"अफ्रीका को अंबेडकर चाहिए गांधी नहीं", घाना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ओबाडेले कम्बोन

21 जनवरी 2019
ओबाडेले बकारी कम्बोन घाना यूनिवर्सिटी में अफ्रीकन स्टडीज के रिसर्च फेलो हैं. वे गांधी के पक्ष में हो रहे प्रचार को ध्वस्त करने की बात करते हैं. उन्होंने इसे “इंप्रोपेगांधी” (इम्प्रोपर प्रॉपगैंडा) नाम दिया है. ये नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि गांधी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाए सवर्ण हिंदुओं के पक्ष में लड़े.
साभार ओबाडेले कम्बोन
ओबाडेले बकारी कम्बोन घाना यूनिवर्सिटी में अफ्रीकन स्टडीज के रिसर्च फेलो हैं. वे गांधी के पक्ष में हो रहे प्रचार को ध्वस्त करने की बात करते हैं. उन्होंने इसे “इंप्रोपेगांधी” (इम्प्रोपर प्रॉपगैंडा) नाम दिया है. ये नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि गांधी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाए सवर्ण हिंदुओं के पक्ष में लड़े.
साभार ओबाडेले कम्बोन

दिसंबर 2018 में घाना यूनिवर्सिटी के छात्रों ने कैंपस में लगी मोहनदास करमचंद गांधी की मूर्ति को हटा दिया. राजधानी अक्रा में स्थित इस मूर्ति का अनावरण भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 2016 में किया था. यहां गांधी मस्ट फॉल मूवमेंट (गांधी को गिरा दो मुहिम) शुरू हुई जिसमें यूनिवर्सिटी के स्टाफ और छात्रों ने गांधी को नस्लवादी बताया और मूर्ति हटाने की मांग की.

कैंपेन के नेताओं में शामिल ओबाडेले बकारी कम्बोन, यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ अफ्रीकन स्टडीज में एक रिसर्च फेलो हैं. उनका दावा है कि इस मूर्ति को लगाने के लिए तय सरकारी नियमों का उल्लंघन किया गया था. कारवां के स्टाफ राइटर सागर से बातचीत में कम्बोन ने गांधी के पक्ष में हो रहे प्रचार को ध्वस्त करने की बात करते हैं. उन्होंने इसे “इंप्रोपेगांधी” का नाम दिया है. ये नाम इसलिए दिया गया है, क्योंकि गांधी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाए सवर्ण हिंदुओं के पक्ष में लड़े. उन्होंने अफ्रीका के अश्वेतों और भारत के दलितों के बारे में गांधी के विचारों की तुलना की. जिस ‘अश्वेत’ शब्द को समुदाय विशेष को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, गांधी द्वारा उसके इस्तेमाल का जिक्र करते हुए कम्बोन ने बताया, “अगर उन्हें मौका मिलता, तो उनके पास जितनी गोलियां होतीं, उतने काफिरों को मार देते.”

सागर:- ‘गांधी मस्ट फॉल मूवमेंट’ की परिकल्पना क्यों की गई और इसे कैसे चलाया गया ?

ओबाडेले कम्बोन: हमें सिर्फ प्रणब मुखर्जी के लेक्चर के बारे में जानकारी दी गई थी, मूर्ति के बारे में नहीं. मैं गाड़ी में था जब मैनें इस मूर्ति को देखा- ये गांधी की थी. मेरा पहला ख्याल यह था कि इन लोगों को नहीं पता कि गांधी कौन हैं? फिर, मैंने अपने फोन से कुछ तस्वीरें लीं और गांधी की 52 शीर्ष नस्लवादी बातों वाला एक मेल भेजा. इसके बाद कैंपस में बातें होने लगीं. हमारे यूनिवर्सिटी स्टाफ में दर्जनों लोग इस बारे में बात कर रहे थे. बहुत से लोगों ने कहा, “हमें पता नहीं था, हमने बस फिल्म देखी है, हमें लगा वो महान थे. ये आश्चर्यचकित करने वाली बात है.” कुछ-एक ने कहा, “मैंने फिल्म देखी थी. वह बहुत अच्छी थी. वे सच में महान होंगे.” मैं इसे विचार की असंगति की तरह देखता हूं. क्या होता है कि जब लोगों का सामना किसी नई जानकारी से होता है, जो उनकी धारणाओं से मेल नहीं खातीं तो वे इसे सही ठहराने लगते हैं या खारिज या अनदेखा कर देते हैं, क्योंकि इससे उनके भीतर तनाव और असहजता पैदा होती है.

तब के वीसी ने बातचीत के दौरान एक ईमेल में जवाब दिया. संभवत: वो ही थे, जिन्होंने मूर्ति लगवाने की अनुमति दी थी. ये अकादमिक बोर्ड या बाकी के आम नौकरशाही चैनल के माध्यम से नहीं हुआ. ये अचनाक से कैंपस में आ गया. इसके लिए अफ्रीकन स्टडीज या इतिहास वालों से कोई राय नहीं ली गई थी. इन्हें पता है कि अफ्रीका के मामले में गांधी क्या हैं? ईमेल में उन्होंने कहा कि उन्होंने सोचा था कि जब वो बूढ़े हो गए थे तो गांधी बदल गए थे. इसके बाद मैंने एक और ईमेल भेजा. मैंने दलितों पर उनके अत्याचार के बारे में बताया कि कैसे वे उन्हें “हरिजन” बुलाते थे. जिसका मतलब “देवदासियों की नाजायज संतान” होता है. पहली बार इसका इस्तेमाल सन 1400 में कवि नरसिंह मेहता द्वारा किया गया था. ये बिल्कुल साफ है कि दलित इस शब्द को पसंद नहीं करते.

सागर कारवां के स्‍टाफ राइटर हैं.

Keywords: Nelson Mandela MK Gandhi Mohandas Karamchand Gandhi BR Ambedkar University of Ghana, caste atrocities Narendra Modi Scheduled Castes caste relations Martin Luther King
कमेंट