संघ की नई रणनीति का संकेत देती हरिद्वार की धर्म संसद

उत्तराखंड के हरिद्वार में 17 से 19 दिसंबर 2021 तक आयोजित धर्म संसद का बैनर. 1980 के बाद यह पहली बार था जब संघ परिवार और विश्व हिंदू परिषद के नाम कार्यक्रम के पोस्टरों में नहीं थे.
उत्तराखंड के हरिद्वार में 17 से 19 दिसंबर 2021 तक आयोजित धर्म संसद का बैनर. 1980 के बाद यह पहली बार था जब संघ परिवार और विश्व हिंदू परिषद के नाम कार्यक्रम के पोस्टरों में नहीं थे.

साधुओं के राजनीतिकरण की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दशकों पुरानी कोशिशें कामयाब होती दिख रही हैं. संघ अब तक विश्व हिंदू परिषद के माध्यम से धर्म संसदों का आयोजन करता रहा है और काफी संख्या में साधुओं को आकर्षित करने में सफल भी रहा है. अब साधु खुद ही, और खासकर जिन्हें आरएसएस का समर्थन हैं, ऐसी संसदों का आयोजन कर रहे हैं और इनका मकसद धार्मिक मुद्दों पर चर्चा करना या हिंदू संन्यासी समाज का संदेश फैलाना नहीं बल्कि सांप्रदायिक विद्वेष भड़काकर जनता के बीच हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देना है. हरिद्वार में हुई धर्म संसद इस बदलाव की एक बानगी है.

हरिद्वार में दिसंबर के मध्य में तीन दिनों तक चले इसे आयोजन में कई साधुओं ने जहरीले भाषण दिए, मुसलमानों के कत्लेआम का आ​ह्वान किया और नाथूराम गोडसे की प्रशंसा की. 1980 के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि आयोजन के बैनरों पर संघ का नाम नहीं था, जबकि हरिद्वार धर्म संसद का आयोजन करने वाले साधु आरएसएस से जुड़े हैं. सनातन धर्म महासंघ और हिंदू रक्षा सेना जैसे कई हिंदू धार्मिक संगठनों के प्रमुख प्रबोधानंद गिरि और जूना अखाड़ा के सबसे वरिष्ठ साधु यतीन्द्रानंद गिरि पहले आरएसएस के प्रचारक थे. जूना अखाड़ा के एक अन्य वरिष्ठ साधु यती नरसिंहानंद, जो अपनी बदजुबानी के लिए बदनाम हैं, संघ परिवार की हिंदुत्ववादी राजनीति का अभिन्न अंग है.

इसका मतलब है कि आरएसएस ने अब इस तरह की घटनाओं और उनके संदेश में अपनी भूमिका को नकारने की क्षमता हासिल कर ली है. संघ को इस रणनीतिक पैंतरेबाजी में अचानक से सफलता नहीं मिली है. संघ ने साधु-संन्यासी समाज में घुसपैठ करने और उसे हिंदुत्व का समर्थक बनाने के लिए दशकों तक प्रयास किए हैं.

1960 के दशक के मध्य में आरएसएस ने पहली बार साधुओं और उनके आश्रमों और मठों के नेटवर्क में घुसपैठ की कोशिश की थी. मकसद था राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के लिए हिंदुओं की लामबंदी करना. इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संघ के तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने विहिप का गठन किया. तब से ही विहिप विभिन्न संप्रदायों के साधुओं को ना केवल सामाजिक बल्कि राजनीतिक मुद्दों पर संगठित कर रहा है.

इसी उद्देश्य के अनुरूप गोलवलकर ने अपने एक करीबी सहयोगी और आरएसएस के प्रचारक एसएस आप्टे को विहिप का पहला महासचिव नियुक्त किया. उन्होंने संघ के करीबी एक प्रभावशाली साधु स्वामी चिन्मयानंद को इसका पहला अध्यक्ष बनाया. आप्टे और चिन्मयानंद के बीच सहयोग आरएसएस प्रचारकों और हिंदू साधुओं के वांछित जुड़ाव का एक ऐसा प्रतीक बना गया जो तब से विहिप की आधारशिला बना हुआ है. संगठन बनने के तुरंत बाद 1964 में आप्टे ने हिंदू धर्म खतरे में है का राग अलाप कर विहिप के राजनीतिक एजेंडे को साफ कर दिया. उन्होंने कहा कि "दुनिया को ईसाई, इस्लामी और कम्युनिस्ट में बांटा जा रहा है. और ये तीनों हिंदू समाज को चारा समझ कर खा रहे हैं. इसलिए आवश्यक है कि प्रतिस्पर्धा और संघर्ष के इस युग में तीनों की बुरी नजर से खुद को बचाने के लिए हिंदू सोचना और संगठित होना आरंभ करें."

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