28 जून को दिल्ली जल बोर्ड की एक इंटरसेप्टर सीवेज परियोजना में काम कर रहे तीन सफाई कर्मचारियों की मौत हो गई. इस घटना के कुछ हफ्ते बाद, बोर्ड ने दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में सीवर सफाई कर्मचारियों के लिए एक कार्यशाला का आयोजन किया. इस आयोजन में, दिल्ली के मुख्यमंत्री और बोर्ड अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की कि सरकार सीवर की सफाई के लिए सुरक्षा उपाय उपकरण प्रदान करेगी. उन्होंने कहा, “कृपया लापरवाह मत बनिए. आप सभी को सुरक्षा उपकरण मुफ्त में दिए जा रहे हैं और मैं उम्मीद और भरोसा करता हूं कि हमें भविष्य में कम से कम दिल्ली में सीवर साफ करते हुए होने वाली मौतों के बारे में नहीं सुनना पड़ेगा."
लेकिन मुख्यमंत्री ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि हाथ से मैला उठाने की प्रथा और बिना सुरक्षात्मक उपकरणों के सीवर की सफाई का काम गैरकानूनी होते हुए भी आखिर क्यों यह राष्ट्रीय राजधानी में जारी है? इसके बजाय उन्होंने मृतक सफाई कर्मियों की कथित लापरवाही पर केंद्रित रह कर अपनी बात रखी.
दिल्ली में प्रतिदिन लगभग 10 हजार टन कचरा पैदा होता है. इसके निपटान का जिम्मा राजधानी के ही हाथ से मैला ढोने वालों और सीवेज कर्मियों का होता है. ये कर्मचारी मुख्य रूप से वाल्मीकि समुदाय से आते हैं जो दलितों की एक उपजाति है. सफाई कर्मियों के कल्याण के लिए बने संवैधानिक निकाय राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अनुसार पिछले दो वर्षों में दिल्ली में सीवर की सफाई करते हुए 38 लोगों की मौत हुई है. इनमें से कुछ मौतों के लिए राज्य सरकार के निकाय, लोक निर्माण विभाग और डीजेबी जिम्मेदार हैं.
दिल्ली में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी ने सीवर-सफाई मशीनों के आवंटन सहित कई सारी योजनाओं की घोषणा की है. इसके चलते इस पार्टी को हाथ से सीवर साफ करने की व्यवस्था को खत्म करने के लिए समर्पित पार्टी के रूप में पहचान बनाने में मदद मिली. लेकिन राष्ट्रीय राजधानी की सभी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह, केजरीवाल सरकार भी अपने सीवर सफाई के वादे को पूरा करने में विफल रही. हाथ से मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ काम करने वाले मानवाधिकार संगठन, सफाई कर्मचारी आंदोलन के प्रमुख बेजवाड़ा विल्सन ने मुझे बताया, “दिल्ली सरकार को मैला ढोने वालों की कोई परवाह नहीं है. हमेशा ही किसी की मृत्यु हो जाने के बाद वह नई योजना की घोषणा करती है और उनकी दुर्दशा को लेकर चिंतित रहने का ढोंग करती है.” दरअसल, सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने बार-बार हाथ से मैला ढोने वालों का समर्थन हासिल होने का दावा किया है. विल्सन ने बताया कि केजरीवाल ही नहीं बल्कि हर थोड़े महीनों में कोई सरकारी प्राधिकरण हाथ से मैला उठाने वालों की मदद करने की बात "नए जोश के साथ" करता है.
हाथ से मैला ढोने का मतलब सीवेज और मलमूत्र की हाथ से सफाई करना है. ऐतिहासिक रूप से यह जाति-आधारित व्यवसाय है जो भारत में दलित समुदाय के हिस्से है. अंग्रेजों ने नगर निकायों जैसे सरकारी निकायों में हाथ से मैला ढोने वालों के लिए आधिकारिक पद सृजित कर और विशेष रूप से इस काम के लिए दलितों की भर्ती कर इसे कानूनी वैधता प्रदान की. स्वतंत्रता के बाद, सरकार ने हाथ से मैला ढोने वालों की दुर्दशा की जांच के लिए कई समितियों का गठन किया. इन समितियों ने समय-समय पर हाथ से मैला ढोने वालों की कार्य स्थिति में सुधार की सिफारिशें कीं. लेकिन लगभग पचास सालों तक, उनके निष्कर्ष किसी ठोस कानून में तब्दील नहीं हो पाए. भारत में अधिकांशत: सीवेज की समुचित व्यवस्था न होने के चलते यह प्रथा देश भर में अभी भी प्रचलित है. यहां तक कि कार्यात्मक सीवेज व्यवस्था वाले क्षेत्रों में भी लोगों को जान जोखिम में डाल, निर्माण या सफाई उद्देश्यों से जहरीले सीवर और सेप्टिक टैंक में उतरने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
1993 में सरकार ने मैला ढोने वालों को रोजगार और शुष्क शौचालयों का निर्माण (निषेध) अधिनियम पारित किया, जिसने इस प्रथा को गैरकानूनी और दंडनीय बना दिया. लेकिन कम से कम बीस साल तक इस कानून के तहत कोई सजा नहीं हुई. 2003 में, सफाई कर्मचारी आंदोलन तथा कई अन्य नागरिक अधिकार संगठनों और हाथ से मैला ढोने वालों ने सामूहिक रूप से सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की. याचिका में कानून को सख्ती से लागू करने की मांग की गई और कई केंद्रीय एवं राज्य सरकार के संगठनों को अधिनियम के उल्लंघनकर्ता के रूप में नामित किया गया. इनमें दिल्ली सरकार भी शामिल थी जिसने राजधानी में हाथ से मैला उठाने वालों की व्यापक मौजूदगी के बावजूद 2010 तक कानून की पुष्टि नहीं की थी.
संसद ने हाथ से मैला उठाने वालों के रूप में रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 पारित किया, जिसने 1993 के अधिनियम के दायरे का विस्तार किया. साथ ही इस प्रथा के अंतर्निहित जातिगत भेदभाव की भी पहचान की. 2013 के अधिनियम के अनुसार, कोई भी व्यक्ति, स्थानीय प्राधिकारी या कोई एजेंसी "सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई के खतरनाक काम के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, किसी भी व्यक्ति को संलग्न या नियोजित नहीं करेगी." इसमें "सफाई के खतरनाक काम" को परिभाषित किया गया है यानी निर्धारित सुरक्षा सावधानियों के बिना की गई ऐसी गतिविधियां. लेकिन कम से कम जुलाई 2018 तक हाथ से मैला उठाने का काम करवाने के लिए 2013 के कानून के तहत किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया था.
दिल्ली नगर निकायों की संस्थागत उदासीनता के साथ-साथ मीडिया की उदासीनता ने भी सफाई कर्मचारियों के दुख-तकलीफ में इजाफा ही किया है. 2014 और 2018 के बीच, सफाई कर्मचारियों ने नगरपालिकाओं द्वारा बकाया भुगतान न किए जाने पर राजधानी में कई हड़तालें कीं. पिछले साल सितंबर और अक्टूबर में हुई सबसे लंबी हड़ताल के दौरान हजारों कर्मचारियों ने मांग की कि पूर्वी दिल्ली नगर निगम अपने बकाए का भुगतान करे और संविदाकर्मियों को नियमित करे.
मीडिया ने बड़े पैमाने पर इन हड़तालों को कवर किया. लेकिन हड़ताल के कारणों के बजाय हड़ताल के कारण पैदा हुए स्वच्छता संकट पर ही मीडिया ने अपना ध्यान केंद्रित रखा. दिल्ली के कुछ निवासियों ने मांग की कि कर्मचारी इस "उपद्रव" को हल करें. उत्तरी दिल्ली नगर निगम के खिलाफ फरवरी 2016 की हड़ताल के बाद, इसके आयुक्त, पीके गुप्ता ने भी इसी तरह का जवाब दिया था. जिसमें उन्होंने कहा कि अगर कर्मचारी फिर से अपना काम शुरू नहीं करते तो उनके नाम "उपद्रव" फैलाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में भेजे जाएंगे.
इस बीच, दिल्ली सरकार के दो निकाय- डीजेबी और पीडब्ल्यूडी अपने काम के दौरान अपने सफाई कर्मचारियों की मौत का बार-बार गवाह बनते रहे. 22 अगस्त 2017 को दिल्ली सरकार के लोक नायक अस्पताल में एक सीवर लाइन की सफाई करते समय एक अधेड़ व्यक्ति ऋषि पाल की मृत्यु हो गई. वे पिछले 35 दिनों में दिल्ली की नालियों की सफाई करते हुए मरने वाले दसवें व्यक्ति थे. पीडब्ल्यूडी ने मामले की जांच अनिवार्य कर दी. जांच रिपोर्ट के अनुसार, सीवर लाइनों की सफाई के लिए जिम्मेदार इंजीनियरों ने कहा कि पाल अपने सुपरवाइजरों के आदेशों के बिना सीवर लाइन में घुसा था. रिपोर्ट में कहा गया है कि पाल ने उस सीढ़ी तक का इंतजार नहीं किया जिसे उनके सहयोगी ला रहे थे और सिर्फ एक सुरक्षा रस्सी के सहारे ही मैनहोल में घुस गया. जांच में पाया गया कि उप-विभागीय स्टोर में उचित सुरक्षा उपकरण नहीं थे. मैनहोल को भी नगर निगम के डिजाइन के अनुसार नहीं बनाया गया था. पुलिस ने मामले में मजदूरों और प्रबंधन के बीच के एक मध्यस्थ को गिरफ्तार कर लिया लेकिन जल्द ही उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया.
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि पाल को नियुक्त करने वाली एजेंसी के सुपरवाइजर महेश ने पूछताछ के दौरान कहा था कि घटना के समय मृतक कर्मचारी नशे में था. किसी और ने उनके दावे की पुष्टि नहीं की और घटना के दौरान मौजूद एक अन्य सफाई कर्मचारी ने इससे इनकार किया है. लेकिन जांच रिपोर्ट ने महेश के दावे पर भरोसा किया और इसके निष्कर्षों में उल्लेख किया, "ऐसा लगता है कि वह शराब के प्रभाव में थे." इन बयानों के आधार पर, पीडब्ल्यूडी के पास ऐसे कोई सबूत नहीं हैं जिनसे यह पुष्टि होती हो कि पाल नशे में थे. 32 वर्षीय सफाई कर्मचारी मुनीश दास, जो इस मामले में शामिल नहीं हैं, ने मुझसे इस बारे में बात की कि सफाई कर्मचारी अपने काम के दौरान शराब का सेवन क्यों करते हैं. वह बताते हैं, "ऐसा नहीं है कि हम पीकर जाना चाहते हैं. लेकिन ऐसा किए बिना जाना असंभव है. यह काम कोई और नहीं करेगा. पीकर ही इस काम किया जा सकता है. ”
दिल्ली सरकार ने लोक नायक अस्पताल मामले के बाद ही इन सिलसिलेवार मौतों का जवाब दिया. वास्तव में, जैसा कि विल्सन ने मुझे बताया था, सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि वह मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए जागती है और नुकसान हो जाने के बाद ही कदम उठाती है. पाल की मृत्यु के कुछ दिनों बाद, दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर अनिल बैजल ने दिल्ली सरकार के अधिकारियों और संबंधित एजेंसियों के साथ एक बैठक की अध्यक्षता की. बैठक के बाद, दिल्ली के समाज कल्याण मंत्री, राजेंद्र पाल गौतम ने मीडिया को बताया कि “किसी भी व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में सीवर सफाई के लिए नाले के अंदर जाने की अनुमति नहीं दी जाएगी. इस पर पूर्ण प्रतिबंध होगा.” फिर भी, दो साल बाद, केजरीवाल इस फैसले से पीछे हटते नजर आए, जब उन्होंने तालकटोरा स्टेडियम में अपने भाषण के दौरान घोषणा करते हुए कहा कि सरकार सीवर की सफाई के लिए मुफ्त सुरक्षा उपकरण वितरित करेगी.
उस बैठक में, राज्य सरकार ने दिल्ली भर में सीवरों की सफाई के लिए एक यंत्रीकृत प्रणाली शुरू करने का निर्णय लिया. फरवरी 2019 के अंतिम सप्ताह में केजरीवाल ने सीवर-सफाई मशीनों से लैस 200 वाहनों के बेड़े को हरी झंडी दिखाई. लेकिन तब से, दिल्ली के सीवर में कम से कम पांच लोगों की मौत हो गई है.
मशीनीकृत वाहनों का इस्तेमाल भी जाति-आधारित व्यावसायिक पदानुक्रमों को नहीं तोड़ता है. डीजेबी द्वारा इस परियोजना के बारे में उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार, इन मशीनों को प्राप्त करने के लिए प्राथमिकता का क्रम इस प्रकार है : हाथ से मैला ढोने वाले मृतक के आश्रित परिजन, सफाई कर्मचारी, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्य और फिर अन्य व्यक्ति. वास्तव में, भले ही यह योजना सफल हो, लेकिन राजधानी में स्वच्छता का काम दलित समुदाय के हिस्से में ही रहेगा. विल्सन ने कहा, “वे वाल्मीकि समुदाय को वश में रखना चाहते हैं. उन्हें वैकल्पिक प्रावधान क्यों नहीं दिया जा सकता? या कानून के प्रावधानों के अनुसार पुनर्वास क्यों न किया जाए? ”
जहां केजरीवाल इस परियोजना का चेहरा बन गए हैं, वहीं दिल्ली सरकार को अब इस परियोजना में सीमित भागीदारी मिली है. दिल्ली सरकार इन मशीनों को खुद नहीं देती है. डीजेबी निविदा जारी करती है, जिसके बाद एक बोली प्रक्रिया शुरू होती है. दलित समुदाय के सदस्यों के बीच उद्यमशीलता को बढ़ावा देने वाले एक संगठन, दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री, चयनित बोलीदाताओं को सलाह देने के लिए जिम्मेदार है. कथित रूप से चयनित बोलीदाता को वाहन खरीदने के लिए, केंद्र सरकार की स्टैंड अप इंडिया योजना के माध्यम से भारतीय स्टेट बैंक से 40 लाख रुपए का कर्ज लेना पड़ता है. कुल राशि में से दस प्रतिशत का अग्रिम भुगतान किया जाना होता है.
यह योजना बोलीदाताओं के लिए भी आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं है. विल्सन ने बताया कि हाथ से मैला उठाने वाला एक कर्मचारी 40 लाख का कर्ज कैसे लेगा? “यह संभव नहीं है.” केंद्र सरकार के एक गैर-सरकारी स्वामित्व वाले राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त और विकास निगम के एक अधिकारी ने एक अन्य नीति पर टिप्पणी करते हुए इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि संगठन ने व्यक्तिगत रूप से हाथ से मैला ढोने वालों और स्वसहायता समूहों को कर्ज देने की कोशिश की थी. "लेकिन यह पाया गया कि 20 लाख रुपए तक का कर्ज लेना तक कर्मचारियों के बूते के बाहर की बात है."
विल्सन के अनुसार, 200 वाहन पूरी दिल्ली को कवर करने के लिए पर्याप्त नहीं होंगे. इसके अलावा, योजना शुरू होने के सात महीने बाद भी यह स्पष्ट नहीं है कि सभी 200 वाहन काम कर रहे हैं. समाचार वेबसाइट न्यूजलांड्री की जून 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, कुछ कर्मचारियों ने कहा कि 200 मशीनों में से केवल 77 ही चालू थीं. अगस्त की शुरुआत में एक सफाई कर्मचारी ने मुझे बताया, "मैंने सुना है कि इनमें से सिर्फ 34 मशीनें चालू हैं."
परियोजना से जुड़े अधिकारियों की प्रतिक्रियाओं ने इस मामले पर और सवाल खड़े कर दिए हैं. डीजेबी के इंजीनियर भूपेश कुमार और वीके ग्रोवर के अनुसार, जिन्होंने वाहन को डिजाइन किया था और अब परियोजना की देखरेख कर रहे हैं, सभी वाहनों को बोली लगाने वालों को आवंटित किया गया है. ग्रोवर ने कहा, "काम तो बहुत बढ़िया चल रहा है, सारी गाढ़ियां निकल चुकी हैं."
लेकिन, डिक्की के बैंकिंग और वित्त प्रभाग के राष्ट्रीय प्रमुख मंजुल कुमार ने बताया, “मैं कहूंगा कि लगभग 75 प्रतिशत प्रक्रिया पूरी हो चुकी है. शेष प्रक्रिया में है और यह पूरा होना चाहिए.” समाज कल्याण मंत्री, गौतम की मीडिया प्रभारी सविता आनंद ने कहा,“ मतलब, अभी सभी को काम पर नहीं लगाया गया है, उसकी प्रक्रिया चल रही है. अभी 200 पूरी होने वाली हैं.” मैंने इस योजना में मददगार रहे आप नेता और ईडीएमसी में नेता प्रतिपक्ष रोहित मेहरौलिया से आवंटित किए गए वाहनों की संख्या में विसंगति के बारे में पूछा. महरौलिया ने बताया, "सरकार की तरफ से सब कुछ स्पष्ट है. जो भी है वह बैंक की तरफ से हैं." उन्होंने कहा, "कुछ ऋणों को मंजूरी नहीं मिल रही है और ऐसा इसलिए है क्योंकि कुछ लोगों के पास अपेक्षित दस्तावेज या इसी तरह के कुछ अन्य दस्तावेज नहीं है."
विल्सन ने चयनित हुए बोलीदाताओं का विवरण प्राप्त करने के लिए एक आरटीआई भी दायर की थी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. उन्होंने कहा, "हम दिल्ली में मर चुके लोगों की संख्या को कई बार अरविंद केजरीवाल के पास भेज चुके हैं, लेकिन जब कोई ताजा मामला आएगा, तो बहुत बड़ा राजनीतिक रोना होगा, वह तुरंत आएंगे और कोई घोषणा कर देंगे." आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने और नागरिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की केजरीवाल की बयानबाजी उनके कामों में नहीं दिखाई देती है. जैसा कि कारवां में भी 1 अप्रैल 2019 को प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है.
दिल्ली सरकार ने पुनर्वास के लिए पहला कदम यानी हाथ से मैला ढोने वालों की पहचान का काम हाल ही में पूरा किया हैं. 2013 का अधिनियम किसी भी नगरपालिका को अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर हाथ से मैला उठाने का काम किए जाने का संदेह होने पर ऐसे लोगों की पहचान करने के लिए सर्वेक्षण कराने को अनिवार्य बनाता है. अधिनियम में सर्वेक्षण में नामित हाथ से मैला ढोने वालों, और स्वयं नगरपालिका से संपर्क करने वाले हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास के विभिन्न उपाय बताए गए हैं. पिछले साल, नगरपालिकाओं ने सर्वेक्षण किया था और हाथ से मैला उठाने वाले 32 लोगों की पहचान की थी. 2017 में किया गया एक सर्वे ऐसे एक भी कर्मचारी की पहचान करने में असफल रहा था. सरकार ने खुद स्वीकार किया था कि यह संख्या "बहुत ही कम है." सफाई कर्मचारी आंदोलन की पुनर्वास और मुआवजे के मुद्दों की प्रभारी मानसी तिवारी के अनुसार, सर्वेक्षण शहरी केंद्रों में आयोजित किए जाते हैं और बहुत ही खराब ढंग से किए जाते हैं. उसने कहा "बहुत से लोगों के पास पंजीकरण के लिए पैसा, समय या ऊर्जा नहीं है."
हाथ से मैला उठाने वाले प्रवासी मजदूरों की स्थिति ज्यादा बदतर हैं, क्योंकि उनका कार्यस्थल उनके जन्म स्थान से अलग होता है जिसके चलते उन्हें अक्सर इन सर्वेक्षणों में शामिल ही नहीं किया जाता. उनके लिए राज्य-सहायता प्राप्त करने की संभावना भी बहुत कम होती है. तिवारी ने मृतक के परिवार का जिक्र करते हुए कहा, "जब भी कोई मौत होती है और वह व्यक्ति दिल्ली से नहीं होता है, तो वे सिर्फ शव लेते हैं और चले जाते हैं. उनके जाने के बाद उन्हें ढूंढना बेहद मुश्किल होता है." जुलाना से एक प्रवासी सफाई कर्मचारी दासा ने कहा, “हम दुआ करते हैं कि हमें कुछ काम मिले. मुझे पता है कि ज्यादातर लोग काम के बारे में कोई शिकायत नहीं करेंगे क्योंकि हमें घर भी तो पैसा भेजना है. कुल मिलाकर कोई सुरक्षा नहीं है. ”
यदि सीवर की सफाई करते समय परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाती है, तो मुआवजा पाना भी आसान नहीं है. मृतक का परिवार सरकार से 10 लाख रुपये का हकदार होता है. लेकिन परिवार को मुआवजा प्राप्त हो इसकी शर्तों की सूची बहुत लंबी है. 45 वर्षीय महिला मंजू, जिनके पति की जुलाई 2008 में मृत्यु हो गई, ने कहा कि उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला है. “मेरे बच्चों के पास नौकरी नहीं है. हाल ही में मेरी भी नौकरी छूट गई. ”
2013 के अधिनियम ने संबंधित स्थानीय अधिकारियों, राज्य या केंद्र सरकार की योजनाओं के अनुसार, हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास की एक बहु-आयामी विधि भी बताई. पहचान किए गए व्यक्ति की इच्छा और पात्रता के आधार पर, उन्हें एक आवासीय भूखंड आवंटित किया जाएगा; एक बार नकद सहायता दी जाएगी; उनके बच्चे छात्रवृत्ति के हकदार होंगे और उन्हें या उनके परिवार के एक वयस्क सदस्य को आजीविका कौशल का प्रशिक्षण दिया जाएगा.
इस साल जून के अंत में ही केजरीवाल की अगुवाई वाली कैबिनेट ने हाथ से मैला ढोने वाले 45 लोगों के लिए पुनर्वास योजना को मंजूरी दे दी थी. इस योजना में 40 हजार रुपए की एकमुश्त नकद सहायता और रियायती ब्याज दरों पर 15 लाख रुपए तक के ऋण शामिल थे. इस योजना ने महज 2013 के अधिनियम को लागू किया- और वह भी केजरीवाल के सत्ता में आने के लगभग पांच साल बाद.
जबकि विल्सन ने पुनर्वास योजनाओं की आवश्यकता पर जोर दिया, लेकिन उन्हें केजरीवाल और उनकी नीतियों पर संदेह था. केजरीवाल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, "वह आएंगे, कोई योजना की घोषणा करेंगे और सभी खुश हो जाएंगे. मीडिया कभी यह जानने की कोशिश नहीं करता कि इन घोषणाओं का आगे क्या हुआ. वह कभी इन योजनाओं की जांच नहीं करता."