साधुओं के राजनीतिकरण की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दशकों पुरानी कोशिशें कामयाब होती दिख रही हैं. संघ अब तक विश्व हिंदू परिषद के माध्यम से धर्म संसदों का आयोजन करता रहा है और काफी संख्या में साधुओं को आकर्षित करने में सफल भी रहा है. अब साधु खुद ही, और खासकर जिन्हें आरएसएस का समर्थन हैं, ऐसी संसदों का आयोजन कर रहे हैं और इनका मकसद धार्मिक मुद्दों पर चर्चा करना या हिंदू संन्यासी समाज का संदेश फैलाना नहीं बल्कि सांप्रदायिक विद्वेष भड़काकर जनता के बीच हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देना है. हरिद्वार में हुई धर्म संसद इस बदलाव की एक बानगी है.
हरिद्वार में दिसंबर के मध्य में तीन दिनों तक चले इसे आयोजन में कई साधुओं ने जहरीले भाषण दिए, मुसलमानों के कत्लेआम का आह्वान किया और नाथूराम गोडसे की प्रशंसा की. 1980 के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि आयोजन के बैनरों पर संघ का नाम नहीं था, जबकि हरिद्वार धर्म संसद का आयोजन करने वाले साधु आरएसएस से जुड़े हैं. सनातन धर्म महासंघ और हिंदू रक्षा सेना जैसे कई हिंदू धार्मिक संगठनों के प्रमुख प्रबोधानंद गिरि और जूना अखाड़ा के सबसे वरिष्ठ साधु यतीन्द्रानंद गिरि पहले आरएसएस के प्रचारक थे. जूना अखाड़ा के एक अन्य वरिष्ठ साधु यती नरसिंहानंद, जो अपनी बदजुबानी के लिए बदनाम हैं, संघ परिवार की हिंदुत्ववादी राजनीति का अभिन्न अंग है.
इसका मतलब है कि आरएसएस ने अब इस तरह की घटनाओं और उनके संदेश में अपनी भूमिका को नकारने की क्षमता हासिल कर ली है. संघ को इस रणनीतिक पैंतरेबाजी में अचानक से सफलता नहीं मिली है. संघ ने साधु-संन्यासी समाज में घुसपैठ करने और उसे हिंदुत्व का समर्थक बनाने के लिए दशकों तक प्रयास किए हैं.
1960 के दशक के मध्य में आरएसएस ने पहली बार साधुओं और उनके आश्रमों और मठों के नेटवर्क में घुसपैठ की कोशिश की थी. मकसद था राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के लिए हिंदुओं की लामबंदी करना. इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संघ के तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने विहिप का गठन किया. तब से ही विहिप विभिन्न संप्रदायों के साधुओं को ना केवल सामाजिक बल्कि राजनीतिक मुद्दों पर संगठित कर रहा है.
इसी उद्देश्य के अनुरूप गोलवलकर ने अपने एक करीबी सहयोगी और आरएसएस के प्रचारक एसएस आप्टे को विहिप का पहला महासचिव नियुक्त किया. उन्होंने संघ के करीबी एक प्रभावशाली साधु स्वामी चिन्मयानंद को इसका पहला अध्यक्ष बनाया. आप्टे और चिन्मयानंद के बीच सहयोग आरएसएस प्रचारकों और हिंदू साधुओं के वांछित जुड़ाव का एक ऐसा प्रतीक बना गया जो तब से विहिप की आधारशिला बना हुआ है. संगठन बनने के तुरंत बाद 1964 में आप्टे ने हिंदू धर्म खतरे में है का राग अलाप कर विहिप के राजनीतिक एजेंडे को साफ कर दिया. उन्होंने कहा कि "दुनिया को ईसाई, इस्लामी और कम्युनिस्ट में बांटा जा रहा है. और ये तीनों हिंदू समाज को चारा समझ कर खा रहे हैं. इसलिए आवश्यक है कि प्रतिस्पर्धा और संघर्ष के इस युग में तीनों की बुरी नजर से खुद को बचाने के लिए हिंदू सोचना और संगठित होना आरंभ करें."
शुरुआती वर्षों में विश्व हिंदू परिषद को साधुओं से ज्यादा समर्थन नहीं मिला लेकिन आरएसएस डटा रहा. 1980 के दशक की शुरुआत में संघ ने विहिप को 150 प्रचारक दिए. इसके अलावा 1982 में, जैसा कि दि ऑर्गनाइजर ने अपने 1 अगस्त 1982 के अंक में बताया है, विहिप ने अपने लगभग 100 कार्यकर्ताओं को साधु बनाकर हरिद्वार में स्थापित किया. इन सब से विहिप को साधुओं के बीच पैंठ बनाने में मदद मिली.
1984 में विहिप ने दिल्ली में पहली धर्म संसद का आयोजन किया था. इस संसद ने सर्वसम्मति से "राम जन्मभूमि" की "मुक्ति" की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया. अयोध्या में इसी स्थान पर तब मस्जिद खड़ी थी. अगले वर्ष कर्नाटक के उडुपी में दूसरी धर्म संसद का आयोजन किया गया. वहां अपनाए गए प्रस्तावों में से एक में धमकी दी गई थी कि अगर उत्तर प्रदेश सरकार ने मंदिर निर्माण के लिए बाबरी मस्जिद का अधिग्रहण नहीं किया तो देशव्यापी आंदोलन किया जाएगा. इन पहली दो धर्म संसदों को ज्यादा तवज्जो नहीं मिली.
लेकिन 1980 के दशक के अंत तक आरएसएस को संभावनाएं दिखने लगी थीं. जनवरी 1989 के अंतिम सप्ताह में इलाहाबाद कुंभ में विहिप द्वारा आयोजित तीसरी धर्म संसद में परिवर्तन दिखाई दिया. तीन दिवसीय आयोजन बड़ी संख्या में साधुओं की उपस्थिति और लोगों के भाषणों के बेहद तीखे बोलों के लिए भी उल्लेखनीय हो गया. 1 फरवरी 1989 को दि स्टेट्समैन में प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है कि "कांची के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती और अधिकांश हिंदू संप्रदायों के प्रमुख मौजूद थे. इस प्रकार कुंभ मेला में तीर्थयात्रियों की विशाल भीड़ सुनिश्चित हुई.”
तीसरी धर्म संसद में पारित प्रस्तावों में से एक बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर के निर्माण से संबंधित था. इसने संघ परिवार को राजनीति में धार्मिक बातों के घोलमाल का दिया. तीसरी धर्म संसद द्वारा शुरू घटनाओं की श्रृंखला 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस में जाकर समाप्त हुई. विध्वंस ने देश को हिलाकर रख दिया लेकिन इसने राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के राजनीतिक विकास की नींव रखी.
हिंदू धार्मिक संप्रदायों के साथ संघ के संबंध निर्बाध रूप से बढ़े क्योंकि अधिकांश साधुओं ने राजनीति में अपनी खुली भागीदारी को गलत नहीं माना. साथ ही आरएसएस के सदस्य या प्रचारक रहे साधुओं की संख्या में काफी वृद्धि हुई और इससे संघ को मजबूती मिली. हिंदुओं पर संघ परिवार की पकड़ और भी अधिक मजबूत हुई.
साधुओं के इस वर्ग का हिंदुत्व के साथ संबंध ने, जो अक्सर वैचारक से अधिक होता है, देश सांप्रदायिक सद्भाव को खराब किया है. साधु अब एक बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक परियोजना का हिस्सा प्रतीत होते हैं जिनका उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणराज्य को "विदेशी" प्रभावों से मुक्त कर एक हिंदू राष्ट्र बनाना है.
इसी संदर्भ में हरिद्वार की हाल की धर्म संसद संघ की रणनीति में बड़े बदलाव की सूचक है. बैनर से गायब रहकर संघ खुद को इससे दूर दिखा सकता है और लगे हाथ साधु अपने राजनीतिक एजेंडे को पहले से कहीं ज्यादा बेशर्मी से आगे बढ़ा सकते हैं. पहली नजर में हरिद्वार धर्म संसद साधुओं के एक वर्ग की चिंताओं और प्रेरणाओं को प्रतिबिंबित करती दिखती है लेकिन नजदीक से देखने पर पता चलता है कि यह आरएसएस की हिंदुत्व की राजनीति की शक्तिशाली सांप्रदायिक धाराओं से उत्पन्न और सीधे जुड़े हुए हैं.
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि आरएसएस के लिए यह जीत काफी है. कुछ असहमति की आवाजें भी सुनाई दी हैं. निर्वाणी अखाड़ा उन 13 अखाड़ों में से एक है, जिनको मिला कर साधुओं की दुनिया बनती है. अखाड़े के प्रमुख धर्म दास ने मुझे बताया कि "एक धर्म संसद तभी वैध होती है जब वह सभी शंकराचार्यों और सभी 13 अखाड़ों द्वारा आयोजित की जाती है. हरिद्वार में जो हुआ वह धर्म संसद का उपहास था. इसके आयोजक नकली साधु हैं जो हिंदू धर्म को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं.”