2002 में गुजरात में जो कुछ हुआ उसके लिए "नरेन्द्र मोदी सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं". इन थोड़े से शब्दों ने भारतीय मुसलमानों के दर्द को प्रकाश में लाने के लिए जो किया है वह उससे कई गुना अधिक है जो हमारी सरकारों ने उनके लिए इन सालों में किया या कहा है.
गहन दस्तावेजों और इंटरव्यू के आधार पर बनी बीसीसी की डाक्यूमेंट्री फिल्म “मोदी क्वेश्चन” ने एक तरह का ऐसा अपराध किया है जो केवल कोई बाहरी व्यक्ति ही कर सकता है : इसने बीस साल के भारत के उस रहस्य से पर्दा उठा दिया जो संभवतः सभी को पता था. दो दशकों में, जैसे-जैसे गुजरात मॉडल का विस्तार हुआ, लाशों का ढेर हमारे चारों ओर तैरता दिखने लगा, जबकि हम, भारत के लोगों ने अपनी आंखें अपनी पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था, अपनी सॉफ्ट पावर और अपने नए मसीहा नरेन्द्र मोदी पर से हटने नहीं दीं.
हमारे लिए अब यह बात कोई मायने नहीं रखती कि मोदी की नजरों के सामने, तीन दिनों में, एक उन्मादी लेकिन बहुत बेहतर ढंग से संगठित, भीड़ ने 1180 लोगों को मार डाला जिनमें लगभग अस्सी फीसदी मुसलमान थे. 2500 उस हिंसा में जख्मी हुए. मोदी का करियर राष्ट्रीय राजनीति में इस “छलांग” के साथ शुरू हुआ और आखिरकार वह देश के सर्वोच्च पद पर आसीन भी हो गए. लेकिन यह सब दंगे की वजह से ही हुआ. यह सब अब हमारी दंतकथाओं का हिस्सा है. उनकी शोहरत के साथ यह दाग हमेशा के लिए चस्प है. तब से मोदी वक्त-वक्त पर होने वाले दंगों, पड़ोसी मुल्कों के साथ सीमा विवाद और चुनावी चक्रों के साथ रणनीतिक जगहों पर मंदिर निर्माण का वादा करके सत्ता पर काबिज रहे हैं. इस बिंदु पर मुद्दा यह नहीं है कि सिस्टम कानून-व्यवस्था बनाए रखने में नाकाम रहा या नहीं. बल्कि मुद्दा यह है कि क्या लोगों को भेड़ियों के सामने खुला छोड़ दिया गया था या उन्हें भेड़ियों को परोसा गया था. मसला बाकी हम सबके बारे में है जिन्होंने इस झूठ को जानते हुए भी किसी सच्चे प्यार या सुखद अंत की तरह इसका साथ दिया.
दिन की चकाचौंध में सच्चाई हमें भारत के मुसलमानों के सामने पेश जबरदस्त तकलीफों को बयान कर रही है. वे बहुसंख्यक मतदाताओं से घिरे हैं जो जुल्म, बर्बरता को बढ़ावा देने में कोई शर्म महसूस नहीं करते. वे एक दुश्मनाना प्रशासन, एक उदासीन विधायिका और एक हिंसक पुलिस बल से लैस एक बेदर्द कार्यपालिका का सामना करते हैं. नतीजा यह है कि समुदाय के खिलाफ बेलगाम जहर उगला जा रहा है क्योंकि टेलीविजन एंकर नागरिकों के एक वर्ग को लड़ने और अपने ही जनता के दूसरे वर्ग को मारने के लिए उकसाते हैं. 2002 में सामूहिक बलात्कार, सामूहिक हत्या और सामूहिक मिलीभगत के तीन दिनों के बाद उन्मादी भीड़ ने अपने पंजे वापस खींचने का फैसला किया. गुजरात में शांति बहाल हुई. यह शांति एक निरंकुश सत्ता के साथ आई थी. भीड़ से जब कहा गया तो उसने हत्याएं की और जब उसे रोका गया तो रुक गई. उसके बाद से मोदी कभी कोई चुनाव नहीं हारे.
जब 2002 में किसी तरह बचे लोगों ने सबकुछ ताक पर रख न्याय के लिए काम करना शुरू किया तब मोदी ने उस वक्त का इस्तेमाल अपनी कल्पना का देश बनाने के लिए किया : उन्माद, गुस्से और गलत बयानी से भरापूरा देश. आने वाले सालों में, भारत ने खुद को इस बड़े टकराव के लिए तैयार किया, जिसे हम आज देख रहे हैं : इस बदरंग सच्चाई के बीच कि एक फलती-फूलती अर्थव्यवस्था के सुकून देने वाले भ्रम और अर्थव्यवस्था को उफान देने के लिए कितनी लाशें लगती हैं. सच्चाई से ज्यादा भ्रम मायने रखता है. लेकिन भ्रम की खतरनाक बात यह है कि जब हम लंबे समय तक इसमें बने रहते हैं, तो हम इस पर यकीन करने लगते हैं. भारत के किसी भी दूसरे शहर की तुलना में दिल्ली में एक ऐसे देश का भ्रम सबसे ज्यादा है जिसे कहते हैं कि वह "लोकतंत्र की जननी" है और एक “बेमिसाल पल में” जी20 की मेजबान कर रहा है. राष्ट्रीय राजधानी झूठ का एक भव्य और पेचीदा तमाशा है, जहां हर गली-नुक्कड़ पर गुर्राते मर्दों की फरेबी मुस्कान बिखेरते, पार्टी के खर्चे से चले विज्ञापन अभियान में कोई भी फंसा हुआ महसूस करता है. हम एक मश्किल आजमाइस में जी रहे हैं : हमारा समाज तमाशों का जखीरा हो गया है, जहां शराब से ज्यादा कीमत गिलास की है.
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