कड़वी जुबान

हिंदी भाषा में नहीं मिलता सामाजिक न्याय और बराबरी का विमर्श

Sagar चित्र Pia Alizé Hazarika
27 June, 2019

मेरी पैदाइश और परवरिश हिंदी में हुई. मेरे मां-बाप, भाई-बहन और सगे संबंधियों की भाषा हिंदी है. बिहार की जिस दलित बस्ती में मेरा बचपन गुजरा, उस बस्ती की भाषा भी हिंदी थी. आज भी मैं इसी भाषा में अपने पड़ोसियों से बतियाता हूं. मैंने 10 साल बिहार शिक्षा बोर्ड के हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ाई की. पटना से टेन प्लस टू करने के बाद मैं पत्रकारिता पढ़ने कर्नाटक के एक कॉलेज में चला आया. यहां अंग्रेजी में पढ़ाई होती थी और इसी भाषा में छात्र आपस में बातें करते थे. कैंपस के बाहर लोग कन्नड या तुलू भाषा बोलते थे. मैं दोनों में ही अच्छा नहीं था. मजबूरन, मैं मेहनत से अपनी अंग्रेजी सुधारने लगा.

28 साल की उम्र में मैंने अंग्रेजी भाषा में बी. आर. अंबेडकर की जाति का नाश किताब पढ़ी. यह अंबेडकर के काम से मेरा पहला परिचय था. इस किताब में उस जातीय अपमान को, जिसे मैंने भोगा था और जो पत्रकारिता करते हुए मैंने देश भर के दलितों को भोगते पाया था, बड़ी बेबाकी से बताया और समझाया गया था. मैंने अंबेडकर को जितना पढ़ा, अंग्रेजी में पढ़ा- अंबेडकर ने इसी भाषा में लिखा है. अंग्रेजी भाषा में ही मैंने ज्योतिराव फुले, पेरियार और मैलकम एक्स को पढ़ा. इन्हें और इनके जैसों को पढ़ने के बाद मैं जाति विरोधी विचार, प्रगतिशील राजनीति और गैरबराबरी के खिलाफ संघर्षों को जान पाया.

जब भी हिंदी को लादने को लेकर विवाद होता है तो मैं हिसाब लगाने लगता हूं कि मैंने किस भाषा में क्या सीखा. फिलहाल राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे को लेकर घमासान मचा है. इस नीति में सभी के लिए हिंदी, अंग्रेजी और एक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा का प्रस्ताव है. गैर हिंदी राज्यों में जब इस नीति का विरोध हुआ तो सरकार ने प्रस्ताव वापस ले लिया. इस ताजी मुठभेड़ के विजेता, हिंदी की घुसपैठ को रोकने की अपनी सफलता का जश्न मना सकते हैं लेकिन मैं इस जश्न में शामिल नहीं हूं. मैं उन लोगों को लेकर चिंतित हूं जो हिंदी को जी और भोग रहे हैं.

सवाल है कि हिंदी मेरा प्रबोधन क्यों न कर सकी? लेकिन मैं इस भाषा के बारे में जितना जानता जाता हूं मुझे उतना लगता है कि इस भाषा में प्रबोधन संभव ही नहीं था. मुझे अब लगता है कि हिंदी की मेरी परवरिश अंबेडकर तक देर से मेरे पहुंचने का कारण थी. इस भाषा के चलते इंसाफ और बराबरी के विचार को समझने में मैंने देर कर दी. ऐसा नहीं है कि इन चीजों को हिंदी में जानना नामुमकिन है. अंबेडकर के लेखन का हिंदी में अनुवाद किया गया है और हिंदी में सामाजिक न्याय की बात करने वाले विचारक और लेखक भी हैं लेकिन एक हिंदी भाषी घर में लालन-पालन और हिंदी पट्टी में मिली हिंदी शिक्षा के कारण मेरे लिए ऐसे लोगों को ढूंढ पाना असंभव जैसा था. यह कोई आकस्मिक बात नहीं है. इसके पीछे इस भाषा को बनाने, इसका विकास करने वाले और इसका प्रसार करने वाले लोगों की बड़ी छाप है.

आज जिसे हम हिंदी साहित्य कहते हैं पहले-पहल वह ब्रज, बुंदेली, अवधी, कन्नौजी, खड़ी बोली, मारवाड़ी, मघई, छत्तीसगढ़ी और ऐसी ढेरों भाषाओं में प्रकट हुआ. आज बहुत सी ऐसी बोलियों को हिंदी ने खा लिया है. आज देवनागरी में लिखी जाने वाली हिंदी को जिस रूप में हम जानते हैं वह बहुत पुराना अविष्कार नहीं है. आधुनिक हिंदी साहित्य के पिता कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र 19वीं शताब्दी के मध्यांतर के बाद प्रकट हुए.

इतिहासकार सुमित सरकार ने अपनी किताब आधुनिक भारत 1885-1974 में लिखा है, “हिंदी भाषा एक कृत्रिम निर्माण था जो हिंदू पुनरुत्थानवादी आंदोलन से जुड़ा था”. सरकार ने बताया है कि भारतेंदु प्रशासन में उर्दू के स्थान पर हिंदी भाषा के प्रयोग और गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाए जाने की वकालत करते थे. इसी दौरान इतिहासकार और भाषाविद शिवप्रसाद, हिंदुस्तानी को प्रोत्साहन दिए जाने की बात कर रहे थे. भारतेंदु की हिंदी में संस्कृत शब्दों का जोर था और शिवप्रसाद उस वक्त चलन में रही भाषा से मिलती-जुलती भाषा की वकालत करते थे. हिंदी भाषा के समर्थक इसमें उर्दू तत्वों के समावेश को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे.

शुरुआत से ही हिंदी भाषा में ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक भावना के तत्व मौजूद रहे हैं. बाद में राष्ट्रवादी आंदोलन में इस भाषा को प्रमुखता दिए जाने की बात होने लगी लेकिन तब भी ऐसी मांगों का विरोध होता था. वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया, जिन्होंने महाराष्ट्र के महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अध्यापन भी किया है, बताते हैं कि भारतेंदु की भाषा का विस्तार हो सका क्योंकि यह ब्राह्मण प्रभुत्व से संचालित राष्ट्रवादी आंदोलन को आकर्षित करती थी. संस्कृत भाषा के प्रभाव वाली भाषा में प्रभावशाली जातियों को एक ऐसा हथियार मिला गया जो समाज में उनके वर्चस्व को विस्तार देता था. एक समय में संस्कृत का ऐसा ही वर्चस्व था. चमड़िया हिंदी को “वर्चस्व की धारा” मानते हैं. वह कहते हैं कि आज जिन लोगों के नियंत्रण में हिंदी भाषा है वही समाज के भाष्य को नियंत्रित करते हैं.

स्कूलों में हमें मोहनदास गांधी के बारे में पढ़ाया जाता है और उनकी आत्मकथा का पाठ करना होता है. गांधी के अध्ययन से हम शाकाहार और ब्रह्मचर्य जैसी ब्राह्मणवादी अवधारणाओं को सफलता की कुंजी मानने लगते हैं. अंबेडकर का नाम केवल सामान्य ज्ञान की कक्षा में सिर्फ दो-चार लाइनों में सिमटा हुआ दिखाई देता है और संविधान निर्माता से अधिक उनका परिचय कुछ नहीं होता.

हम बच्चों का अपनी कॉपी के ऊपर “श्री गणेश” लिखना मामूली बात थी. वसंत पंचमी में हम लोग अपनी कॉपी-किताबों को ज्ञान की देवी सरस्वती के चरणों में धर देते और मान लेते कि सरस्वती हमारा होमवर्क कर देंगी. हमने ज्ञान को आस्था के बराबर मानना और ताकत के आगे नतमस्तक होना सीखा है. जब कभी मैं देर से सोकर उठता तो मेरे पिता स्कूल में पढ़ाई जाने वाली कविता सुना कर मुझे उठाते,

उठो सवेरे, रगड़ो नहाओ,

ईश विनय कर शीश नवाओ,

रोज बड़ों के छूओ पैर.

प्राथमिक स्कूल के मेरे हिंदी के अध्यापक उपाध्याय ब्राह्मण थे. हाई स्कूल में मेरे हिंदी के प्राध्यापक पाठक ब्राह्मण थे. उपाध्याय सर पेशे से पुजारी थे और बसंत पंचमी में हमारे स्कूल में सरस्वती पूजा कराते थे. पाठक सर ने मुझे बताया कि संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है और वैदिक काल के ब्राह्मणों ने त्रिकोणमिति का आविष्कार किया था. वे त्रिकोणीय हवन कुंड बनाकर यज्ञ किया करते थे.

हमें पढ़ाया जाता था कि गुप्त काल में समाज वर्ण धर्म द्वारा संचालित था. वर्ण धर्म मनुष्य को जन्मना जाति के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अछूत श्रेणियों में बांटता है. हमें सिखाया जाता था कि अतीत का यह काल स्वर्णिम था. सन् 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने वाले जमींदार कुंवर सिंह को नायक की तरह पेश किया जाता. 1970 और 80 के दशक में जमींदारों की बर्बर सेना का नामकरण कुंवर सिंह के नाम पर हुआ था. 1780 के दशक में अंग्रेजो के खिलाफ लोहा लेने वाले तिलक मांझी पर कभी कुछ नहीं बताया गया.

जिस वक्त बाबरी मस्जिद गिराई गई उस समय मेरे आस-पास के सभी लोगों को हिंदी मीडिया ने विश्वास दिला दिया था कि विवादास्पद भूमि वास्तव में भगवान राम का जन्म स्थान है. मैं भी भगवा झंडा लेकर हिंदू धर्म के रक्षार्थ नारेबाजी करता हुआ जुलूस के साथ चल पड़ता. मैं ऐसे धर्म की रक्षा कर रहा था जो मुझे अछूत मानता है. मुझे कभी जानने की इच्छा नहीं होती कि मैं बस्ती में क्यों रहता हूं जबकि राम मंदिर के जुलूस का नेतृत्व करने वाले ओबीसी कुर्मी, बाभन ब्राह्मण, ठाकुर राजपूत बेहतर इलाकों के बड़े-बड़े मकानों में रहते हैं. मेरे आस-पास ताड़ी निकालने वाले पासी और कपड़े धोने वाले धोबी, जिनके घरों में गधे होते थे, रहते थे.

वहां प्रभावशाली जाति के लोगों द्वारा हमें “नीच जात” या “हरिजन” बुलाया जाना और हिंदी में दूसरी तरह की गालियां देना स्वीकार्य था. हर होली में स्थानीय संगीत उद्योग बहिष्कृत जातियों को गालियां देने वाले गीतों का निर्माण करता और हमारे मोहल्ले के यादव, कुर्मी, ठाकुर और ब्राह्मण कान को भेदने वाली आवाज में ये गाने बजा कर थिरकते. फिर ये लोग मानव श्रृंखला बनाकर मटकी फोड़ते.

शुरुआती समय में जो साहित्य मैंने पढ़ा उससे मेरे भीतर कोई फर्क नहीं पड़ा. हिंदी भाषा के बड़े साहित्यकार एक हद तक ऊंची जाति के मर्द होते हैं. हिंदी भाषा के जिस एक लेखक का उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए दिया जाता है कि उन्होंने जातीय उत्पीड़न और सामाजिक न्याय पर लिखा है वह हैं- प्रेमचंद. स्कूल के दौरान और बाद में उनकी बहुत सी कहानियां मैंने पढ़ीं लेकिन मुझे कभी नहीं लगा कि वह सशक्तिकरण की बात करते हैं.

प्रेमचंद कायस्थ और प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य थे. महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले शरद जायसवाल ने प्रेमचंद द्वारा स्थापित साहित्यिक पत्रिका हंस का उदाहरण दिया और उसे “सामाजिक न्याय को स्वर” देने वाली पत्रिका बताया. प्रेमचंद की कहानी “ठाकुर का कुआं” को खासतौर पर जाति विरोधी माना जाता है. उस कहानी में एक बीमार दलित पुरुष को स्वच्छ पानी चाहिए और उसकी पत्नी गंगी के सामने ठाकुर के कुएं से पानी लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. जैसे ही गंगी चोरी-छिपे ठाकुर के कुएं से पानी भरने जाती है उसी वक्त ठाकुर का दरवाजा खुलता है और वह वापस भाग कर घर आ जाती है. इस कहानी में न तो व्यवस्था के उत्पीड़न को समझाया गया और न ही नाइंसाफी के खिलाफ लड़ने की कोई बात है. इस कहानी का ठाकुर बुरा तो है लेकिन जातीय संरचना वाले समाज में उत्पीड़ित जाति पर होने वाला अत्याचार नदारद है. प्रेमचंद दलित जोड़े को “बदनसीब” कहते हैं इसलिए ठाकुर के कुआं से पानी नहीं भर सकते.

प्रेमचंद की एक और कहानी है “कफन”. यह दलितों की जिंदगी पर आधारित है. यह कहानी दो गरीब चमार बाप-बेटे की है. दोनों अलाव के सामने बैठकर भुने हुए आलू खा रहे हैं जबकि घर में बहू प्रसव वेदना में छटपटा रही है. देखभाल के आभाव में सुबह होते-होते बहू की मौत हो जाती है. बहू के अंतिम संस्कार के नाम पर बाप और बेटे जमींदार और साहूकार से पैसे मांगते हैं और उन पैसों की दारू पी जाते हैं. प्रेमचंद लिखते हैं यह तो उनकी “प्रकृति” थी. मैं इस कहानी को दलितों के लिए प्रभुत्वशाली जातीय नजरिए वाली कथा मानता हूं. इस नजरिए में दलितों को दारूबाज, असक्षम, आलसी और लालची दिखाया गया है.

चमड़िया और जयसवाल प्रेमचंद की मेरी व्याख्या से सहमत नहीं हैं. चमड़िया ने तर्क दिया कि हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की सकारात्मक भूमिका है, खासतौर पर उस दौर के बौद्धिक परिवेश के आईने में देखने पर. प्रेमचंद 1930 के आसपास साहित्य रचना कर रहे थे. जयसवाल ने बताया कि 1960 और 1970 के दशक में हिंदी में वाम धारा के लेखकों का आगमन हुआ जिन्होंने वर्ग और समाजिक न्याय को अपनी लेखनी का आधार बनाया. इसके बावजूद चमड़िया भी मानते हैं हिंदी भाषा में दलित और आदिवासी स्वरों को कम जगह मिली है.

चमड़िया ने दलित कवि हीरा डोम का उदाहरण दिया. भोजपुरी भाषा की उनकी कविता “अछूत की शिकायत” 1924 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. इस कविता को दलितों पर लिखी गई पहली कविताओं में से एक माना जाता है. चमड़िया इस कविता को अपवाद मानते हैं. उन्होंने बताया कि इस कविता में जो बात है वह मुख्यधारा या हिंदी भाषा की एक अलग विधा के रूप में कभी विकसित नहीं हो पाई.

“अछूत की शिकायत” का एक अंश है-

हड़वा मसुदया कै देहियां बभनओं कै बानीं,

ओकरा कै घरे पुजवा होखत बाजे,

ओकरै इलकवा भदलैं जिजमानी.

सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी.

हमनी क इनरा के निगिचे न जाइलेजां,

पांके से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,

हमने के एतनी काही के हलकानी.

हाल में राजनीति में प्रवेश करने वाले उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार शाहनवाज आलम ने मुझे बताया कि हिंदी कविताओं में ग्रामीण जीवन का रोमानी चित्रण है. वह कहते हैं कि वाम विचारधारा वाले कवि माने जाने वाली सुमित्रानंदन पंत के लेखन में भी “ग्राम में जीवन सादा और सरल होता है” जैसी मान्यता भरी पड़ी है. सुमित्रानंदन पंत ब्राह्मण थे उन्हें कभी गांव के एक किनारे में रहना नहीं पड़ा होगा, उन्हें हिंसा का डर नहीं रहा होगा और उन्हें दलितों की तरह कुओं और सड़कों तक की पहुंच से वंचित नहीं रखा गया होगा.

पत्रकारिता कॉलेज में पहली बार अंबेडकर के लिखे संविधान का गंभीर अध्ययन करने का मौका मिला. लेकिन यहां भी अंबेडकर के अन्य काम को पढ़ने का अवसर नहीं था. इसने मेरे दिमाग के द्वार खोल दिए और मैंने पाया कि ज्ञान का संबंध तर्क से है न कि धर्म से. फिर भी अपनी सीमित समझदारी से संविधान का अध्ययन करते हुए मेरे अंदर एक बार फिर सरकार के प्रति विश्वास स्थापित हुआ. कश्मीर मामले में जब कभी विमर्श हो रहा होता तो मैं सरकार और सैन्य बलों का समर्थन करता और मेरी पढ़ी और देखी रिपोर्टों के हवाले से जस का तस तर्क सामने रखता. जब सरकार ने “ऑपरेशन ग्रीन हंट” शुरू किया तो मैं मानता था कि यह केवल माओवादियों को मारने के लिए चलाया जा रहा सैन्य अभियान है. इस ऑपरेशन का आदिवासियों की जिंदगी पर पड़ने वाले असर की संवेदना मेरे भीतर पैदा नहीं हो सकी.

दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर शैलेश कुमार दिवाकर ने उच्च शिक्षा में नए विचारों को प्रवेश दिलाने के लिए अपने संघर्ष से जुड़ा निजी अनुभव साझा किया. उनकी पढ़ाई पहले बिहार और बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई. मेरी ही तरह अंबेडकर या अंबेडकरवादी विचारधारा से उनका परिचय पहले नहीं था. सन् 2000 की शुरुआत में जब वह जेएनयू में मास्टर्स कर रहे थे तब उनके एक प्रोफेसर ने उन्हें उत्तर प्रदेश में अंबेडकरवादी आंदोलन पर एक वैकल्पिक पेपर से परिचित कराया. इसके बाद दिवाकर जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में अंबेडकर की किताबें ढूंढने लगे लेकिन उन्हें किताबें नहीं मिली. चूंकि अंबेडकर की किताबें महाराष्ट्र में आसानी से मिल जाती हैं इसलिए दिवाकर ने अपने एक मित्र से अंबेडकर की किताबें मंगवाई. जब वे स्वयं दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक हो गए और दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में संशोधन करने वाली समिति के सदस्य बने तब उन्होंने अंबेडकर के विचारों को पाठ्यक्रम में रखे जाने का प्रस्ताव दिया. उन्होंने तर्क दिया कि गांधी को पहले से ही पढ़ाया जा रहा है लेकिन अंबेडकर पर ध्यान नहीं दिया गया है. अपनी बात मनवाने के लिए उन्हें आंदोलन करने की धमकी देनी पड़ी.

हैदराबाद में सामुदायिक रिपोर्टर के रूप में काम करते हुए और उसके बाद भुवनेश्वर में क्राइम रिपोर्टर के रूप में क्रमशः सरकार को लेकर मेरा विश्वास कम होता गया. दलितों की बस्तियों के विकास के लिए जारी फंड को ऊंची जातियों वाले धनी इलाकों में खर्च किया जा रहा था. पीटे जाने वाले, बलात्कार, हत्या और धोखाधड़ी के शिकार और वे लोग जिन्हें उनकी जमीन और घरों से बेदखल कर दिया जाता था और जो पुलिस, अदालतों और मानव अधिकार आयोगों के सामने मिन्नतें करते थे वे अक्सर दलित या आदिवासी होते थे. अन्य अपराधों की तुलना में जातीय अत्याचार अधिक होते थे लेकिन इन खबरों को बहुत कम महत्व दिया जाता था. बादजूद इसके मेरा भ्रम नहीं मिटा था. मैं अभी भी चीजों को संपूर्णता में नहीं दे पा रहा था.

जनवरी 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद मैंने जाति को समझने का गंभीर प्रयास शुरू किया. भुवनेश्वर में मुझे अंबेडकर की जाति का नाश किताब नहीं मिली. हैदराबाद के एक दोस्त से मैंने यह किताब मंगवाईं. अंततः अंबेडकर ने मुझे जो मैंने भोगा और जिया था उसे समझने में मदद की. अंबेडकर को पढ़ने के बाद सशस्त्र बलों के साए में जी रहे कश्मीरियों और अर्धसैनिक बलों द्वारा अपनी जमीन से भगाए गए आदिवासियों के लिए मेरे मन में सहानुभूति पैदा हुई. मैंने जाति व्यवस्था के दूसरे पक्ष को जाना. मेरे सामने गुप्त काल के इतिहास की दूसरी व्याख्या सामने आई जो बौद्धों के ऊपर हिंसक ब्राह्मण के प्रभुत्व का समय था. मुझे लगा कि काश मुझे यह सब स्कूल और कॉलेज में पढ़ाया जाता.

सुल्तान सिंह गौतम दिल्ली में अंबेडकरवादी किताबों की दुकान चलाते हैं. जब मैंने अंबेडकर और उन पर लिखी किताबों को ढूंढने के अपने संघर्ष के बारे में बताया तो उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ. गौतम ने मुझे बताया कि अंबेडकर की पहली हिंदी किताब 1946 में रामचंद्र बनौधा नाम के दलित ने प्रकाशित की थी. इसके कुछ दशकों तक चंद प्रयास और हुए लेकिन इनका प्रसार दलित बुद्धिजीवियों तक ही सीमित था. 1970 में अंबेडकर के योगदान का महत्व बढ़ा और महाराष्ट्र सरकार ने अंबेडकर के अप्रकाशित लेखन और भाषणों को मूल अंग्रेजी में छापने का निर्णय किया. 1991 में अंबेडकर की 100वीं वर्षगांठ के अवसर पर केंद्र सरकार ने अंबेडकर के उस संकलन को हिंदी सहित 13 भाषाओं में अनुवाद करने का फैसला किया. गौतम बताते हैं कि सार्वजनिक या निजी किसी भी प्रकाशन ने इन्हें प्रकाशित नहीं किया. यहां तक कि केंद्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग ने भी इस संकलन को छापने में रुचि नहीं दिखाई.

सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इसको छापने का जिम्मा लिया और 1990 के मध्य में अंबेडकर की लेखन और भाषणों का पहला संकलन प्रकाशित हुआ. प्रकाशित संकलन को पुस्तकालय या किताबों की दुकान में स्थान नहीं मिला. गौतम बताते हैं कि लाइब्रेरियन और पुस्तक विक्रेता किताबों को ऐसी जगह जमाते थे जहां उन्हें कोई नहीं देख सकता था. इस तरह पाठकों और बिक्री के ऑडिट में यह संदेश मिलता है कि इन किताबों को कोई नहीं पढ़ रहा है और इस आधार पर प्रकाशित खंडों को वापस मंगवा लिया जाता और फिर प्रकाशित नहीं किया जाता.

मेरी तरह ही दिवाकर का भी मानना है कि हिंदी माध्यम में पढ़ाई करने के कारण सामाजिक न्याय के बारे में उनकी समझदारी का देर से विकास हुआ. उन्होंने दावा किया कि हिंदी भाषा अपने सार में जातिवादी, नस्लवादी और वर्चस्ववादी है. इस बात को समझाने के लिए उन्होंने अपनी बेटी द्वारा गाए जाने वाले एक लोकप्रिय संगीत का उदाहरण दिया. नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा था काले चोर ले गए. दिवाकर कहते हैं कि चोर हमेशा काला होता है.

हिंदी की विरासत अभिशप्त है. ऐसा नहीं हैं कि दूसरी भाषाओं की विरासत बेदाग है. अंग्रेजी भाषा पर औपनिवेशिक इतिहास का कलंक है और यह संभ्रांत और ऊंची जाति के लोगों का हथियार रही है. लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजी भाषा मुझे वह दिखा सकी जिसे हिंदी ने छिपाए रखा. ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि हिंदी पर जिन लोगों का कब्जा है, जिन लोगों ने हिंदी को शब्द भंडार दिया, इसमें साहित्य लिखा और इसका पाठ्यक्रम तैयार किया, उन लोगों के कब्जे में अंग्रेजी नहीं आ पाई. मैं नहीं चाहता कि अंग्रेजी भाषा हिंदी का स्थान ले. इसी तरह मैं यह भी नहीं चाहता कि अन्य भाषा की कीमत पर हिंदी का विस्तार हो. लेकिन भाषा को दिमाग खोलने का साधन होना चाहिए न कि इसे बंद करने वाला ताला. हिंदी को करोड़ों लोग पढ़ते और इस भाषा में सोचते हैं इसलिए हिंदी आज जैसी है उससे बेहतर हो सकती है. यदि उसे आज से बेहतर करना है तो हमें ईमानदारी से उसके अतीत और वर्तमान पर विचार करना होगा और पूछना होगा कि हम हिंदी के भविष्य को कैसा बनाना चाहते हैं.

सुधार : इस निबंध में रामचंद्र बनौधा का नाम रामचंद्र बौद्ध हो गया था. कारवां को इस गलती का खेद है.


Sagar is a staff writer at The Caravan.

Pia Alizé Hazarika is an an illustrator and designer whose work has been published by Penguin India, Captain Bijli Comics and others. She runs PIG Studio and bounces between New Delhi and Bombay.