पुलवामा हमले में मारे गए जवानों की जाति भी पूछिए

21 February, 2019

1999 के कारगिल युद्ध के बाद शायद पहली बार राष्ट्रवादी भावना चरम पर है. 14 फरवरी को पुलवामा में एक आत्मघाती हमलावर ने विस्फोटकों से भरी कार जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग से गुजर रहे सुरक्षा बलों के काफिले से टकरा दी. कश्मीर में अब तक के सबसे घातक इस आतंकवादी हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 49 जवान मारे गए. वरिष्ठ अधिकारियों ने 40 जवानों की मौत की पुष्टि की और खबरों के मुताबिक कम से कम 9 अन्य लोगों ने बाद में दम तोड़ा. भारत सरकार ने इस हमले में पाकिस्तान का हाथ होने का आरोप लगाया है. हमले के बाद भारत के शहरी इलाकों में लोग मार्चपास्ट कर रहे हैं और समाचार चैनल पाकिस्तान को सबक सिखाने की योजना बना रहे हैं.

मुख्य रूप से उच्च जाति के शहरी मध्यम वर्ग के युद्धउन्माद के बीच शायद ही किसी को यह जानने की इच्छा हो कि हमले में अपनी जान गवांने वाले जवानों की जाति क्या है? मैंने उन 40 सीआरपीएफ जवानों की जाति का अध्ययन किया, जिनकी मौत की पुष्टि हमले के तुरंत बाद कर दी गई थी. इनमें से कुछ जवानों की जाति का पता उनके नाम से चल जाता है, लेकिन उन जवानों की जाति का पता लगाने के लिए जिनके नाम जातिसूचक नहीं हैं, मैंने उनके परिजनों से फोन पर बात की. मैंने इस संबंध में उन पत्रकारों से, जिन्होंने मृतक जवानों के अंतिम संस्कार को कवर किया और स्थानीय नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, समाजविज्ञानियों से भी बात की. साथ ही मैंने मीडिया में प्रकाशित रिर्पोटों का भी अध्ययन किया.

मरने वाले 40 जवानों में से अधिकांश निचली जातियों से हैं. मारे गए लोगों में 19 जवान अन्य पिछड़ा वर्ग, 7 अनुसूचित जातियों, 5 अनुसूचित जनजाति, 4 अगड़ी जाति, 1 बंगाली उच्च जाति, 3 जाट सिख और 1 मुस्लिम शामिल हैं. इन आंकड़ों से उस सच्चाई का पता चलता है जिसे शहरी मध्यम वर्ग अपने हिंदुत्व राष्ट्रवाद की आड़ में छिपाता है और निचले तबके के बलिदान का दोहन करता है.

मारे गए जवानों में दो महाराष्ट्र प्रांत के संजय राजपूत और नितिन शिवाजी राठौड़ हैं. दोनों वाल्मीकि जाति के थे, जिसे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जाति माना गया है और यह महाराष्ट्र के लिए केन्द्र सरकार की ओबीसी सूची में शामिल है. हालांकि राजपूत के पास जाति प्रमाणपत्र नहीं था इसलिए सीआरपीएफ में सामान्य श्रेणी से चयन हुआ था. राजपूत और मुस्लिम जवान के अलावा केवल 8 यानी 20 प्रतिशत ही सीआरपीएफ में सामान्य श्रेणी से चयन हुए थे.

ये 40 जवान भारत के 16 राज्यों से थे. इनमें सामान्य वर्ग के 8 में से 5 उत्तराखंड और पंजाब से थे. उत्तराखंड के दो शहीद जवानों में से एक ब्राह्मण और दूसरा राजपूत है और पंजाब के तीन जवान जाट सिख समुदाय से हैं. उत्तर प्रदेश के दो ब्राह्मण जवान और पश्चिम बंगाल से सुदीप बिस्वास, ऊंची जाति के जवान थे. सुदीप के बहनोई समाप्ता बिस्वास ने मुझे बताया कि उनका परिवार न तो ब्राह्मण है और न ही अनुसूचित जाति से है “बल्कि उच्च जाति है.”

समाप्ता ने अपने परिवार की सामाजिक पहचान को इसलिए स्पष्ट किया क्योंकि बिस्वास सरनेम कई जाति के लोग इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने कहा कि वे और परिवार के अन्य लोग कभी-कभी पश्चिम बंगाल के नादिया जिले से दूर जाकर मजदूरी करते हैं सुदीप का वेतन तंगी के वक्त बहुत काम आता था.

रामदासिया संप्रदाय के मनिंदर सिंह अत्री अनुसूचित जाति समुदाय से थे. मनिंदर सिंह पुलवामा हमले में मरने वाले पंजाब के जवानों में से एक हैं. उनके चचेरे भाई सुनील दत्त ने मुझे बताया कि अत्री के परिवार के पास एक चौथाई एकड़ से भी कम भूमि है और मनिंदर का छोटा भाई भी सीआरपीएफ में सेवारत है. दत्त, पंजाब के गुरदासपुर के दीनानगर में मानव अधिकार कायकर्ता हैं. उन्होंने मुझे बताया कि संसाधनों और सामाजिक सुरक्षा से वंचित दलित लोग नाली साफ करने और सुरक्षासेवा जैसे जोखिम भरे कामों में शामिल होते हैं. वे कहते हैं, “क्या यह अजीब बात नहीं है कि जो लोग राष्ट्रवाद का नारा बुलंद कर रहे हैं वे आराम से रहते हैं और उनके बच्चों को राष्ट्र के लिए बलिदान देने की जरूरत नहीं पड़ती?”

दत्त ने बताया कि सुरक्षा बलों के लिए चुने जाने वाले जाट सिख जो सीमांत किसान हैं, आजीविका की मजबूरी में सुरक्षा बलों में शामिल होते हैं. उनके ये शब्द पंजाब के जाट सिख जवानों में से एक कुलविंदर सिंह के मामले में सटीक बैठते हैं, जो परिवार की मदद करने के लिए सुरक्षा बल में शामिल हुआ था. सिंह के पिता दर्शन ने बताया कि परिवार के पास दो एकड़ जमीन भी नहीं है. “कुलविंदर की मां की हालत बहुत खराब है.”

हालंकि देश में राष्ट्रवादी उन्माद चरम पर है लेकिन मारे गए जवानों के परिजनों का कहना है कि उन्हें जल्द ही भुला दिया जाएगा. उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के अनुसूचित जाति समुदाय के श्याम बाबू की पत्नी रूबी देवी बात करते हुए रुआसी हो रही थीं. देवी ने बताया कि श्याम की मौत के दो दिनों तक घर में आने वालों का तांता लगा था लेकिन अब वहां कोई नहीं आता. वह अकेली अपने दुख को झेल रहीं हैं. जब मैंने उन्हें बताया कि राष्ट्रीय नेताओं ने शहीदों के बलिदान को कभी न भूलने का वादा किया है तो उनका कहना था, “बोलने और करने में बहुत अंतर होता है.”

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के तुलीधर गांव के जवान महेश कुमार के परिवार को भी इसी सच का सामना करना पड़ा. महेश के चाचा, सुशील कुमार यादव ने मुझे बताया कि स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल और उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रीता बहुगुणा हमले के बाद परिवार से मिलने आईं थीं. “तब से देश की सड़कों पर नारेबाजी हो रही है. हम उन्हें रोक नहीं सकते लेकिन अपने दर्द में हम अकेले हैं.”

यादव ने कहा कि राज्य सरकार कम से कम तुलीधर ग्राम सभा का नाम बदल कर महेश पर रख सकती है और छोटे भाई अमरेश को सरकारी नौकरी दे सकती है. यादव का कहना है, “अगर इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज किया जा सकता है, तो हमारी ग्राम सभा का नाम महेश ग्राम सभा क्यों नहीं हो सकता? यह महेश स्मृति को जीवित रखने का सबसे अच्छा तरीका होगा. क्या वे लोग यह नहीं कह रहे कि पुलवामा के शहीदों को भुलाया नहीं जाएगा?”

पुलवामा में मारे गए 40 जवानों में से 12 उत्तर प्रदेश के थे. जिनमें 2 ब्राह्मण, 3 अनुसूचित जाति और 7 ओबीसी समुदाय से हैं. समाजवादी पार्टी के सुधीर पंवार का कहना है कि टीवी स्टूडियों में बैठे लोग राष्ट्रवाद का नारा लगाते हैं लेकिन यह नहीं देखते कि देश के लिए मरने वाले लोग भारत के गांवों के किसान और निचली जातियों के लोग होते हैं.”

पंवार की टिप्पणी अन्य राज्यों के लिए भी सच हैं. मारे गए सीआरपीएफ के जवानों में 5 राजस्थान से थे. इनमें 3 गुज्जर, 1 मीणा, 1 अनुसूचित जनजाति और 1 जाट हैं. इसी प्रकार तमिलनाडु के 2 जवानों में से एक अनुसूचित जाति पेरियार और दूसरा ओबीसी समुदाय थेवर से है. कर्नाटक  का जवान धोबी जाति मदिवाला से है और ओडिशा के मारे गए दो जवानों में एक पिछड़ी जाति और दूसरा अनुसूचित जाति से है. यह पैटर्न पूरे भारत में एक समान है.

मेरठ के शिक्षविद् और दलित अधिकार कार्यकर्ता सतीश प्रकाश कहते हैं, “सीआरपीएफ में आरक्षण है और यही कारण है कि मारे गए अधिकांश जवान बहुजन है.” “बहुजन” शब्द बहुमत को संबोधित करने के लिए इस्तेमाल होता है जिसमें गैर-ऊपरी और उच्च जाति के लोग आते हैं. “यह वे हैं, जो राष्ट्र के लिए अपना जीवन अर्पण करते हैं”, प्रकाश ने बताया. “यह दिखाता है कि सशस्त्र बलों में आरक्षण न होने की बात कितना बड़ा झूठ है.”

अमृतसर में गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर परमजीत सिंह जज के अनुसार जाति और वर्ग की बात को हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद, गुल कर देता है.” चुनावी राजनीति में इस राष्ट्रवाद की भूमिका है.” वे कहते हैं, “उदाहरण के लिए, भारतीय जनता पार्टी जानती है कि दलित हिंदुत्व की ओर झुकाव नहीं रखते इसलिए जानबूझ कर उग्र राष्ट्रवाद को पैदा किया जाता है ताकि सभी वर्ग, जाति और धर्म के लोगों को समेटा जा सके.”

बीजेपी ने पुलवामा में मारे गए जवानों की जाति और वर्ग की बात नहीं की है. उसके ऐसा करने की संभावना भी नहीं है. चुनावी साल में यह पार्टी राष्ट्रवादी पराक्रमा की धुन बजाना ही पंसद करेगी.