जुलाई-अगस्त के महीने में देश का पश्चिमी राज्य राजस्थान अपनी छवि से बिल्कुल अलहदा और जुदा दिखता है. अगर आप भूगोल पढ़ने वाले किसी विद्यार्थी को बीतते सावन के महीने में इस राज्य में ले आएंगे तो हरियाली से लहलहाती झाड़ियों, छोटे पत्ते वाले पेड़ों, विशाल मैदानों के समानान्तर फैले बादलों और हरे-भरे पहाड़ों को देख वह अपनी सामान्य बुद्धि से यह मानने को तैयार नहीं होगा कि यह भारत का सबसे बड़े विस्तार का मरूस्थलीय राज्य है जहां मार्च के बाद बालू, गर्मी, धूप और तूफानी तेज हवाओं का ही अस्तित्व रह जाता है. खैर, यह प्रकृति है जो अपने रंग, तौर-तरीके समय देख कर बदल देती है. पर इंसानों को देखो क्या बड़े, क्या बूढ़े, क्या महिलाएं, क्या बच्चे किसी के लिए कोई फर्क नहीं करता. वह अपनी हिंसा, नृशंसता और अमानवीयता को समय-स्थान देख बिल्कुल नहीं बदलता. इंसान अपनी मानसिकता में सदियों के मानवीय विकास क्रम में दया, सौम्यता और प्यार अपने मन में सबके लिए नहीं ला सका, जबकि खुद को वह प्रकृति का सबसे बड़ा अनुचर कहता है, और ज्ञाता भी.
उक्त बातें मुझसे रास्ता बताने वाले उस खाना-नाश्ता बेच रहे चाय दुकानदार ने कहीं, जो जालौर जिले के सुराणा गांव पहुंचने से पहले पड़ने वाले सियावण चौराहे पर मिला था. वही सुराणा जो दलित बच्चे इंद्र कुमार मेघवाल की मौत के बाद राजनीतिक, सामाजिक बहसों और विमर्शों का हॉट टॉपिक बना हुआ है.
राजस्थान के फालना शहर से भीनमाल होते हुए करीब 200 किलोमीटर का सफर तय कर मैं इंद्र कुमार मेघवाल के गांव सुराणा पहुंचने वाला था. सुराणा पहुंचने से पहले टैक्सी ड्राइवर सतीश पाटीदार ने सिवायट में चाय-पानी के लिए टैक्सी रोकी थी. वहीं मैंने तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले नौ वर्षीय छात्र इंद्र मेघवाल के गांव सुराणा जाने का रास्ता पूछा था जिसकी स्कूल के प्रिंसिपल छैल सिंह द्वारा पिटाई किए जाने के बाद इलाज के दौरान 13 अगस्त को मौत हो गई थी.
चाय दुकानदार ने बताया, "यहां से ठीक 15 किलोमीटर पर इंद्र कुमार मेघवाल का गांव सुराणा आ जाएगा. गांव में उसके घर के रास्ते की ओर जाओगे तो किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी, बस कीचड़ से भरे मिट्टी वाले रास्ते को मत छोड़ना, आपको शेड के नीचे शोक संतृप्त लोग मिल जाएंगे. वहां इंद्र मेघवाल की कुर्सी पर रखी तस्वीर देख कर परखना कि मनुष्य छोटा, अबोध और मासूम नहीं समझता. प्रकृति की तरह समय देख कर मिजाज नहीं बदलता, वह कट्टर होता है. अगर समझता तो उस मासूम बच्चे को मटके से पानी पीने की वजह से छैल सिंह इतनी बुरी तरह नहीं मारता. जातिवादियों की तरह भी सोचो तो जाति समझने की उम्र भी तो नहीं थी उस मासूम बच्चे की वर्ना कहां उसके बाप-दादे किसी ठाकुर के आगे गांव में चारपाई पर बैठते हैं, उनके बर्तन में पानी पीते हैं. नौ साल का वह मासूम सिर्फ पानी जानता था, जाति तो उसे अभी सीखनी थी, थोड़ा बड़ा हो कर वह बिना बताए ही भारत में दलित होने का मतलब समझ जाता."
दुकानदार के बताए अनुसार हम लोग सुराणा पहुंचे तो इंद्र मेघवाल के पिता, दादा, कुछ रिश्तेदार और बड़ी संख्या में देशभर से पहुंचे जोश और रोष से भरे युवा दिखे, जो बीच-बीच में पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने के पक्ष में नारा बुलंद कर रहे थे, दलितों-वंचितों पर होने वाली अतियों-अत्याचारों को लेकर समूह बना कर बातें कर रहे थे. उन नारों के बीच दीवार के पिछले हिस्से से महिलाओं के रोने-बिलखने और क्रंदन की तेज आवाजें भी आ रही थीं. पता चला उस ओर रिश्तेदारी से आईं औरते हैं जो इंद्र की मां और दादी के गले लग कर लगातार रो रही हैं. संभवतः दुख प्रकट करने का यह राजस्थानी समाज का पारंपरिक तरीका भी है. रोती-बिलखती, द्रवित करतीं आवाजें मानो हर आने वाले से सवाल कर रही हों, क्या हमारा मासूम बच्चा हमें लौटा दोगे, आखिर उसका कसूर ही क्या था.
इंद्र के पिता देवाराम मेघवाल घर के सामने की ओर बैठे थे. उन्होंने मारवाड़ी और हिंदी मिक्स अपनी भाषा में हमें पूरी घटना के बारे में बताया. कहा, "मेरा बेटा इंद्र गांव के ही सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ता था. हर दिन की तरह 20 जुलाई को भी इंद्र स्कूल में पढ़ने गया था. प्यास लगने पर उसने प्रिंसिपल छैल सिंह के लिए रखे घड़े का पानी पी लिया, वही पानी उसके लिए काल बन गया."
स्कूल के सामने ही देवाराम मेघवाल की पंचर बनाने की दुकान है. इंद्र कान पर हाथ धरे दौड़ता हुआ आया और अपने पिता को बताया कि प्रिंसिपल मास्टर ने कान पर जोर का तमाचा जड़ दिया है. मेघवाल ने बताया, "फिर मैंने उसे डांटा कि कु्छ बदमाशी की होगी, इसलिए मारा होगा, चल यहां बैठ." इंद्र ने उन्हें नहीं बताया कि ऑफिस का पानी पीने की वजह से मास्टर ने पीटा था इसलिए पिता मेघवाल ने बात को मामूली तौर पर लिया. लेकिन इंद्र दुकान पर ही छटपटाने और रोने लगा जिसके बाद उसका गांव में ही पहले इलाज करवाया गया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ. पिता मेघवाल ने कहा, "उसकी बिगड़ती हालत देखकर बगोड़ा गया, वहां लाभ नहीं हुआ तो भीनमाल गया. वहां आस्था और त्रिवेणी मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल नाम के दो अस्पताल बदले. मेरे बच्चे का दर्द और चेहरे की सूजन कम नहीं हुई तो उसे उदयपुर ले गए. उसके बाद गुजरात के दीसा गए और आखिर में अहमदाबाद सिविल अस्पताल. जहां जिसने कहां, वहां गए."
इतना बताते-बताते देवाराम मेघवाल रो पड़े और रूंधे गले से उस दिन को याद करते हुए बताने लगे, "प्रिंसिपल छैल सिंह के ऑफिस में रखे घडे़ से पानी पीना मेरे बच्चे के लिए पाप हो गया और उसने मेरे इंद्र के कान पर ऐसा थप्पड़ जड़ा कि यहां से लेकर अहमदाबाद तक इलाज कराया लेकिन मेरा बच्चा बच न पाया और 13 अगस्त को उसकी मौत हो गई. पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद मैं अपने कलेजे के टुकड़े को बचा नहीं पाया. अब रिश्तेदारों और जानने वालों का इतना कर्ज मुझ पर चढ़ गया है कि मैं पूरी जिंदगी 24 घंटे काम करके भी नहीं चुका सकता, खुद को बेच दूं तब भी नहीं. मेरा सबकुछ चला गया, कुछ नहीं बचा. छैलसिंह को जब तक कड़ी से कड़ी सजा नहीं होती, मुझे सुकून नहीं मिलेगा."
मगर इसके उलट इस मामले में जेल जा चुके आरोपी छैल सिंह की ओर से बोलने वालों का मीडिया में जो पक्ष आ रहा है, उसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है, जो देवाराम मेघवाल के परिवार पर पड़े दुखों और मुश्किलों से बिल्कुल अलग है.
उस दिन इंद्र के परिवार से मिलने आए एमएससी के छात्र देवेंद्र मेघवाल की राय में, "इस भ्रम की स्थिति के कारण पीड़ित परिवार शोषित, जातिवाद का शिकार और अन्याय के बोझ से दबे होने की जगह लालची और मौकापरस्त लगने लगा है. भ्रम की स्थिति बनाने में सबसे बड़ा हाथ सवर्ण वर्चस्ववादी मीडिया का है. जो मीडिया उछल-उछल कर 14 अगस्त से 17-18 अगस्त तक छैल सिंह के मटके को दिखा रहा था, अब वह कहीं स्कूल में मटके को ही नहीं पा रहा है, उसको दलितों के साथ राजस्थान जैसे राज्य में राजपूतों की बराबरी दिखाई देने लगी है और अब इंद्र मेघवाल के परिवार को लेकर नैरेटिव सेट किया जा रहा है कि पैसे के लालच में जातिवाद का नाटक किया जा रहा है."
हालांकि कांग्रेस शासित इस राज्य की पुलिस और बाल संरक्षण आयोग की रिपोर्ट भी इसी जातिवादी नैरेटिव को सेट करती है. राजस्थान पुलिस के अतिरिक्त महानिदेशक अपराध रवि प्रकाश कहते हैं, "इस मामले में शासन को रिपोर्ट भेज दी गई है. स्कूल में कोई मटका-मटकी रखी नहीं मिली है. स्कूल के जिस कमरे में आरोपी टीचर बैठता है वहां एक मिट्टी का बर्तन रखने की जगह है. स्कूल के शिक्षकों और छात्रों का कहना है कि सभी एक ही टंकी का पानी पीते हैं."
राज्य बाल संरक्षण आयोग के सदस्य शिव भगवान नागा भी उसी परिणाम पर पहुंचते हैं जिस पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के आदेश के बाद जांच कर आए एडीजी रवि प्रकाश पहले से ही पहुंच चुके हैं. शिव भगवान नागा ने मीडिया को बताया, "मैंने स्कूल और घर दोनों का दौरा किया. परिवार के अलावा छात्रों, शिक्षकों और ग्रामीणों से बात की. ज्यादातार छात्रों ने किसी तरह के जातिगत भेदभाव और पानी पीने में छुआछूत से इनकार किया. इंद्र के साथ पढ़ने वाले छात्रों ने बताया कि शिक्षक छैल सिंह ने ‘ड्राइंग बुक पर लड़ाई’ की वजह से थप्पड़ मारा था जिससे कान और आंख पर चोट आई थी, जबकि इंद्र मेघवाल के चचेरे भाई ने कहा कि इंद्र को इसलिए पीटा था कि उसने प्रिंसिपल छैल सिंह के घड़े से पानी पीया था. चचेरा भाई उसी स्कूल में 5वीं का छात्र है."
पुलिस और बाल संरक्षण आयोग की इन जांच रिपोर्टों के मीडिया में छपने के बाद इंद्र मेघवाल की मौत के लिए जिम्मेदार सिर्फ छैल सिंह के थप्पड़ को माना जा रहा है, सवर्ण मटके से पानी पीने की जातिवादी मानसिकता के कारण जोर से मारे गए जानलेवा थप्पड़ को नहीं. सारी कायनात की बहस अब यहीं स्थिर हो गई है. बच्चे की जान जाना, बच्चे को जानवरों की तरह पीटना आदि सवाल यहां महत्वहीन होते दिखाई दे रहे हैं. ऐसे में इस नई बहस ने कुछ नए सवाल भी पीड़ित पक्ष के लिए निर्मित कर दिए हैं, जो क्रमश: इस प्रकार से हैं - बच्चे के मरने के पहले तक कोई एफआईआर या शिकायत क्यों नहीं की गई? पानी पीने की वजह से चांटा मारने की बात मीडिया में इंद्र मेघवाल के 13 अगस्त को मरने से पहले क्यों नहीं कभी बोली गई? स्कूल के दूसरे बच्चे और वहां पढ़ाने वाले दलित मास्टर कह रहे हैं कि पानी के नाम पर किसी तरह का छुआछूत स्कूल में नहीं किया जाता है? स्कूल में पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र दलित और आदिवासी समुदाय से हैं? इंद्र मेघवाल का परिवार पैसे के लालच में मटके वाला बयान दे रहा है, जो कि झूठ है?
इस मामले से जुड़े ये बहुत महत्वपूर्ण सवाल हैं, जिस पर सरकार से जवाब मांगा जाना चाहिए, लेकिन सरकार के जांचकर्ताओं ने साफ कर दिया है कि छैल सिंह के स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर में जातिवाद-छुआछूत जैसा कुछ नहीं था, तो हमें यह सवाल पीड़ित परिवार से करना पड़ा.
बता दें कि सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों का संचालन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संस्था विद्या भारती संस्थान करती है. मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध के हटने के बाद 1952 में आरएसएस से जुड़े नेताओं ने देश के पहले सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना की थी. इसके बाद देशभर में इन स्कूलों का तेजी से विकास हुआ. साल 1977 में इसे राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए विद्या भारती अखिल भारतीय संस्थान की स्थापना की गई. विद्या भारती की वेबसाइट के अनुसार देश में 30000 से अधिक शिशु मंदिर हैं जिनमें 30 लाख से अधिक छात्र और छात्राएं पढ़ते हैं और 150000 से अधिक शिक्षक पढ़ाते हैं.
इंद्र मेघवाल की धर्म बहन (वह बहन जिससे खून का रिश्ता नहीं, लेकिन उसे बहन माना गया हो) के पति बेहद शांत भाव से कहते हैं, "आप अपना माइक और मीडिया की पहचान आदि यहीं रख दो और हमारे गांव में हजाम की दुकान पर जाओ. आपका जो भी नाम है, उसके पीछे मेघवाल बताओ और देखो क्या वह आपके बाल काटता है? हजाम अगर बाल काट दे तब कहना कि मास्टर ने मटके से पानी पीने के कारण नहीं मारा इंद्र को. जरा, राजपूतों के दरवाजे जाओ और देखो मेघवाल बता कर अगर वे तुम्हें अपने बर्तन में पानी दे दें, खाट पर बिठाएं या अपने कप में चाय दे दें. उनके दरवाजे से हम आज भी सीधी रीढ़ किए और सीना ताने नहीं निकल पाते हैं. जिस समाज में जातिवाद है, सड़क-खेत-खलिहान-श्मशान में जाति का फर्क है, मरने के बाद पूजा कराने वाले पंडित में जातिवाद है वहां के स्कूल में जातिवाद नहीं है, ऐसा सिर्फ एक जातिवादी सोच सकता है."
बकौल इंद्र के पिता देवाराम, "20 जुलाई को टीचर छैल सिंह के मारने के बाद जब इंद्र की तबीयत दिन पर दिन खराब होने लगी तो आरोपी छैल सिंह ने अपनी राजपूत बिरादरी की ताकत से गांव में तीन दिन बाद पंचायत रखी. पंचायत में मुझ मजदूरी करने वाले मजबूर पिता पर दबाव डलवाया कि समझौता करो, मगर मैंने उनसे कोई समझौता नहीं किया. छैल सिंह ने डेढ़ लाख रूपया इलाज के लिए दिया. वह भी छैल की जाति वालों के दबाव में लिया कि तुम्हारा बच्चा ठीक हो जाएगा और तुम्हें क्या चाहिए."
इंद्र के पिता देवाराम आगे कहते हैं, "बच्चे को मैं अस्पताल ले गया, यहां से वहां भागता रहा, इलाज के पैसों के लिए यहां-वहां फोन करता रहा, आप ही बताइए एक पिता जो अपने बच्चे की जान बचाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रहा है, रातोंदिन उसकी फिक्र में घुला जा रहा हो, वह आखिर कब मुकदमा कराता और कब थाने जाता शिकायत करने. आप ही बताइए साहब! एक मेघवाल पंचर वाले की क्या औकात होती है? क्या मैं बच्चे को अस्पताल में छोड़ इन दबंगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराता."
भीम आर्मी से जुड़े और उदयपुर से लॉ ग्रेजुएट की पढ़ाई कर रहे राकेश मेघवाल, स्कूल में मटकी थी या नहीं थी को लेकर कहते हैं, "स्कूल में मटकी थी या नहीं की बहस में उलझा कर मीडिया इस नृशंस घटना के प्रति एक आदमी की नफरत को अलग मोड़ देने का काम कर रही है, जिसका मकसद साफ है कि उस गंदगी पर फावड़ा न चलने दो जिसको हटाने के लिए दलित एकजुट हुए हैं. बच्चा-बच्चा जानता है कि हर स्कूल में मास्टर की मटकी अलग होती है. मैं लॉ ग्रेजुएट हूं और उदयपुर में जब रहने का कमरा तलाशने जाता हूं तो मेरे मुंह पर कहते हैं, 'हम मेघवालों को किराए पर कमरा नहीं देते.' मूंछ रखने के कारण इसी साल मार्च में जितेंद्र मेघवाल को पॉली में मार डाला. जहां मूंछ में जातिवाद है वहां मटका-मटकी बहस ‘तथ्यों की बारीकी’ में फंसाने का मकसद कोई भी समझ सकता है."
संकट की इस घड़ी में इंद्र मेघवाल के परिवार के साथ दुख बांटने आए सुमेर मेघवाल हमें एक किनारे पेड़ के नीचे छाए में ले जाते हैं और कहते हैं, "मैं आपसे 'घड़ा विमर्श पर' कुछ बताना चाहता हूं." सुमेर से पता चलता है कि वह आरटीआई कार्यकर्ता हैं और राजस्थान के ही बाड़मेर जिले के बागुंदी क्षेत्र के संतरा गांव से हैं. 24 वर्षीय आरटीआई कार्यकर्ता सुमेर कहते हैं, "र्मैं करीब 160 किलोमीटर बाइक चला कर सुबह 9 बजे पहुंच गया था. आप दूसरे लोगों से बात करें तो कई लोग 1600 किलो मीटर या इससे भी ज्यादा अन्य राज्यों से पीड़ित परिवार को साहस और सांत्वना देने आए हैं. लेकिन सभी मेघवाल हैं या फिर दलित समुदाय से हैं. जिस सुराणा का इंद्र रहने वाला है उस गांव से भी मेघवालों को छोड़ दूसरे समुदाय, खासकर सवर्ण परिवारों, से एक व्यक्ति नहीं आया दिखेगा यहां जबकि मृतक परिवारों के यहां पहुंच कर ढांढस बंधाना हमारी संस्कृति का हिस्सा है. कहा जाता है सुख में जाओ न जाओ, किसी के दुख में जरूर शामिल रहना चाहिए. यही मानवता भी कहती है. पर जाति की श्रेष्ठता कहें, जहर कहें या उसका बोध- वह हमारी सामाजिकी में इतना हावी है कि परंपरा, संस्कृति, मानवता और नैतिकता की सारी दुहाइयां आपको यहां हवा होती दिखाई देती हैं. ऐसा इसलिए की 9 वर्षीय इंद्र सामान्य मृतक नहीं है, बल्कि उसे एक सम्मानजनक जीवन जीना था और उसे जातिगत विद्वेष भरी मौत दी गई."
आपको क्यों लगता है कि दूसरे समाज के लोग दलित पीड़ित परिवार को सांत्वना देने नहीं पहुंच रहे होंगे ? इस सवाल के जवाब में सुमेर कहते हैं, "हाथ कंगन को आरसी क्या...पढ़े लिखे को फारसी क्या...आप खुद पूछ कर देख लीजिए. जो यहां सांत्वना देने पहुंचेगा उसका एक पक्ष हो जाएगा. वह न्याय, हक और पीड़ित के साथ खड़ा दिखेगा. हमारे समाज में न्याय, हक और पक्ष सब कुछ जातिवादी है, इसलिए जाति के लोग ही न्याय के पक्ष में खड़े होंगे, समाज के लोग नहीं. वही मानसिकता तय करेगी कि घड़े की वजह से राजपूत शिक्षक ने इंद्र की जान ली या नहीं ली. इस मामले में तथ्य आपको कोई जवाब नहीं दे पाएंगे. तथ्य पर तब आप भरोसा करते जब समाज न्याय और हक के पक्ष में खड़ा होता- जाति नहीं. ऐसे मामलों में आप अक्सर देखेंगे कि जाति साथ खड़ी होती है और समाज शून्य भाव से दूरद्रष्टा बना रहता है."
अगर आप सुमेर मेघवाल की कही बातों को शिक्षक छैल सिंह के पक्षकारों की ओर से भी देखने की कोशिश करें, जो उन्हें निर्दोष और फंसाया गया बता रहे हैं तो समझ में आ जाएगा कि दलित समाज से आने वाले सुमेर की समझदारी मनगढ़ंत नहीं है. 30 अगस्त को जालौर शहर में कलेक्ट्रेट-मजिस्ट्रेट ऑफिस के सामने राजपूत जाति के संगठन ‘करणी सेना’ ने जेल में बंद आरोपी शिक्षक छैल सिंह के पक्ष में एक बड़ी जनसभा की. सभा में एक स्वर में छैल को निर्दोष कहा गया और उसकी रिहाई की मांग की गई. इस सभा के आयोजक भी राजपूत थे, भागीदार भी राजपूत थे और वक्ता भी राजपूत और इंद्र मेघवाल को मटका से पानी पीने पर थप्पड़ मारने वाला छैल सिंह भी राजपूत है. हालांकि कहा इसे गया 36 जातियों की रैली. रैली में सभी वक्ताओं ने सबसे ज्यादा समय और जोर इसी बात पर दिया कि मामला झूठा है और मटका का मुद्दा फर्जी है.
आप इस पूरे घटनाक्रम में देखेंगे कि छैल सिंह के बचाव में खड़े लोग हों या मीडिया या फिर सरकार की संस्थाएं, सभी को यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि छैल सिंह ने इंद्र को थप्पड़ मारा और उससे मौत हो गई. परेशानी है तो मटके से. मटका से पानी पीने के कारण मारा थप्पड़, का जिक्र आते ही न्याय के पक्ष में कथित तौर पर खड़े लोग छिटक जाते हैं.
सवाल है कि इंद्र के मरने के बाद छैल पर जो आरोप लगे हैं उनके अनुसार ही मुकदमा दर्ज हुआ है, हत्या और एससीएसटी एक्ट के तहत. इसमें मटके से कोई राहत मिलने वाली है नहीं. एसससीएसटी एक्ट के अुनसार, अगर जातीय आधार पर कोई उत्पीड़न किया गया है तो यह एक्ट लगेगा, यहां तो इंद्र की हत्या हो चुकी है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के चर्चित वकील राकेश गुप्ता कहते हैं, "पहले पीड़ित को जातीय उत्पीड़न साबित करना पड़ता था लेकिन 2015 में आए एससीएसटी एक्ट बदलाव के बाद नहीं. 2015 के पहले की स्थिति में पीड़ित पक्ष इंद्र मेघवाल के परिवार को साबित करना पड़ता कि वहां मटका था और उसी के कारण हत्या हुई है. मगर कानून बदलने के बाद मौत होने के पश्चात इस बात का प्रमाण ढूंढना कानूनी रूप से अनावश्यक है कि उनका उत्पीड़न जातिगत भेदभाव से हुआ या नहीं. बल्कि छैल सिंह और इंद्र एक ही गांव के थे, उसके स्कूल में इंद्र की सारी जानकारी थी और छैल विधिवत जानता था कि वह दलित है. ऐसे एससएसटी एक्ट के प्रावधानों के अुनसार यह मान लिया जाएगा कि जानते हुए छैल ने इंद्र के साथ जातीय उत्पीड़न किया है."
वकील राकेश गुप्ता आगे कहते हैं, "एससीएसटी एक्ट के कानूनी प्रावधानों की तुलना दहेज हत्या के लिए बने कानून 304 बी से कर सकते हैं. शादीशुदा महिला कि अगर शादी के सात साल के भीतर अप्राकृतिक मृत्यु हो जाती है तो दोषियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो जाता है, उसके लिए देहज उत्पीड़न साबित करने के प्रमाण की जरूरत पीड़ित को नहीं पड़ती."
अब प्रश्न और गहरा जाता है कि जब घड़े के होने न होने से कानूनी राहत नहीं मिलनी है, सजा में छूट नहीं होनी है फिर घड़ा विमर्श को इतना हाईलाइट कर मुख्य मुद्दे के तौर पर प्रेषित क्यों किया जा रहा है. क्यों समाज में यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि जब घड़ा नहीं तो अपराध नहीं?
इस मामले में राजस्थान शेड्यूल कास्ट कमीशन के अध्यक्ष और कांग्रेस विधायक खिलाड़ी राम बैरवा ने 24 अगस्त को मांग रखी है कि जो भी दलित पर अत्याचार करता है उसकी जमीन और घर की कुर्की की जाए तभी जाकर ऐसे जघन्य मामलों में कमी हो पाएगी. कर्नाटक दलित संघर्ष समिति की कलबुर्गी जिला इकाई से जुड़े और राज्य संयोजक अर्जुन भादरे ने इंद्र मेघवाल हत्या मामले में दोषी शिक्षक छैल सिंह की संपत्ति को कुर्क करने की मांग की है. इस तरह की मांगों के पीछे राजस्थान में दलितों पर बढ़ती साल दर साल अत्याचार की घटनाएं हैं.
एनसीआरबी के आंकड़ों के अुनसार 2020 के मुकाबले 2021 में दलित उत्पीड़न की घटनाओं में 7 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी हुई. यूपी और बिहार के बाद राजस्थान देश का तीसरा राज्य है जहां दलितों पर अत्याचार की सर्वाधिक घटनाएं होती हैं. नेशनल कमीशन फॉर शेड्यूल कास्ट को राज्य सरकार ने जो जानकारी दी उसके अनुसार इंद्र मेघवाल की हत्या के लिए जिम्मेदार छैल सिंह के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट के अलावा सभी उचित धाराओं में मुकदमा दर्ज कर दिया गया है. एससी/एसटी एक्ट के कंपनशेसन के तहत 4.12 लाख रुपए पीड़ित परिवार को भेज दिए गए हैं, जबकि 5 लाख रुपए मुख्यमंत्री राहत कोष से दिए जाने हैं. इंद्र मेघवाल के पिता देवाराम ने भी बताया कि उन्हें खबर लिखे जाने तक सिर्फ 4.12 लाख रुपए ही प्राप्त हुए हैं.
अपने बच्चे को गंवा चुकी मां पवनी घूंघट के भीतर से लगातार सुबकती हैं. रोते हुए ही बोलती जाती हैं, "मेरे बच्चे को क्यों मार दिया छैल ने. वह क्या समझता था ऊंच-नीच. वह तो बस प्यासा था, सो पानी पिया. छैल बच्चे के बदले हमें आकर मार देता, गाली दे लेता. मेरा इंद्र तो उसको मास्टर जी ही कहता था, वह दूसरों के बच्चों से अलग कैसे लगा, क्यों जान ली मेरे बच्चे की. अरे पानी किसका है, पानी तो भगवान का दिया है. इसका-उसका कैसे हुआ?"
खैर! यह एक मां का दुख है. उसे क्या पता कि आरोपी छैल सिंह को भले पुलिस ने जेल में डाल दिया है, लेकिन समाज और देश में बहस इस बात पर हो रही है कि स्कूल में मटकी थी कि नहीं थी. पूरा सिस्टम यह बताने में जुटा है कि स्कूल में मटकी नहीं थी, इसलिए स्कूल में जातिवाद नहीं था, वह थप्पड़ जातिवादी नहीं था. इधर इंद्र के माता-पिता पवनी और देवाराम इन सबसे अलग अपना बच्चा गंवाने के बाद इलाज पर हुए खर्च के कारण भारी कर्ज में डूबे हैं और उम्मीद में हैं कि सरकार से कुछ आर्थिक राहत मिल जाए.
इंद्र के दादा कहते हैं, "हमें सबसे ज्यादा चिंता सुरक्षा की है. गांव में 1200 से ज्यादा राजपूत घर हैं और हमलोग उनके एक बट्टा चार भी नहीं. यह मजमा ‘भीड़’ दो चार दिन की है, रहना तो हमें इसी मिट्टी और गांव में है." इंद्र के दादा की इस बात में वह डर छुपा है, जिसका सामना दलित समाज हर रोज करता है, यानी वह अगड़ों के समाज में सिर नहीं उठा सकता और जो दलित यह हिमाकत करता है उसे इसकी सजा भी भुगतनी पड़ती है.