया था. पीड़ित परिवार के विरोध और मीडिया की मौजूदगी से घबरा कर स्थानीय पुलिस अधिकारियों ने परिवार वालों के विरोध के बावजूद पीड़िता का शव देर रात जला दिया. पीठ ने कहा कि हाथरस की पीड़िता "अपने परिवार के रीति-रिवाजों और परंपराओं के साथ-साथ परिजनों द्वारा सम्मान और अंतिम संस्कार की हकदार थी." अन्य बातों के अलावा, अदालत ने कहा कि पीड़िता की मां ने अंतिम संस्कार के समय अपनाए जाने वाले रिवाज के रूप में उस पर हल्दी लगाने की इच्छा जताई थी लेकिन उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी गई.
मैकवान ने कहा कि समाज मानता ही नहीं कि "दलितों की भी अंतिम इच्छा होती है." उन्होंने दलित समुदायों के बीच हल्दी की रस्म के महत्व और अंतिम संस्कार की रस्म में इसकी केंद्रीय भूमिका के बारे में बताया, "यह एक सांस्कृतिक मुद्दा है कि जब भी लोग शादी के बिना मर जाते हैं, तो उन पर हल्दी लगाई जाती है क्योंकि यह शादी के समय लगाई जाने वाली चीज है." इस कार्यक्रम के लिए तैयार किए गए बैनर पर लिखा था, "दलित बिटिया को इज्जत से जीने भी नहीं देते, इज्जत से मरने भी नहीं देते." सभी लोगों ने पोस्टर में लगी तस्वीर पर हल्दी लगाई और जिन गावों में पोस्टर नहीं पहुंच सका उन्होंने दलित युवती का प्रतीक अपने अनुसार तैयार कर यह रस्म पूरी की.
मैकवान ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों को जुटाना जरूरी था. उनके दलित संस्थान को लोगों से बात करने पर पता चला कि कई लोगों को यह नहीं पता कि हाथरस में क्या हुआ है.
मैकवान ने कहा, "हमारे साथियों के लिए कई महिलाओं की प्रतिक्रिया आश्चर्यचकित करने वाली थी जिसे वे समझ नहीं पाए हैं." हल्दी की रस्म को सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा, “जब महिलाएं अपने घरों से हल्दी लाती हैं और जब वे इसे लगाती हैं, तब वे ऐसे व्यक्तिगत अनुभव से गुजरती हैं जैसे कि वे अपने किसी प्रियजन के लिए यह कर रही हों. साथ में वे एक महिला और एक दलित होने के नाते पीड़िता के दर्द को भी महसूस करती हैं."
सभा में अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों ने बड़ी संख्या में भाग लिया. मैकवान ने कहा कि वाल्मीकि समुदाय की महिलाओं की भागीदारी विशेष रूप से उल्लेखनीय थी. हाथरस की 19 वर्षीय युवती वाल्मीकि समुदाय से थी. उन्होंने कहा, “आम तौर पर वे कभी भी ऐसे कार्यक्रमों में नहीं जातीं लेकिन इस बार हमने देखा कि ये महिलाएं हैं लोगों को समझा रही हैं कि गलत हुआ है. जितना मैं उन्हें समझा पाता, उससे कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से उन्होंने इसे समझा है. यही कारण था कि हमने यह कार्यक्रम आयोजित किया. यह प्रतीकात्मक था फिर भी बहुत शक्तिशाली था और एक राजनीतिक संदेश भी देता था.” भीम कन्या कार्यक्रम को आयोजित करने की तारीख का चुनाव भी महत्वपूर्ण है. 14 अक्टूबर 1956 को बीआर आंबेडकर ने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म में अपनाया था.
मैंने दलित संस्थान के डिप्टी डायरेक्टर प्रदीप मोरे से भी बात की. उन्होंने कहा कि कार्यक्रम में हल्दी की रस्म को आधिकारिक तौर पर तय नहीं किया गया था. मोरे ने कहा, "हम एक अलग तरह का विरोध क्यों न करें, जिसमें हम उसे विरोध प्रदर्शन न मानकर दलित महिलाओं की गरिमा का मुद्दा उठाएंगे." उन्होंने आगे कहा कि ग्रामीण स्तर पर आयोजित कार्यक्रमों को प्रेरणा सभा कहा जाता है. इसका शाब्दिक अर्थ प्रेरणा बैठक है.
मोरे के अनुसार, सभा के लोग नारों और विरोध जैसी चीजों से परहेज करते हुए हाथरस पीड़िता को अंतिम सम्मान देने के अपने मुद्दे पर अड़े रहे. वे लोग आज तक उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के कई गांवों में उच्च जाति के लोगों द्वारा सताए जा रहे हैं. उन्होंने कहा, "स्थानीय दलित समुदाय इस आयोजन को आगे बढ़ाने में सक्षम थे. समुदाय अब अधिक संगठित है. वे अब लड़ाई लड़ने में सक्षम हैं." उन्होंने आगे कहा कि गांवों में दलित संस्थान के स्वयंसेवक कार्यक्रम में आए लोगों के साथ अनुवर्ती बैठकें कर रहे हैं ताकि वे उच्च जाति के लोगों की तरफ से होने वाली किसी भी खतरे के बारे में जानकारी जुटा सकें.
दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज संगठनों के नेटवर्क बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के संयोजक कुलदीप कुमार बौद्ध ने भी उल्लेख किया कि भीम कन्या कार्यक्रम को उत्तर प्रदेश में उच्च जाति समूहों से कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा है. उन्होंने मुझे बताया कि सवर्ण ठाकुर समुदाय ने इस कार्यक्रम को अपने लिए खतरे की तरह समझा. बौद्ध ने कहा, "14 अक्टूबर को हम इस कार्यक्रम को उन सभी गांवों में आयोजित नहीं करा सके जहां के लिए यह योजना बनाई गई थी. बुंदेलखंड क्षेत्र में ठाकुरों के अत्याचारों के किस्से फैले हुए हैं. जब उन्हें पता चला कि इस तरह का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है, तो उन्होंने इस पर सवाल उठाया. उस क्षेत्र में दलितों पर अत्याचार की अधिक आशंकाएं हैं."
पिछले तीन वर्षों से दलित संगठन के सहयोग से बौद्ध का संगठन उन वाल्मीकि परिवारों के पुनर्वास के लिए काम कर रहा है, जो मैला ढोने के लिए विवश हैं. उत्तर प्रदेश में जालौन जिले में आयोजित प्रेरणा सभा में हाथरस की पीड़िता को श्रद्धांजलि देने के लिए कई परिवारों के लोग शामिल हुए लेकिन उच्च जाति के ग्रामीणों द्वारा व्यवधान के कारण लगभग 20 गांवों में सभा को अगले दिन के लिए स्थगित कर दिया गया. कुल मिलाकर जालौन में 65 गांवों में भीम कन्या कार्यक्रम का आयोजन हुआ. ऊंची जाति के समुदायों का उल्लेख करते हुए बौद्ध ने कहा, “उन्हें डर है कि यह एक आंदोलन का रूप ले लेगा. उन्हें लगता है कि आज हम सभा कर रहे हैं, कल हम सड़कों पर उतरेंगे."
पूर्वी ओडिशा में प्रेरणा सभा का आयोजन करने वाली एक दलित कार्यकर्ता कालिंदी मल्लिक ने बौद्ध जैसी बात की. उन्होंने कहा, ''यह घटना यूपी में हुई थी और ओडिशा के दूरदराज के गांवों के लोगों ने भी इसका विरोध किया. यूपी हो या ओडिशा दोनों जगह दलित लोग एक साथ जुड़े हुए महसूस करते हैं कि समाज उन पर किस तरह कुठाराघात करता है. इसलिए वे एक-दूसरे के प्रति एकजुटता बढ़ाते हैं." उन्होंने 2006 में हुए एक नरसंहार का जिक्र किया जब ओडिशा के कलिंगनगर गांव में एक टाटा स्टील प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे 14 आदिवासी पुलिस की गोलीबारी में मारे गए थे. मल्लिक ने कहा, "दुनिया में सभी जगह के आदिवासियों ने एकजुटता दिखाई. सोनिया गांधी ने गांव में आकर आदिवासी बच्चों को अपनी गोद में लिया था. लोगों समझ गए कि यदि एक आदिवासी को नुकसान पहुंचाया जाए तो दुनिया के सभी आदिवासी एक साथ आएंगे. इसी तरह ऊंची जाति के लोग जानते हैं कि अगर एक दलित को नुकसान पहुंचाया गया तो ओडिशा के साथ-साथ दुनिया के सभी दलित इकट्ठा हो जाएंगे. वे संगठित होंगे."
तेलंगाना के नारायणपेट जिले में दलित फाउंडेशन के कार्यकर्ता पी ईश्वरम्मा ने राज्य के चार गांवों में इसी तरह के आयोजन करवाए. उन्होंने कहा, “हाथरस में लड़की के साथ जो हुआ, उसका विवरण सुनकर महिलाएं टूट गईं. उन्होंने कहा, "यह मायने नहीं रखता कि अपराध कहां हुआ है, हमें भीतर से उनके लिए दुख महसूस करना चाहिए. हमें इस तरह के और कार्यक्रम आयोजित करने होंगे. लोग दलित बच्चों की मौतों पर कुछ नहीं कहते."
दलित फाउंडेशन से जुड़े एक व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र, दलित शक्ति केंद्र, के उप निदेशक इंदु रोहित ने कहा कि हाथरस का मामला अपवाद नहीं था और उस दलित लड़की को बेहद दर्दनाक यौन हिंसा का सामना करना पड़ा. रोहित ने कहा कि डीएसके की देखरेख में रह रही युवा लड़कियों ने अक्सर डर के चलते अपने पड़ोस के उच्च जाति के पुरुषों की हिंसा के बारे में आवाज नहीं उठाई है. खुद को डर से राहत देने वाले काम को करने के खतरे को वे समझती हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि दलित महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा सवर्ण समुदायों द्वारा नियमित रूप से शक्ति के प्रदर्शन के रूप में होती है.
रोहित ने मध्य प्रदेश की एक लड़की द्वारा राज्य के एक गांव में हैंडपंप से पानी लेने की घटना के बारे में बताया. रोहित ने कहा, ''वहां के हैंडपंप सरकार ने लगाए थे लेकिन दबंग जातियां अपनी शक्ति यहां भी दिखाती हैं और पहले वे हैंडपंप का इस्तेमाल करती हैं और सभी को एक तरफ खड़े होने का आदेश देती हैं. सबसे आखिर में दलित महिलाएं पानी ले पाती हैं. लड़की जातिवाद का विरोध करती हुई पानी लेने के लिए कतार में आगे खड़ी हो गई. एक ब्राह्मण महिला ने उसे एक तरफ हटने के लिए कहा और लड़ाई शुरू कर दी." रोहित ने आगे कहा, “जब लड़की ने विरोध जारी रखा तो वह ब्राह्मण महिला चुप हो गई लेकिन उसके पानी भर कर चले जाने के बाद उस महिला ने हैंडपंप को एक घंटे तक साफ किया."
रोहित ने हाथरस मामले में गुजरात में ग्रामीण दलित महिलाओं की प्रतिक्रिया क्या थी यह भी बताया. रोहित ने कहा, "जब उन्हें इसके बारे में बताया गया तब जिस संवेदनशील पहलू ने महिलाओं को सबसे ज्यादा नाराज किया वह यह था कि इतनी क्रूरता झेलने के बाद भी उनकी मां को अंतिम संस्कार करने की अनुमति नहीं दी गई." उसने केवल हल्दी का एक लेप लगाने का मौका मांगा था." दलित समुदायों के लिए अनुष्ठान की समानता राज्यों में महिलाओं के साथ गहराई से प्रतिध्वनित हुई.
दलित फाउंडेशन के स्वयंसेवकों ने देश भर में आयोजित की जाने वाली सभाओं से हल्दी इकट्ठा करने की योजना बनाई है और वे अपनी अगली कार्रवाई तय करने की प्रक्रिया में हैं. एक संभावना यह है कि हल्दी का उपयोग अभय मुद्रा वाले बुद्ध की मूर्ति बनाने में किया जाएगा.
मैकवान ने कहा," एक कार्यकर्ता के रूप में जो बात पिछले 40 वर्षों से मुझे सबसे अधिक परेशान करती है वह यह है कि राज्य लगातार इस आबादी में भय का संचार करता है. स्वतंत्रता भय की अनुपस्थिति से जुड़ी है. यह वह संदेश है जिसे हम हर जगह पहुंचाना चाहते हैं. हम डरने वाले नहीं हैं."
अनुवाद : अंकिता