राजेश राजैामणि एक फिल्म-समीक्षक और निर्देशक हैं. राजमणि ने हाल ही में अपनी दूसरी शॉर्ट फिल्म, दि डिसक्रीट चार्म ऑफ दि सवर्ण, रिलीज की है. यह मुंबई के तीन युवा सवर्णों की कहानी है, जो अपनी फिल्म के एक रोल के लिए "दलित जैसा दिखने वाले व्यक्ति" की तलाश कर रहे हैं. वे सेक्सिज्म, मानसिक स्वास्थ्य और अफ्रीकी-अमेरिकी साहित्य के मुद्दों के बारे में गहराई से जागरूक और सतर्क हैं लेकिन अपने खुद के जातिवाद से पूरी तरह से अनजान हैं. कारवां के एडिटोरियल फेलो अभय रेजी के साथ इंटरव्यू में राजमणि ने फिल्म के निर्माण और भारतीय सिनेमा में जाति का चित्रण कैसे किया गया है इस बारे में बात की और कहा कि जाति के मुद्दों पर चर्चा करते समय सवर्णों को आत्म-आलोचना की जरूरत है.
अभय रेजी : आपने दि डिसक्रीट चार्म ऑफ दि सवर्ण फिल्म बनाने के बारे में कैसे सोचा?
राजेश राजमणि : मुझे लगता है इसके पीछे कई कारण हैं. यह फिल्म पूर्वनियोजित तो थी नहीं. इससे पहले मैं इनेडिबल इंडिया नाम की कॉमिक स्ट्रिप लिखता था. उसमें मैंने वर्तमान राजनीति पर टीका-टिप्पणी करने के लिए रवि वर्मा और कालीघाट चित्र के पात्रों का इस्तेमाल किया. मुझे लगा कि देश में ज्यादातर राजनीतिक व्यंग्य प्रधानमंत्री मोदी को चिढ़ाने पर केंद्रित हैं. मेरे लिए यह बहुत उबाऊ काम था क्योंकि दक्षिणपंथियों को चिढ़ाना आसान होता है. मैंने सोचा कि अच्छा होगा कि मैं समाज को आईना दिखाऊं. आप देखेंगे कि अंग्रेजी व्यंग्य में समाज की आलोचना नहीं होती है, उसमें अक्सर नेताओं की आलोचना होती है. मैंने सोचा कि चलो यह जो गैर बराबरी वाली व्यवस्था है, चाहे वह जाति के रूप में हो या लैंगिक रूप, उस पर बात की जाए. मैं वर्तमान विषयों पर बातचीत तो करता ही था और मोदी पर मेरी सीरीज में भी कुछ चुटकुले थे लेकिन मेरा ध्यान समाज की आलोचना पर केंद्रित था और यह मेरे दर्शकों को किसी दूर बैठे नेता के बारे में सोचने से ज्यादा खुद के भीतर झांकने के लिए प्रेरित करता था.
मेरी कॉमिक स्ट्रिप को लोगों ने पसंद किया, उसे सराहा गया और इससे मुझे आत्मविश्वास मिला कि मैं फिल्म बनाऊं उन्हीं चीजों का इस्तेमाल कर जो मैंने कॉमिक स्ट्रिप के समय सीखी थी. फिर से कहूं तो हास्य फिल्म बनाना मेरा सचेतन प्रयास नहीं था. लेकिन यह रोमांटिक कहानी नहीं बन सकती थी जबकि अक्सर किसी निर्देशक की पहली शॉर्ट फिल्म कॉफी हाउस या ऐसी ही किसी जगह के इर्द-गिर्द घूमती है. मुझे उससे एलर्जी थी.
मैंने फैसला किया कि मेरी फिल्म में कोई रोमांस नहीं होगा और मैं सोच में पड़ गया कि फिर मैं करूंगा ही क्या और तब मैंने फेसबुक में कास्टिंग का एक विज्ञापन देखा. उसमें कास्टिंग एजेंट को एक ऐसा कलाकार चाहिए था जो दलित की तरह दिखता है. यह 2018 की बात है. मैंने इसे पढ़ा और मुझे बड़ा मजाकिया लगा और बहुत सारे लोग इस विज्ञापन की आलोचना भी कर रहे थे. ये सारी बातें मेरे दिमाग में थीं और कुछ महीनों बाद मैंने एक इटालियन फिल्म देखी जिसमें तीन लोग एक ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ रहे हैं. मेरे दिमाग में आया कि अगर ये तीन किरदार दलित की तरह दिखने वाले कलाकार की तलाश में शहर के चक्कर लगा रहे होते तो क्या होता? ख्याल आते ही मैं बहुत उत्साहित हो गया. कई विचार ऐसे होते हैं जो एक बार आपके दिमाग में घुस जाएं तो आपको छोड़ते नहीं हैं. मैं ज्यादा नाटकीय बनाना चाहता था. मतलब कि उनके पास एक ही दिन है उस कलाकार को खोजने के लिए. फिर मैंने सोचा कि और हास्यास्पद होगा यदि खोज आंबेडकर जयंती के दिन हो रही हो जिस दिन मुंबई में आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने लाखों दलित इकट्ठा होते हैं. मैं सोचने लग गया कि इस तरह कहानी में और क्या-क्या हो सकता है और चीजें बनती चली गईं.
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