इस नवरात्री मैं भी दशहरा मेला देखने निकला. पहली शाम बिहार के उत्तर में दरभंगा जिले में पूजा पंडाल घुमा, तो दूसरी शाम नालंदा जिले का दशहरा देख आया. दोनों ही शहर पूरी तरह से सजे थे- गलियों से लेकर सड़कों तक. हर 20-30 कदम पर एक पूजा पंडाल था. इन पंडालों की भव्यता बढ़ाने के लिए हर पंडाल समिति ने अपने तरीके से खूब पैसे खर्चे थे. चारों तरफ भक्ति गाने गूंज रहे थे. शहर का हर कोना बत्तियों से चमक रहा था. पुलिस प्रसाशन पंडालों को देखने आने वालों की व्यवस्था में लगा था, तो नगरपालिका ने पानी की टंकियां भरवा कर रखवा दी थी. मैं जिस मोहल्ले में रुका था, वहां लगभग हर हिंदू घर में देवी के नाम का कलश स्थापित किया गया था. जिसकी पूजा हर रोज होती थी. घरों में परिवार के सदस्यों ने लहसुन-प्याज तक खाना छोड़ रखा था, क्योंकि इन खाद्य पदार्थों को वे “आसुरी” मानते थे. यूं समझें कि बाहर सजी पंडालें हिंदू घरों में चल रहे कर्म-कांड का ही विस्तृत स्वरूप थे. ऐसे में जब घर-बाहर, समाज, शासन और प्रसाशन एक ही चीज का प्रचार, प्रसार और अभ्यास कर रहे हों, तो आपको अपना गैर हिंदू होना अस्वाभाविक लग सकता है. यूं भी लगे की अगर मैं इस कर्म-कांड का हिस्सा नहीं हूं तो संभवतः मुझमें ही कोई गलती होगी.
दूसरे धर्म के मानने वाले गैर हिंदू शायद मेरी बात से इत्तेफाक न रखें क्योंकि उनकी अलग धार्मिक पहचान उनके लिए ऐसे हिंदू उत्सवों के प्रति उदासीन रहने में मददगार हों. मगर एक दलित होने के नाते जब मैं पैदाइशी हिंदू हूं, मगर मेरा समाज, हिंदू समाज का हिस्सा नहीं रहा है, तो ऐसे में उत्सव में शामिल होना सामाजिक मजबूरी लगती है. आप कह सकते हैं कि यह मजबूरी इस धर्म को छोड़ कर खत्म भी की जा सकती है, मगर धरातल की सच्चाई जटिल है. पश्चिम और दक्षिण भारत की तरह बिहार में पिछले 200 सालों में कोई आध्यात्मिक क्रांति नहीं हुई जो बुद्धिज्म या आद धर्म को दलितों के लिए एक विकल्प की तरह प्रस्तुत करती. नतीजतन हमारे पूर्वज जायदातर हिंदू दलित बनकर ही रहे हैं. 1990 के दशक में उत्तर बिहार में कम्युनिस्ट के नेतृत्व में कई दलित जातियां सवर्ण हिंदुओं के खिलाफ उठीं, मगर ये लड़ाइयां उनकी राजनितिक पहचान तक सिमित रहीं. ऐसे में आध्यात्मिक क्रांति का बोझ हमारी पीड़ी या आनेवाली पीड़ी पर बढ़ जाता है. मैं अपनी निजी बात करूं तो मैं कहूंगा की मेरी अध्यात्म की खोज अब भी जारी है.
1956 को दशहरे के दिन ही डॉ. भीमराव आंबेडकर ने हिंदू धर्म को छोड़ कर बुद्धिज्म अपनाया था. हिंदू धर्म को छोड़ने की घोषणा तो वो 1935 में ही कर चुके थे मगर बुद्धिज्म उन्होंने दो दशक बाद अपनाया. बुद्ध धर्म अपनाते हुए आंबेडकर ने इस बात का जवाब भी दिया कि उन्होंने आखिर इतना समय क्यों लिया. उन्होंने कहा था, "किसी धर्म को समझाना आसान काम नहीं है. ये किसी एक अकेले आदमी का मिशन नहीं है. कोई भी इंसान जो धर्म के बारे में सोच रहा है वह इस बात को समझेगा." आंबेडकर ने कहा कि, "दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति रहा होगा जिन पर इतनी जिम्मेदारियां थी जितना की उन पर". आंबेडकर के तीन दशकों की लंबी लड़ाई की वजह से ही भारत में दलितों को राष्ट्रीय पटल पर एक अलग स्वतंत्र राजनितिक पहचान मिली थी. मैं और मेरा समाज उन्हें बाबासाहेब कहते हैं. ये सच है की बाबासाहेब ने बुद्धिज्म को एक सही विकल्प बता कर हमारा काम आसान कर दिया. लेकिन कहीं ना कहीं मेरे जहन में यह भी है कि पहले उनकी तरह हर धर्म की किताब पढ़ कर, समझ कर ही कोई फैसला करूं.
बहरहाल मेरे लेख की बहस यह है कि सर्वत्र दिखने वाला दुर्गापूजा उत्सव क्या सच में सार्वभौमिक है? क्या हिंदू समाज का प्रत्येक सदस्य इस उत्सव के लाभों में बराबर का हिस्सेदार है? या हिंदुओं के अंदर एक बड़ा दलित और पिछड़ा समाज सिर्फ कर्म-कांडों को जीवित रखने में सहायक बन रहा है जबकि इसके लाभार्थी कोई और हैं? इन सवालों को जानने के लिए मैं नवरात्री और विजयदशमी में बिहार के दो जिलों : क्रमश दरभंगा और नालंदा, में दशहरा मेला घुमा. इन खास चहलकदमीयों के अलावा मैं बचपन से किशोरावस्था तक करीब एक दर्जन दशहरा मेला अपने परिवार और दोस्तों के साथ भी घुमा चुका हूं. मेरे जीवन का यह वह काल था जब मेरा आंबेडकर के दर्शन से परिचय नहीं हुआ था. अपने इस दशहरा अनुभव को मैं फ्रांस के 20वीं सदी के समाजशास्त्री पिअर बौरडियू के दिए सिद्धांतों के जरिए व्याख्याय करूंगा. मैं यह साबित करूंगा कि बिहार का दुर्गा पूजा कुछ खास जातियों द्वारा संचालित उत्सव है जिसे उन्होंने अपने संसाधनों की वजह से सामाजिक व्यवस्था में इस तरह स्थापित किया है जिससे वे सार्वभौमिक और स्वाभाविक लगे. इस व्यवस्था के जरिए वे अपना प्रभुत्व लोगों के बीच निर्विरोध स्वीकृत करवाते हैं. मैं बौरडियू की "थ्योरी ऑफ हबिटुस" और "सिंबॉलिक वायलेंस" (अप्रत्यक्ष या प्रतीकी हिंसा) का सहारा लूंगा. दलित पिछड़ों का कोई फायदा न होने के बाबजूद वे इन कर्म-कांडों को मनाते हैं क्योंकि ये उत्सव एक अप्रत्यक्ष हिंसा की तरह काम करते हैं.
मैंने रिपोर्टिंग के लिए मिथिला (दरभंगा) और मगध (नालंदा) इसलिए चुना क्योंकि ऐतिहासिक रूप से इन दोनों स्थानों ने एक दूसरे से प्रतिकूल सांस्कृतिक विरासत अपने में समा रखी है. जहां मिथिला पिछले 800 सालों से ब्राह्मण राजाओं और ब्राह्मण जमींदारों के शासन में रहा, मगध की विरासत बुद्ध धर्म की विरासत रही है. आधुनिक इतिहास की बात करें, तो मगध में ही जमींदारों के खिलाफ 1990 के दशक में दलितों का विद्रोह शुरू हुआ. मगध में ही पिछड़ों ने समाजवाद की लड़ाई लड़ी. इस तरह एक तरफ के लोगों की मानसिक चेतना में ब्राह्मणवाद रहा तो दूसरी तरफ सामाजिक क्रांति की छिटपुट आशा. हालांकि इस विरासत के बाबजूद मैं नालंदा का मूलनिवासी होने के नाते कह सकता हूं कि आज का नालंदा दरभंगा से बिलकुल भी कम नहीं है. हर तरफ हिंदू कर्म कांड का बोलबाला है.
कमेंट