दशहरा, दलित और पिअर बौरडियू

दलितों के लिए दशहरा में क्या है

चन्नी आनंद / एपी फोटो
19 October, 2022

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इस नवरात्री मैं भी दशहरा मेला देखने निकला. पहली शाम बिहार के उत्तर में दरभंगा जिले में पूजा पंडाल घुमा, तो दूसरी शाम नालंदा जिले का दशहरा देख आया. दोनों ही शहर पूरी तरह से सजे थे- गलियों से लेकर सड़कों तक. हर 20-30 कदम पर एक पूजा पंडाल था. इन पंडालों की भव्यता बढ़ाने के लिए हर पंडाल समिति ने अपने तरीके से खूब पैसे खर्चे थे. चारों तरफ भक्ति गाने गूंज रहे थे. शहर का हर कोना बत्तियों से चमक रहा था. पुलिस प्रसाशन पंडालों को देखने आने वालों की व्यवस्था में लगा था, तो नगरपालिका ने पानी की टंकियां भरवा कर रखवा दी थी. मैं जिस मोहल्ले में रुका था, वहां लगभग हर हिंदू घर में देवी के नाम का कलश स्थापित किया गया था. जिसकी पूजा हर रोज होती थी. घरों में परिवार के सदस्यों ने लहसुन-प्याज तक खाना छोड़ रखा था, क्योंकि इन खाद्य पदार्थों को वे “आसुरी” मानते थे. यूं समझें कि बाहर सजी पंडालें हिंदू घरों में चल रहे कर्म-कांड का ही विस्तृत स्वरूप थे. ऐसे में जब घर-बाहर, समाज, शासन और प्रसाशन एक ही चीज का प्रचार, प्रसार और अभ्यास कर रहे हों, तो आपको अपना गैर हिंदू होना अस्वाभाविक लग सकता है. यूं भी लगे की अगर मैं इस कर्म-कांड का हिस्सा नहीं हूं तो संभवतः मुझमें ही कोई गलती होगी.  

दूसरे धर्म के मानने वाले गैर हिंदू शायद मेरी बात से इत्तेफाक न रखें क्योंकि उनकी अलग धार्मिक पहचान उनके लिए ऐसे हिंदू उत्सवों के प्रति उदासीन रहने में मददगार हों. मगर एक दलित होने के नाते जब मैं पैदाइशी हिंदू हूं, मगर मेरा समाज, हिंदू समाज का हिस्सा नहीं रहा है, तो ऐसे में उत्सव में शामिल होना सामाजिक मजबूरी लगती है. आप कह सकते हैं कि यह मजबूरी इस धर्म को छोड़ कर खत्म भी की जा सकती है, मगर धरातल की सच्चाई जटिल है. पश्चिम और दक्षिण भारत की तरह बिहार में पिछले 200 सालों में कोई आध्यात्मिक क्रांति नहीं हुई जो बुद्धिज्म या आद धर्म को दलितों के लिए एक विकल्प की तरह प्रस्तुत करती. नतीजतन हमारे पूर्वज जायदातर हिंदू दलित बनकर ही रहे हैं. 1990 के दशक में उत्तर बिहार में कम्युनिस्ट के नेतृत्व में कई दलित जातियां सवर्ण हिंदुओं के खिलाफ उठीं, मगर ये लड़ाइयां उनकी राजनितिक पहचान तक सिमित रहीं. ऐसे में आध्यात्मिक क्रांति का बोझ हमारी पीड़ी या आनेवाली पीड़ी पर बढ़ जाता है. मैं अपनी निजी बात करूं तो मैं कहूंगा की मेरी अध्यात्म की खोज अब भी जारी है.  

1956 को दशहरे के दिन ही डॉ. भीमराव आंबेडकर ने हिंदू धर्म को छोड़ कर बुद्धिज्म अपनाया था. हिंदू धर्म को छोड़ने की घोषणा तो वो 1935 में ही कर चुके थे मगर बुद्धिज्म उन्होंने दो दशक बाद अपनाया. बुद्ध धर्म अपनाते हुए आंबेडकर ने इस बात का जवाब भी दिया कि उन्होंने आखिर इतना समय क्यों लिया. उन्होंने कहा था, "किसी धर्म को समझाना आसान काम नहीं है. ये किसी एक अकेले आदमी का मिशन नहीं है. कोई भी इंसान जो धर्म के बारे में सोच रहा है वह इस बात को समझेगा." आंबेडकर ने कहा कि, "दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति रहा होगा जिन पर इतनी जिम्मेदारियां थी जितना की उन पर". आंबेडकर के तीन दशकों की लंबी लड़ाई की वजह से ही भारत में दलितों को राष्ट्रीय पटल पर एक अलग स्वतंत्र राजनितिक पहचान मिली थी. मैं और मेरा समाज उन्हें बाबासाहेब कहते हैं. ये सच है की बाबासाहेब ने बुद्धिज्म को एक सही विकल्प बता कर हमारा काम आसान कर दिया. लेकिन कहीं ना कहीं मेरे जहन में यह भी है कि पहले उनकी तरह हर धर्म की किताब पढ़ कर, समझ कर ही कोई फैसला करूं.  

बहरहाल मेरे लेख की बहस यह है कि सर्वत्र दिखने वाला दुर्गापूजा उत्सव क्या सच में सार्वभौमिक है? क्या हिंदू समाज का प्रत्येक सदस्य इस उत्सव के लाभों में बराबर का हिस्सेदार है? या हिंदुओं के अंदर एक बड़ा दलित और पिछड़ा समाज सिर्फ कर्म-कांडों को जीवित रखने में सहायक बन रहा है जबकि इसके लाभार्थी कोई और हैं? इन सवालों को जानने के लिए मैं नवरात्री और विजयदशमी में बिहार के दो जिलों : क्रमश दरभंगा और नालंदा, में दशहरा मेला घुमा. इन खास चहलकदमीयों के अलावा मैं बचपन से किशोरावस्था तक करीब एक दर्जन दशहरा मेला अपने परिवार और दोस्तों के साथ भी घुमा चुका हूं. मेरे जीवन का यह वह काल था जब मेरा आंबेडकर के दर्शन से परिचय नहीं हुआ था. अपने इस दशहरा अनुभव को मैं फ्रांस के 20वीं सदी के समाजशास्त्री पिअर बौरडियू के दिए सिद्धांतों के जरिए व्याख्याय करूंगा. मैं यह साबित करूंगा कि बिहार का दुर्गा पूजा कुछ खास जातियों द्वारा संचालित उत्सव है जिसे उन्होंने अपने संसाधनों की वजह से सामाजिक व्यवस्था में इस तरह स्थापित किया है जिससे वे सार्वभौमिक और स्वाभाविक लगे. इस व्यवस्था के जरिए वे अपना प्रभुत्व लोगों के बीच निर्विरोध स्वीकृत करवाते हैं. मैं बौरडियू की "थ्योरी ऑफ हबिटुस" और "सिंबॉलिक वायलेंस" (अप्रत्यक्ष या प्रतीकी हिंसा) का सहारा लूंगा. दलित पिछड़ों का कोई फायदा न होने के बाबजूद वे इन कर्म-कांडों को मनाते हैं क्योंकि ये उत्सव एक अप्रत्यक्ष हिंसा की तरह काम करते हैं. 

मैंने रिपोर्टिंग के लिए मिथिला (दरभंगा) और मगध (नालंदा) इसलिए चुना क्योंकि ऐतिहासिक रूप से इन दोनों स्थानों ने एक दूसरे से प्रतिकूल सांस्कृतिक विरासत अपने में समा रखी है. जहां मिथिला पिछले 800 सालों से ब्राह्मण राजाओं और ब्राह्मण जमींदारों के शासन में रहा, मगध की विरासत बुद्ध धर्म की विरासत रही है. आधुनिक इतिहास की बात करें, तो मगध में ही जमींदारों के खिलाफ 1990 के दशक में दलितों का विद्रोह शुरू हुआ. मगध में ही पिछड़ों ने समाजवाद की लड़ाई लड़ी. इस तरह एक तरफ के लोगों की मानसिक चेतना में ब्राह्मणवाद रहा तो दूसरी तरफ सामाजिक क्रांति की छिटपुट आशा. हालांकि इस विरासत के बाबजूद मैं नालंदा का मूलनिवासी होने के नाते कह सकता हूं कि आज का नालंदा दरभंगा से बिलकुल भी कम नहीं है. हर तरफ हिंदू कर्म कांड का बोलबाला है. 

2 अक्टूबर को मेले की शुरुआत मैंने दरभंगा के लोकप्रिय लैंडमार्क दरभंगा टावर से की थी. टावर असल में ब्रिटिश जमाने की बड़ी सी दीवार घड़ी है जो चौक के बीचो-बीच खड़ी आज भी सही समय देती है. भारत में मुगलों और ब्रिटिश के शासनकाल में भी मिथिला की बागडोर ब्राह्मण जमींदारों के हाथ रही. मुगल और अंग्रेज, अपने अपने शासनकाल में, जमींदारों के द्वारा बिहार की प्रजा से लगान वसूल करवाते और बदले में जमींदारों को अपने मन मुताबिक लोगों पर शासन करने की छूट देते थे. ये व्यवस्था परस्पर लाभ देने वाली व्यवस्था थी. 

नवरात्री के दिन यह चौक पूरी तरह सजा हुआ था. टावर के चारों तरफ चायनीज बल्ब की लड़ियां लगी थी. और घेरों पर बलून और पताके लगे थे. पूरब की तरफ सामने ही एक पूजा पंडाल था. पंडाल की तरफ जाने का रास्ता लगभग 100 मीटर अंदर तक रंग बिरंगी बत्तियों से सजा था. सड़क के दोनों किनारों पर राष्ट्रीय ध्वज की तीन रंग की पट्टियां बांस के बल्लो के सहारे ठोके हुए थे. ऐसा लग रहा था जैसे झंडे के रंग में रंगी दोनों तरफ दीवारें खड़ी हैं. ऊपर दोनों किनारों के बीच रंग बिरंगे लैंप टांग दिए गए थे और सबसे बाहर के द्वार पर खकसे का बना भारत का मानचित्र था. जिसके आगे दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रेरित “भारत माता” की मूर्ति भी खड़ी थी. यहां धर्म और देश की परिकल्पना मिश्रित कर दी गई थी. उस पंडाल को अगर बच्चे देखने आएं तो उन्हें यही लगेगा की धर्म का प्रयोजन करना और देशभक्ति जाहिर करना एक ही बात है. धर्म से देश, और देश से धर्म, का संदेश मनुवाद को मानने वाले लोग वर्षों से प्रचारित करते आ रहे हैं. इस परिकल्पना में अलग धर्मों के मानने वालों के लिए जगह नहीं बचती.  

बहरहाल सजावट खत्म होते ही भगवा रंग में बना पंडाल सामने आया. जिसमें मूर्तियां रखी थीं. कहने को तो इन पंडालों और सजावट के पीछे स्थानीय लोगों का चंदा होता है मगर असल में इसमें 70-80 फीसदी पैसा स्थानीय व्यवसायी संघों का लगा होता है. 90 फीसदी ये व्यवसायी पिछड़ी जाति के बनिए और ऊंची जाति के वैश्य बनिए होते हैं. वे अपने इस आर्थिक प्रयोजन का श्रेय लेने में भी पीछे नहीं हटते. वे खुल कर पंडालों में ही अपना और अपने व्यवसाय का प्रचार करते हैं. मिसाल के तौर पर, टावर के पास वाले इस पंडाल के स्पोंसर्स में थे : बाइक के एक शोरूम चलाने वाले वैश्य बनिए दुकानदार और औरतों के रेडीमेड कपड़ों के एक शॉपिंग काम्प्लेक्स के मालिक. दोनों ने ही अपने-अपने ब्रांड का प्रचार द्वार पर लंबी सी पट्टी सटा कर कर रखी थी. इनसे भी ऊपर इस पंडाल का एक पुराना स्पांसर, एक मारवाड़ी परिवार रहा है, जिसके कपड़ों की दूकान टावर चौक पर ही उत्तर की तरफ है. पास रहने वाले एक रिटायर्ड सरकारी मुलाजिम ने मुझे बताया की '60 के दशक में टावर के उत्तर की तरफ की पूरी जमीन में "फुलवारी" होती थी. मतलब पेड़-पौधे रोपे जाते थे. वह पूरी जमीन उसी मारवाड़ी परिवार का था. अब इस जमीन पर शॉपिंग काम्प्लेक्स, होटल और रेस्टोरेंट बने हुए हैं. सरकारी मुलाजिम ने बताया कि मारवाड़ी परिवार की जमीनें अभी दो बेटों के बीच बराबर बंटी है. यही परिवार आज भी टावर पर दुर्गा उत्सव को स्पॉन्सर करता है. दुर्गा उत्सव साल का वह मौका होता है जब कपड़े-लत्तों की बिक्री चरम पर होती है. दशहरा में नए कपड़े खरीदने का चलन है. नवरात्री की सुबह बीजेपी वालों ने यहां भजन का एक कार्यक्रम भी रखा था.   

टावर से थोड़ा आगे है, हसन चौक. चौक से बाएं ही कुछ दूरी पर है दरभंगा जमींदारों का किला जिसकी अब सिर्फ दीवारें बची हैं. यही एक दूसरा बड़ा पंडाल था. स्थानीय लोगों ने बताया कि सजावट की प्रतिस्पर्धा में हसन चौक का पूजा समिति हमेशा अव्वल आता है. पंडालों के सजावट की प्रतिस्पर्धा जिला स्तर पर सरकारें या राजनितिक पार्टियां बिहार के लगभग हर शहर में आयोजित करती है. आम तौर पर त्योहार के आखिरी दिन जिलाधिकारी या कोई बड़ा नेता, पंडाल विजेता को कप और नकद इनाम देते हैं. नवरात्री की रात जब मैं यहाँ पहुंचा तो पूजा समिति ने पंडाल के आगे आपने पूर्व में प्राप्त इनामों को लोगों के देखने के लिए लगा रखा था. इस पंडाल की सजावट टावर की पंडाल के मुकाबले और भी ज्यादा भव्य था. बाजे बत्तियों के आलावे यहां बड़े-बड़े एलईडी स्क्रीन लगे थे जिस पर एनीमेशन जैसा कुछ चलता रहता था. द्वारों पर स्पोंसर्स के ब्रांड की पट्टी लगी थी. इनमें से सबसे ज्यादा पट्टियां “जी. डी. गोयनका पब्लिक स्कूल” की थीं. यह स्कूल जी. डी. गोयनका ग्रुप नाम के कांग्लोमरेट का है. यह ग्रुप पुरे देश में लगभग 60 स्कूल चलता है. इसके आलावे इनका कारोबार रियल एस्टेट, टूर और टूरिज्म में भी है. इस कांग्लोमरेट का मालिक एक मारवाड़ी परिवार है. गोयनका ग्रुप के आलावे, हसन चौक पूजा समिति के एक और बड़े स्पोंसर्स में अग्रवाल शॉपिंग मॉल है.  

अग्रवाल शॉपिंग मॉल के मालिक एक वैश्य बनिए परिवार है. यह मॉल दरभंगा का सबसे पुराना और सबसे लोकप्रिय शॉपिंग मॉल है. मॉल चौक के पास ही है. यह शहर के युवाओं के लिए सबसे लोकप्रिय हैंगऑउट भी है. यहां के पुराने बाशिंदे बताते हैं कि करीब 40 साल पहले अग्रवाल परिवार की छोटा सी रेडीमेड कपड़ों की दुकान हुआ करती थी. दुकान, कहते हैं कि मॉल की जगह पर ही थी. आज यह शहर का सबसे महंगा मॉल है. अग्रवाल परिवार अब भी पंडाल समिति को बढ़-चढ़ कर चंदा देता है. 

हसन चौक के बाद मैं लगभग एक दर्जन पंडाल और घूमा. सब जगह लगभग यही स्थिति थी. स्थानीय धनाढ्य व्यवसायी पूजा पंडालों के बड़े स्पोंसर्स में से थे. त्योहार के दौरान नए कपडें, नए बर्तन, नए फर्नीचर, नई गाड़ियां खरीदने का जो चलन बना हुआ है इससे इन्हीं व्यवसायियों को फायदा होता है. 

दरभंगा के बाद अगली शाम मैं नालंदा जिले के प्रशासनिक कार्यालय बिहार शरीफ में दशहरा मेला घूमा. करीब साढ़े तीन लाख आबादी वाले इस शहर में सोने की दुकानों की एक मंडी है जो शहर के पंडित गली से शुरू होकर सब्जी बाजार तक जाती है. इसमें करीब 100 सोने की दुकानें होंगी. इन दुकानों के मालिक या तो पिछड़े वर्ग के बनिए या वैश्य बनिए हैं. सोने बेचने और तराशने का काम लगभग सभी दुकानदारों का खानदानी रहा है. पूरी मंडी हर वर्ष एक पूजा पंडाल का आयोजन कराती है जिसे सोनारा पट्टी कहते हैं. सोनारा पट्टी का शाब्दिक अर्थ ही सोनार जाति के लोगों की पट्टी होती है. सोनार पिछड़े वर्ग के बनिए होते हैं. आम बोलचाल में सोने की व्यापार में लगे वैश्य बनियों को भी सोनार कहते हैं. सोनारा पट्टी का पूजा पंडाल भी अपने आप में विशेष होता है. पंडाल एक संगमरमर की बनी मंदिर में बनाया जाता है जिसे सोनारों ने ही बनवाया था. मंदिर तक पहुँचने का लगभग 100 मीटर का फासला पूरी तरह सजाया जाता है जिसमे सभी सोनारों के नाम अंकित होते है. सोने की इस मंडी में सबसे ज्यादा बिक्री दशहरा से शुरू हो कर साल के आखिर तक होता है. धार्मिक मान्यताओं के कारण हिंदू त्योहारों के समय खूब सोना खरीदते हैं. नवंबर और दिसंबर में हिंदू विवाह के मुहूर्तों के कारण भी बिक्री ज्यादा होती है. अगर ये धार्मिक मंजूरियों न हो तो शायद यह मंडी सिर्फ शादियों के सीजन में ही सोना बेच सके.  

सोनारा पट्टी के अलावे बिहार शरीफ का सबसे आलिशान पंडाल पुलपर का होता है. यहाँ हर वर्ष कारीगर कलकत्ता से मंगवाए जाते हैं जो पंडाल को देश के किसी खास स्मारक की प्रतिमा में बनाते हैं. इस साल पुलपर पूजा समिति ने दिल्ली का अक्षरधाम मंदिर बनाया था. पंडाल के ऊपर उन्होंने प्रधान मंत्री मोदी का एक बड़ा कट आउट भी लगा दिया. पूजा समिति एक धार्मिक पर्व के जरिये मोदी का प्रचार प्रसार कर रहीं थी. इसकी वजह कोई देशभक्ति नहीं बल्कि प्रधान मंत्री के कट्टर हिंदू की छवि थी. पुलपर के एक पुराने व्यापारी, जो यादव हैं, ने कहा की "मोदी हिन्दुओं की शान हैं. उनसे दुनिया थर थर कांपती है". बिहार शरीफ में लगभग 34 प्रतिशत मुस्लमान हैं. '90 के दशक में यहां कई सांप्रदायिक दंगे हुए. 2004 में नितीश कुमार और बीजेपी की गठबंधन सरकार आने के बाद दंगे थम गए. दोनों कौमों की बीच नफरत भी कम हुई. मगर 2014 के बाद नफरत फिर से बढ़ी है. अब कई हिंदू जातियां खुलकर मुसलमानों के खिलाफ बोलती हैं. मोदी की तस्वीर को इसी संदर्भ में समझना होगा. पुलपर पूजा समिति शहर की सबसे अमीर पूजा समिति है. यह पूरा इलाका शहर का सबसे पुराना शॉपिंग केंद्र रहा है. यहां महंगी घड़ी की मंडी, मोबाइल फोन, कपड़े की दुकान, मिठाई की दुकान, रेस्टोरेंट, सिनेमा हॉल, बैंक, कोर्स की किताबों की मंडी, इत्यादि सब कुछ महज 200 मीटर के अंदर ही है. पुलपर का पंडाल पुलपर चौराहे के पास ही बनता है. इस पूजा समिति में बनियों के अलावा यादव भी हैं. सब पेशे से व्यापारी हैं.       

पुलपर के बाद, भैंसासुर और बड़ी पहाड़ी इलाके पुराने लोकप्रिय पंडाल समिति रहे हैं. जो पुलपर की तरह ही हर साल कोई प्रतिमा बनाते हैं. भैंसासुर पूजा समिति भी व्यापारियों पर निर्भर है जिसमें अधिकांश व्यापारी पिछड़े वर्ग के बनिए ही हैं. इसके अलावा चश्मों के शोरूम और कई प्राइवेट अस्पताल के मालिक भी चंदा देते हैं. बड़ी पहाड़ क्षेत्र की पूजा समिति को जिला प्रसाशन का संरक्षण भी रहा है. इस इलाके में ही जिले के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक सहित कई पदाधिकारियों का सरकारी निवास रहा है.  

इस तरह जब हम बारीकी से देखते हैं तो समझ आता है कि पूरे उत्सव के प्रयोजन में कुछ खास जाति और वर्ग का बड़ा हाथ है. इस प्रयोजन के बदले उन्हें अपने व्यवसाय में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष फायदा भी होता है. व्यापारी वर्ग के अलावा एक और वर्ग हैं जिन्हें दुर्गा उत्सव से आर्थिक और सामाजिक लाभ मिलता है, वह हैं ब्राह्मण. दुर्गा उत्सव 10 दिनों तक चलता है. जितने पंडाल हैं, वहां रोज पूजा सिर्फ ब्राह्मण ही करा सकते हैं. बदले में उन्हें पैसा, अनाज और देवी पर चढ़ावे का दान भी मिलता है. इन दिनों ब्राह्मण पुजारियों की खूब कमाई होती है. दलित-बहुजन अपने-अपने घरों में दसों दिन कोई न कोई कर्मकांड ब्राह्मण पुजारियों के हाथों ही करवाते हैं. दसवे दिन विजयदशमी को जितने हिंदुओं ने कलश स्थापना की होती है वे फिर हवन करवाते हैं. सिर्फ दशमी के हवन करने का रेट ही 5000 से 10000 रुपए तक होता है. पैसों के अलावा ब्राह्मण पुजारियों को अनाज, फल और मिठाइएं भी देना होता है.  

यह सब कुछ ऐसे नहीं होता जैसे आपके घर में कोई प्लंबर आया हो और आपने उससे काम लेकर चलता कर दिया. ब्राह्मण पुजारी घर आते हैं तो घर के प्रत्येक सदस्य को उन्हें पैर छूकर प्रणाम करना होता है. बच्चों से लेकर बूढ़ें तक उनके पैर छूते हैं. ऐसा करते ही घर का प्रत्येक सदस्य अपने ही घर में अपने ऊपर बाहर के किसी व्यक्ति का मौन प्रभुत्व स्वीकार कर लेता है. आप उसे रे या ते नहीं बोलते. पूरे सम्मान के साथ झुक कर बात करते हैं. ब्राह्मण पुजारी यूं अहंकार में पूजा करवाता है जैसे वह आप पर अहसान कर रहा हो. उस क्षण में घर में उत्पन्न यह सामाजिक समीकरण ब्राह्मण को अपने आप ही ऊंचा दर्जा दे देता है, उनके सिर्फ ब्राह्मण होने की वजह से. ये उत्सव ब्राह्मण जाति को वो माध्यम प्रदान करते हैं जिससे वह समाज में अपने से नीचे की जाति के लोगों पर अपनी श्रेष्ठता और प्रभाव बना के रख सकें. इस तरह ब्राह्मण और वैश्य और कई सक्षम वर्ग इस त्योहार से लाभांवित होते हैं, और यही वजह है कि इसे वे पूरे समुदाय का पर्व बता कर प्रचार और प्रसार करते हैं. इसे सत्य पर असत्य की जीत के रूप में मनाने को कहते हैं. मगर किसका सत्य और किसका असत्य है यह जानने से पहले हम बोर्डयू के सिद्धांत की थोड़ी और चर्चा कर लेते हैं. 

बौरडियू के हबिटुस के सिद्धांत को मोटे तौर पे यूं समझा सकता है कि समाज के किसी भी व्यक्ति का कोई भी फैसला समाज के वस्तुनिष्ट नियम के दायरे और उनके सामाजिक परस्थितियों से उत्पन्न व्यक्तिगत विकल्प के सम्मिलिति प्रभाव का परिणाम होता है. समाज का नियम और व्यक्ति की अपनी सामाजिक परिस्थति दोनों मिल कर उसके किसी भी फैसले का निर्धारण करता है. ये फैसलें न तो पूरी तरह समाज के बंधन के आधार पर लिया जाता है और ना पूरी तरह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आधार पर. ये फैसले कहीं बीच की कड़ी होती है. ये फैसले कुछ भी हो सकते हैं. हम जीवन में क्या रोजगार करते हैं, क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, क्या बोलते हैं, क्या मनाते हैं, सब कुछ. उनका इसी से जुड़ा एक और सिद्धांत सिंबॉलिक वायलेंस का भी है. सिंबॉलिक वायलेंस एक अप्रत्यक्ष बल है जो समाज का शक्तिशाली वर्ग हमारे मानस पटल पर अलग अलग तरीकों से लगातार प्रहार करते रहते हैं. इस बल का उद्देश्य यह होता है कि समाज में उस वर्ग से नीचे के वर्ग के लोग उनकी प्रभुत्ता को निर्विरोध मान लें. उन्हें अपने मन में ऐसा अहसास हो जाए कि शक्तिशाली वर्ग के जीने का तरीका, पहनने का तरीका, और तमाम तरह के सारे तरीके ही सही, स्वाभाविक और सार्वभौमिक है. वह उन्हें इस तरह समाज में स्थापित कर देता है कि अगर शोषित वर्ग उच्च जातियों के लोगों के तरीकों की नकल नहीं करते तो उन्हें लगता है वे कुछ गलत कर रहे हैं.  

हम बौरडियू के दोनों सिद्धांतों को लगा कर समाज में दलित बहुजन के दुर्गा उत्सव को मनाने के आचरण को समझ  सकते हैं. जब समाज का शक्तिशाली वर्ग समाज में दुर्गा उत्सव के रूप में एक संस्कृतिक मानदंड स्थापित कर देता है तो दलितों के पास बहुत ज्यादा विकल्प नहीं होते हैं. वे इस व्यवस्था को स्वयं ही आत्मसात कर लेते हैं. उनके सारे फैसले संपन्न वर्ग द्वारा स्थापित मानदंडों के घेरे में आ जाता है. उनके फैसले स्वतंत्र तब तक नहीं होंगे जब तक ब्रह्मण बनिए और कई और संपन्न वर्ग अपने अप्रत्यक्ष हथियार न हटा लें. दुर्गा उत्सव को जिस तरह ब्राह्मण, बनिए और बाकी सवर्ण समाज प्रचारित और प्रसारित करता है, जिस तरह उन्हें सरकार और प्रसाशन से समर्थन मिलता है, जिस तरह हर सांस्कृतिक माध्यम, चाहे टेलीविज़न हो, या रेडियो, या इंटरनेट, से समर्थन मिलता है, ऐसे में स्वाभाविक है की वे वर्ग जिन्हें इस त्योहार से कोई आर्थिक, सामाजिक या राजनितिक लाभ नहीं है वे भी इन्हे मानते हैं. सिर्फ लाभ ही नहीं, इस त्योहार के जरिए वे ऊंची जातियों की समाज में संप्रभुता भी चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं.    

हालांकि इस व्यवस्था को तोडना इतना मुश्किल भी नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह है, यह पूरी व्यवस्था झूठ और आडंबर पर आधारित है. अगर दलित समाज के अंदर डॉ. आंबेडकर के तर्कों का सिर्फ प्रचार-प्रसार कर दिया जाए तो यह व्यवस्था भरभरा के गिर जाएगी. दशहरा, जिसे सवर्ण हिंदू समाज सत्य पर असत्य की विजय का प्रतीक बता कर बेचता है, उसके तथ्यों की जांच कर हम सच जान सकते हैं. डॉ आंबेडकर ने "रिडल्स ऑफ हिंदुइज्म" [हिंदू धर्म की पहेली] में हिंदू देवी देवताओं की विस्तार से चर्चा की है. डॉ आंबेडकर लिखते हैं कि इन देवी देवताओं की उपज मुख्यतः पुराणों से हुई है जिसकी रचना ब्राह्मणों के अलग अलग संप्रदायों ने दूसरी सदी से 16वीं सदी के बीच की थी. पुराणों के रचना के मामले में, डॉ आंबेडकर यह भी लिखते हैं कि, इसकी असली रचना वेदों से भी पहले शूद्र लेखकों ने की थी. मगर कालांतर में ब्राह्मणों ने अपनी प्रभुता बनाए रखने के लिए उन्हें फिर से रचा और अपने तरीके से उसमें तोड़ मरोड़ की. आंबेडकर ब्राह्मणों द्वारा अलग-अलग देवताओं को अलग-अलग समय में समाज में लाने के लिए और फिर उन्हें गायब कर देने के पीछे एक संभावना का जिक्र करते हैं जो यह है कि ब्राह्मण लेखक खुद ही कई संप्रदाय में बंटे हुए थे, जैसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की धारा. इन संप्रदायों की बीच अपने अपने भगवान को सर्व शक्तिमान और “फर्स्ट बोर्न” [पहला जन्मा (भगवान)] स्थापित करने की प्रतिस्पर्धा निरंतर चलती रहती थी. जैसे विष्णु को मानने वाले कभी शिव को लोगों की नजर से गिरा देते तो कभी शिव को मानने वाले विष्णु को भक्तों की नजर में गिरा देते. आंबेडकर लिखते हैं कि इसी प्रतिस्पर्धा की वजह से एक बार ब्रह्मा की ब्राह्मणों ने इतनी बदनामी कर दी की उनकी समाज में पूजा बंद करनी पड़ी. देवी जैसे नए भगवान का निर्माण ब्राह्मणों ने अपनी इसी प्रतिस्पर्धा के दौरान की या यूं कहें उनका निर्माण इसी प्रतिस्पर्धा का परिणाम था.  

सोनू मेहता / हिंदुस्तान टाइम्स/ गैटी इमेजिस

आंबेडकर ने लिखा की सर्वोच्च पद और ताकत की आपसी लड़ाई ब्राह्मण लेखकों ने तीन देवताओं-- ब्रह्मा, विष्णु और महेश-- तक सिमित रखी थी. इन तीनों को कभी किसी और देवता के नीचे नहीं रखा गया. मगर एक ऐसा समय आया जब तीन देवताओं को ब्राह्मणों ने "श्री" नाम की एक देवी के नीचे रख दिया. आंबेडकर, श्री की कहानी "देवी भागवत पुराण" के हवाले से बताते हैं. वह लिखते हैं कि देवी भागवत के अनुसार श्री ने ही सृष्टि की रचना की और उन्होंने ने ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश को भी बनाया. आंबेडकर लिखते हैं कि पुराण के अनुसार, ब्रह्मा की उत्पति श्री के हथेली में उठे एक फोड़े से हुई. जब श्री ने अपनी हथेली खुजलाई थी तो उन्हें यह फोड़ा हुआ और इसी फोड़े से ब्रह्मा पैदा हुए. उनके पैदा होते ही श्री ने उनसे कहा की वह उनसे विवाह करे. भागवत पुराण के अनुसार, ब्रह्मा ने देवी को मना कर दिया क्योंकि रिश्ते में वह उनकी मां हो जाती. श्री ने ब्रह्मा के इनकार करने पर उनको भस्म कर दिया. इसके बाद श्री ने फिर अपनी हथेली खुजलाई और दूसरे फोड़े से विष्णु पैदा हुए. विष्णु ने भी श्री का विवाह का प्रस्ताव ठुकरा दिया और उन्हें भी श्री ने भस्म कर दिया. उसके बाद तीसरे फोड़े से शिव पैदा हुए और जब श्री ने शिव को विवाह का प्रस्ताव दिया और उन्हें उनके मरे हुए भाइओं की राख दिखाई, तो शिव ने जवाब दिया की वह श्री से विवाह करने को तैयार हैं. मगर उन्होंने शर्त रखी की श्री अपने ही रूप में दो और देविओं का निर्माण करे ताकि उनकी शादी ब्रह्मा और विष्णु को जीवित करके उनसे करवा सके. श्री ने, पुराण के अनुसार, शिव की शर्त मान ली.  

पुराण की ये कहानियां पूरी तरह से ब्राह्मण लेखकों की कल्पना है. अगर दलित समाज सिर्फ वैज्ञानिक तर्क के आधार पर ऊंच वर्ग द्वारा उत्सवों के माध्यम से प्रसारित झूठ पर सवाल करे, तो उन्हें सच समझ आ जाएगा. मगर वैज्ञानिक तर्क विकसित होने के लिए पूर्वी भारत के दलितों की शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक और राजीनीतिक स्थिति को सुदृढ़ करना होगा. अभी ज्यादातर दलितों का समय अपनी दो जून की रोटी कमाने में जाता है. ऐसी स्थिति में शक्तिशाली वर्ग द्वारा थोपे गए सिंबॉलिक वायलेंस से खुद को बचाना कठिन है, मगर असंभव नहीं है. 


Sagar is a staff writer at The Caravan.