सिनेमा की “जाति” पर फिल्म समीक्षक और दि डिसक्रीट चार्म ऑफ दि सवर्ण के निर्देशक राजेश राजमणि से बातचीत

17 October, 2020

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राजेश राजैामणि एक फिल्म-समीक्षक और निर्देशक हैं. राजमणि ने हाल ही में अपनी दूसरी शॉर्ट फिल्म, दि डिसक्रीट चार्म ऑफ दि सवर्ण, रिलीज की है. यह मुंबई के तीन युवा सवर्णों की कहानी है, जो अपनी फिल्म के एक रोल के लिए "दलित जैसा दिखने वाले व्यक्ति" की तलाश कर रहे हैं. वे सेक्सिज्म, मानसिक स्वास्थ्य और अफ्रीकी-अमेरिकी साहित्य के मुद्दों के बारे में गहराई से जागरूक और सतर्क हैं लेकिन अपने खुद के जातिवाद से पूरी तरह से अनजान हैं. कारवां के एडिटोरियल फेलो अभय रेजी के साथ इंटरव्यू में राजमणि ने फिल्म के निर्माण और भारतीय सिनेमा में जाति का चित्रण कैसे किया गया है इस बारे में बात की और कहा कि जाति के मुद्दों पर चर्चा करते समय सवर्णों को आत्म-आलोचना की जरूरत है.

अभय रेजी : आपने दि डिसक्रीट चार्म ऑफ दि सवर्ण फिल्म बनाने के बारे में कैसे सोचा?

राजेश राजमणि : मुझे लगता है इसके पीछे कई कारण हैं. यह फिल्म पूर्वनियोजित तो थी नहीं. इससे पहले मैं इनेडिबल इंडिया नाम की कॉमिक स्ट्रिप लिखता था. उसमें मैंने वर्तमान राजनीति पर टीका-टिप्पणी करने के लिए रवि वर्मा और कालीघाट चित्र के पात्रों का इस्तेमाल किया. मुझे लगा कि देश में ज्यादातर राजनीतिक व्यंग्य प्रधानमंत्री मोदी को चिढ़ाने पर केंद्रित हैं. मेरे लिए यह बहुत उबाऊ काम था क्योंकि दक्षिणपंथियों को चिढ़ाना आसान होता है. मैंने सोचा कि अच्छा होगा कि मैं समाज को आईना दिखाऊं. आप देखेंगे कि अंग्रेजी व्यंग्य में समाज की आलोचना नहीं होती है, उसमें अक्सर नेताओं की आलोचना होती है. मैंने सोचा कि चलो यह जो गैर बराबरी वाली व्यवस्था है, चाहे वह जाति के रूप में हो या लैंगिक रूप, उस पर बात की जाए. मैं वर्तमान विषयों पर बातचीत तो करता ही था और मोदी पर मेरी सीरीज में भी कुछ चुटकुले थे लेकिन मेरा ध्यान समाज की आलोचना पर केंद्रित था और यह मेरे दर्शकों को किसी दूर बैठे नेता के बारे में सोचने से ज्यादा खुद के भीतर झांकने के लिए प्रेरित करता था.

मेरी कॉमिक स्ट्रिप को लोगों ने पसंद किया, उसे सराहा गया और इससे मुझे आत्मविश्वास मिला कि मैं फिल्म बनाऊं उन्हीं चीजों का इस्तेमाल कर जो मैंने कॉमिक स्ट्रिप के समय सीखी थी. फिर से कहूं तो हास्य फिल्म बनाना मेरा सचेतन प्रयास नहीं था. लेकिन यह रोमांटिक कहानी नहीं बन सकती थी जबकि अक्सर किसी निर्देशक की पहली शॉर्ट फिल्म कॉफी हाउस या ऐसी ही किसी जगह के इर्द-गिर्द घूमती है. मुझे उससे एलर्जी थी.

मैंने फैसला किया कि मेरी फिल्म में कोई रोमांस नहीं होगा और मैं सोच में पड़ गया कि फिर मैं करूंगा ही क्या और तब मैंने फेसबुक में कास्टिंग का एक विज्ञापन देखा. उसमें कास्टिंग एजेंट को एक ऐसा कलाकार चाहिए था जो दलित की तरह दिखता है. यह 2018 की बात है. मैंने इसे पढ़ा और मुझे बड़ा मजाकिया लगा और बहुत सारे लोग इस विज्ञापन की आलोचना भी कर रहे थे. ये सारी बातें मेरे दिमाग में थीं और कुछ महीनों बाद मैंने एक इटालियन फिल्म देखी जिसमें तीन लोग एक ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ रहे हैं. मेरे दिमाग में आया कि अगर ये तीन किरदार दलित की तरह दिखने वाले कलाकार की तलाश में शहर के चक्कर लगा रहे होते तो क्या होता? ख्याल आते ही मैं बहुत उत्साहित हो गया. कई विचार ऐसे होते हैं जो एक बार आपके दिमाग में घुस जाएं तो आपको छोड़ते नहीं हैं. मैं ज्यादा नाटकीय बनाना चाहता था. मतलब कि उनके पास एक ही दिन है उस कलाकार को खोजने के लिए. फिर मैंने सोचा कि और हास्यास्पद होगा यदि खोज आंबेडकर जयंती के दिन हो रही हो जिस दिन मुंबई में आंबेडकर को श्रद्धांजलि देने लाखों दलित इकट्ठा होते हैं. मैं सोचने लग गया कि इस तरह कहानी में और क्या-क्या हो सकता है और चीजें बनती चली गईं.

अभय रेजी : इस फिल्म से पहले आपने कोई फिल्म नहीं बनाई थी और आपके पास किसी जाने-माने प्रोड्यूसर का सपोर्ट भी नहीं था. शूटिंग, लिखने और किरदारों को ढूंढते हुए आपको किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ा?

राजेश राजमणि : मैं पहले एक बैंक में काम करता था और इसलिए मेरे पास काम शुरू करने के लिए थोड़ी बचत थी. इसके अलावा मेरा चीजों के बारे में न जानना ने मुझे हिम्मत दी. हमने सोचा कि बहुत कम पैसे में हम इस काम को कर लेंगे. यह हिम्मत और आत्मविश्वास अज्ञानता के चलते थी. जब हमने काम शुरू किया तो मेरे पास सिर्फ सिनेमैटोग्राफर थे विजय अरविंद. वह भी मेरी तरह इस क्षेत्र में नए थे लेकिन मुझे उनकी तस्वीरें पसंद आईं और मैंने सोचा कि अगर वह मान जाते हैं तो इस प्रोजेक्ट से जुड़ सकते हैं.

मैं अभिनेता कानी कुश्रुति को जानता था. हमने फेसबुक में बातचीत की थी और ऐसा लगता था कि उन्हें इंडिया कॉमिक सीरीज पसंद थी. वह फिल्म महोत्सव और इंडिपेंडेंट सिनेमा जगत में लोकप्रिय हैं. समझ लीजिए कि वह दक्षिण भारत की राधिका आप्टे हैं. मैंने उनसे सिर्फ इसलिए संपर्क किया था कि वह मुझे बेंगलुरु, चेन्नई में कुछ कलाकारों से मिला दें. मुझे लगता था कि वह बहुत लोकप्रिय हैं और बहुत बड़ी स्टार हैं, इसलिए मैंने अपनी फिल्म में उन्हें काम करने के लिए नहीं कहा. मेरे पास ऐसा कहने की हिम्मत नहीं थी. फिर उन्हीं ने मुझसे पूछा कि इस फिल्म में काम करने के लिए मैं उनसे क्यों नहीं पूछ रहा हूं. उन्होंने कहा कि वह इसका हिस्सा बनना चाहेंगी. स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद उन्हें पसंद आई और वह तैयार हो गईं. जैसे ही वह फिल्म से जुड़ गईं तो मेरे लिए दूसरे लोगों का विश्वास हासिल करना आसान हो गया. मैं दूसरे कलाकारों को राजी करने लग गया. अक्सर ऐसा होता है कि आप काम करते हुए कलाकारों को समझते हैं. इसलिए यह प्रक्रिया लंबी हो गई. लेकिन धीरे-धीरे मैं उन कलाकारों को फिल्म में ला पाया जिनको मैं लाना चाहता था.

अभय रेजी : इस फिल्म में भारतीय मीडिया, संस्कृति और सिनेमा में सवर्णों के दबदबे के बारे में बताया गया है. आप हमें बताएं कि आपके अनुभव और समझ में सिनेमा के विभिन्न आयामों में, जैसे निर्देशन, एक्टिंग और निर्माण में बहुजनों के लिए प्रमुख बाधाएं कौन-कौन सी हैं? यह बाधाएं कैसे बहुजनों को आगे बढ़ने से रोकती हैं?

राजेश राजमणि : हर उद्योग जगत दूसरे उद्योग जगत से अलग होता है. सिनेमा को जाति के एक नेटवर्क के कार्टल द्वारा मैनेज किया जाता है. चाहे वह बॉलीवुड की फिल्में हों या कॉलीवुड (तमिलनाडु) की फिल्में हों हर कहीं ऐसा कार्टल काम करता है. अक्सर ये लोग सिर्फ एक-दूसरे को प्रमोट करते हैं और अन्य सभी को बाहर रखते हैं. बाहर के लोगों को संवाद करने जितना अवसर भी नहीं मिलता. लेकिन मुझे लगता है कि एक प्रकार से मुख्यधारा का सिनेमा, खासकर तमिल सिनेमा, कई मामलों में काफी हद तक अधिक लोकतांत्रिक है. लोग अक्सर पा रंजीत या मारी सेल्वराज जैसे निर्देशकों के बारे में बात करते हैं लेकिन मेरा मानना है कि 1980 के दशक में भी बहुत सारे बहुजन फिल्म निर्माता हुए. इन लोगों ने अपनी राजनीति या पहचान को बहुत ज्यादा खुलकर व्यक्त नहीं किया लेकिन जब आप इनकी फिल्में देखते हैं तो पाते हैं इन्होंने बहुजन लोगों की जिंदगी को सिनेमा में स्थान दिया है. खासकर, भारतीराजा का नाम तमिल फिल्म निर्माताओं में महत्वपूर्ण नाम है. लोग अक्सर सोचते हैं उनकी फिल्में ग्रामीण जीवन के बारे में होती हैं लेकिन उन्होंने अपनी सभी फिल्मों में बहुजन लोगों के जीवन को दर्शाया है. 1980 और 1990 में बहुजन जीवन को बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है जो मुझे लगता है वास्तव में एक राजनीतिक बात थी. उन्होंने जाति विरोधी राजनीति को चिल्ला कर नहीं दिखाया लेकिन बहुजन लोगों की जिंदगी की कहानी बता कर उन्होंने महत्वपूर्ण राजनीतिक काम किया. भारतीराजा की सफलता के कारण कई युवा फिल्म निर्माताओं ने बहुजन लोगों के जीवन को अपनी फिल्मों में उतारा.

अभय रेजी :  सक्रिय रूप से राजनीतिक नए तमिल सिनेमा में मारी सेल्वराज, पा रंजीत और अतियन अतिराई की फिल्मों में हम देखते हैं कि लगातार आंबेडकरवादी विचारधारा प्रस्तुत की जाती है. इनकी फिल्मों में बुद्ध, आंबेडकर की पेंटिंग के कई संदर्भ होते हैं. क्या आपको लगता है कि तमिल सिनेमा में बदलाव आया है?

राजेश राजमणि : आप बाहर दिखाई पड़ने वाले प्रतीकों, जैसे आंबेडकर या पेरियार की पेंटिंग या कुछ किताबों की बात कर रहे हैं. मुझे नहीं लगता कि ये प्रतीक सिर्फ दिखाने के लिए हैं. मुझे लगता है कि ये फिल्म निर्माता बहुत सचेतन रूप से जाति विरोधी हैं और इनके सिनेमा में सचेतन जाति विरोधी राजनीति है जो इनके सिनेमा में झलकती है. लेकिन ये लोग बहुत सहज रूप से दलित जीवन को प्रस्तुत करना चाहते हैं. जो असहजता दर्शकों को महसूस होती है वह फिल्मों में जाति प्रक्रिया के काम करने की बदौलत है. उदाहरण के लिए एक फिल्म में यदि कोई घर में कर्नाटक संगीत गा रहा है तो हम लोग इसे दिखावे की तरह नहीं लेते क्योंकि मुख्यधारा के सिनेमा ने हमें बताया है कि यह सामान्य चीज है. जब आप ब्राह्मण-सवर्ण प्रतीकों को फिल्मों में देखते हैं तो आपको वे चीजें नॉर्मल लगती हैं. लेकिन जब आप बहुजन जीवन को फिल्मों में देखते हैं तो वह आपको ज्यादा लगता है. यह सिनेमा और राजनीति को दर्शक कैसे देखें इसकी कंडीशनिंग का नतीजा है. आप किसी भी शहर या कस्बे में चले जाइए वहां आंबेडकर की मूर्ति लगी होना बहुत सामान्य सी बात है. लेकिन भारतीय सिनेमा में आंबेडकर की मूर्तियां गायब हैं. जाति विरोधी सिनेमा में इन मूर्तियों का होना दलित जीवन का सहज प्रस्तुतीकरण है. सिनेमा ने हमें जाति से इतर देखने के लिए, सवर्ण प्रतीकों को देखने के लिए कंडीशन किया है.

अभय रेजी :  लेकिन दि डिसक्रीट चार्म ऑफ दि सवर्ण इसको उलट कर रख देती है. यदि कोई सामान्य अंग्रेजी बोलने वाला अपर कास्ट उदार परिवार टोनी मॉरिसन की किताब हाथ में लिए है तो उसे हास्यास्पद या मार्कर या निशान नहीं माना जाता. लेकिन दि डिसक्रीट चार्म ऑफ दि सवर्ण में आपने इसे मार्कर बनाया है ठीक वैसे ही जैसे आंबेडकर की पेंटिंग को जाति विरोधी सिनेमा माना जाता है.

राजेश राजमणि : एक लेखक, एक फिल्म निर्माता के रूप में मेरे लिए टोनी मॉरिसन की किताब, वेस एंडरसन का पोस्टर, हिचकॉक का पोस्टर और खलील जिब्रान की किताब, एकदम सही प्रतीक हैं. मैं बस सवर्ण दुनिया को जितना ठीक से उतार सकूं उतना ठीक से उतारने का प्रयास कर रहा था. लेकिन यह फिल्म किसी न किसी तरीके से उन लोगों की आलोचना करती है. यह फिल्म एक बुलबुल के भीतर रहने वाले, बाहर की दुनिया से बेखबर उनके जीवन पर कटाक्ष है. फिल्म की पॉलिटिक्स के कारण दर्शक इन निशानों को ज्यादा नोटिस करते हैं. मेरे लिए यह इतने बड़े मार्कर नहीं है. ईमानदारी से कहूं तो जो ब्राह्मण और सवर्ण यह फिल्म देखते हैं, उन्हें मैं यह महसूस कराना चाहता हूं कि वे सोचें कि यह तो मुझसे बहुत ज्यादा मिलता-जुलता है. मैं चाहता हूं कि वह अपने भीतर झांकें. मैं चाहता हूं कि वे सोचें कि यह तो बिल्कुल मेरी तरह है और ऐसा होना कितनी शर्मिंदगी की बात है.

आभार : राजेश राजमणि

अभय रेजी : तो क्या इस फिल्म के दर्शक सवर्ण ही हैं?

राजेश राजमणि : ईमानदारी से कहूं तो मैंने कभी नहीं सोचा कि इस फिल्म के दर्शक कौन होंगे. एक फिल्म निर्माता चाहता है कि उसकी फिल्म हर कोई देखे. कोई भी व्यक्ति, जो अपनी कहानी दिखाना-बताना चाहता है, वह यह निर्णय नहीं कर सकता कि दर्शकों का कौन सा हिस्सा उसकी फिल्म देखेगा. आप चाहते हैं कि आपके काम को सब तरह की दर्शक देखें. लेकिन मैं यह जरूर समझता हूं कि क्योंकि इस फिल्म की भाषा अंग्रेजी है तो जो लोग इस भाषा में सहज होंगे वह इस फिल्म को इंजॉय कर सकते हैं. भाषा का चयन दर्शकों को ध्यान में रखकर नहीं किया गया था बल्कि रियल लाइफ में जिस तरह से बातचीत होती है उसको दिखाने के लिए ऐसा किया गया था. बातचीत को यथार्थवादी रखने के लिए अंग्रेजी का चयन किया गया है. इस फिल्म के दर्शकों का चुनाव मेरा सचेतन प्रयास नहीं था. चूंकि नीलम के मुख्य दर्शक तमिल हैं इसलिए हमें लगा कि हमें इसमें तमिल सबटाइटल रखने चाहिए. हमने इस फिल्म को तमिल या हिंदी में डब करने के बारे में भी बातचीत की लेकिन मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि बातचीत में जो व्यंग्य की छौंक है हम उसे डब की हुई भाषा में व्यक्त कर पाएंगे. तो मैंने सोचा कि हम लोग सबटाइटल जोड़ते हैं लेकिन डबिंग नहीं करते क्योंकि इससे उसका पूरा व्यंग्य खत्म हो जाएगा. यह सब इस फिल्म को जितना अधिक हो सके यथार्थवादी रखने की कोशिश के तहत किया गया है.

अभय रेजी : फिल्म समालोचक की तरह काम करते हुए आपने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि दलित चरित्रों को हीरो या और अधिक असर्टिव होने की जरूरत है. क्या दलित चरित्रों को जिस तरह से दिखाया जाता है उसमें धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है?

राजेश राजमणि : मुझे लगता है कि तमिल सिनेमा में निश्चित रूप से बॉलीवुड की तुलना में चीजें बदल रही हैं. मुझे लगता है कि बॉलीवुड की तुलना में क्षेत्रीय सिनेमा ज्यादा लोकतांत्रिक है. कोई भी सिनेमा जाति संरचना से मुक्त नहीं होता. समाज का हर पक्ष उसमें जुड़ा होता है लेकिन फिर भी क्षेत्रीय सिनेमा में ज्यादा जाति विरोधी बहुजन या दलित फिल्म निर्माता या लेखक हैं. मराठी सिनेमा में नागराज मंजुले हैं और तमिल में भी कई नाम हैं. इस मामले में बॉलीवुड थोड़ा कट्टरपंथी है. अपनी तमाम समस्याओं के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा लोकतांत्रिक आवाज को जगह देता है. मुझे लगता है कि तमिल सिनेमा में ऐसा होना द्रविडियन राजनीति और अब दलित राजनीति पर इसके असर के चलते भी है. द्रविडियन या दलित राजनीति हमें हर तरह के कलाकार और लेखक और विचारक के पास ले जाती है. यह दूसरे लोगों को हमारे पास आने का मौका भी देती है. हमारे यहां अलग-अलग पृष्ठभूमि के फिल्म निर्माता और कथाकार बढ़ रहे हैं और मुझे लगता है कि वे अपनी कहानी बता रहे हैं जो कहानियां पुराने दौर के मुख्यधारा के सिनेमा में संभव नहीं होती. अब सिर्फ हीरोगिरी की बात नहीं होती. उदाहरण के लिए काला की बात करें तो काला की पत्नी सिल्वा जैसे चरित्र तमिल सिनेमा में हमने पहले कभी नहीं देखा था. संभवतः ऐसे किरदार भारतीराज की फिल्म में हों. मुख्यधारा के सिनेमा में खासकर रजनीकांत की फिल्मों में आप उस तरह की महिला कभी नहीं देख सकते थे. केवल नायक या नायिका को दिखाने के मामले में ही नहीं अन्य चरित्रों को दिखाने के मामले में बहुत सारे बदलाव आए हैं. हम लोग अक्सर ऐसी कहानियां दिखाते हैं जिसमें बाप को एक माचोमैन (मर्द को दर्द नहीं होता टाइप) दिखाया जाता है लेकिन मारी सेल्वराज की फिल्म परियेरम पेरूमल में एक ऐसे पिता को दिखाया गया है जो नर्तक है और औरतों की तरह कपड़े पहन कर बहुत सुंदर नृत्य करता है. मुझे लगता है कि ये असली लोगों से उठाए गए किरदार हैं, ये असली बहुजन-दलित लोग हैं. मुझे लगता है कि हमने कहानी कहने के अपने दायरे को बढ़ाया है तो वे लोग उन चीजों को दिखा रहे हैं जो उन्होंने अपने जीवन में देखा है. सिनेमा को लोकतांत्रिक किए बिना ऐसा दिखाना संभव नहीं होता. पिता को मर्द न दिखाना केवल बहुजन फिल्म में हो सकता है. इसके अलावा अब फिल्मों में ज्यादा स्थानीय देवताओं को देख पाते हैं. ऐसा अन्य फिल्मों में नहीं होता.

अभय रेजी :  आपने मणिरत्नम की फिल्म नायकन और पा रंजीत की फिल्म काला के बारे में लिखा है कि कैसे दोनों अलग फिल्में हैं. हालांकि आपने समीक्षाओं में बहुत साफ तौर पर ऐसा नहीं कहा है लेकिन लगता है कि आप कहना चाहते हैं कि एक ब्राह्मण निर्देशक और एक दलित निर्देशक चीजों को अलग तरीके से तो देखते हैं.

राजेश राजमणि : मैं शुरुआत में नायकन और काला में समानता और विपरीतता को बहुत साफ तौर पर नहीं देख पाया था. एक बार जब मैं द गॉडफादर देख रहा था तो मुझे एहसास हुआ कि इसमें कुछ चीजें ऐसी हैं जो मैंने काला में देखी हैं और कुछ चीजें ऐसी है जो मैंने नायकन में देखी हैं. इसके बाद मैंने इन फिल्मों को दुबारा देखा कि काला बहुजन पर्सपेक्टिव से नायकन का पुनर्निर्माण है. यह सच है कि एक ही स्थान और एक जैसे लोगों के बारे में फिल्म निर्माता की पहचान, उसकी राजनीति उसके देखने के तरीके को प्रभावित करती है. पहचान राजनीति का हिस्सा बन जाती है लेकिन मैं यह मानता हूं कि इसके पीछे राजनीति भी काम करती है. हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख में उत्तर मद्रास की विभिन्न कहानियों के बारे में बताया गया है. इसमें पा रंजीत की मद्रास को सुधा कोंगारा की इरुद्धि शत्रु के साथ जोड़ा गया है. इरुद्धि शत्रु में एक सीन है जिसमें एक छोटे ढाबे में “बिरयानी रेडी” साइन लगा है. यह बोर्ड इंग्लिश में है लेकिन उसकी स्पेलिंग गलत है. यह सच है कि छोटे ढाबे में स्पेलिंग गलत होती हैं लेकिन ऐसी गलत स्पेलिंग हर कहीं देखी जा सकती है. यहां तक कि बड़े मीडिया हाउस में भी आप स्पेलिंग या ग्रामर की गलती देखते हैं. मैं सोचने लगा कि इस फिल्म निर्माता को क्यों उस स्पेलिंग की गलती को दिखाना था. मद्रास फिल्म में रंजीत शिक्षा के बारे में मलाई श्रीनिवासन, जो पहले पहल तमिल दलित नेता हुए, का उद्धरण दिखाते हैं. आप सोचते हैं कि क्यों एक डायरेक्टर के लिए “बिरयानी रेडी” गलत स्पेलिंग में लिखा दिखाना जरूरी था और दूसरे को उद्धरण दिखाना जरूरी लगा. तो इस तरह आप देखते हैं कि एक ही स्थान को अलग-अलग राजनीति से आने वाले लोग किस तरह देखते हैं. हिंदुस्तान टाइम्स का वह आर्टिकल दोनों फिल्मों को एक साथ जोड़ कर देखता है. यह उनकी अपनी पॉलिटिक्स का नतीजा है, मेरे ख्याल से.

अभय रेजी :  तमिल फिल्म जगत में पा रंजीत जैसे निर्देशक लड़ाकू किस्म की जाति विरोधी फिल्में बन रहे हैं. क्या आप इसके विरोध में फिल्मों का आंदोलन भी देखते हैं. 1990 के दशक में जेंटलमैन जैसी आरक्षण विरोधी फिल्में बनी थीं और अब हम देखते हैं कि द्रौपदी जैसी फिल्म बनी है जो दलितों का अपराधीकरण करती है और उन फिल्मों में दलित विरोधी आक्रोश है. क्या भारतीय सिनेमा में जाति वर्चस्व वाली फिल्में बढ़ रही हैं?

राजेश राजमणि : यह दुर्भाग्यपूर्ण है मगर मुझे लगता है कि ऐसा हो सकता है. मुझे लगता है कि सिनेमा वास्तविक राजनीति का दर्पण है. अगर बहुजन और दलित एक खास तरह की कहानियां पेश करेंगे तो उनके खिलाफ भी कहानियां आएंगी जैसा कि असल जिंदगी में होता है. जब द्रविडियन आंदोलन अपने चरम पर था तो उससे बहुत सारा साहित्य और सिनेमा कला का निर्माण हुआ जिसने द्रविडियन राजनीति को आगे बढ़ाया. मुझे लगता है कि एक बिंदु के बाद द्रविडियन राजनीति ने सक्रिय रूप से सिनेमा का निर्माण नहीं किया जो उनकी राजनीति को दर्शाती. एक बार जब ये लोग सत्ता में आ गए तो उन्होंने सिनेमा में अपनी पकड़ को ढीला कर दिया. जब द्रविडियन सिनेमा अपनी ऊंचाई पर था तभी अय्यप्पन और मुरूगन पर धार्मिक सिनेमा भी बनाया गया और मुझे विश्वास है कि जिस तरह दलित फिल्म निर्माता सचेतन रूप से अपनी राजनीति को पेश कर रहे हैं और बहुत रेडिकल फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं तो उनके विरोधी भी उन पर हमला करेंगे. लेकिन मुझे लगता है कि इसी तरह से समाज काम करता है और इससे बचा नहीं जा सकता.

अभय रेजी : आपने जाति को सिनेमा में अभिव्यक्त करने के दो रूप देखे हैं. एक आर्टिकल 15 जैसी फिल्म है जिसमें सवर्ण को मसीहा के रूप में दिखाया जाता है और दूसरी असुरन जैसी दलित बदले की कहानी है जो तमिल में बनी और जिसके निर्देशक एक गैर दलित हैं. इन दोनों में जो एक बात गायब है वह है सवर्ण लोगों में आत्मालोचना. लेकिन आप की फिल्म में इस तरफ इशारा है. क्या आपको लगता है इस तरह की बात शॉर्ट फिल्मों से बाहर निकल कर मुख्यधारा की फिल्मों का हिस्सा बन पाएगी?

राजेश राजमणि : मुझे लगता है कि यह होकर रहेगा. नीलम जैसे लोग हैं जो मुख्यधारा के सिनेमा से अगल नैरेटिव पर भी काम करना चाहती हैं. मुझे लगता है कि ऐसे और प्लेटफार्म मिलेंगे क्योंकि नीलम ने खुद ऐसी कहानियों को कहने का बहुत सफल तरीका बतलाया है. पा रंजीत या परियेरम पेरूमल की फिल्मों की सफलता को देखते हुए बहुत सारे निर्देशक और निर्माता ऐसी फिल्मों को बनाने को तैयार हैं. असुरन जैसी फिल्म रंजीत की फिल्मों की सफलता का नतीजा है. अब और ज्यादा लोग ऐसी कहानियों को प्रोड्यूस करने की इच्छा जाहिर करेंगे या इच्छुक होंगे. एक बात और है कि ये फिल्में अच्छा कारोबार भी करती हैं. असुरन फिल्म धनुष की बहुत बड़ी हिट फिल्म है. आप मेरी शार्ट फिल्म के बारे में दर्शकों की प्रतिक्रिया को ही लीजिए. उसमें बहुत स्वीकार्यता है, सकारात्मक है.

मुझे नहीं पता कि लोग मेरी फिल्म देख कर अपने अंदर झांक रहे हैं या नहीं लेकिन मैंने सोचा था कि मेरी फिल्म को मिली-जुली प्रतिक्रिया मिले या हो सकता है कि इसका विरोध भी हो लेकिन हैरान करने वाली बात है कि लोगों ने इसे सराहा. मुझे लगता है कि इसे मुख्यधारा के सिनेमा तक विस्तार दिए जा सकने की संभावना है. बस एक ही डर मुझे लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री इसे फार्मूला न बना दे. मेरी चिंता है कि इससे बचा कैसे जाए. नेटफ्लिक्स की डियर व्हाइट पीपल की तरह का फार्मूला बना देना बहुत आसान है. अमेरिका में बहुत सारी फिल्में ऐसी हैं जो नस्लवाद पर बात करती हैं लेकिन हमें नहीं पता कि क्या इसे देखने वाले दर्शक नस्लवाद पर विचार करते हैं. ये फिल्में उपभोक्ता सामग्री हैं जो लोगों को पसंद आती हैं. लोगों को अच्छी लगती हैं बस इसलिए ऐसी फिल्में नहीं बननी चाहिए. मुझे इसी बात की चिंता है कि इस बात की बहुत हद तक संभावना है कि ये फिल्में इसी रूप में (फार्मुले के रूप में) मुख्यधारा का हिस्सा बन जाएं. इन फिल्मों को अपने राजनीतिक महत्व से समझौता नहीं करना चाहिए. इन्हें उपभोक्ता सामग्री नहीं बनना चाहिए. इन फिल्मों के जरिए लोगों को अपने भीतर झांकना चाहिए, समाज में एक संवाद का निर्माण होना चाहिए. इन फिल्मों को मनोरंजन की फिल्म, जिसे आप पॉपकॉर्न खाते हुए देखते हैं, वैसी फिल्म नहीं बनना चाहिए. अगर ऐसा हुआ तो बहुत भयावह बात होगी.

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