भारतीय न्यायपालिका : न्यायिक विवेक पर हावी जातिवादी पूर्वाग्रह?

07 जुलाई 2022
भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग का न्यायपालिका की आलोचनाओं का लेंस अक्सर आर्थिक होता है. इस तरह के विश्लेषण न्यायपालिका के पक्षपाती चरित्र का मूल कारण, जो कुछ खास ऊंची समृद्ध जातियों की पकड़ है, को नजरअंदाज करता है. यह विश्लेषण कभी भी न्यायधीशों की जाति, वर्ग और उनकी आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को उनके फैसलों के पीछे की वजह नहीं मानता है.
विकीमीडिया कॉमन्स
भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग का न्यायपालिका की आलोचनाओं का लेंस अक्सर आर्थिक होता है. इस तरह के विश्लेषण न्यायपालिका के पक्षपाती चरित्र का मूल कारण, जो कुछ खास ऊंची समृद्ध जातियों की पकड़ है, को नजरअंदाज करता है. यह विश्लेषण कभी भी न्यायधीशों की जाति, वर्ग और उनकी आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को उनके फैसलों के पीछे की वजह नहीं मानता है.
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पिछले दिनों अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की एक संपादकीय ने दबे स्वर में भारतीय न्यायपालिका के व्यव्हार की आलोचना की. "इन एससीज नेम" (सर्वोच्य न्यायालय के नाम पर) शीर्षक से छपी इस संपादकीय में लिखा गया कि, "भारतीय सर्वोच्य न्यायलय को इस बात पर चिंतन करना होगा कि क्या इसकी भूमिका और रुतबा, जो संवैधानिक प्रक्रिया और मूल्यों के अभिरक्षक के रूप में है, इस तरह का हो गोया वह न्याय के लिए उसका दरवाजा खटखटाने वाले हिंसा से पीड़ित लोगों पर ही अपनी नाराजगी दिखाए.” 

एक्सप्रेस संपादकों ने यह टिप्पणी 2002 की गुजरात हिंसा पीड़िता जाकिया जाफरी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संदर्भ में लिखा था. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने जाफरी की अपील को खारिज करते हुए कहा था कि 2002 में हुए गुजरात दंगे किसी साजिश का हिस्सा नहीं थे और न इसमें सरकार का कोई भी उच्च पदाधिकारी, जिनमें उस वक्त राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित 63 लोगों के नाम शामिल थे, संलिप्त पाए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट यहीं नहीं रुकी, उसने कहा कि जिन लोगों ने गुजरात दंगों को एक साजिश बताने की कोशिश की उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. कोर्ट का फैसला आने के दूसरे दिन ही गुजरात की पुलिस ने मुकदमे की दूसरे नंबर की अपीलकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया. जाफरी के पति एहसान जाफरी को, जो एक सांसद थे, हिंदू दंगाइयों ने उनके निवास स्थान गुलबर्गा सोसाइटी में जला कर मार दिया था. आधिकारिक रूप से गुजरात दंगो में 790 मुस्लमान और 254 हिंदू मारे गए थे. 

2014 में बीजेपी के नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद उच्च और उच्चतम न्यायपालिका की विश्वसनीता पर कई बार सवाल खड़े हुए हैं. हालांकि भारतीय मीडिया, जिसमें सवर्ण पत्रकारों का दबदबा शुरू से रहा है, बहुत विरले ही भारतीय न्यायव्यवस्था की आलोचना करता है, या करता भी है तो बहुत दबे स्वरों में. यहां सवर्ण पत्रकारों के प्रभाव का उल्लेख इसलिए जरूरी है क्योंकि न्यायपालिका के ज्यादातर विपरीत फैसलों का असर इस समुदाय पर नहीं, बल्कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अलपसंख्यकों पर पड़ता है, जो कुल मिल कर देश की आबादी के लगभग एक तिहाई हैं. पिछली दफा भी दिसंबर 2019 में उच्च न्यायपालिका की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह तब लगा था जब दिल्ली के न्यायधीशों ने नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे अल्पसंख्यक छात्रों पर हुए दिल्ली पुलिस के हमले के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था. फैसला आते ही, पूरे कोर्ट परिसर में, कई वकीलों ने न्यायधीशों के खिलाफ "शेम शेम" [शर्म करो] का नारा लगाना शुरू कर दिया था. उसी साल, करीब छह महीने पहले, जब उच्चतम न्यायलय ने बाबरी मस्जिद को ढहाने और उसकी जगह राम मंदिर के निर्माण का फैसला दिया था तब भी अल्पसंख्यकों का विश्वास न्यायपालिका पर कमजोर होने की बात कानून के जानकारों ने दोहराई थी. यह बात मुझे नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे कई अल्पसंख्यक प्रदर्शनकारियों ने भी खुद कही थी. 

अनुसूचित जाति आयोग ने अपने रिपोर्ट में लिखा था कि, “कॉलेजियम एक गैर संवैधानिक प्राधिकरण है. जिसका अविष्कार जस्टिस जे. एस. वर्मा और उनके सहयोगी जजों ने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए किया था. इसकी संविधान में कोई परिकल्पना नहीं है और न ही संविधान बनाने वाले पितामहों ने इसके बारे कभी सोचा था.”

दुर्भाग्य से भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग में न्यायपालिका की यदा-कदा आलोचना भी सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय या मोदी सरकार की राजनीति के संदर्भ तक सीमित रहती है. ऐसी आलोचनाओं के लेंस अक्सर आर्थिक होते है. इन विश्लेषणों में बताया जाता है कि कोई जज सिर्फ इसलिए पक्षपात करते हैं क्योंकि उसमें उन्हें आर्थिक फायदा होता है. मिसाल के तौर पर, पूर्व मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई के बारे में कहा गया था कि उन्होंने हिंदुओं के पक्ष में बाबरी मस्जिद का फैसला सरकार से अपने लिए राज्य सभा की सदयस्ता प्राप्त करने के एवज में दिया था. हालांकि गोगोई ने बाद में एक इंटरव्यू में इस बात से इनकार किया.

सागर कारवां के स्‍टाफ राइटर हैं.

Keywords: Indian judiciary collegium
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