"अफ्रीका को अंबेडकर चाहिए गांधी नहीं", घाना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ओबाडेले कम्बोन

ओबाडेले बकारी कम्बोन घाना यूनिवर्सिटी में अफ्रीकन स्टडीज के रिसर्च फेलो हैं. वे गांधी के पक्ष में हो रहे प्रचार को ध्वस्त करने की बात करते हैं. उन्होंने इसे “इंप्रोपेगांधी” (इम्प्रोपर प्रॉपगैंडा) नाम दिया है. ये नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि गांधी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाए सवर्ण हिंदुओं के पक्ष में लड़े. साभार ओबाडेले कम्बोन
21 January, 2019

दिसंबर 2018 में घाना यूनिवर्सिटी के छात्रों ने कैंपस में लगी मोहनदास करमचंद गांधी की मूर्ति को हटा दिया. राजधानी अक्रा में स्थित इस मूर्ति का अनावरण भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 2016 में किया था. यहां गांधी मस्ट फॉल मूवमेंट (गांधी को गिरा दो मुहिम) शुरू हुई जिसमें यूनिवर्सिटी के स्टाफ और छात्रों ने गांधी को नस्लवादी बताया और मूर्ति हटाने की मांग की.

कैंपेन के नेताओं में शामिल ओबाडेले बकारी कम्बोन, यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ अफ्रीकन स्टडीज में एक रिसर्च फेलो हैं. उनका दावा है कि इस मूर्ति को लगाने के लिए तय सरकारी नियमों का उल्लंघन किया गया था. कारवां के स्टाफ राइटर सागर से बातचीत में कम्बोन ने गांधी के पक्ष में हो रहे प्रचार को ध्वस्त करने की बात करते हैं. उन्होंने इसे “इंप्रोपेगांधी” का नाम दिया है. ये नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि गांधी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाए सवर्ण हिंदुओं के पक्ष में लड़े. उन्होंने अफ्रीका के अश्वेतों और भारत के दलितों के बारे में गांधी के विचारों की तुलना की. जिस ‘अश्वेत’ शब्द को समुदाय विशेष को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, गांधी द्वारा उसके इस्तेमाल का जिक्र करते हुए कम्बोन ने बताया, “अगर उन्हें मौका मिलता, तो उनके पास जितनी गोलियां होतीं, उतने काफिरों को मार देते.”

सागर:- ‘गांधी मस्ट फॉल मूवमेंट’ की परिकल्पना क्यों की गई और इसे कैसे चलाया गया ?

ओबाडेले कम्बोन: हमें सिर्फ प्रणब मुखर्जी के लेक्चर के बारे में जानकारी दी गई थी, मूर्ति के बारे में नहीं. मैं गाड़ी में था जब मैनें इस मूर्ति को देखा- ये गांधी की थी. मेरा पहला ख्याल यह था कि इन लोगों को नहीं पता कि गांधी कौन हैं? फिर, मैंने अपने फोन से कुछ तस्वीरें लीं और गांधी की 52 शीर्ष नस्लवादी बातों वाला एक मेल भेजा. इसके बाद कैंपस में बातें होने लगीं. हमारे यूनिवर्सिटी स्टाफ में दर्जनों लोग इस बारे में बात कर रहे थे. बहुत से लोगों ने कहा, “हमें पता नहीं था, हमने बस फिल्म देखी है, हमें लगा वो महान थे. ये आश्चर्यचकित करने वाली बात है.” कुछ-एक ने कहा, “मैंने फिल्म देखी थी. वह बहुत अच्छी थी. वे सच में महान होंगे.” मैं इसे विचार की असंगति की तरह देखता हूं. क्या होता है कि जब लोगों का सामना किसी नई जानकारी से होता है, जो उनकी धारणाओं से मेल नहीं खातीं तो वे इसे सही ठहराने लगते हैं या खारिज या अनदेखा कर देते हैं, क्योंकि इससे उनके भीतर तनाव और असहजता पैदा होती है.

तब के वीसी ने बातचीत के दौरान एक ईमेल में जवाब दिया. संभवत: वो ही थे, जिन्होंने मूर्ति लगवाने की अनुमति दी थी. ये अकादमिक बोर्ड या बाकी के आम नौकरशाही चैनल के माध्यम से नहीं हुआ. ये अचनाक से कैंपस में आ गया. इसके लिए अफ्रीकन स्टडीज या इतिहास वालों से कोई राय नहीं ली गई थी. इन्हें पता है कि अफ्रीका के मामले में गांधी क्या हैं? ईमेल में उन्होंने कहा कि उन्होंने सोचा था कि जब वो बूढ़े हो गए थे तो गांधी बदल गए थे. इसके बाद मैंने एक और ईमेल भेजा. मैंने दलितों पर उनके अत्याचार के बारे में बताया कि कैसे वे उन्हें “हरिजन” बुलाते थे. जिसका मतलब “देवदासियों की नाजायज संतान” होता है. पहली बार इसका इस्तेमाल सन 1400 में कवि नरसिंह मेहता द्वारा किया गया था. ये बिल्कुल साफ है कि दलित इस शब्द को पसंद नहीं करते.

डॉक्टर अंबेडकर ने लिखा हैं कि कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करने के मामले में क्या किया था. ये एक हिंसक रूप से की गई जबरदस्ती थी और उन्होंने सच में इस बारे में नीच दिखाने वाले लहजे में बात की और ज्यादातर दलितों के साथ आज भी ये होता है. मैं पूरा बैकग्राउंड बताता हूं. कुछ गांधी के बारे में और कुछ अंबेडकर के बारे में. उन्होंने ये भी बताया कि गांधी अछूतों के सबसे बड़े दुश्मन थे.

गांधी के बारे में लोग जो नहीं समझ पाए, वो ये था कि गांधी अश्वेत लोगों के खिलाफ थे. चाहे वो अफ्रीकी महाद्वीप से हों या कहीं ओर से. वो एक इंडो-आर्य सवर्ण जाति के हिंदू थे. उन्होंने हमेशा सवर्णों की लड़ाई लड़ी और भारत के काले लोगों की लड़ाई कभी नहीं लड़ी.

सा: मतलब, आप कहना चाहते हैं कि गांधी अफ्रीका में अश्वेत समुदाय के लोगों के लिए अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के बजाए अपनी जाति की रक्षा कर रहे थे.

ओबीके: ये उनके लेखन में साफ है. वो लिखते हैं कि वो अश्वेत लोगों के लिए नहीं है. 1893 से 1913 तक वो हमेशा कहते आए हैं-ये काफिर हैं, हम इनके साथ काम नहीं करना चाहते है, यहां तक कि जब हड़ताल करने की बात है, हम इनके साथ हड़ताल नहीं करने वाले. उनकी आत्मकथा के मुताबिक, 1906 में उन्हें ये बड़ा आभास हुआ. [गांधी ने ब्रह्मचर्य का संकल्प लिया और कहा कि उन्हें अपने तरीकों की खामियां समझ आ गई हैं.] लेकिन इस कथित प्रण के बाद उन्होंने जीवन की कुछ सबसे बेकार बातें कहीं और की हैं.

जिस समय वो अपनी जीवनी लिख रहे थे तब उन्हें नहीं लगा होगा कि बाद में पीडीएफ द्वारा तलाशे जाने लायक 100 संस्करणों में उनके तथ्यों की जांच हो सकती है. 1906 के तथाकथित संकल्प के बाद उन्होंने कहा था, “अश्वेत लोग जानवरों से थोड़े से बेहतर हैं.” जब वो जेल की सज़ा काट रहे थे, तो उन्होंने वहां कहा था, वो “जानवरों की तरह रहते हैं.”

उन्होंने अपनी आत्मकथा में बहुत से लोगों को धोखा दिया है. इन लोगों के पास तथ्यों की जांच का मौका नहीं था, क्योंकि 1998-1999 से पहले तक लोगों की पहुंच सही चीज तक नहीं थी, खास तौर पर हिंदी और गुजराती में. ये अश्वेत लोग जो न तो हिंदी पढ़ सकते हैं और न ही गुजराती, आखिर उन्हें कैसे पता चलता कि वो उनके बारे में क्या कहते थे? उन्हें कैसे पता चलेगा कि गांधी असल में झूठ बोल रहे थे जब तक कि वे 1906 में उनके कथनों की जांच नहीं कर लेते. जब वो भारत गए तो दलितों के खिलाफ लड़े. उनके ‘महाड़ सत्याग्रह’ की आलोचना भी की. [महाड़ सत्याग्रह का नेतृत्व अंबेडकर ने किया था. इस सत्याग्रह की मांग थी कि सार्वजनिक टैंक से अछूतों को पानी पीने का हक मिले.]

सागर: क्या गुजराती और हिंदी में गांधी ने जो लिखा है, वो उनके व्यक्तित्व की असली तस्वीर पेश करता है.

ओबीके: वो अंग्रेजी में भी काफी विवादास्पद बातें कर रहे थे, लेकिन फिर भी अगर आप उनके पूरे काम के बारे में नहीं जानते तो आप उन्हें पूरी तरह से नहीं समझ पाएंगे. मैं एक आर्टिकल पर काम कर रहा हूं, जो नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग और गांधी के बारे में है. इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि उन तीनों को काले लोगों के हीरो के रूप में क्यों पेश किया गया. इनमें से कोई मेरा आदर्श नहीं है. हालांकि मैं पूरे अश्वेत समुदाय के बारे में नहीं कह सकता. लेकिन हमारे श्वेत दुश्मनों द्वारा उन्हें हमारे हीरो के रूप में पेश करने के पीछे एक कारण ये है कि “ये लोग हमारे समुदाय के लिए सबसे बेहतर” हैं. साउथ अफ्रीका, अमेरिका और भारत- इन तीनों ही जगहों में अश्वेत लोगों का नरसंहार हुआ है. ये नरसंहार यूएन के नरसंहार की परिभाषा पर आधारित हैं.

लेकिन इन तीनों ने हमें बताया कि इस समस्या का समाधान ये है कि जिन्होंने हमारा नरसंहार किया हम उनसे नजदीकियां बढ़ाएं. पहले, अमेरिका के बारे में हमें बताया जाता है कि हम वहां घुले-मिले नहीं- मतलब एक बार हम इन गोरे दुश्मनों के साथ घुल-मिल जाएं जो हमारा नरसंहार कर रहे हैं तो हमारी परेशानियां समाप्त हो जाएंगी. मार्टिन लूथर किंग हमें बताते हैं कि जो लोग हमें छुरा घोंप रहे हैं, हमारी हत्या, लिंचिंग कर रहे हैं, हमारा नरसंहार कर रहे हैं, इसकी वजह ये है कि हम ठीक से उनके करीब नहीं हैं. ये वैसा ही है कि किसी के पास छुरा है और वो आपको काट रहा है, आपकी छाती में इसे उतार रहा है और आपको उसके करीब जाने को कहा जा रहा है. ये पागलपन की हद है. इसलिए, हमें ऐसा हल दिया जाता है, जो हल है ही नहीं. बल्कि ये तो नरसंहार की समस्या को बढ़ावा देता है.

अब, दक्षिण अफ्रीका में भी इस पर गौर कीजिए. हमें बताया जा रहा है कि समस्या रंगभेद है और रंगभेद के विरोध का चेहरा नेल्सन मंडेला हैं. लेकिन, गोरों से अलग होना हमारा मुद्दा नहीं है, मुद्दा ये है कि हमारा नरसंहार हो रहा है. वहीं, भारत में भी यही बात है, हमें बताया जाता है कि समस्या छुआछूत है, आप हमें नहीं छू सकते, आप हमारे मंदिरों में नहीं आ सकते, आप हमारे टैंक से पानी नहीं भर सकते. समस्या नरसंहार है लेकिन समाधान के तौर पर कहा जाता है कि, “अब आप हमें छून सकते हैं, इसलिए मुंह बंद रखो और किचकिच मत करो” और जाति के सर्वनाश के बजाय छुआछूत समाप्त करने का चेहरा गांधी हैं. लेकिन, समस्या तो नरसंहार है. जिसकी साजिश रचने और अंजाम देने वालों के करीब जाकर इसे हल नहीं किया जा सकता है.

एक बार जब हम समझ जाते हैं कि समस्या नरसंहार है, तो हमें ये जानने की दरकार है कि इन इंडो-आर्यन, इंडो-यूरोपियन का क्या करना है, जो हमाका नरसंहार कर रहे हैं. लेकिन क्योंकि इन्होंने हमारी समस्या का गलत समाधान दिया है, इसलिए तीनों को हमारे गले में बेरहमी से बांध दिया जाता है और बताया जाता है कि ये वो हीरो हैं जिन्हें हमारा आदर्श होना चाहिए. लेकिन ये हमारे हीरो नहीं हैं. अगर हम अपना हीरो चुनते हैं, तो हम मार्कस गार्वी जैसे किसी को चुनेंगे. घाना यूनिवर्सिटी में उनकी मूर्ति कहां है? हम मैंगेलिसो सोबुक्वे जैसे किसी को चुनकर उनका अनुसरण करेंगे.

हमें हमारे किसी विद्वान से सीखने को नहीं मिलता है. हमें सिर्फ गांधी मिलते हैं. अगर आप भारत से कोई मूर्ति देना चाहते हैं, तो हमें अंबेडकर की मूर्ति दीजिए. उनके लेखन से अश्वेत लोग खुद को जुड़ा महसूस कर सकते हैं.

कम्बोन ने कहा, “हमें हमारे किसी विद्वान से सीखने को नहीं मिलता है, हमें गांधी मिलते हैं. अगर आप भारत से कोई मूर्ति देना चाहते हैं, तो हमें अंबेडकर की मूर्ति दीजिए. उनके लेखन से अश्वेत लोग खुद को जुड़ा महसूस कर सकते हैं.” साभार ओबाडेले कम्बोन

सा: नस्लवादी भेदभाव के संदर्भ में भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जाति पर बातीचत का हमेशा विरोध किया है. नस्लवादी और जातिगत भेदभाव में क्या समानताएं हैं?

ओबीके: इनका आपस में संबंध है. [उन] लोगों के लिए जो हिंदू धर्म से बहुत अवगत नहीं है, प्रतीकात्मक लिहाज से, उनके लिए हर जाति का अलग रंग है. ब्राह्मणों का रंग गोरा है, क्षत्रियों का रंग लाल है, वैश्यों का रंग पीला और शूद्रों का रंग काला है. ऐसे में गोरा सबसे ऊपर और काला सबसे नीचे है. आपको यही हिसाब-किताब भारतीय समाज में भी देखने को मिलता है.

डॉक्टर अंबेडकर ने आर्यों के हमले के विचार के खिलाफ बोला. हालांकि, उन आर्यों की एक हिस्सा फौज के रूप में आया था. आपके स्वदेशी लोग हैं जो काफी काले हैं, क्योंकि वो भूमध्य रेखा के करीब हैं. वो उस जीन के बदलाव से नहीं गुजरे जो जारी रहा, जैसा कि जीन SLC24A5 का बदलाव- ये वो महत्वपूर्णा कारक हैं, जो गोरों को गोरा बनाते हैं. सपूर्ण मानव जाति अफ्रीका से आई है, लेकिन हम पाते हैं कि दक्षिण भारत में वो लोग जो कि अभी भी काले हैं, बदलाव से नहीं गुजरे और वो अभी भी भूमध्य रेखा के करीब हैं.

उत्तर भारत में आर्यों के आने से पहले जो लोग वहां थे, वो अभी भी काफी सांवले हैं और ये वो लोग हैं जो जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं. इनमें सबसे छोटी जातियां जैसे कि दलित जो कि वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था में भी नहीं आते और अगर आते भी हैं तो कम शूद्र हैं. ये सांवले होते हैं, जबकि ब्राह्मण गोरे होते हैं. ये सीधे आपस में नहीं जुड़ा है, लेकिन ऐसा ही लगता है. ये त्वचा के रंग में तो दिखाई देता ही है. लेकिन नस्लवाद के व्यवस्थित होने के मामले में ये उससे कहीं आगे तक है.

इंडिया के सभी सीरियलों में हम उन्हें देखते हैं, जिनका रंग गोरों से भी गोरा है. अगर आप बॉलीवुड पर गौर करें तो आपको आदिवासियों का प्रतिनिधित्व नहीं दिखेगा. आपको दलितों का भी प्रतिनिधित्व कतई नहीं दिखेगा. ये आपसी संबंध इतना साफ है कि आपको इसे नहीं पहचानने के लिए पूरी तरह से बेवकूफ होना होगा.

सा: गांधी में आपकी रुचि कैसे पैदा हुई?

ओबीके: 90 के दशक की शुरुआत में मैं अमेरिका के एक जाने-माने इतिहासकार का लेक्चर सुन रहा था. इस अश्वेत इतिहासकार का नाम डॉक्टर जॉन हेनरिक क्लॉर्क था. उन्होंने कहा कि अगर मार्टिन लूथर किंग जूनियर और रिसर्च कर पाते तो वो गांधी को कभी ऐसा नहीं मानते [जिनका अनुसरण किया जा सकता है] क्योंकि गांधी एक नकली आदमी थे, एक धोखेबाज. वो बेहद आपत्तिजनक शब्द थे.

इससे इस विषय में मेरी रुचि जागी. डॉक्टर रुनोको राशिदी नाम की एक इतिहासकार हैं, जो शुरुआती एशिया में अश्वेतों की उपस्थिति की जानकार हैं. बाद में उन्होंने दलितों की दुर्दशा पर बात की. दलित पैंथर्स [1972 की एक जाति विरोधी मुहिम] और ऐसी अन्य चीजों के बारे में भी बात की. उसने मुझे एक गैर-दलित लेखक वीटी राजशेखर की ‘दलित: द ब्लैक अनटचेबल्स’ पढ़ने को प्रेरित किया.

लेकिन इसने मुझे बाबासाहेब अंबेडकर जैसे नामों को लेकर वाकई में बेहद संवेदशील बनाया. मैंने अंबेडकर को पढ़ना शुरू किया, कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या किया, जाति का सर्वनाश. अंबेडकर का मनना था कि हमें जाति को पूरी तरह से मिटा देना चाहिए, जबकि गांधी का मानना था कि आप जाति को मिटाएंगे तो हिंदू धर्म को मिटा देंगे और उनका मानना था कि जाति जैसी चीजों के वैज्ञानिक आधार हैं.

अंबेडकर का मानना था कि जाति एक ऐसी बहुमंजिला इमारत है जिसमें न तो दरवाजे हैं और न ही सीढ़ियां. जहां आप शुरू करते हैं वहीं आपका अंत होता है. उन्होंने इसे ‘आतंक का चेंबर’ करार दिया. ये सब जानकर मुझे लगा कि असल गांधी वो नहीं हैं जैसी उनकी तस्वीर पेश की जाती है. जैसा कि अंबेडकर कहते थे, वो अश्वेतों के दुश्मन हैं.

सा: आपको क्यों लगता है कि गांधी नस्लवादी थे?

ओबीके: उनका बचाव करने वाले कई लोग कहते हैं कि वो एक खास स्थिति में पले-बढ़े, वो बनिया जाति के थे, जो कि वैश्यों की एक उप जाति है. इसका मतलब ये है कि वो चाहे कहीं भी रहे, वो हमेशा इंडो-आर्यों की लड़ाई लड़ रहे थे. ये उनके कहे के मुताबिक ही है. वो अश्वेतों के लिए नहीं लड़ रहे थे.

उनके बचाव में ये भी कहा जाता है कि उन्होंने अपनी युवा अवस्था में नस्लीय बातें कहीं. लेकिन नस्लवाद ओछी बातें कहने के बारे में नहीं है. अगर आप टेलीग्राफ ऑफिस के प्रवेश द्वार पर दरबान की पोस्ट को अलग करने में, जेलों को अलग करने में, जुलू लोगों के खिलाफ युद्ध में उनकी भूमिका को देखें- जहां वो हथियारों, बंदूकों और सैन्य ट्रेनिंग के लिए आंदोलन कर रहे थे-तो आप असली गांधी को पाएंगे, जो युद्ध की वकालत करता है. असली वाला वो नहीं, जिसने झूठ बोलते हुए कहा कि उसका दिल जुलू लोगों के साथ है.

हमें शायद ही मालूम है कि उन्हें इसका भी पता था कि उन्हें जुलू बुलाया जाता है, तब जब गांधी ने उन्हें काफिर करार दिया था, जिसे बाद में गांधी ने स्वीकार किया कि उन्हें पता था कि इसके इस्तेमाल गलत तरीके से होता है. बचाव करने वाले ये भी कहते हैं कि काफिर तब एक अपमानजनक शब्द नहीं था. ऐसे में “जंगली”, “बिना धर्म वाले”, “जनवरों से थोड़ा बेहतर” जैसी बातों का क्या? क्या हिंदी और गुजराती में इनका इस्तेमाल प्यार भरे अंदाज में होता है? मुझे नहीं लगता. एक धोखे जैसी चीज है. उन्हें पता था कि ये आपत्तिजनक है. वो कहते थे कि हम [भारतीय] को “कूली” मत बुलाओ, ये अपमानजनक है. और अगला ही वाक्य होता है, “वहां वो काफिर हैं.”

आपके यहां भारत में गांधी जैसे समकालीन हैं, जैसे कि डॉक्टर अंबेडकर. उन्होंने काले लोगों से नफरत नहीं करने का जादुई तरीका ढूंढा और उन्हें काफिर नहीं कहा. उनके खिलाफ युद्ध नहीं लड़ा. गांधी ने पूना पैक्ट पर दस्तखत करवाने के लिए अंबेडकर को झुकाने का फैसला किया. 1932 का ‘पूना पैक्ट’ गांधी के आमरण अनशन से अंबेडकर को झुकाने का परिणाम था. इससे गांधी ने दलितों को अलग मतदाता बनने या दोहरा वोट पाने से रोका, जो उन्हें पहले दिया जा चुका था. आपने देखा होगा कि दलितों को शहरों के बाहरी हिस्सों में समेट दिया गया है, ताकि वो किसी क्षेत्र में अपना प्रतिनिधित्व करने की स्थिति में न हों. इसके पीछे का विचार मूल रूप से उन्हें कुछ हद तक बराबरी का मौका देने का था. गांधी ने कहा कि वो इन लोगों को इनके हक से वंचित करने के लिए आमरण अनशन करेंगे.

बेचारों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े क्योंकि अंबेडकर को पता था कि उपवास के दौरान अगर गांधी का निधन हो गया तो भारी नरसंहार होगा. दलितों को जिम्मेदार ठहरा कर खून की नदियां बहा दी जाएंगी.

गांधी सिर्फ हिंदुओं को साथ रखना चाहते थे ताकि उनके पास बहुमत हो. इसलिए उन्होंने दलितों का हक मार लिया, वो सिर्फ हिंदुओं के बहुमत को लेकर चिंतित थे, ताकि उन्हें किसी और को सत्ता न सौंपनी पड़े, चाहे ये मुसलमान हो या कोई भी.

सा: आम धारणा यह है कि गांधी अपने पीछे अंहिसा की विरासत छोड़ गए हैं.

ओबीके: पहले तो ये भ्रम दूर किया जाना चाहिए कि गांधी अहिंसक थे. गांधी ने पहले विश्व युद्ध का समर्थन किया, उन्होंने बंबाथा विद्रोह का समर्थन किया. पहले विश्व युद्ध के बारे में उन्होंने कहा, “बिना सैन्य ताकत के स्वराज्य बेकार है.” उन्होंने इसका पुरजोर समर्थन करते हुए लोगों से इसमें शामिल होने का आग्रह किया. हम 1918 की बात कर रहे हैं. बंबाथा विद्रोह के बारे में उन्होंने कहा, “हमें बंदूके चाहिए... हमें सैन्य प्रशिक्षण चाहिए.”

अपने जीवन में उन्होंने जिन बड़े युद्धों का समर्थन किया है, आप उनके बारे में गांधी के अपने दस्तावेज पढ़ सकते हैं. उन्होंने जो किया उसके संदर्भ में ये कितना अहिंसक है? हमें उनके लेखन को बेहद गौर से देखना होगा और ‘इमप्रोपेगांधी’ को दरकिनार करना होगा.

सा: क्या आपको लगता है कि शोषित तबके के प्रतिनिधित्व की कमी इसमें योगदान करती है?

ओबीके: बिडंबना ये है कि हमारे बीच ऐसे लोग हैं, जो प्रोग्रेसिव होने का स्वांग करते हैं. जो खुद को मार्क्सवादी और समाजवादी बुलाते हैं. फिर भी यहां वो सर्वणों के साथ और दलितों के खिलाफ नजर आते हैं. उन्होंने एक ‘गांधी मस्ट स्टैंड’ नाम का पिटिशन भी शुरू किया. ऐसे अश्वेत लोग जो अराजनीतिक हैं और भू-राजनीति से अंजान भी, वो अब दक्षिणपंथी सर्वणों यानी बीजेपी का साथ दे रहे हैं. वो [नरेंद्र] मोदी के साथ हैं. मोदी जो कर रहे हैं वो बिल्कुल गांधी के जैसा है. वो अंहिसा की छवि पेश करते हैं, जबकि हिंसा के समर्थक हैं.

दुनिया भर के अश्वेतों की तरह दलितों की भी अपनी मीडिया होनी चाहिए. हमारे अपने आउटलेट होने चाहिए ताकि हमारी कहानी बाहर आ सके. गांधी की सलाह थी कि दलितों को हिंदुओं के ट्रस्टीशिप के भीतर होना चाहिए. इसकी वजह से एक के बाद एक और फिर उसके बाद निरंतरता से नरसंहार हुए हैं. जो 60 के दशक से आज तक जारी हैं. ऐसे में वो गार्जियनशिप कैसे जाहिर करते हैं? रेप करके, छीन के, लूट के, अंग-भंग करके, लिंच करके और अश्वेत लोगों को जिंदा जला के.

सा: आपके मुताबिक भारत इन मूर्तियों को लोकतंत्र के रक्षक के रूप में खुद को पेश करने के लिए लगवा रहा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके विरोध में अभियान क्यों नहीं चलाया गया है?

ओबीके: जीबी सिंह नाम के एक सिख द्वारा गांधी की मूर्तियों के खिलाफ कई अभियान चलाए गए हैं. उनके पास कई किताबें हैं. उन पर मेरा ध्यान तब गया जब वो हमारे ऊपर इस मूर्ति को थोपे जाने के खिलाफ लड़ रहे थे. उनकी किताब ‘गांधी: बिहाइंड द मास्क ऑफ डिवाइनिटी’ में ऐसी कई बातें हैं.

मुझे भारत से मेरे समर्थन में जो संदेश मिले हैं, उससे साफ है कि ये कोई “भारत बनाम घाना” जैसी बात नहीं है. हमें भारत के निचले तबके के लोगों, सिड्डियों [दक्षिण एशिया में रहने वाला एक अफ्रीकी मूल का जातीय समूह], दलितों और सिखों का भी समर्थन मिल रहा है. हमारा एक ईमेल थ्रेड है, जिसमें ऐसे लोगों का मानना है कि अब समय आ गया है कि ऐसे झूठ पर से पर्दा उठाया जाए, ताकि हमें दिखाई दे सके. अगर हम सच का सामना नहीं करेंगे, तो हम लोगों के बीच शांति स्थापित होने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं.

सा: गांधी के जीवन की एक घटना को बार-बार भारत में बताया जाता है कि कैसे उन्हें अफ्रीका में ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया और कैसे उन्होंने बाद में गोरों के साथ फर्स्ट क्लास में सफर करने की मांग की. आपने अपने इंटरव्यू में इसके खिलाफ बात की है.

ओबीके: ट्रेन की घटना के बारे में कुछ बहुत अच्छा लिखा है जो आपको पढ़ना चाहिए, गांधी अंडर क्रॉस-एक्जैमिनेशन [इसके लेखक जीबी सिंह और डॉक्टर टिम वॉटसन हैं]. [ये बताता है] संभावित ट्रेन वाली घटना 1893 में हुई, लेकिन उन्हें 1909 तक इसका ख्याल नहीं आया. उनके लिए, जिन्होंने मोहनदास करमचंद गांधी के लिखे को इकट्ठा किया और पढ़ा है, मैं उन्हें महात्मा स्वीकार नहीं करता, वैसे ही जैसे कि अंबेडकर ने किया था- उनके साथ जब कभी भी कुछ हुआ, उन्होंने इसे लिखा, अपने छींकने या ठोकर लग जाने की बात लिखी. [कम्बोन गांधी के कामों के 100-वॉल्यूम संकलन का उल्लेख कर रहा है, जिसका शीर्षक द कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी है.]

लेकिन ऐसी मानी जाने वाली घटना के 16 साल बाद तक उन्होंने इसके ऊपर कुछ नहीं लिखा. उन्होंने इस घटना को अपने जीवन में चार बार छापा और हर संस्करण एक-दूसरे से अलग हैं. इस कहानी में कई ऐसी बातें हैं, जिन पर कोई भी ध्यान देने वाला अगर गौर से देखेगा तो खारिज कर देगा.

सा: एक साक्षात्कार में आपने गांधी की तुलना उस ब्रिटिश अधिकारी रेजिनाल्ड डायर से की है जिसने 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग हत्याकांड का नेतृत्व किया था.

ओबीके: गांधी और डायर के बीच मुख्य अंतर एक मौके का है. गांधी को हथियार चाहिए थे, अंग्रेजों को गोली मारने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें, जिन्हें वो काफिर-विद्रोही बुलाते थे. डायर को ये मौका मिल गया और उसने इसका इस्तेमाल जलियांवाला बाग हत्याकांड में किया. उसने वहां मौजूद उन सभी भारतीयों को मार गिराया जो त्यौहार मनाने के लिए वहां आए थे. मैं दोनों में समानता की लकीर खींच रहा हूं: अगर गांधी को भी हथियार मिल जाते, तो उन्होंने भी ठीक वही किया होता जो डायर ने किया. ये भारतीय इतिहास में एक बेहद दर्दनाक बिंदू है.

अब कल्पना कीजिए कि कॉमनवेल्थ के हिस्से के तौर पर अगर हमने कहा होता कि डायर एक अच्छा और ईमानदार आदमी था. फिर ये कहते हुए कि राजनयिक रिश्तों का आधार मूर्तियों को स्वीकार करना होता है, हम डायर की एक मूर्ति भेजते, तो ये आपके मुंह पर तमाचे जैसा होता? पूरा भारत इसके खिलाफ खड़ा हो जाता. हमसे ये उम्मीद की जा रही है कि हम मुंह पर तमाचे को स्वीकार कर लें. गांधी ने अपने लेखन में ये साफ किया है कि उनके पास जितनी गोलिया होतीं वो उतने काफिरों को मार गिराते.

[मूर्ति को लेकर हुए विवाद का जिक्र करते हुए] हाउस के स्पीकर माइक ओक्वाये ने कुछ साल पहले कहा था, “ओह, ये राजनयिक रिश्तों को प्रभावित कर सकता है.” भारत घाना से क्या चाहता है? घाना के पास सोना है, तेल है. हमें इसे भिखारियों के नजरिए से देखना बंद करना होगा और ये सोचना होगा कि भारत हमारे साथ काम क्यों करना चाहता है.

सा: गांधी भारत में बेहद मशहूर हैं और उन्होंने अंग्रजों के खिलाफ लड़ाई तो लड़ी ही है. आखिर कोई इप्रोपेगांधी को दूर करने की कोशिश कैसे करे?

ओबीके: मुझे लगता है कि इमप्रोपेगांधी के खिलाफ सबसे अच्छा हथियार मोहनदास करमचंद गांधी की समूची लेखनी है. उन्होंने अश्वेत लोगों के खिलाफ उठाए गए अपने कदमों को दस्तावेज का रूप दिया है. मुझे लगता है कि उनके अपने शब्द इमप्रोपेगांधी को दूर करने के लिए सबसे अच्छा माध्यम हैं.

अनुवाद: तरुण कृष्ण