एक साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गुजरात के अहमदाबाद में अपने वार्षिक सम्मेलन में एमएस गोलवलकर के एक सबसे विवादास्पद फॉर्मूले यानी मुसलमानों को नागरिक बतौर उनके अधिकारों से वंचित करने की मांग को गुपचुप रूप से दुबारा जिंदा किया था. हरियाणा के पानीपत में इस साल आयोजित अपने सम्मेलन में आरएसएस ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए गोलवलकर के एक और विवादास्पद फॉर्मूले को जायज ठहराने की कोशिश की जो भारत के इतिहास में सांप्रदायिक क्रूरता को राष्ट्र-निर्माण के एक अभिन्न अंग के रूप में दर्शाता है, और इस तरह पिछले कुछ सालों में अल्पसंख्यकों पर तेजी से बढ़ रहे हमलों को जायज साबित करते हुए हमलावर भीड़ को दोषमुक्त बनाता है.
13 मार्च को तीन दिवसीय अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के दूसरे दिन आरएसएस ने भारतीय इतिहास पर गोलवलकर के सूत्रीकरण को औपचारिक रूप से बहाल करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया. एकमात्र अंतर "हिंदू" के बजाए "भारत" शब्द का प्रयोग था. जाहिर तौर पर ऐसा किसी तरह के संभावित विवाद से बचने के लिए किया गया था. प्रस्ताव में कहा गया है, "अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (एबीपीएस) की सुविचारित राय है कि वैश्विक कल्याण के महान उद्देश्य को साकार करने के लिए भारत की 'स्व' की लंबी यात्रा हम सभी के लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत रही है. विदेशी आक्रमणों और संघर्षों के दौर में, भारत का सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्थाएं गंभीर रूप से विकृत हो गईं. इस काल में पूज्य संतों एवं महापुरुषों के नेतृत्व में समस्त समाज ने सतत संघर्ष करते हुए अपना 'स्व' सुरक्षित रखा."
"विदेशी आक्रमणों" और "निरंतर संघर्ष" के बावजूद हिंदू स्वाभिमान की लंबी यात्रा भारत के इतिहास के मौलिक सिद्धांत का गठन करती है- और उस हद तक राष्ट्र-निर्माण का आधार बनती है, यह विचार गोलवलकर की विवादास्पद किताब, वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड की प्रमुख मान्यताओं में से है. गोलवलकर के आरएसएस प्रमुख बनने से लगभग एक साल पहले 1939 में प्रकाशित इस किताब में उनके उग्र विचारों की सबसे स्पष्ट, बिना सेंसर की अभिव्यक्ति है. यह न केवल अल्पसंख्यकों के लिए पूर्ण आत्मसात या जातीय अधीनता का मंत्र निर्धारित करके, एडॉल्फ हिटलर के यहूदी-विरोध के साथ संघ की हिंदू राष्ट्र परियोजना की स्पष्ट रूप से तुलना करता है, बल्कि यह "निर्बाध युद्ध" की एक लंबी अवधि की भी कल्पना करती है जिसके जरिए "हिंदू राष्ट्र" ने अस्तित्व के लिए संघर्ष किया और अपनी पहचान या "स्व" की रक्षा की.
किताब की प्रस्तावना में गोलवलकर बताते हैं : “हम जो चाहते हैं वह स्वराज है और हमें निश्चित होना चाहिए कि इस 'स्व' का क्या अर्थ है. 'हमारा राज्य' - हम कौन हैं? यह प्रश्न इस स्तर पर सबसे अधिक प्रासंगिक है जिसका हम उत्तर देने का प्रयास करेंगे." फिर वह "हिंदुस्तान के इतिहास" का एक सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं : "संक्षेप में हमारा इतिहास हजारों वर्षों से हमारे फलते-फूलते हिंदू राष्ट्रीय जीवन की कहानी है और फिर पिछली दस शताब्दियों से चल रहे एक लंबे अविचलित युद्ध की कहानी है, जिसका अभी तक एक निर्णायक अंत नहीं हुआ है. किताब के एक अन्य खंड में वह कहते हैं : “उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन के बाद से, जब मुसलमान पहली बार हिंदुस्तान में उतरे थे, से लेकर आज तक हिंदू राष्ट्र विध्वंसकों को हिला कर रख देने के लिए बहादुरी से लड़ रहा है. यह युद्ध का सौभाग्य है कि ज्वार कभी इस ओर और कभी उस ओर मुड़ता है लेकिन युद्ध चलता रहता है और अभी तक इसका निर्णय नहीं हुआ है. न ही इस बात का कोई डर है कि इसका फैसला हमारे लिए हानिकारक होगा. नस्ल की रूह जाग रही है.''
1948 में आरएसएस के एक सदस्य द्वारा एमके गांधी की हत्या के चलते संगठन की विश्वसनीयता में भारी गिरावट आई और सरकार द्वारा व्यापक दमन हुआ. बदली हुई स्थिति ने आरएसएस को सावधानी बरतने के लिए मजबूर किया. बाद के सालों में गोलवलकर और उनके संगठन ने सार्वजनिक रूप से खुद को किताब से दूर कर लिया. आरएसएस ने आधिकारिक रूप से संगठन के केंद्रीय वैचारिक पाठ बतौर वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड की जगह गोलवलकर के भाषणों के संकलन बंच ऑफ थॉट्स को पेश किया.
1966 में प्रकाशित बंच ऑफ थॉट्स ने गोलवलकर की पहली किताब से कुछ धारणाएं कॉपी की और नाजियों और उनके यहूदी-विरोध पर चुप्पी साध ली. इस किताब में वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड के केंद्रीय सिद्धांतों को नजरअंदाज किया गया है- गोलवलकर का इतिहास का सांप्रदायिक सिद्धांत, जिसमें हिंदू राष्ट्र के हजारों वर्षों का निरंतर संघर्ष शामिल है, साथ ही हिंदू राष्ट्र के निर्माण में संघ द्वारा अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों से निपटने के तरीकों के बारे में उनके नुस्खे को भी शामिल किया गया है.
यहां तक कि "स्व" का अर्थ भी पूरी तरह से बदल गया और नई किताब में इतना अस्पष्ट हो गया कि एक सामान्य पाठक शायद ही यह समझ पाए कि मूल रूप से गोलवरकर का इससे क्या मतलब था. नई किताब में यह शब्द केवल एक बार दिखाई देता है : “आज हम हर जगह अमेरिकी, अंग्रेजी या रूसी जीवन शैली के सांचे में अपनी जीवन-पद्धति को ढालने का प्रयास करते हैं. हम इसे स्वतंत्रता कैसे कह सकते हैं जिसमें स्व (हमारी प्रतिभा) नहीं है?”
लेकिन ऐसा लगता है कि यह दूरी बनावटी थी. आरएसएस ने वास्तव में गोलवलकर की वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड को कभी नहीं छोड़ा. संघ ने इत्मीनान के साथ अपने वक्त का इंतजार किया और किताबि की सामाजिक-राजनीतिक परियोजना पर चुपचाप काम करना जारी रखा. यह एक ऐसा तथ्य है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चुनावी पार्टी भारतीय जनता पार्टी के 2014 में लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद से और साफ होता चला गया. जैसे ही कोई आरएसएस के ताजा तरीन प्रस्ताव के आंतरिक तर्क की थाह लेना शुरू करता है, वह गोलवलकर के मूल सूत्रीकरण के अनुरूप विचार की एक योजना पर आता है, जिसे आरएसएस ने तब तक नहीं जाहिर किया जब तक कि उसने देश पर अपना प्रभाव स्थापित नहीं कर लिया.
इस साल जनवरी में स्पष्ट हो गया कि आरएसएस गोलवलकर के इतिहास के सांप्रदायिक सिद्धांत को औपचारिक रूप से बहाल करने जा रहा है जब आरएसएस के साप्ताहिक मुखपत्र ऑर्गनाइजर में एक इंटरव्यू में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अल्पसंख्यकों पर हमलों में महत्वपूर्ण वृद्धि और मुसलमानों को खत्म करने के लिए उनके समर्थकों के बार-बार आह्वान करने की कोशिश, वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड के विचार को लगभग पुन: प्रस्तुत करने जैसा है. “हिंदू समाज 1000 से अधिक वर्षों से युद्ध कर रहा है– यह लड़ाई विदेशी आक्रमणों, विदेशी प्रभाव और विदेशी साजिशों के खिलाफ चल रही है … यह युद्ध बाहर के दुश्मन के खिलाफ नहीं बल्कि भीतर के दुश्मन के खिलाफ है. इसलिए हिंदू समाज, हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति की रक्षा के लिए युद्ध हो रहा है. विदेशी आक्रमणकारी तो नहीं रहे पर विदेशी प्रभाव और विदेशी षड़यन्त्र चलते रहे. चूंकि यह एक युद्ध है इसलिए लोगों के अति उत्साही होने की संभावना है. हालांकि यह वांछनीय नहीं है फिर भी भड़काऊ बयान दिए जाएंगे.”
वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड में वर्णित इतिहास के सांप्रदायिक सिद्धांत का श्रेय केवल गोलवलकर को नहीं दिया जा सकता है. वह वास्तव में हिंदुत्व के प्रमुख विचारक विनायक दामोदर सावरकर द्वारा प्रस्तुत भारत के अतीत की कल्पना को प्रतिबिंबित कर रहे थे. 1923 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हिंदुत्वः हू इज ए हिंदू? में सावरकर बताते हैं कि दसवीं शताब्दी में "गजनी के मोहम्मद ने सिंधु को पार किया" और भारत पर आक्रमण करने के बाद "जीवन और मृत्यु का संघर्ष" शुरू हुआ. सावरकर लिखते हैं, "इस लंबे उग्र संघर्ष में हमारे लोग हिंदुओं के रूप में खुद के प्रति सचेत हो गए और इस हद तक एक राष्ट्र में शामिल हो गए जिसके बारे में इतिहास में कोई नहीं जानता."
गोलवलकर ने इस सावरकरवादी सूत्रीकरण को आगे बढ़ाया. उन्होंने विचार लिया, इसे विकसित किया और इसमें काफी विवरण जोड़े. सबसे बढ़ कर उन्होंने हिंदुत्व परियोजना की तुलना नाजी जर्मनी में यहूदियों के साथ बर्ताव से की और भारत में अल्पसंख्यकों के लिए इसी व्यवहार का सुझाव दिया. आरएसएस ने पिछले साल सम्मेलन के दौरान अप्रत्यक्ष रूप से वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड के इस हिस्से को पुनर्जीवित करने की कोशिश की. संघ ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें "एक विशेष अल्पसंख्यक"- मुस्लिम समुदाय पर- “संविधान और धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में सांप्रदायिक उन्माद, रैलियों, प्रदर्शनों, सामाजिक अनुशासन, रीति-रिवाजों और परंपराओं का उल्लंघन करने वाले नृशंस कार्यों" और "अवैध गतिविधियों को बढ़ावा देने, आदि" में शामिल होने के लिए निशाना साधा गया था. यह रिपोर्ट मुस्लिमों से नागरिकों के रूप में उनके अधिकारों को छीनने के लिए जमीन तैयार करती दिखती है और गोलवलकर का ठीक यही मतलब था जब उन्होंने भारत के अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव के दौरान नाजी मॉडल पर चलने की बात की.
गांधी की हत्या से पहले जिस तरह वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड संघ की बाइबिल थी आज आरएसएस द्वारा पहले ही सार्वजनिक रूप से वैध किए गए गोलवलकर के दो सबसे महत्वपूर्ण फॉर्मूले के साथ उस स्थिति को बहाल करने के लिए शायद ही कुछ बचा है. भारतीय लोकतंत्र के बहुलतावादी लोकाचार की दृष्टि से यह शुभ संकेत नहीं है.