यह कुप्रचार कि सभी मुसलमानों ने एक आवाज में द्विराष्ट्र सिद्धांत (दो-राष्ट्र सिद्धांत) के आधार पर भारत के बंटवारे की मांग की थी, कई दशक पुराना है लेकिन आज इसे फिर से हवा दी जा रही है. नवराष्ट्रवादियों की जमात सभी मुसलमानों को मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग के साथ जोड़कर हिंदुस्तान के टुकड़े करने वाले गद्दार बता रही है. ये लोग भूल जाते हैं कि मुसलमानों ने सचेतन रूप से हिंदुस्तान में रहने का फैसला लिया था जबकि उनके सामने पाकिस्तान जाकर पाकिस्तानी हो जाने या भारत को अपनी मातृभूमि बनाने के दो विकल्प थे. यहां के मुसलमानों ने भारत को चुना. इसी तरह का चयन पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं ने भी किया लेकिन एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और विविधता वाले भारत में रहना और एक प्रतिगामी और कट्टरपंथी इस्लामिक पाकिस्तान में रहना दो अलग-अलग बातें थीं और दोनों ओर रुकने वालों के भविष्य ने इसे साफ तौर पर साबित किया है.
भारत में राजनीति के दुर्भाग्यपूर्ण विकास और जारी सांप्रदायिक उन्माद ने मुझे इतिहास को ताजी आंखों से देखने के लिए मजबूर कर दिया. यहां सभी मुसलमानों को पाकिस्तान परस्त बताकर उन्हें देश का दुश्मन कह कर बदनाम करने का एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इन देशद्रोहियों को तथाकथित राष्ट्रीय हित के मद्देनजर पाकिस्तान भेज दिया जाना चाहिए. लेकिन क्षुद्र बहुसंख्यकवादी राजनीतिक स्वार्थ की खातिर सभी मुसलमानों को कठघरे में खड़ा करना ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बेईमानी है.
हम एक ऐसा राष्ट्र हैं जो इतिहास से चिपका हुआ है, जो ज्यादातर काल्पनिक ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की चिंता में मरा जा रहा है जबकि उसे अतीत से सबक लेने की जरूरत है. हममें से कई लोग अतीतजीवी हैं जो अतीत में बुरी तरह से रमाए हुए हैं. बहुत सारे लोगों को लगता है कि आजादी के वक्त के नेता मौलाना आजाद ही एक ऐसी मुस्लिम शख्सीयत थे जो भारत का बंटवारा ना होने के लिए अकेले लड़ रहे थे जबकि बहुसंख्यक भारतीय मुसलमान पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग के साथ खड़ा था. यह दावा बेबुनियाद है और इतिहास का अध्ययन करने से सही तथ्यों को समझने में मदद मिलती है.
जरूरी है कि हमारे इतिहास के अनजान नायकों के बारे में बात कर गलतफहमियां दुरुस्त की जाएं. देश विभाजन के आसपास ऐसे कई ऐतिहासिक चरित्र हैं जिनकी भूमिका नफरत और देश विभाजन की राजनीति का मुकाबला करने में महत्वपूर्ण थी. ऐसे ही एक नायक थे अल्लाह बख्श सूमरो. वह 1938 और 1942 के बीच दो बार सिंध प्रांत के प्रमुख रहे. आज के जमाने में यह दर्जा मुख्यमंत्री का होता है. सूमरो एक प्रतिबद्ध देशभक्त थे जिनसे मुस्लिम लीग बहुत नफरत करती थी. वह एक सामंती सिंधी परिवार से आते थे लेकिन वह अपने सरल जीवन और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे. वह बस 20 साल के थे, जब उन्होंने खादी पहननी शुरू की. आज हम सुनते हैं कि सत्ता के प्रतीक के रूप में झंडे का कैसा गलत इस्तेमाल होता है, लेकिन उन्होंने सामंती और औपनिवेशिक काल में भी अपनी आधिकारिक गाड़ी में कभी झंडा नहीं लगाया.
आज अविभाजित भारत के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को याद किए जाने की जरूरत है. सूमरो सभी तरह की सांप्रदायिक ताकतों की विभाजनकारी राजनीति के सामने एक मुख्य चुनौती के रूप में उभरे, खासकर मुस्लिम लीग की राजनीति के सामने. इसमें कोई शक नहीं कि मौलाना आजाद कॉम्पोजिट या साझे राष्ट्रवाद के राष्ट्रीय प्रतीक थे लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें सूमरो जैसी ताकतवर क्षेत्रीय आवाजों से हिम्मत मिलती थी.
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