30 मई को चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने पत्रकारों से कहा कि “मणिपुर की स्थिति का प्रतिवाद या उग्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है. यह मुख्य रूप से दो जातियों के बीच का संघर्ष है.” यह बयान सीधे तौर पर मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह द्वार दिए बयान से बिलकुल उलट था जिन्होंने दो दिन पहले घोषणा की थी कि यह लड़ाई समुदायों के बीच नहीं बल्कि मणिपुर को तोड़ने की कोशिश कर रहे आतंकवादियों के खिलाफ राज्य और केंद्रीय बलों के बीच है. इंफाल में छह साल तक बीजेपी की डबल इंजन सरकार का नेतृत्व करने वाले सिंह के बयान का केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने फिर से खंडन करते हुए 1 जून को अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जोर देकर कहा कि झड़पें जातीय हिंसा के कारण हो रही हैं.
यह चिंता का विषय होना चाहिए कि एक मुख्यमंत्री पूरी तरह से देश के गृह मंत्री और वरिष्ठतम सैन्य अधिकारी के बयानों से सहमत नहीं है. शाह और चौहान के जातीय संघर्ष के दावे में निहित सच्चाई अधिक चिंताजनक है. इसके परिणामस्वरूप हिंसा हुई है जो एक महीने तक चली है. आधिकारिक तौर पर 98 लोगों की जान गई है, लेकिन जमीनी रिपोर्ट के अनुसार वास्तविक संख्या अधिक है. 272 राहत शिविरों में लगभग चालीस हजार लोग हैं और कई अन्य राज्यों में भाग गए हैं. यहां तक कि कुछ लोग संघर्षग्रस्त म्यांमार भी गए हैं. लगभग ढाई सौ चर्चों को कथित तौर पर जलाकर नष्ट कर दिया गया है. एक केंद्रीय मंत्री और बीजेपी विधायक के घर पर हमला हुआ है. शाह के दौरे और सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे के दौरे के दौरान भी हिंसा कम नहीं हुई. यदि यह एक ही देश के नागरिकों के विरोधी समूहों के बीच युद्ध है, तो इसका सही नाम गृहयुद्ध होना चाहिए.
गृह युद्ध हो चाहे न हो, संघर्षों ने उन खतरों को घर ला दिया है जब विभिन्न जातीयताओं का जटिल ताना-बाना, जो पूर्वोत्तर के राज्यों को बनाता है, खुलता है. क्षेत्र के इतिहास और समाजशास्त्र पर चर्चा इस स्तंभ के दायरे से बाहर है. इस क्षेत्र में प्रतीत होने वाले स्थिर पारस्परिक संबंध दशकों तक चली हिंसा की मार से सामने आए हैं, जिसमें भारतीय राज्य उतना ही बड़ा अपराधी था जितना कि कोई विदेशी शक्ति या उग्रवादी समूह. असंख्य संस्कृतियों, भाषाओं, जातियों और धर्मों के देश में इन नाजुक संबंधों की संवेदनशील प्रकृति को हर स्तर पर और हर तरीके से समावेशी मानसिकता से ही बनाए रखा जा सकता है. इस क्षेत्र में हर नए राज्य के गठन से उस राज्य के अल्पसंख्यकों का निर्माण हुआ है और उन्हें और भी छोटे राज्यों में विभाजित करना अव्यावहारिक है. अनुच्छेद 370 के सिद्धांतों पर आधारित अनुच्छेद 371 के प्रावधान अल्पसंख्यकों के दावों के साथ बहुसंख्यकों के दावों का समाधान करने का साधन प्रदान करते हैं, ताकि एक अलग अस्तित्व के बजाय एक सह-अस्तित्व विकसित किया जा सके. सुहास पलशिकर के शब्दों में, यह "संघीय ढांचे के भीतर संघवाद के लिए एक खाका" प्रदान करता है.
इसके बजाय, जो हम राष्ट्रीय स्तर पर देखते हैं, वह सत्ताधारी दल का घोर बहुसंख्यकवाद है. एक राष्ट्र का विचार "हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नारे पर आधारित है. जो किसी भी रूप में गैर-बहुसंख्यक, सह-अस्तित्व और संघवाद के प्रति असहिष्णु है. हिंदुत्व का यह आख्यान, जो एक प्रचारक कॉरपोरेट मीडिया के माध्यम से एक राजनीतिक तर्क के रूप में जनता तक पहुंचाया जाता है, अन्य समूहों को बहुसंख्यक होने की अपनी स्वयं की परिभाषा तैयार करने की छूट दे देता है. धर्म, जाति, भाषा या जातीयता के आधार पर निर्मित बहुसंख्यकों को तब अल्पसंख्यकों के खिलाफ हथियार बनाया जा सकता है. पूर्वोत्तर में, यह बीजेपी द्वारा शासित असम में देखा गया है और मणिपुर भी इसके नक्शे कदम पर चलता दिखता है. हाल ही के एक साक्षात्कार में असम के मुख्यमंत्री और नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस के संयोजक हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा कि मणिपुर में, "जनसंख्या का वितरण ऐसा है कि सत्तर प्रतिशत लोग तीस प्रतिशत भूभाग में रहते हैं. कुकी और नागा घाटी में आ सकते हैं, लेकिन मैतेई पहाड़ियों पर नहीं जा सकते. बोडोलैंड को लेकर असम में भी ऐसा ही है.” आंतरिक मणिपुर से बीजेपी सांसद और विदेश राज्य मंत्री आरआर सिंह ने मोदी से अनुच्छेद 371 को खत्म करने के लिए कहा है, जो राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करता है.
सरमा ने यह भी दावा किया कि मणिपुर में "सभी समुदायों के साथ बातचीत करने में केंद्र सरकार पूरी तरह से तटस्थ है." इसे राज्य सरकार की गलती के रूप में देखा जा सकता है, जिसने कुकी समुदाय को निशाना बनाने के लिए खुले तौर पर पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया है. लेकिन तटस्थता वह चीज नहीं है जिसकी समुदायों को इस समय आवश्यकता है, उन्हें न्याय चाहिए. आग और फायर ब्रिगेड के बीच कोई तटस्थता नहीं हो सकती. जैसा कि रंगभेद विरोधी कार्यकर्ता डेसमंड टूटू ने कहा है कि "यदि आप अन्याय की स्थितियों में तटस्थ बने रहना चुनते हैं, तो आपने उत्पीड़क का पक्ष चुना है. यदि किसी हाथी का पैर चूहे की पूंछ पर है और आप कहते हैं कि आप तटस्थ हैं, तो चूहा आपकी इस तटस्थता की सराहना नहीं करेगा.” यह कुकी समुदाय के तीखे विरोध से स्पष्ट होता है, जिसने शाह की मणिपुर यात्रा के दौरान विरोध के बैनर दिखाए और पहाड़ी क्षेत्रों के लिए एक अलग प्रशासन की स्पष्ट मांग की.
केंद्र सरकार की तटस्थता विवादास्पद हो सकती है, लेकिन हिंसा को लेकर इसकी चुप्पी निर्विवाद है. हिंसा शुरू होने के एक महीने बाद भी मोदी ने एक शब्द भी नहीं बोला है. राज्य का दौरा करना तो दूर, उन्होंने हालात पर किसी बैठक की अध्यक्षता भी नहीं की है. उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में मणिपुर के प्रति अपने कर्तव्य से अधिक कर्नाटक में बीजेपी के मुख्य प्रचारक के रूप में अपनी भूमिका को प्राथमिकता दी. क्वाड समिट रद्द होने के बाद भी उनके पास ऑस्ट्रेलिया जाने का समय है, वंदे भारत ट्रेनों का उद्घाटन करने और सत्ता में नौ साल पूरे होने पर पार्टी की रैली को संबोधित करने का समय है, लेकिन एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में मृतकों को सांत्वना देने का समय नहीं है. मणिपुर का मुद्दा चीन सीमा संकट से लेकर अडानी के कथित भ्रष्टाचार से लेकर पहलवानों के विरोध तक से जुड़े बड़े मुद्दों में से एक है जिसे लेकर मोदी ने पूरी तरह खामोशी अख्तीयार की है.
शाह को मणिपुर का दौरा करने में भी इक्कीस दिन लग गए. उनकी चार दिवसीय यात्रा के दौरान कई घोषणाएं हुईं लेकिन साथ ही विचित्र घटनाएं भी हुईं. मणिपुर पुलिस के महानिदेशक और उनके डिप्टी का अपने पुलिस बल पर कोई नियंत्रण नहीं था, क्योंकि वे दोनों कुकी समुदाय से हैं. डीजीपी शाह के साथ कुकी इलाकों में गए लेकिन इंफाल में शाह के साथ किसी सुरक्षा बैठक में शामिल नहीं हुए. बीरेन सिंह इंफाल में थे, लेकिन शाह के साथ पहाड़ियों पर नहीं गए, क्योंकि वह मैतेई हैं. बीजेपी प्रवक्ता और मणिपुर के प्रभारी संबित पात्रा को शाह की आधिकारिक बैठकों में भाग लेते देखा गया. सेना की 3 कोर को बयान जारी करना पड़ा कि उनके मैतेई अधिकारी तटस्थ हैं. राज्य का प्रशासन खंडित, हतोत्साहित और दुर्बल है, लेकिन मुख्यमंत्री अपने पद पर बने हुए हैं, क्योंकि उनकी बर्खास्तगी हर राज्य के लिए डबल इंजन सरकार के मोदी के अभियान को ध्वस्त कर देगी. राज्य में एक नए डीजीपी को भेजा गया है और ऐसा लगता है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कानून और व्यवस्था को पूरी तरह से भंग करने के लिए अनुच्छेद 355 को आधिकारिक रूप से घोषित किए बिना स्थिति का सीधा प्रभार ले लिया है. केंद्र संघर्ष को खत्म करने और सामान्य स्थिति को दिखाने का प्रयास कर रहा है, ताकि देश का ध्यान भटकाय जा सके.
मुख्य रूप से इंफाल में सुरक्षा बलों के शस्त्रागार से हथियारों की लूट के अलावा कानून और व्यवस्था के पूरी तरह से चरमराने का कोई संकेत नहीं है. 3 मई से अब तक सुरक्षाबलों से एके47, एम16 और इंसास राइफल समेत चार हजार से ज्यादा हथियार लूटे जा चुके हैं. इनमें से करीब 650 हथियार राज्य सरकार की अपील के बाद वापस कर दिए गए हैं. लापता गोला-बारूद का अनुमान पचास हजार राउंड से लेकर पांच लाख राउंड तक हो सकता है. जबकि मणिपुर मिजोरम, नागालैंड और म्यांमार के बीच में स्थित है. यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इनमें से कई हथियार पहले से ही पैसे कमाने के लिए हथियारों के बाजार में जा चुके हैं या बाद में इस्तेमाल करने के लिए सुरक्षित रूप से छिपा दिए गए हैं.
अपनी प्रेस वार्ता में शाह ने इन हथियारों को वापस देने की अपील की. यहां एक सवाल यह भी उठता है कि अगर पंजाब या कश्मीर में इस संख्या का सौवां हिस्सा भी लूटा गया होता तो क्या तब भी वह ऐसा ही करते. मोदी सरकार की नजर में कुछ समुदाय और राज्य दूसरों की तुलना में अधिक समान हैं. हालांकि, इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाकर मणिपुर के साथ ऐसा व्यवहार किया गया है जैसे धारा 370 के निरस्त होने के बाद कश्मीर में किया गया था. व्यापार, शासन, शिक्षा या मनोरंजन पर प्रभाव पड़ने के बावजूद सरकार ने सूचना पर पूरी तरह से शिकंजा कसना अधिक जरूरी समझा.
हो सकता है कि अंधेरा कई लोगों को यह देखने न दे कि राज्य में क्या हो रहा है, लेकिन कुछ अन्य लोग भी हैं जो कोयला खदान में भी कैनरी पक्षी को सुन सकते हैं. मणिपुर के साथ जो हो रहा है वह भारत के अन्य हिस्सों के साथ भी हो सकता है. शांति केवल संघर्ष की अनुपस्थिति नहीं है; जब तक हिंसा को बढ़ावा देने वाली स्थितियां फलती-फूलती रहेंगी तब तक शांति स्थापित नहीं किया जा सकती है. और यह स्थितियां मोदी के भारत के विचार को उजागर करती हैं.