दलित और आदिवासी प्रतिनिधित्व के मामले में अंग्रेजी से बेहतर हिंदी अखबार

05 August, 2019

भारतीय मीडिया में “उच्च जाति के लोगों का आधिपत्य” है- मीडिया वॉचडॉग न्यूजलॉन्ड्री और गैर-सरकारी संगठन ऑक्सफैम इंडिया द्वारा किए गए अध्ययन का यह मुख्य निष्कर्ष है. 2 अगस्त को जारी इस रिपोर्ट का शीर्षक है- “हू टैल्स अवर स्टोरीज मैटर्स: रिप्रजेनटेशन ऑफ मार्जिनलाइज्ड कास्ट ग्रुप्स इन इंडियन न्यूजरूम्स”. इस रिपोर्ट में भारतीय मीडिया में विभिन्न जाति समूहों से आने वाले लोगों के प्रतिनिधित्व का अध्ययन करते हुए इस बात को सूचनाबद्ध किया गया है कि भारतीय मीडिया में महत्वपूर्ण पदों पर कौन लोग बैठे हैं और किसकी आवाज सुने जाने की संभावना सबसे अधिक है. रिपोर्ट बताती है कि भारतीय मीडिया में अनुसूचित जनजाति से आने वाले लोग पूरी तरह नदारद हैं जबकि अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व पत्रकारों के बजाय सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिज्ञों के रूप में अधिक है. रिपोर्ट आगे बताती है कि देश की कुल आबादी का आधे से अधिक होने के बावजूद अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी का प्रतिनिधित्व भी अनुसूचित जाति/जनजाति की तरह ही बहुत कम है.

इस अध्ययन में 6 अंग्रेजी और 7 हिन्दी अखबारों, 11 डिजिटल समाचार समूहों, 12 पत्रिकाओं और 7 अंग्रेजी तथा 7 ही हिंदी टेलीविजन चैनलों पर प्रसारित बहसों के कार्यक्रम को आधार बनाकर रिपोर्टरों, लेखकों, एंकरों और बहसों में हिस्सा लेने वाले पैनालिस्टों की जातिगत पृष्ठभूमि से जुड़े विवरण जुटाए गए. इन सभी की जातिगत पृष्ठभूमि का निर्धारण करने के लिए रिपोर्ट ने अतीत में हुए अध्ययनों, पत्रकारों को भेजी गईं प्रश्नावलियों और मीडिया बिरादरी के विश्वसनीय स्त्रोतों और खुद पत्रकारों के सार्वजनिक बयानों का सहारा लिया. बाकी बचे नामों की जातिगत पृष्ठभूमि के निर्धारण के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय और संघ लोक सेवा आयोग के पिछले सात साल के परिणामों में दर्ज जातियों और उपनामों का सहारा लिया गया. रिपोर्ट में ध्यान दिलाया गया है कि अध्ययन के डेटाबेस में शामिल कुल 10 फीसदी लोगों की जाति का निर्धारण इन तरीकों से नहीं किया जा सका. ऐसे लोगों को “कुछ नहीं कह सकते” की श्रेणी में रखा गया है. इसके अलावा भी क्रिश्चियन, मुस्लिम और पारसी पृष्ठभूमि के पत्रकारों, लेखकों और पैनालिस्टों को “उपलब्ध नहीं” की श्रेणी में रखा गया है.

सौजन्य : ऑक्सफैम इंडिया रिपोर्ट

अध्ययन का निष्कर्ष है कि सर्वेक्षण में शामिल सभी समाचार पत्रों, टीवी चैनलों, समाचार वेबसाइटों के न्यूजरूम में मुख्य संपादक, प्रबंध संपादक और ब्यूरो प्रमुख जैसे कुल 121 निर्णायक पदों में से 106 पदों पर उच्च जाति के पत्रकारों का कब्जा है, जबकि अनुसूचित जाति और जनजाति पृष्ठभूमि का एक भी सदस्य इन पदों पर नहीं है.

जिन अंग्रेजी अखबारों को अध्ययन में शामिल किया गया, उनमें इकोनामिक टाइम्स, हिंदुस्तान टाइम्स, दि हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस, दि टेलीग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया थे. अध्ययन का निष्कर्ष है कि इन सभी अंग्रेजी अखबारों में लगभग 92 फीसदी निर्णायक पदों पर उच्च जाति के लोग बैठे हैं और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.

अध्ययन ने अक्तूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच 6 अखबारों में प्रकाशित 16 हजार से अधिक लेखों की पड़ताल की. इससे पता चला कि इन लेखों में दलित और आदिवासी पृष्ठभूमि के लेखकों द्वारा लिखे गए लेख 5 प्रतिशत से भी कम थे जबकि 62 प्रतिशत से अधिक लेखों को उच्च जाति के लेखकों ने लिखा. इन सभी अखबारों पर किए गए अध्ययन से लगभग 1/5 लेखकों की जातिगत पृष्ठभूमि का पता नहीं लग सका. द इकोनोमिक टाइम्स और द टेलीग्राफ में उच्च जाति के लेखकों ने सबसे ज्यादा लेख लिखे. अध्ययन में जाति आधारित मुद्दों पर लिखने वाले लेखकों की जातिगत संरचना की भी पड़ताल की गई. टाइम्स ऑफ इंडिया और इकोनोमिक टाइम्स द्वारा प्राकशित जिन लेखों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया, उनमें जाति से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाले सभी 100 प्रतिशत लेखक उच्च जाति से थे.

इसके उलट इस मामले में हिंदी अखबारों की स्थिति कुछ बेहतर थी. अध्ययन के लिए चुने गए 7 हिन्दी अखबारों- दैनिक भास्कर, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, पंजाब केसरी और हिंदुस्तान में लगभग 88 फीसदी निर्णायक पदों पर उच्च जाति के लोग काबिज हैं और यहां भी आदिवासी, दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग के पत्रकारों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था. अंग्रेजी अखबारों की तुलना में दलित और आदिवासी पृष्ठभूमि के लेखकों ने हिंदी अखबारों में ज्यादा लेख लिखे. हिंदी अखबारों में ऐसे लेखकों की संख्या 10 प्रतिशत थी हालांकि यहां भी लगभग 60 प्रतिशत लेख उच्च जाति के लेखकों ने ही लिखे. राजस्थान पत्रिका और पंजाब केसरी में प्रकाशित कुल लेखों में 12 प्रतिशत लेख अनुसूचित जाति के लेखकों ने लिखे. इसके अलावा इस मामले में अमर उजाला अपवाद रहा जहां जाति से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाले सभी 100 प्रतिशत लेखक अनुसूचित जाति के थे. हालांकि अध्ययन का निष्कर्ष था कि कुल मिलाकर हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में जाति से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाले आधे से ज्यादा लेखक उच्च जाति समुदायों के थे.

अध्ययन में सीएनएन-न्यूज 18, इंडिया टुडे, मिरर नाऊ, एनडीटीवी 24x7, राज्यसभा टीवी, रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाऊ जैसे 7 अंग्रेजी न्यूज चैनलों की भी पड़ताल की गयी. इन सभी चैनलों में लगभग 89 प्रतिशत निर्णायक पदों पर उच्च जाति के लोग काबिज हैं और यहां भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग से आने वाले पत्रकारों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.

सर्वेक्षण में इन 7 चैनलों में अक्तूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच प्रसारित हुए बहसों के कार्यक्रमों की भी पड़ताल की गई. इन बहसों के 47 एंकरों में से 33 उच्च जाति के थे. अध्ययन का निष्कर्ष है कि इन बहसों में 1 भी एंकर आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग से नहीं था.

सौजन्य : ऑक्सफैम इंडिया रिपोर्ट

इन सभी कार्यक्रमों में 1883 पैनिलिस्टों ने भाग लिया. रिपोर्ट में इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले पैनालिस्टों की जाति संरचना की भी पड़ताल की गई. अध्ययन में पाया गया कि इस लिहाज से राज्यसभा टीवी में सबसे कम विविधता थी जहां 80 प्रतिशत से अधिक बहसों में उच्च-जाति की प्रधानता वाले पैनल थे. अगला स्थान एनडीटीवी 24x7 का था जहां 71.4 प्रतिशत बहसों में उच्च जाति की प्रधानता वाले पैनल थे. सीएनएन न्यूज18 में 68.6 प्रतिशत बहसों में उच्च जाति के पैनलिस्टों ने भाग लिया. कुल मिलाकर इन बहसों में शामिल होने वाले 30 प्रतिशत पैनलिस्ट या तो धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के थे या उनकी जातिगत पृष्ठभूमि का पता ही नहीं चल सका. बाकी पैनालिस्टों में 79 प्रतिशत उच्च जाति और 12 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग से थे. कारोबार और रक्षा क्षेत्रों से जुडी बहसों में उच्च जाति के पैनालिस्टों सबसे अधिक संख्या में रहे.

इसके अलावा इन टीवी चैनलों में राजनीतिक मुद्दों पर बहस के लिए आमंत्रित किए गए लगभग 70 फीसदी पैनालिस्ट उच्च जाति या धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों से थे. रिपोर्ट में कहा गया है, “अगर टीवी स्क्रीन पर नजर आने की संख्या के हिसाब से देखा जाए तो ऐसे पैनालिस्टों की संख्या बढ़कर 80 प्रतिशत तक हो जाती है जिससे पता चलता है कि उन्हें अन्य समूहों के मुकाबले बार-बार आमंत्रित किया जाता है.”

जाति से जुड़े मुद्दों पर भी हाशियाग्रस्त जाति समूहों के सदस्य इन बहसों में प्रमुखता से नजर नहीं आते. राज्यसभा टीवी में जाति से जुड़े मुद्दों पर बहस करने वाले 80 प्रतिशत से भी अधिक पैनलिस्ट उच्च-जाति समुदायों से थे. एनडीटीवी 24X7 में यह संख्या 78.3 प्रतिशत थी, यहां जाति से जुड़े मुद्दों पर बहस करने वाले 11 प्रतिशत से भी कम पैनलिस्ट अनुसूचित जाति और 1 प्रतिशत से भी कम पैनलिस्ट अनुसूचित जनजाति के थे.

इंडिया टुडे में जाति से जुड़े मुद्दों पर बहस करने वाले 53.3 फीसदी पैनलिस्ट उच्च जातियों से जबकि सिर्फ 12.6 प्रतिशत अनुसूचित जाति से थे. हिंदी चैनलों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही रही. इस अध्ययन के लिए चुने गए सभी हिंदी चैनलों- आज तक, न्यूज 18 इंडिया, इंडिया टीवी, एनडीटीवी इंडिया, राज्यसभा टीवी, रिपब्लिक भारत 2 और जी न्यूज में सभी निर्णायक पदों पर उच्च जाति के पत्रकार काबिज हैं. इन 7 चैनलों पर प्रसारित होने वाली सभी प्रमुख बहसों के प्रति 10 में से 8 एंकर उच्च जाति से हैं और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग पृष्ठभूमि का एक भी एंकर नहीं है.

कुल मिलाकर सभी 7 हिंदी चैनलों के जिन 1248 पैनालिस्टों पर सर्वेक्षण किया गया, उनमें लगभग 1/4 की जाति का निर्धारण नहीं किया जा सका अथवा वे धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों से थे. बाकी बचे पैनलिस्टों में 80 फीसदी उच्च जाति से थे.

सौजन्य : ऑक्सफैम इंडिया रिपोर्ट

इस अध्ययन के लिए 11 न्यूज वेबसाइटों को भी चुना गया. इनमें 9 वेबसाइट-फर्स्टपोस्ट, न्यूजलॉन्ड्री, स्क्रोल, स्वराज्य, द केन, द न्यूज मिनट, द प्रिंट, द क्विंट और द वायर अंग्रेजी की और दो वेबसाइट- न्यूजलॉन्ड्री और सत्याग्रह हिंदी की शामिल की गईं. इन सभी संस्थानों में लगभग 80 प्रतिशत से अधिक निर्णायक पदों पर उच्च जाति के पत्रकार काबिज थे. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से आने वाले पत्रकारों की संख्या इन संस्थानों में सिर्फ 5 प्रतिशत से कुछ ज्यादा थी. इसके अलावा रिपोर्ट में बताया गया है कि इन न्यूज वेबसाइटों पर बाइलाइन (नाम से) लिखे गये 72 प्रतिशत लेख उच्च जाति के लेखकों ने लिखे हैं. जिन लेखों का इस अध्ययन में सर्वेक्षण किया गया, उनमें से 4 फीसदी से भी कम लेख अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े पत्रकारों ने लिखे. इसके साथ-साथ जाति से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाले 55 प्रतिशत से भी अधिक लेखक उच्च जाति से थे और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पृष्ठभूमि के लेखक 6 प्रतिशत से भी कम थे.

सौजन्य : ऑक्सफैम इंडिया रिपोर्ट

अंततः अध्ययन में कुल 12 पत्रिकाओं की पड़ताल की गई. जिनमें 10 अंग्रेजी पत्रिकाएं- बिजनेस टुडे, द कैरवैन (कारवां), फेमिना, फ्रंटलाइन, इंडिया टुडे, आर्गनाइजर, आउटलुक, सरिता, स्पोर्टस्टार और तहलका तथा हिन्दी की दो पत्रिकाएं इंडिया टुडे और आउटलुक शामिल थीं. अध्ययन के अनुसार, मीडिया के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले पत्रिकाओं में निर्णायक पदों पर अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों का प्रतिनिधित्व बेहतर है. रिपोर्ट के मुताबिक, इन पत्रिकाओं के लगभग 73 प्रतिशत निर्णायक पदों पर उच्च जाति के लोग काबिज हैं जबकि ऐसे पदों पर अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की संख्या 13.6 प्रतिशत है. हालांकि पत्रिकाओं में भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व पूरी तरह नदारद है. रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि अध्ययन में शामिल इन 12 पत्रिकाओं के आमुख पेज पर आए कुल 972 लेखों में केवल 10 लेख ऐसे थे, जो जाति से जुड़े मुद्दों पर आधारित थे.

रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि यह अध्ययन “इस बात के ठोस साक्ष्य मुहैया कराता है कि भारत में हाशियाग्रस्त जाति समूहों के बड़े हिस्से की मीडिया मंचों और उन विमर्शों तक पहुंच नहीं है जो जनमत का निर्माण करते हैं, जिससे अंततः ऐसे समूह जनमत निर्माण की प्रक्रिया से पूरी तरह गायब हो जाते हैं.”

सौजन्य : ऑक्सफैम इंडिया रिपोर्ट