अंबेडकर, अराजकता और आशा

बीआर अंबेडकर के भाषण, "अराजकता का व्याकरण", संविधान को औपचारिक रूप से अपनाए जाने से एक दिन पहले दिया गया था, जो उस अराजकता का पूर्वाभास देता है, जिसमें आज भारत फंसा हुआ है. विकिमीडिया कॉमन्स
15 June, 2023

भारत के अपने संविधान को अपनाने के महीनों पहले, इसके मुख्य वास्तुकार, बीआर अंबेडकर चिंताओं से घिरे थे. वह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के झूलते पालने में खड़े थे और अन्य संस्थापक सदस्यों की तुलना में निजी तौर पर ज्यादा बेहतर जानते थे कि भारत गंभीर जन्मजात दोषों के साथ पैदा होगा. हमारा समाज बारीकी तक वर्गीकृत गैरबराबरी पर आधारित समाज था, जिसने खुद को एक ऐसा संविधान दिया जो कहता है कि हम सभी समान हैं. लेकिन हम जानते थे, सब बराबर नहीं थे.

नवंबर 1949 में संविधान का आखिरी मसौदा तैयार हो गया था. भारत को दो महीने में गणतंत्र होना था. अंबेडकर जानते थे कि संविधान, जितना भी प्रगतिशील हो, उतना ही अच्छा था, जितना कि लोग इसे मानने के लिए इस पर भरोसा करते थे. "इसने एक बार अपनी आजादी खो दी थी. क्या वह इसे दूसरी बार खो देगा?'' अंबेडकर ने 25 नवंबर को संसद के केंद्रीय कक्ष में अपने सबसे महान भाषणों में से एक, "अराजकता का व्याकरण" देते हुए कहा. अगले दिन संविधान को औपचारिक रूप से अपनाया गया, अंबेडकर को हैरानी हुई कि क्या भारत में उस आजादी को पचा पाने का दम भी है जो वह हासिल करने वाला था.

अंबेडकर ने "अराजकता का व्याकरण" भारत के इतिहास में वास्तव में अराजक समय में, 1947 और 1950 के बीच लिखा था जब भारत आजाद था लेकिन अभी तक कोई संविधान नहीं था. अब कोई नियम नहीं थे. संविधान एक शानदार और सावधानीपूर्वक नुस्खा है उन हालात से बचने के लिए जहां भारत अभी पहुंच गया है यानी पूरी तरह से अराजकता की स्थिति में, जो आजाद होने की निंदा करता है, जो सत्ता में राजनीतिक दलों के साथ यह मानते हुए कि सत्ता का असल मकसद बड़े डेस्क के पीछे से सभी को दबाना है, जहां करदाताओं के पैसे से बने शानदार कार्यालयों में हर किसी ने लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए इसी की भाषा का उपयोग करना सीख लिया है.

अंबेडकर की विस्तृत समझदारी पर चौंके बिना संविधान को पढ़ना मुश्किल है - वह अपनी रचना के विघटन की भविष्यवाणी कर रहे थे. उनके द्वारा 1949 में 2023 के भारत की भविष्यवाणी की गई थी. हमारे वर्तमान शासकों को अराजकता से उतना ही प्यार है जितना संस्थापक सदस्यों को इससे नफरत थी. अराजकता पैदा करने के लिए हर दिन, हर सेकंड का इस्तेमाल जर्मन सटीकता के साथ किया गया है. जैसे-जैसे हम 2024 में बदसूरत चुनाव की ओर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे हर महीना और अधिक अराजक होता जा रहा है.

पिछले चार हफ्तों में, अराजकता का राज रहा है.

बीबीसी द्वारा 2002 के गुजरात दंगों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूमिका की जांच के बाद या शायद इसी वजह से सरकार ने बीबीसी के खिलाफ अपनी जांच शुरू कर दी है. गौतम नवलखा की जमानत पर वाशिंगटन पोस्ट के खुलासे के बावजूद खारिज कर दिया गया था कि एल्गार परिषद मामले में कई अभियुक्तों के उपकरणों पर आपत्तिजनक सबूत थोपे गए थे. डार्विन के विकास के सिद्धांत और एमके गांधी की हत्या के विवरण को "पाठ्यक्रम युक्तिकरण" प्रक्रिया के हिस्से के रूप में हटा दिया गया था. अभी के लिए हमारी विदेश नीति, जी20 जैसी बैठकों के रसद प्रबंधन की इजाजत पाने के बारे में शेखी बघारने की है. गुजरात के अहमदाबाद की एक विशेष अदालत ने 2002 के गोधरा दंगों के दौरान नरोदा गाम नरसंहार मामले में सभी 68 अभियुक्तों को बरी कर दिया; 27 अन्य अभियुक्तों को हत्या और सामूहिक बलात्कार से बरी कर दिया गया था. भारत के शीर्ष पहलवान अपने महासंघ प्रमुख के खिलाफ विरोध करने और कई महिला एथलीटों का यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाने के बाद उसकी "तत्काल गिरफ्तारी" की मांग करने के लिए नई दिल्ली की सड़कों पर लौट आए. दो महीने के विरोध के बावजूद कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई थी. पटना हाईकोर्ट ने राज्य की जातिगत जनगणना पर रोक लगा दी है. मोदी ने तितलियों को आजाद किया, जो उनके लिए पकड़े जाने से पहले आजाद ही थीं. बेतुके रंगमंच की एक सटीक नुमाइश जैसा राज चल रहा है. इस बीच, उत्तर प्रदेश में अधिकारियों को एक अच्छी देखरेख में जी रही सारस क्रेन को उसके इंसान साथी से जब्त करने का समय मिल गया. अंत में, मणिपुर आग में जल रहा है जबकि प्रधान मंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री केरल पर आधारित एक प्रचार फिल्म के बारे में कर्नाटक चुनाव में प्रचार कर रहे थे.

इस अराजकता के बीच, एक ऐसा धमाका हुआ, जिससे शर्मिंदा होने में सक्षम सरकार का अंत हो जाना चाहिए था. भारतीय जनता पार्टी के नेता और जम्मू और कश्मीर के पूर्व राज्यपाल, सत्यपाल मलिक ने मोदी पर 2019 के पुलवामा हमले के बारे में प्रासंगिक सवालों पर उन्हें चुप कराने, भ्रष्टाचार को लेकर सहज होने और राष्ट्रपति की अतिथि सूची का वीटो रखने का आरोप लगाया. इस धमाके को खत्म करने के लिए, भारतीय नागरिकों को दोहरे हत्याकांड का अपनी तरह का पहला सीधा घरेलू प्रसारण दिखाया गया. पूर्व राजनेता अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को पुलिस सुरक्षा में और टेलीविजन कैमरों से घिरे होने के दौरान गोली मार दी गई थी. हत्यारे पत्रकारों के भेष में आए, यह अपने आप में एक त्रासदी है जो महाकाव्य के योग्य है. बंदूकधारियों ने अहमद बंधुओं को देर रात चिकित्सकीय जांच के लिए ले जा रही पुलिस पर अंधाधुंध हमला किया. फिक्शन लेखकों पर इतनी महीन और गुंथी हुई हत्या की साजिश रचने में कल्पना की कमी का आरोप लगता है. मोदी के भारत में साजिशें धुंधली नहीं होतीं, वह घनी हो जाती हैं और देश को दुर्गंधित करती हैं.

द वायर के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने ट्विटर पर लिखा, " कौसर बी, सोहराबुद्दीन और तुलसीराम की ओर से 2000 के दशक में प्रजापति से # अतीक अहमद तक, विचित्र और रहस्यमय गोलीबारी ने हमेशा @ नरेंद्रमोदी और @ अमित शाह को समाचारों की सुर्खियां बनाने में मदद की है. वह सही थे- दोहरे हत्याकांड ने मलिक को खबरों से दूर कर दिया. न्यायेतर हत्याओं का "जश्न मनाने" के लिए प्रचार चैनल दौड़ पड़े. नाज़ी जर्मनी के इंजीनियरों की तरह एक युद्ध हथियार बनाने के लिए एक साथ आने पर, सत्ताधारी पार्टी सत्ता में आने वाले हर सेकंड का अधिकतम लाभ उठा रही है. यहां तक कि उन्हें पता होना चाहिए कि ग्रेवी ट्रेन आखिरकार खत्म हो जाएगी.

अराजकता का पैमाना असरदार होता अगर यह इतना भयानक नहीं होता. भारत में, हम हर दिन एक बेतुकी ट्रैजिकोमेडी का सामना करते हैं. आजादी भ्रम है, अराजकता शाश्वत है. यही वजह है कि यह सब याद रखना महत्वपूर्ण है, यहां तक कि छोटी चीजें भी, खासकर छोटी चीजें. क्रेन और तितलियों के साथ-साथ हत्याएं भी.

मोदी के तहत, जीवन परपीड़न-स्वपीड़न की यात्रा है जिसमें अपने नेताओं के लिए हमारे प्यार को साबित करने का एकमात्र तरीका है कारण का त्याग कर दें. अगर अंबेडकर 2023 देखने के लिए जीवित होते, तो मुझे शक है कि इन दिनों भारत में "समाचार" के लिए जो कुछ भी जाता है, उसे पचा पाने का उनमें दम होता. राजनीति के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, वह मुमकिन है कि वापिस उन्हें उनकी कब्र पर पहुंचा देता.

तो यहां हम इतिहास के एक अंधेरे मोड़ पर हैं, एक ऐसे प्रधानमंत्री के साथ जिसे हम चाहते थे - एक प्रेमी की तरह जिसके लिए आप लड़े थे, जिस पर आप फिदा हैं. मोदी प्रशासन के तहत, दोहरे हत्याकांडों को टीवी पर प्रसारित किया जाता है, बलात्कारियों और सामूहिक बलात्कारियों का जश्न मनाया जाता है, हत्यारे पत्रकारों के वेश में आते हैं, जबकि जेल अच्छे पत्रकारों से अटे पड़े हैं. भारत, आज, अराजकता की परिभाषा है.

अराजकता का आदी होने की बात यह है कि हम यह भूल जाते हैं कि आदेश देना कैसा लगता है. शायद हम सभी ने व्यवस्था के इस पूर्ण परिवर्तन में अपना योगदान दिया है. हमने शायद आसान लक्ष्यों के साथ शुरू किया, उग्रवादियों को आतंकवादियों में बदल दिया, फिर हमने कार्यकर्ताओं को दुश्मनों में, छात्रों को जासूसों में, विपक्षी दलों को पंचिंग बैग में, मतदाताओं को लिंच मॉब में बदल दिया, और आखिर में उस बिंदु पर पहुंच गए जहां लोकतंत्र एक चुनावी निरंकुशता में बदल गया. यह सब शायद तब शुरू हुआ जब हम एक समाज बतौर सहमत हुए कि सच्चाई उसी की है जो सबसे जोर से चिल्लाता है और तलवार रखता है.

इस सरकार द्वारा फैलाई गई अराजकता संविधान को चरम सीमा तक परख रही है. "अराजकता का व्याकरण" पढ़ते हुए, जैसे-जैसे हम इसके बारे में और अधिक गहराई में जाते हैं, अंबेडकर के शब्द एक अपरिहार्य, स्वतः पूर्ण होने वाली भविष्यवाणी की तरह उतरते हैं. इसमें उन्होंने तीन बातें बताईं. विरोध के संवैधानिक तरीकों का उपयोग- इस सलाह ने माना कि आधुनिक भारत की संस्थाएं, खासकर अदालतें, संविधान को नष्ट करने के बजाय इसे बनाए रखेंगी. उन्होंने ठीक उसी तरह की "नायक-पूजा" के खिलाफ चेतावनी दी, जिस तरह से भारत आज जकड़ा हुआ है, और उन्होंने एक "सामाजिक लोकतंत्र" की जरूरत पर जोर दिया, जो सत्ता की सीटों से सड़कों तक टपकता है, जहां हम सभी कानून के समक्ष समान हैं.

जैसा कि जन्मजात विकार हमेशा करते हैं, भारत के दोष दीर्घकालीन विकलांगता में योगदान दे रहे हैं जो परिवारों, समुदायों और साथ ही हमारे समाज पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रही है. लिंग, जाति, यौनिकता, धर्म और राजनीतिक दलों की तर्ज पर हम सावधानी से श्रेणीबद्ध असमानता से शासित हैं. संविधान केवल रूप में मौजूद है, तथ्य में नहीं.

मुझे डर है, हमारे पास उस सवाल का भी जवाब है जिसने अंबेडकर को चिंता में डाल दिया था: "क्या वह इसे दूसरी बार खो देगा?" हां वह खो देगा. और उसने खो दी है. उन्होंने जिस भविष्य की भविष्यवाणी की थी हम आज वहीं पर हैं. जब अराजकता अन्याय का साधन बन जाती है, तो व्यवस्था न्याय की शुरुआत होती है. हमारे देश के इतिहास के इस बुरे और निराशाजनक समय में, अंबेडकर को पढ़ना आशा और व्यवस्था को बनाए रखने का एक तरीका है.