पीएस कृष्णन : सामाजिक न्याय का अथक योद्धा

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1957 में आंध्र प्रदेश कैडर के रूप में भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रवेश करने के तुरंत बाद केरल के 24 वर्षीय सवर्ण हिंदू पीएस कृष्णन ने एक सिविल सेवक के तौर पर कुछ ऐसा किया जो अकल्पनीय था. कृष्णन के साथ बातचीत पर आधारित पुस्तक ए क्रुसेड फॉर सोशल जस्टिस की लेखिका वसंती देवी ने मुझे एक घटना के बारे में बताया. उस साल राज्य के अनंतपुर जिले के थाटीचेरला गांव की यात्रा के दौरान कृष्णन ने दलित बस्ती में आधिकारिक कैंप डाला. देवी ने मुझे बताया, "वह वहीं रहते और बस्तियों के लोगों के साथ ही भोजन करते थे." उन्होंने अपने कैंप में जमाबंदी कराई और सरकारी जमीन बांटी. (जमाबंदी सरकारी भूमि को रिकॉर्ड करने का प्रशासनिक काम है.) इसने गांव के उच्च-जाति के लोगों को पहली बार "अछूतों की बस्ती" में प्रवेश करने के लिए मजबूर कर दिया. देवी ने बताया कि ऐसा करने से बस्ती के लोगों को आत्मसम्मान प्राप्त हुआ. इसके अलावा यह ऐसा भूकंप था जिसने गांव के गांवों को हिला दिया.

सामाजिक न्याय के प्रति कृष्णन की गहरी प्रतिबद्धता उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर काम करने के लिए दिल्ली ले गई. 1989 में, राजीव गांधी सरकार के कार्यकाल में उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को अधिकृत कराया. अगले साल मई 1990 में, वीपी सिंह सरकार के कार्यकाल में समाज-कल्याण मंत्रालय में सचिव के रूप में कृष्णन ने कैबिनेट को एक नोट लिखा, जिसके आधार पर सरकार ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट पारित की. इस रिपोर्ट में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव था. इसके साथ ही इतिहास में पहली बार, जाति पदानुक्रम में और शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार ओबीसी की स्थिति में सुधार के लिए शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में कानूनी रूप से सुधार लाया गया. तीन साल बाद, पीवी नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल में कृष्णन ने 1993 के इंप्लाइमेंट आफ मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

राजनेताओं को परिवर्तनकारी कानून लाने का श्रेय दिया जाता है पर अक्सर ही कृष्णन जैसे अधिकारियों के योगदान को भुला दिया जाता है. लेकिन 10 नवंबर को उनके निधन के बाद उनके सहयोगियों के साथ हुई मेरी बातचीत में, यह स्पष्ट था कि कृष्णन ने सामाजिक न्याय के योद्धा के रूप में अपनी छाप छोड़ी है. राजनीतिक सिद्धांतकार और लेखक कांचा इलैया शेपर्ड ने मुझे बताया, "मुझे लगता है कि केरल के एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए कृष्णन, सरकारी मशीनरी और कल्याणकारी तरीकों से दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग के उत्थान के लिए खास तौर पर प्रतिबद्ध थे. वह आंध्र प्रदेश में कलेक्टर होने के दिनों से लेकर अंतिम दिन तक प्रतिबद्ध बने रहे."

अपने नौकरशाही कैरियर के शुरुआती दिनों से ही कृष्णन जातिवादी लोगों से टकराते रहे. देवी की पुस्तक के अनुसार, 1958 में, जब कृष्णन को ओंगोल डिवीजन के उप-कलेक्टर के रूप में नियुक्त किया गया था, जो तब आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले का एक हिस्सा था, उन्होंने पहली बार राज्य के सबसे वरिष्ठ अधिकारियों में से एक, अनंतरामन से मुलाकात की. शुरुआती छोटी-सी बातचीत के बाद अनंतरामन ने उनकी जाति के बारे में पूछताछ की. कृष्णन ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया. कृष्णन ने कहा, "मेरे भीतर जाति व्यवस्था के लिए इस कदर नफरत है कि मैं अपनी जाति का उल्लेख नहीं करूंगा."

उस बात से खफा होकर, अंनतरामन ने कृष्णन के खिलाफ जांच शुरू करने के उद्देश्य से जिले का दौरा किया. वरिष्ठ अधिकारी ने कृष्णन को कागजात का ढेर दिखाया और कहा कि वे सभी उनके खिलाफ शिकायतें कर रहे हैं कि दलितों के साथ "भाईचारा बढ़ाकर" वे उन्हें बढ़ावा दे रहे हैं. जब कृष्णन ने यह कहा कि दलित अस्पृश्यता के शिकार हैं और यह उनकी ड्यूटी थी कि एक आईएएस अधिकारी के रूप में उनकी समस्याओं को हल करने में उनकी मदद करें, तो अनंतरामन ने छुआछूत के अस्तित्व से ही इनकार कर दिया. कृष्णन ने उनसे कहा कि मनुस्मृति ने ही इस प्रथा को संहिताबद्ध किया है. अनंतरामन ने गुस्से में जवाब दिया: "मैं अपने धर्म की बदनामी सुनने के लिए यहां नहीं आया हूं." पूछताछ वहीं समाप्त हो गई, लेकिन मामला खत्म नहीं हुआ.

1959 में, कृष्णन को अनंतपुरम में सहायक बंदोबस्त अधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया. देवी की पुस्तक के अनुसार, उनके कुछ साथियों ने उन्हें दलितों के “पक्षपाती" अधिकारी के रूप में देखना जारी रखा. एक साल बाद, मुख्य सचिव एमपी पाई ने उन्हें बताया कि एक वरिष्ठ अधिकारी ने उनकी गोपनीय रिपोर्ट में "प्रतिकूल" टिप्पणी की थी:

दबे-कुचले वर्गों के प्रति आंशिक पक्षपात, अंतर-जातीय विवाह की अत्यधिक वकालत, संस्कृत के अपने ज्ञान का उपयोग धर्म की धज्जियां उड़ाने के लिए करते हैं, ग्रामीण अधिकारियों के बजाय ग्रामीण लोगों की बात पर यकीन करते हैं, इस तरह से काम करते हैं जो विध्वंसकारी तत्वों की मदद करता है.

पाई ने दलित बस्तियों में डेरा डालने पर उनसे सवाल किया. कृष्णन ने उनसे जवाब मांगा कि क्या ऐसा करने पर कोई पाबंदी है. पाई चुप हो गए.

कृष्णन के एक पत्रकार रिश्तेदार टीएन अशोक ने कुछ साल पहले घटी एक दूसरी घटना को याद किया. उस दिन कृष्णन ने नौकरशाहों को व्याख्यान दिया था. कृष्णन की प्रशंसा करते हुए, एक वरिष्ठ नौकरशाह ने कहा था कि वह "दलित होने के बावजूद कृष्णन कुशाग्र हैं." जब वहां मौजूद दूसरे अधिकारी ने बताया कि कृष्णन उच्च जाति के हैं तो पहले नौकरशाह ने जवाब दिया, "कोई हैरानी नहीं क्योंकि वह बुद्धिमान हैं." कृष्णन ऐसी घटनाओं से न तो हैरान होते थे और न ही वह गोपनीय रिपोर्ट या अनंतरामन के साथ उनके अनुभव से परेशान हुए. कृष्णन ने अपना काम जारी रखा.

पूछताछ के दौरान, अनंतरामन ने यह भी कहा कि शिकायत थी कि कृष्णन एक कम्युनिस्ट हैं. देवी की पुस्तक में, कृष्णन ने उल्लेख किया कि शिकायतकर्ता ने दलित उत्थान के मेरे कामों को मेरे वैचारिक झुकाव के रूप में वर्णित किया. इस पर देवी कहती हैं, “कृष्णन ने कई विचारधाराओं” के मिश्रण का अनुसरण किया और वह उदार व्यक्ति थे. “एक मार्क्सवादी के रूप में, कोई भी वर्ग विश्लेषण से शुरू करेगा और अंबेडकरवादी के रूप में वह जाति को भारतीय समाज की इकाई मानेगा. लेकिन उन्होंने जाति-वर्ग को संपूर्णता में देखा.” देवी ने बताया, “वह बहुत स्पष्ट थे कि मार्क्सवाद का अंधा और यांत्रिक अनुशरण भारत में काम नहीं करेगा. उनका मानना था कि उदार और प्रगतिशील विकसित भारत संभव है.”

कृष्णन ने न केवल अंतर-जातीय विवाह की वकालत की, जैसा कि रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, बल्कि "जाति-विरोधी विवाह" की भी वकालत की. उनकी सोचा था कि एक ही जाति में विवाह को प्रतिबंधित करने वाला कोई कानून होना चाहिए. "उन्होंने जैविक अनाचार के अलावा सामाजिक अनाचार की अवधारणा को उजागर किया." देवी ने कहा, "जैसे आप अपने जैविक भाई या बहन से शादी नहीं कर सकते, वैसे ही जाति के भीतर विवाह करने को सामाजिक अनाचार माना जाना चाहिए ताकि लोग जाति में विवाह न करें." कृष्णन की पत्नी ओबीसी श्रेणी से थीं. कई मौकों पर कृष्णन से मिले शेफर्ड ने बताया, "मुझे लगता है कि इसने भी उन्हें काफी प्रभावित किया होगा."

यहां तक कि 1990 में अपनी सेवानिवृत्ति के बाद, कृष्णन ने सामाजिक समानता को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत सिफारिशें देना जारी रखा. 1993 और 2000 के वर्षों के बीच, कृष्णन ने पिछड़ा वर्ग के राष्ट्रीय आयोग के सदस्य-सचिव के रूप में कार्य किया. मार्च 1996 में, सामाजिक न्याय के लिए देहरादून स्थित समूह नेशनल एक्शन फोरम के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने एक दलित घोषणापत्र जारी किया, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के अधिकारों और हकों को शामिल किया गया. कृष्णन की सिफारिशों में "अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रत्येक भूमिहीन ग्रामीण परिवार को भूमि हदबंदी के उचित कार्यान्वयन के जरिए भूमि देने का प्रस्ताव" शामिल था.

देवी ने मुझे बताया कि उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में कृषि भूमि के पुनर्वितरण के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया था. "उन्होंने अपनी रणनीतियों को संवैधानिक मूल्यों के आधार पर तैयार किया था और कानूनी ढांचे के भीतर पूरी बात को पेश करने की कोशिश की थी. यह ऐसी चीज थी जिसे कोई आजमाने को तैयार नहीं था."

2011 में संसदीय स्थाई समिति लोकपाल बिल के विभिन्न मसौदों पर विचार कर रही थी, जिससे सरकार और विभिन्न नागरिक-समाज समूहों द्वारा प्रस्तावित भारत के भ्रष्टाचार विरोधी निकाय की स्थापना होनी थी. कृष्णन ने समिति को एक ज्ञापन सौंपा. इसमें उन्होंने बताया कि इन श्रेणियों में एससी, एसटी, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यक भ्रष्टाचार के सबसे ज्यादा पीड़ित थे. "अध्यक्ष और अन्य सदस्यों सहित कुल संख्या का 15 प्रतिशत से कम अनुसूचित जाति से नहीं होगा, अनुसूचित जनजाति से 7.5 प्रतिशत से कम नहीं होगा, और पिछड़ा वर्ग से 27 प्रतिशत से कम नहीं होगा, जिसमें पिछड़ा वर्ग के धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल हैं." कृष्णन ने कहा कि इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि इन सामाजिक वर्गों की कुल संख्या लोकपाल की कुल ताकत के 50 प्रतिशत से अधिक न हो. उन्होंने कहा कि सदस्यों में कम से कम "एक तिहाई" महिलाएं होनी चाहिए.

लेकिन अंतिम कानून में उनके सुझावों को शामिल नहीं किया गया. जैसा कि अप्रैल 2019 में कारवां द्वारा प्रकाशित एक अंश में उल्लेख है, जबकि लोकपाल के सदस्यों का चयन करने वाली समिति "तकनीकी रूप से आरक्षित श्रेणियों के चार उम्मीदवारों को नियुक्त करके अधिनियम का अनुपालन करती है, इसके सदस्यों की पसंद विडंबना के अतिरिक्त कुछ नहीं, यह प्रतिनिधित्व और निष्पक्षता का महज ढोंग करती है.”

यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार के कार्यकाल में भी कृष्णन अपनी आवाज उठाने से नहीं डरते थे. मार्च 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने उस अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के प्रावधानों को हल्का कर दिया जिसका मसौदा कृष्णन ने तैयार किया था. अधिनियम के दुरुपयोग को रोकने के लिए "प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों" को निर्धारित किया गया. तीन दिनों के भीतर, कृष्णन ने केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावर चंद गहलोत को एक पत्र में लिखा, "यह कहना कि पीओए अधिनियम बंदिशें लगाने से भाईचारे को बढ़ावा मिलेगा, जाति व्यवस्था और जातिवाद की ऐतिहासिक और वर्तमान भूमिका को छोटा करके आंकना है." उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार को "उन संदेहों को दूर करने के लिए अदालत में एक समीक्षा याचिका दायर करनी चाहिए, जो सार्वजनिक रूप से जाहिर हुआ है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मामले में कमजोर दलीलों के जरिए, षडयंत्रकारी ढंग से वर्तमान स्थिति पैदा की है."

इस साल जनवरी में, नागरिकों के "आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों" के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण लागू करने के लिए भारतीय संविधान में संशोधन किया गया. लेकिन पात्र नागरिकों में से एससी, एसटी और ओबीसी के सदस्यों को बाहर कर दिया गया. कृष्णन इस कदम के आलोचकों में से थे. उन्होंने द वायर को दिए एक इंटरव्यू में कहा, "हमारे संविधान ने उन लोगों के लिए जिन्हें सामूहिक रूप से शिक्षा और राज्य की सेवाओं में प्रवेश और बेहतर अवसरों को पाने से जाति व्यवस्था के कारण बाहर रखा गया था आरक्षण और अन्य सामाजिक-न्याय उपायों की शुरुआत की." उन्होंने आगे बताया, "यह गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है." यहां तक कि अपनी मृत्यु से कुछ पहले तक, सितंबर 2019 में, उन्होंने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए दलितों के बीच "भूमिहीनता" को खत्म करने की आवश्यकता पर फ्रंटलाइन पत्रिका में एक लेख लिखा था.

शेपर्ड ने मुझे बताया कि कृष्णन के "संवैधानिक आधार" और सामाजिक न्याय की लड़ाई में स्थिरता के अलावा कई और कारणों से, वे कमजोर समुदायों के उत्थान में योगदान देने वाले ढेरों सिविल सेवकों से अधिक सम्माननीय थे. कृष्णन के दाह संस्कार समारोह में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने, कृष्णन को "सभी सामाजिक आंदोलनों का मित्र" बताया. उनका "बहुत ज्यादा समर्थन" रहता था, क्योंकि आंदोलनों को "व्यवस्था के भीतर" से उस तरह के समर्थन की आवश्यकता है." उन्होंने कहा, "मैं उन्हें उनके कामों के लिए जानता था, मैंने उनके साथ मिलकर काम नहीं किया. लेकिन मैं उनका प्रशंसक रहा. इसीलिए मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देने यहां आया हूं.”