उत्तर प्रदेश में कुआनो नदी के एक तरफ संत कबीर नगर जिला पड़ता और दूसरी ओर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का गृह जिला गोरखपुर. 25 अप्रैल को सुरेंद्र साहनी उन कुछ मल्लाहों में से थे जो अपनी नावों में सब्जियों की फेरी लगा कर गोरखपुर की तरफ बेचने जा रहे थे. नोवेल कोरोनावायरस के चलते हुए लॉकडाउन से उत्तर प्रदेश में निषाद समुदाय, जो परंपरागत रूप से मछली पकड़ने और नदियों पर केंद्रित अन्य काम से जुड़ा था, रोजी कमाने के लिए संघर्ष कर रहा है.
दोपहर करीब 1 बजे गोरखपुर की तरफ वाले किनारे पर पुलिसवाले आ गए. साहनी ने बताया, ''पुलिस ने हमें किनारे पर बुलाया. जब उन्होंने हमें बुलाया तो किनारे पर खड़ा एक लड़का डर गया और भागने लगा. पुलिस उसे गाली देने लगी. जब मैं अपनी नाव के साथ किनारे पर पहुंचा, तो मैंने उनसे पूछा कि क्या हुआ लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं बताया.” पुलिस वाले आधे घंटे बाद जेसीबी मशीनों के साथ आए "और हमारी 8 नावें ले ली." साहनी ने कहा कि जब पुलिस नावों को ले जा रही थी तो कुछ नावें टूट गईं. उन्होंने बताया कि “वे गोरखपुर में सिकरीगंज पुलिस स्टेशन तक नावें ले गए. मेरा गांव संत कबीर नगर जिले के बसवारी में है.''
मैंने सिकरीगंज थाने के स्टेशन हाउस अधिकारी जटाशंकर से बात की. उन्होंने कहा कि कोरोनावायरस बीमारी का एक मामला सामने आने के बाद संत कबीर नगर जिले की सीमा को सील कर दिया गया था. “ये लोग लोगों को एक किनारे से दूसरे किनारे ले जा रहे थे. हमने उन्हें चेतावनी दी, लेकिन वे नहीं माने.” जटाशंकर ने बताया कि सब्जी बेचने पर कोई प्रतिबंध नहीं था. "वे सब्जियां बेच सकते हैं, लेकिन वे लोगों को नदी पार नहीं ले जा सकते." उन्होंने दावा किया कि पुलिस ने कुछ नावों को वापस कर दिया है और जल्द ही बाकी नावों के मालिकों को भी बुलाकर उन्हें वापस कर दिया जाएगा.
लेकिन साहनी ने बताया कि मल्लाह लॉकडाउन के दौरान पैसे कमाने के लिए सब्जियां बेचने की कोशिश कर रहे थे और वे नदी पार गए बिना ऐसा नहीं कर सकते थे. साहनी ने कहा, "यहां हर मल्लाह नदी के आसपास 50 बीघा जमीन पर खेती करता है और सब्जियां उगाता है, जिसे हम नदी के दोनों तरफ सिकरीगंज बाजार में बेचते हैं. अब नावें टूट गई हैं और इसकी मरम्मत के लिए हमें हजारों रुपया खर्च करना होगा. इस समय पैसा कहां मिलेगा?”
मैंने संत कबीर नगर निर्वाचन क्षेत्र के सांसद भारतीय जनता पार्टी के प्रवीण निषाद से इस बारे में बात करने के लिए फोन किया. उनके पिता संजय निषाद ने 2016 में निषाद पार्टी की स्थापना की थी और बाद में बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया था. प्रवीण निषाद ने मेरे फोन का जवाब नहीं दिया.
"निषाद," उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत सूचीबद्ध एक जाति समूह है. इस जाति समूह के भीतर मल्लाह, बिंद, मांझी, केवट, कश्यप, तुरहा, मझवा, बाथम तथा कई अन्य जातियां और उपजातियां शामिल हैं. ओबीसी के रूप में वर्गीकृत यह समुदाय मुख्य रूप से मछली पकड़ने और नाव चलाने का काम करता है और साथ ही नदी किनारे सब्जी और फलों की खेती करता रहा है. इस काम के अलावा ग्रामीण उत्तर प्रदेश का निषाद समुदाय बालू खनन और दिहाड़ी मजदूरी का काम करता है और समाज के बहुत से लोगों को काम की तलाश में मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों की ओर पलायन भी करना पड़ता है. राज्य के शहरी क्षेत्रों में निषाद अक्सर धार्मिक पर्यटन और नौका विहार उद्योग में लगे हुए हैं. प्रयागराज और वाराणसी जैसे शहरों में जहां शहर की अर्थव्यवस्था के लिए जल निकाय आवश्यक हैं, निषादों के लिए काम के प्राथमिक केंद्र हैं.
मैंने निषाद समुदाय के लोगों से बात की जिनमें से कईयों ने मुझे बताया कि पूरा समुदाय जातीय उत्पीड़न और सरकारी उपेक्षा के इतिहास के कारण एक अनिश्चित सामाजिक और वित्तीय स्थिति में है. लॉकडाउन के चलते उनकी स्थिति और खराब हो गई है. उन्हें डर है कि वे एक गहरे संकट के कगार पर हैं.
आजमगढ़ के कोतवालपुर गांव के रहने वाले शिव कुमार निषाद कवि हैं. वह अपने गांव में एक चाय की दुकान चलाते हैं. उन्होंने बताया कि निषाद समाज "के पास कोई ठोस काम नहीं है ... यहां, नौकरियों में, व्यापार में और कृषि में मल्लाह समुदाय की उपस्थिति बहुत कम है. निषाद समाज के लोग ज्यादातर दूसरे शहरों में छोटा-मोटा काम करते हैं, जैसे बोझा ढोना, निर्माण मजदूर, छोटे व्यवसायी ... कबाड़ की फेरी लगाना, रिक्शा खींचना, ऑटो चलना आदि. देशव्यापी लॉकडाउन के कारण, उनका काम ठप्प हो गया है. जब तक लॉकडाउन खुलेगा, उनकी स्थिति बहुत खराब हो जाएगी."
शिव कुमार ने कहा कि गांवों में भी निषाद समुदाय छोटे-मोटे काम करते हैं. उन्होंने अपने समुदाय के सदस्यों द्वारा किए जाने वाले कुछ सामान्य कामों को सूचीबद्ध किया: "छोटी दुकानदारी, मछली पकड़ना, खेतिहर मजदूरी, शादी ब्याह में नौटंकी का खेल, फल और सब्जियों की खेती करना, चाय का ठेला चलाना आदि." उन्होंने कहा, "समुदाय आत्मनिर्भर नहीं है. महिलाएं खेतों में कटाई, मड़ाई, बुआई का काम करती हैं लेकिन ये सभी काम प्रभावित हैं. अब वे पुरुष भी वापिस आ गए हैं जो अक्सर दूसरे शहरों में होते हैं और थ्रेसिंग के काम में लगे हुए हैं.''
मैंने आजमगढ़ जिले के नरौली गांव के रहने वाले सौरभ निषाद से बात की, जो फिलहाल अपने गांव में हैं. सौरभ मल्लाह समुदाय के कल्याण के लिए काम करने वाले संगठन एकलव्य वेलफेयर सोसायटी के मीडिया प्रभारी हैं. सौरभ ने बताया कि मछली पकड़ने वाला समुदाय, जिसमें विभिन्न वंचित जातियां शामिल हैं, पूरे देश में हाशिए पर है. उन्होंने कहा, "वर्तमान में, इस समाज के 95 प्रतिशत लोग मजदूरी करके अपनी गुजर-बसर करते हैं. उनका मुख्य व्यवसाय मछली पकड़ना और मछली बेचना और नाव चलाना है." सौरभ ने बताया कि अभी उनके गांव की हालत ऐसी है कि बच्चों सहित परिवार भूखे पेट सो रहे हैं. “लॉकडाउन खुलने के बाद, बारिश आएगी और यह अगले तीन या चार महीनों तक चलेगी. जिससे जीविकोपार्जन हेतु धनार्जन करने वाले साधन बंद पड़ जाएंगे जिसके चलते इनकी स्थिति और भी दयनीय होती चली जाएगी.”
हरिश्चंद बिंद के अनुसार, उनके समुदाय के लिए सबसे महत्वपूर्ण काम “मछली पकड़ना और उसे बेचना है. मछली मारने से ही हम कह सकते हैं कि लगभग 75 प्रतिशत परिवार अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं.” बिंद मिर्जापुर के निवासी हैं. वह निषाद राज सेवा समिति के राष्ट्रीय सचिव हैं और लंबे समय से निषाद आंदोलनों से जुड़े रहे हैं. उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया. “हमारे समाज के पुरुष मछली पकड़ने के काम में लगे हुए हैं, जो वे दिन-रात करते हैं. कुछ रात में मछली पकड़ते हैं और सुबह उसे बेच देते हैं. जो कुछ भी बचता है उसे औरतें सिर पर टोकरी रख फेरी लगाकर बेचती हैं.”
इस काम से उनकी बहुत कम कमाई ही हो पाती है. “मछली की कीमत उनकी गुणवत्ता पर निर्भर करती है”, बिंद ने समझाया. एक किलो छोटी मछली 40 से 50 रुपए के बीच बिक जाती है और बड़ी मछली के 100 से 200 रुपए मिल जाते हैं. लेकिन ज्यादातर छोटी मछलियां ही नदियों में पाई जाती हैं. जो मछुआरे शहरों के करीब या आसपास के हैं, उन्हें तो फिर भी उचित मूल्य मिल जाता है, लेकिन जो दूर हैं उनके साथ ऐसा नहीं हैं. उनके ग्राहक भी उनकी तरह आर्थिक रूप से कमजोर ही होते हैं.
यूपी के निषाद समुदाय के आर्थिक जीवन का धार्मिक पर्यटन से भी गहरा ताल्लुक है, जिसे लॉकडाउन के दौरान बड़ी चोट पहुंची है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में, वाराणसी, गंगा के किनारे स्थित है, और प्रयागराज जिसका पहले नाम इलाहाबाद था नदियों के संगम के किनारे बसा है, दोनों ही जगहों पर निषादों की अच्छी खासी आबादी है.
विनोद निषाद वाराणसी के प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट पर नाव चलाते हैं. वाराणसी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र भी है. मंदिरों के इस शहर के बारे में उन्होंने कहा, "बनारस के नाविकों की स्थिति बहुत खराब है." सरकार उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है. बनारस में 84 घाट हैं और पूरा कारोबार बंद है. हमें यह भी नहीं पता कि यह कब तक चलेगा. मांझी समुदाय (निषाद जाति की ही एक उपजाति) के लोग जो गांवों से यहां नाव चलाने आए हैं, वे बदतर हालत में हैं. सरकार को हमें मछली पकड़ने की अनुमति देनी चाहिए.''
ऋषि निषाद एक नाविक हैं जो प्रयागराज में त्रिवेणी संगम में नाव चलाते हैं और इलाहाबाद नाविक संघ के सदस्य हैं. उन्होंने बताया कि इलाहाबाद में हजारों परिवार अपना जीवन यापन नाव चला कर ही करते है. ''आज इस लॉकडाउन में हम नाविकों की बहुत बुरी हालत है. हमारे यहां पर झूसी, दारागंज, छतनाग, मवैया, सदियां पुर करेलाबाग, सलोरी, रसूलाबाद, महिंद्रा वर, कीडगंज, लवान कला, मोहब्बत गंज, नेवी कला, डीहा सिमराहा, चाडी गांव, बच्चा पूरा, बख्शी शहीद पुर, बलुआ घाट, इमली घाट,अरेल घाट, राजघाट, संगम घाट, किला घाट, मेला मैदान घाट. इन सभी घाटों पर मल्लाह नाव चलाते हैं.'' वह आगे कहते है ''आने वाले महीनों को लेकर यहां पर सभी लोग चिंतित है. ये तो बीत जाएगा आगे क्या होगा. बरसात में काम पूरी तरह बंद हो जाता है.”
नाविक प्रमोद मांझी गंगा निषाद राज सेवा समिति के महासचिव हैं. वह वाराणसी के शिवाला घाट पर रहते हैं. वे लंबे समय से नाविकों के हितों में होने वाले आंदोलनों का नेतृत्व करते रहे हैं. इस हालत में वह बहुत चिंतित हैं. मुझसे बात करते हुए उन्होंने कहा, ''आज मल्लाह समाज रोजी-रोटी के लिए मोहताज है. हम ये भी नहीं कह सकते कि पर्यटन अब कब शुरू होगा. और इसके बाद मल्लाहों के सामने बरसात का मौसम खड़ा है. जिसमें हमारे पास कोई काम नही होता. उस समय हम लोगों का वैसे ही लॉकडाउन रहता है. जिसमें ना हम मछली मारते हैं, ना उस समय सब्जी उपजा सकते हैं, ना बालू निकाल सकते हैं और ना ही नाव चला सकते हैं. यह समाज भूखों मरने के कगार पर है. सरकार को इस बड़ी आबादी के लिए कोई विशेष सुविधा देनी चाहिए.''
बिंद ने बताया कि निषाद समुदाय केवल पानी पर काम के माध्यम से नहीं बल्कि छोटे, संबंधित व्यवसायों के माध्यम से धार्मिक पर्यटन से जुड़ा हुआ है. "हमारे समाज के लोग इन धार्मिक शहरों में छोटी दुकानें भी करते हैं. तीर्थयात्रियों को फूलों की माला बेचते हैं और इसी तरह का अन्य काम करते हैं," बिंद ने कहा. "कुछ लोग टूर गाइड के रूप में भी काम करते हैं और पास के होटल, मठ, मंदिर, रेस्तरां और दुकानों में काम करते हैं."
बिंद ने कहा कि वाराणसी और प्रयागराज में साल भर पर्यटक आते हैं. “लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि इन धार्मिक शहरों में मछली पकड़ने और खेती और खनन पर सरकारी प्रतिबंध है इसलिए आजीविका का एकमात्र साधन नौकायन है. यात्रियों को घाट तक ले जाना ही कमाई का एकमात्र जरिया है.” ज्यादातर पर्यटक सालभर वाराणसी आते हैं, जबकि प्रयागराज में पवित्र "माघ" के महीने में यानी आधा दिसंबर और आधा जनवरी में ही पर्यटक दिखते हैं. बिंद ने कहा कि बाकी पूरे साल प्रयागराज के निषाद समाज को काम के वैकल्पिक साधन तलाशने होते हैं.
वाराणसी में भी, जहां पर्यटक साल भर आते हैं, काम सुरक्षित नहीं है, उन्होंने कहा. “यह काम रोजाना कमाने और खाने जैसा है… यह कुछ स्थायी या सरकारी काम की तरह नहीं है. कभी-कभी, पर्यटक आते हैं, उन्हें काम मिलता है. कभी-कभी उन्हें निराश भी होना पड़ता है.”
बिंद ने कहा कि लॉकडाउन हटने के बाद भी पर्यटन पर असर पड़ता रहेगा. “बीमारी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है और यह लगातार बढ़ रही है, इसलिए मुझे नहीं लगता कि अगले एक या दो महीनों में स्थिति सामान्य हो जाएगी. सामान्य स्थिति होने के बाद भी बारिश का मौसम रहेगा और इस मौसम में क्षेत्रीय पर्यटकों की भीड़ होती है. दूर से लोग कम आते हैं. कुल मिलाकर, इस व्यवसाय से जुड़े लोगों को आने वाले दिनों में काफी संघर्ष करना होगा. ”
लॉकडाउन शुरू होने के बाद से ही बिंद वाराणसी से लगभग 60 किलोमीटर दूर स्थित मिर्जापुर शहर में कई घाटों के आसपास रहने वाले केवट समुदायों के सदस्यों को राहत सामग्री वितरित करने के लिए जाते रहे हैं. उन्होंने कहा, "सैकड़ों परिवार एक समय का खाना खाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ज्यादातर लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है. अगर उनके पास राशन कार्ड हो भी, तो राशन विक्रेता कम राशन देते हैं पूरा राशन नहीं देता है.” बिंद ने कहा कि समुदाय के कुछ लोगों ने घाटों पर खेती की थी लेकिन वे उस जमीन के मालिक नहीं हैं जहां उन्होंने खेती की थी. "इस जमीन पर ज्यादातर उच्च जाति के लोगों ने का कब्जा कर रखा है - यह अवैध कब्जा है- और मल्लाह को खेती के बदले में किराया देना होता है."
इस भूमि पर अधिकतर ककड़ी, खरबूजा, टमाटर, लहसुन, कद्दू और करेला जैसी सब्जियों और फलों की खेती की जाती है. फसलों की बुआई दिसंबर या जनवरी में की जाती है. “अभी फसल बिक्री के लिए तैयार थी लेकिन जब से नावों पर प्रतिबंध लगा है, तो तैयार फसल के बाजार तक पहुंचने का कोई जरिया नहीं है. पूरे परिवार के पास अपनी फसल तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है,” बिंद ने कहा. "हर कोई निराश है क्योंकि उन्हें कुछ भी नहीं मिलेगा- यह पंजीकृत खेती नहीं है. यह कृषि विभाग में पंजीकृत नहीं है इसलिए सरकारी मुआवजा मिलने का भी कोई जरिया नहीं है. अब उन्हें फिर से खेती करने के लिए बाकी साल इंतजार करना होगा जो एक गरीब व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी चुनौती है.”
अगर प्रशासन ने किसानों को कम से कम एक किनारे से दूसरे किनारे जाने की इजाजत दी होती तो वे कुछ पैसे कमा पाते. "सरकार ने सब्जियों की बिक्री और खरीद पर प्रतिबंध नहीं लगाया लेकिन ये केवल कहने की बातें हैं. जमीन पर इसका कोई असर नहीं हैं."
बिंद ने आगे कहा, "नाविक और मछुआरे समाज के लोग आज भी गुलामी भरा जीवन जीने को मजबूर है. आज भी उनका उत्पीड़न बदस्तूर जारी है. उच्च जातियों के लोगों द्वारा आए दिन उनकी मछलियां छिनना, उनसे मारपीट करना उनकी नावें डुबो देना आम बात है. बात यहीं नहीं खत्म होती. प्रशासन के लोग भी ज्यादतियां करते रहते हैं. चाहे बाढ़ के दिनों में जबरदस्ती नाव से बचाव कार्य कराना हो या फिर किसी डूबते हुए को बचाने के लिए उन्हें जबरदस्ती पानी में उतारना हो."
बिंद की यह बात गाजीपुर जिले में घटी एक हालिया घटना से पैदा हुई है जहां पुलिस की कार्रवाई से निषादों की परेशानी बढ़ गई है. चोचकपुर गांव के निवासियों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने गांववालों की 80 छोटी नावों को क्षतिग्रस्त कर दिया और उन्हें डुबोने की कोशिश की और सभी बड़ी नावों को पानी से बाहर खींच निकाला. गांव की ही प्रियंका निषाद बताती हैं कि 17 अप्रैल की शाम को पुलिस वाले गांव में आए थे. उन्होंने मल्लाहों से मछली मांगी लेकिन उन्होंने मछली पकड़ने से मना कर दिया. प्रियंका ने कहा, "अगली सुबह लगभग 8 बजे वे तीन गाड़ियों में आए और हमारी नावों को डुबोना शुरू कर दिया. हमारे यहां दो छोटी नावें हैं. मेरा घरवाला उन नावों से मछली पकड़ने का काम करता है. पुलिसवालों ने उन्हें डूबो दिया. इस बंद में हमारे घर की हालत वैसे भी अच्छी नहीं थी. अब हालत और भी खराब हो गई है.... अब हम क्या करेंगे? "
गांव के ही एक अन्य निवासी ओमप्रकाश निषाद ने कहा, “जब यह सब हमलोगों को पता चला तो हमलोग दौड़कर गए. पुलिस हमारे साथ गाली गलौज करने लगी. सभी की नाव का लंगर खोलने लगी और नावों में छेद कर गंगा जी में डुबोने लगी. मेरी दो नाव थीं. मैं उसी से मछली मार कर अपने परिवार की जिंदगी चलता था. इस लॉकडाउन में हमलोगों की हालत वैसे ही खराब थी. हमारे पास अभी कोई काम भी नहीं है. पता नहीं आगे कैसे होगा. हम अपनी नाव की मरम्मत का पैसा कहां से लाएंगे?”
जब पुलिस नावों को डुबो रही थी उस वक्त राजेश कुमार निषाद अपनी सब्जी की दुकान खोल रहे थे. उन्होंने भी जब इस घटना के बारे में सुना तो वह भी घाट की ओर भागे. “मैंने पुलिस को एक नाव का लंगर को उठाते देखा. मेरे पास एक छोटी सी नाव और एक छोटी सी सब्जी की दुकान है और मैंने नदी के दूसरे पार थोड़ी सी परवल की खेती की है इसी से मैं अपने परिवार का खर्च चलता हूं. मैंने पुलिस वालों से पूछा कि साहब हमारी क्या गलती है. उन्होंने कुछ नहीं बताया और मेरी नाव को पानी में डुबो दिया. मुझको अपनी सब्जी लेने इसी नाव से जाना होता था."
एक अन्य निवासी कैलाश चौधरी के पास भी एक नाव थी जिसे वह मछली पकड़ने के लिए इस्तेमाल करते थे. इसी कमाई से वह अपनी पत्नी और तीन बच्चों का गुजारा चलाते थे. उन्होंने कहा, "इस लॉकडाउन में हमको मछली भी नहीं मारने दी जा रहा है. हमनें पुलिस वालों से कहा साहब कुछ महीनों बाद बरसात आएगी तब आपको हमारी नाव की जरूरत पड़ेगी. आप इसको डुबो रहे है इसमें मिट्टी भर जाएगी और पूरी नाव को खा जाएगी. अब इसकी मरम्मत में हजारों रुपए लग जाएगा.'' चौधरी पूछते हैं, ''मरम्मत का पैसा हमको अब कौन देगा."
मैंने पास के करंडा पुलिस स्टेशन के एसएचओ धर्मेंद्र कुमार पांडे से संपर्क किया. उन्होंने इस बात से इनकार किया कि पुलिस ने नावों को नुकसान पहुंचाया या डुबोया है. “हमने नावों को नहीं डुबोया. प्रशासन का आदेश था कि नाव चलाने की इजाजत नहीं दी जाएगी.” पांडे ने कहा कि पुलिस को खुफिया ब्यूरो से एक रिपोर्ट मिली थी जिसमें कहा गया था कि गांव वाले लॉकडाउन में नदी पार कर रहे थे. उन्होंने दावा किया कि पुलिस इसकी जांच कर रही थी. “हम ग्रामीणों से लिखित में ले रहे हैं कि वे केवल अपने खेतों से सब्जियां लाने, उन्हें देखने और नए पौधों को बोने के लिए जाएंगे. इस सब में वे अकेले अपने खेतों में जाएंगे और सामाजिक दूरी बनाए रखने का पालन करेंगे. अभी तक मछली पकड़ने संबंधी कोई आदेश नहीं मिला है.” भारतीय जनता पार्टी की संगीता बलवंत गाजीपुर से विधायक हैं. वह भी निषाद समुदाय से हैं. मैंने उन्हें कई फोन किए जिनका कोई जवाब नहीं मिला.
बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि आज निषाद समाज अपने आप को जिन परिस्थितियों में पाता है, वह उपेक्षा के लंबे इतिहास का प्रत्यक्ष परिणाम हैं. बिंद ने कहा, "सरकार के पास मछली पकड़ने, खनन और इसी तरह के कामों में लगे लोगों का कोई हिसाब नहीं है." नौकायन-मछली पकड़ने वाले निषाद समुदाय में, "देश के अन्य समुदायों की तुलना में पढ़ाई-लिखाई का स्तर बहुत नीचे है.''
यहां तक कि रेत खनन जैसे व्यवसायों में, जहां निषाद बड़ी संख्या में लगे हैं, उनकी हालत बहुत नाजुक है. बिंद के अनुसार बालू खनन के निजीकरण ने निषाद समुदाय को बहुत नुकसान पहुंचाया है. "देखिए बालू खनन का काम जब तक निषादों के हाथ में था तब तक लोगों को रोजगार जरूर मिल जाता था. लेकिन अभी सरकारों ने यह काम निजी लोगों के हाथों में सौंप दिया है. जिससे मुनाफा कमाने के लिए लोगों ने बड़ी-बड़ी जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. इससे अवैध खनन भी काफी फला-फूला है.''
उन्होंने आगे कहा,''इस अवैध खनन के कारण हर साल कटान तेजी से बढ़ रहा है और निषादों की कई बस्तियां भी बर्बाद हुई हैं." बिंद ने कहा कि खनन के अधिक दबाव ने निषादों के जीवन को खतरे में डाल दिया है. "निषाद समाज के कुछ लोग इन्हीं ठेकेदारों के बड़ी-बड़ी नावों पर बालू लाद कर इस पार से उस पार पहुंचाने का काम जरूर करते थे. लेकिन इस काम में कई बार लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती थी. ओवरलोड होने के कारण नावे पलट जाया करती हैं. लेकिन मरता क्या न करता जीवन निर्वहन के लिए तो कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा.” उन्होंने कहा कि बारिश शुरू होने से पहले फसल का काम भी खनन के साथ होता है. “पिछले साल, सरकारी अनुबंध प्रणाली में बदलाव के कारण खनन नहीं किया गया था. इस बार कोरोनावायरस लॉकडाउन के चलते सब बंद है. ”
सौरभ ने कहा कि निषाद समुदायों में “शिक्षा का स्तर बहुत कम है, जिसके कारण वे बौद्धिक प्रगति करने में असमर्थ हैं. इसलिए वे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से सबसे निचले पायदान पर देखे जा सकते हैं.” वर्तमान में समुदाय एक दिन में दो वक्त के खाने के लिए जूझ रहा है. "सरकारी और निजी क्षेत्र अपना काम कर रहे हैं लेकिन जिस समुदाय के पारंपरिक पेशे इन क्षेत्रों से बाहर हैं वे भूख से मर रहे हैं."
बिंद ने सौरभ की बातों से सहमति जताते हुए कहा कि सरकार की नीतियां इस वंचित समुदाय तक नहीं पहुंचती हैं क्योंकि यह "सरकारी आंकड़ों में नहीं है." उन्होंने कहा, “नदियों के किनारे स्थित अधिकांश मछुआरा समाज हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा है. वे सामाजिक रूप से छुआछूत का शिकार रहे हैं, उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता रहा है. राजनीतिक रूप से यह समाज हमेशा से उपेक्षा का शिकार रहा है जिसके कारण आज भी इसकी स्थिति दयनीय बनी हुई है.”
"आसान शब्दों में कहा जा सकता है कि वे देश के सबसे वंचित लोगों में से हैं. उनका कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति दयनीय है,” बिंद ने कहा. "निश्चित रूप से इस समुदाय के लोग आने वाले दिनों में भुखमरी से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे."