जुलाई-अगस्त के महीने में देश का पश्चिमी राज्य राजस्थान अपनी छवि से बिल्कुल अलहदा और जुदा दिखता है. अगर आप भूगोल पढ़ने वाले किसी विद्यार्थी को बीतते सावन के महीने में इस राज्य में ले आएंगे तो हरियाली से लहलहाती झाड़ियों, छोटे पत्ते वाले पेड़ों, विशाल मैदानों के समानान्तर फैले बादलों और हरे-भरे पहाड़ों को देख वह अपनी सामान्य बुद्धि से यह मानने को तैयार नहीं होगा कि यह भारत का सबसे बड़े विस्तार का मरूस्थलीय राज्य है जहां मार्च के बाद बालू, गर्मी, धूप और तूफानी तेज हवाओं का ही अस्तित्व रह जाता है. खैर, यह प्रकृति है जो अपने रंग, तौर-तरीके समय देख कर बदल देती है. पर इंसानों को देखो क्या बड़े, क्या बूढ़े, क्या महिलाएं, क्या बच्चे किसी के लिए कोई फर्क नहीं करता. वह अपनी हिंसा, नृशंसता और अमानवीयता को समय-स्थान देख बिल्कुल नहीं बदलता. इंसान अपनी मानसिकता में सदियों के मानवीय विकास क्रम में दया, सौम्यता और प्यार अपने मन में सबके लिए नहीं ला सका, जबकि खुद को वह प्रकृति का सबसे बड़ा अनुचर कहता है, और ज्ञाता भी.
उक्त बातें मुझसे रास्ता बताने वाले उस खाना-नाश्ता बेच रहे चाय दुकानदार ने कहीं, जो जालौर जिले के सुराणा गांव पहुंचने से पहले पड़ने वाले सियावण चौराहे पर मिला था. वही सुराणा जो दलित बच्चे इंद्र कुमार मेघवाल की मौत के बाद राजनीतिक, सामाजिक बहसों और विमर्शों का हॉट टॉपिक बना हुआ है.
राजस्थान के फालना शहर से भीनमाल होते हुए करीब 200 किलोमीटर का सफर तय कर मैं इंद्र कुमार मेघवाल के गांव सुराणा पहुंचने वाला था. सुराणा पहुंचने से पहले टैक्सी ड्राइवर सतीश पाटीदार ने सिवायट में चाय-पानी के लिए टैक्सी रोकी थी. वहीं मैंने तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले नौ वर्षीय छात्र इंद्र मेघवाल के गांव सुराणा जाने का रास्ता पूछा था जिसकी स्कूल के प्रिंसिपल छैल सिंह द्वारा पिटाई किए जाने के बाद इलाज के दौरान 13 अगस्त को मौत हो गई थी.
चाय दुकानदार ने बताया, "यहां से ठीक 15 किलोमीटर पर इंद्र कुमार मेघवाल का गांव सुराणा आ जाएगा. गांव में उसके घर के रास्ते की ओर जाओगे तो किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी, बस कीचड़ से भरे मिट्टी वाले रास्ते को मत छोड़ना, आपको शेड के नीचे शोक संतृप्त लोग मिल जाएंगे. वहां इंद्र मेघवाल की कुर्सी पर रखी तस्वीर देख कर परखना कि मनुष्य छोटा, अबोध और मासूम नहीं समझता. प्रकृति की तरह समय देख कर मिजाज नहीं बदलता, वह कट्टर होता है. अगर समझता तो उस मासूम बच्चे को मटके से पानी पीने की वजह से छैल सिंह इतनी बुरी तरह नहीं मारता. जातिवादियों की तरह भी सोचो तो जाति समझने की उम्र भी तो नहीं थी उस मासूम बच्चे की वर्ना कहां उसके बाप-दादे किसी ठाकुर के आगे गांव में चारपाई पर बैठते हैं, उनके बर्तन में पानी पीते हैं. नौ साल का वह मासूम सिर्फ पानी जानता था, जाति तो उसे अभी सीखनी थी, थोड़ा बड़ा हो कर वह बिना बताए ही भारत में दलित होने का मतलब समझ जाता."
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