शानदार संघर्ष

28 मई 2023 को दिल्ली के जंतर-मंतर से नए संसद भवन तक विरोध मार्च का नेतृत्व करने वाले तीन पहलवान साक्षी मलिक, विनेश फोगट और बजरंग पुनिया को हिरासत में लेती दिल्ली पुलिस. पुलिस ने उस दिन पहलवानों के विरोध स्थल को भी नष्ट कर दिया और उनके विरुद्ध एफआईआऱ दर्ज की. सलमान अली/हिन्दुस्तान टाइम्स

सभी अच्छी कहानियों में कुछ ऐसी बातें होती हैं जो कही जाती हैं और कुछ ऐसी होती हैं जो अनकही रह जाती हैं. यही चीज है जो दिल्ली में पहलवानों के विरोध प्रदर्शन से जुड़ी साउंड बाइट्स, पुलिस जांच और अदालती आदेशों में कही गई है. सत्य को तोड़ना-मरोड़ना, व्यवस्था द्वारा किया अन्याय, आज की सनकी राजनीति, यह सभी उन अनकही बातों पर पर्दा डालने का काम कर रहे हैं. ऐसा ज्यादातर महाकाव्य में बताई गई लड़ाइयों की कहानियों के बारे में होता है, जिसमें झूठ और राज्य की शक्ति से लैस मिथ्यावादियों के खिलाफ असमान लड़ाई में योद्धाओं के पास अपनी वीरता और साहस के अलावा कुछ नहीं होता. इस साल जनवरी में एक ऐसी कहानी शुरू हुई जिसने क्रूर राज्य के खिलाफ अदम्य साहस पैदा किया, जिसने गोलियथ के खिलाफ डेविड की लड़ाई जैसी आदर्श लड़ाई के लिए मंच तैयार किया. और पहलवान बहनों को अपनी आवाज सरकार और लोगों तक पहुंचाने के लिए कड़ी महनत करनी पड़ी.

पिछले छह महीने से हम अयोध्या के भारतीय जनता पार्टी के राजनेता और कुश्ती महासंघ के प्रमुख बृज भूषण सिंह द्वारा अपने पद पर रहते हुए लड़कियों से छेड़छाड़ करने के खिलाफ कार्रवाई की मांग करने वाले पहलवानों और उनके बीच गतिरोध को देख रहे हैं. यह लड़ाई केवल प्रतिरोध भर नहीं है; बेशक यह वही है, लेकिन यह निर्विवाद रूप से भारतीय महिलाओं और राज्य के बीच बुनियादी रिश्ते को भी दर्शाता है.

कल्पना कीजिए कि कोई फर्श पर चावल का एक थैला डाल रहा है और आपसे प्रत्येक दाना उठाने के लिए कह रहा है. तो फिर कल्पना करें कि, हर बार जब आप अन्याय के बारे में बात करते हैं, तो चावल का एक और बैग डाल दिया जाता है और आपसे फिर से एक-एक दाना उठाने के लिए कहा जाता है. यह महिलाओं और भारत में अदालतों, पुलिस स्टेशन और सरकार के बीच जटिल संरचनाओं का संबंध है. यह कही जाने वाली बातों, पीड़ित को दोषी ठहराने और गैसलाइटिंग के बीच एक अलग तरह का पागलपन है. यह इस बात पर गहरा सवाल उठाता है कि वह क्या है जो भारत में यौन हिंसा को क्या स्वीकार्य बनाता है? क्या इसका कोई सबूत है? या क्या कोई शक्तिशाली आदमी इससे बच सकता है? या फिर अपराधी का धर्म ही एकमात्र महत्वपूर्ण चीज है?

28 मई को जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नए संसद भवन का उद्घाटन किया, उसी दिन संसद के बाहर सड़क पर प्रदर्शन कर रहे पहलवानों के साथ दिल्ली पुलिस ने दुर्व्यवहार किया और उन्हें हिरासत में ले लिया. जंतर-मंतर पर उनके विरोध स्थल को तोड़ दिया गया. अगले दिन उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज कर दिए गए. यौन उत्पीड़न, पीछा करने और डराने-धमकाने के आरोपों के बावजूद सिंह उद्घाटन समारोह में शामिल हुए. उनके खिलाफ पोक्सो के तहत आने वाला मामला अब हटा दिया गया है.

इस बीच प्रक्रिया के नाम पर, इसमें शामिल महिलाओं को भारी कष्ट सहना पड़ा, जिसमें दिल्ली पुलिस के लिए अपराध स्थल को फिर से देखना और अपराध सीन को बनाना भी शामिल था. वीडियो और तस्वीरों जैसे अतिरिक्त सबूत की भी मांग की गई थी. शायद, भारतीय मीडिया के एंकर, ज्यादातर पुरुषों, को यह उचित प्रक्रिया तब परेशान करती अगर पुलिस उन्हीं से उनकी कार चोरी होने पर इतने सबूत मांगने लगती. लेकिन अभी के लिए वे इससे अनजान हैं.

नई संसद के उद्घाटन के दो दिन बाद, 30 मई को हरिद्वार में हर की पौड़ी पर पहलवान अपने ओलंपिक से दो, विश्व चैंपियनशिप से छह और चार एशियाई खेलों में जीते मैडलों के लेकर नदी में बहाने के लिए खड़े थे. पहलवानों ने कहा कि यह पवित्र पदक पवित्र नदी के हैं, न कि अपवित्र व्यवस्था के जो उत्पीड़क के साथ खड़ी है. उस दिन पदक विसर्जित नहीं किए गए लेकिन उन लोगों से उसके मायने छीन लिए गए जिन्होंने इन्हें अर्जित किया था और इसके हकदार थे.

अदालतों और टेलीविजन स्टूडियो के बाहर की अनकही और स्पष्ट वास्तविकता यह है कि पहलवान सच्च बोल रहे हैं. झूठ अब पीछे छूट गया है. यदि दिल्ली पुलिस ने सिंह की पोस्को के तहत जांच की होती तो अब यह बताने के लिए 552 पेजों की जरूरत पड़ी कि उन्हें उस आरोप के तहत कोई सबूत कैसे नहीं मिला, और सिंह को तुरंत गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया, जैसा कि ऐसे मामलों में होता है? नई संसद के उद्घाटन में उन्हें क्यों आमंत्रित किया गया? हम ऐसा मान सकते हैं कि यह एक अच्छी व्यवस्था है जो बुरी तरह विफल हो गई है. इससे यह तथ्य नहीं बदलेगा कि इस खराब व्यवस्था ने बिल्कुल वही किया जिसके लिए इसे बनाया गया था.

नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और कवयित्री माया एंजेलो ने एक बार कहा था कि जब भी कोई महिला खड़ी होती है, बिना जाने और दावा किए, वह सभी महिलाओं के हक के लिए खड़ी होती है. महिलाओं को सफल होते देखना उसी तरह से उत्थान की तरह है जैसे महिलाओं को अपमानित होते देखना पराजय है. यह पुरुषों पर भी लागू होता है. हर बार जब हम लड़कों को मर्द की तरह बनने के लिए कहते हैं, तो सभी लड़कों को सिखाया जाता है कि बिना किसी परिणाम की चिंता किए वे महिलाओं का दुरुपयोग कर सकते हैं. इन सभी अनकही बातों ने भी हमें इस गतिरोध तक लाने में अपनी भूमिका निभाई है.

अब जब बीजेपी सरकार तीसरी बार सत्ता में आने के लिए लड़ रही है और आरोपी भी अपनी सांसदी बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है, ऐसे में हम एक स्पष्ट पैटर्न को देख सकते हैं, जिसमें शाहीन बाग की दादी, किसानों के विरोध प्रदर्शन की महिला कैडर से लेकर अब महिला पहलवान तक शामिल हैं. मुझे यह साफ दिखता जा रहा है कि महिलाएं इस सरकार का पतन करने जा रही हैं. मैंने हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स में यौन हिंसा को एक ऐतिहासिक घटना के रूप में संदर्भित करने के महत्व के बारे में तर्क दिया था, जिसमें चुप्पी और रणनीतिक भूल शामिल है.

पहलवान जिस प्रकार के यौन अपराधों का विरोध कर रहे हैं जैसे पेट पर हाथ रखना, स्तन पर छूना, महिलाओं द्वारा शिकायत करने पर छींटाकशी करना और बेगुनाही का दावा करना, यह यौन हिंसा के आधार को अधिक भयानक बनाते हैं. यहां छेड़छाड़, उत्पीड़न और खराब भाषा को झेलने से लेकर महिलाओं के खिलाफ वास्तविक हिंसा तक घटनाओं का एक कड़ा क्रम है. बलात्कार महज एक बड़ा अपराध या शब्द भर नहीं है. बलात्कारी कई प्रकार के होते हैं: ठुकराए हुए प्रेमी, परिचित जैसे कि दोस्त और चाचा या कोई शक्तिशाली व्यक्ति जो बलात्कार को अपनी ताकत बनाए रखने के उपकरण के रूप में उपयोग करता है और अंत में, धार्मिक मान्यता प्राप्त लोग, बहुसंख्यक समुदाय के लोग जो दलित और मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

जब देश की आधी आबादी यौन हिंसा की इस जबरदस्त संस्कृति में जीती और मरती है, ऐसे में मीडिया घरानों में भी लैंगिक समानता देखने नहीं मिलती. बॉलीवुड फिल्में सामूहिक बलात्कार, महिलाओं के भावनात्मक पहलू और यौन शोषण का महिमामंडन करके अपनी भूमिका निभाती हैं. यौन शोषण एक ऐसा शब्द जो केवल भारतीय अंग्रेजी में मिलता है, सार्वजनिक यौन उत्पीड़न और हमले जैसे कि जबरदस्ती छूने और छेड़छाड़ करने से जुड़ा है. बॉलीवुड मनोरंजन के लिए अत्यधिक हिंसा का इस्तेमाल करता है. अंततः अदालतों में महिलाओं का अमानवीयकरण करके उन्हें यह बताने के लिए कानून को सावधानीपूर्वक लागू किया जा रहा है कि वे समान अधिकार प्राप्त करने वाली समान नागरिक नहीं हैं.

हमें हर तरफ से यौन हिंसा में धकेलने में कितने लोग शामिल हैं, फिल्में और टेलीविजन शो बनाने वाले, गर्भ में बच्चे के लिंग की जांच करने वाले, कमरे में सहमति के बिना संबंध बनाने वाले और लॉकर रूम की बातचीत जहां लड़के यौन हिंसा की भाषा सीखते हैं? पहलवानों के विरोध की कहानी असली कहानी है जो बताती है कि कैसे भारतीय लोकतंत्र महिलाओं को नीचे धकेलता है. जिस तरह से पुलिस जांच चल रही है, वह सिर्फ विरोध करने वाले पहलवानों का भविष्य नहीं, बल्कि भारत की 69 करोड़ 20 लाख महिलाओं का भाग्य भी अधर में लटका देती है, जो अन्य सभी अल्पसंख्यकों की तुलना में अधिक है. अगर वे एकजुट हो गए, तो वे किसी भी दूसरे वोट बैंक को खत्म कर देंगे.

इन सब कुछ के बावजूद, बीजेपी तीसरी और सिंह बृजभूषण सातवीं बार भी जीत सकते हैं और इनमें से कोई भी लंबे समय बाद कुछ मायने नहीं रखेगा. कार्यकाल तो सामान्य लोगों के लिए होता है. पहलवानों के इस साथ को युगों तक जाना जाएगा. शक्तिशाली पुरुषों और बहादुर महिलाओं के बीच इस असमान लड़ाई में मुझे कोई ऐसा रास्ता नहीं दिखता जो महिलाओं की जीत की ओर ले जाए. हो सकता है कि वे अभी हार रही हों, लेकिन आने वाले समय में, यहां तक ​​कि हमारे जैसे विकृत देश में भी यह कहानी महिलाओं द्वारा की गई शानदार लड़ाई के बारे में होगी. और, भारत को, डेविडों की गोलियेथों के खिलाफ लड़ी गई एक शानदार लड़ाई पसंद है, जो कि "चायवाले" के देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचने के पीछे की कहानी है.