इस साल 10 जुलाई को असम में रहने वाले पत्रकार प्रणवजीत डोलोई ने 10 लोगों पर आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने का आरोप लगाते हुए गुवाहाटी के पनबाजार पुलिस स्टेशन में यह शिकायत दर्ज कराई कि इन लोगों की गतिविधियां असमी लोगों को दुनिया भर में जीनोफोबिक के रूप में बदनाम कर रही हैं. डोलोई ने दावा किया कि ये 10 लोग नेशनल सिटिजन रजिस्टर को अपडेट किए जाने की मौजूदा प्रक्रिया को बाधित कर रहे हैं जो असम के भारतीय नागरिकों की सूची है और जिसे 31 अगस्त को प्रकाशित किया जाना है. डोलोई की शिकायत का आधार स्कूल अध्यापक और सामाजिक कार्यकर्ता हाफिज अहमद द्वारा लिखी और बहुप्रचारित कविता ‘लिखो मैं मियां हूं’ थी. अहमद द्वारा लिखी इस कविता की पंक्तियां थीं, “लिखो, लिखो कि मैं मियां हूं/एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र का नागरिक जिसके पास कोई अधिकार नहीं है.” पुलिस ने डोलोई की शिकायत के आधार पर प्राथमिकी दर्ज करते हुए सभी 10 लोगों को अन्य अपराधों के साथ-साथ विभिन्न समूहों में वैमनस्य फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया.
असम में “मियां” शब्द बंगाली मूल के असमी मुस्लिमों के लिए पश्चिम बंगाल से पलायन कर आए लोगों के रूप में एक धब्बे की तरह इस्तेमाल किया जाता है. बल्कि एक कदम आगे जाकर उन्हें बांग्लादेश से आए हुए अवैध प्रवासी कहा जाता है. जो इस बात को ध्यान में रखते हुए अपने आप में एक गंभीर आरोप है कि एनआरसी की प्रक्रिया के तहत ऐसे लोगों से उनकी भारतीय नागरिकता छीने जाने का प्रस्ताव है. खुद बंगाल-मूल के मुस्लिम हामिद ने उस उत्पीड़न को रेखांकित करते हुए जिसका सामना इस समुदाय के लोग करते हैं, बताया कि कैसे इन लोगों पर एनआरसी प्रक्रिया के तहत भारतीय नागरिकता छिन जाने का खतरा कहीं अधिक है.
यह कविता तब वायरल हुई जब पहली बार इसे साल 2016 में ऑनलाइन प्रचारित किया गया और इससे बंगाल मूल के बाकी मुस्लिमों को कविता लिखने की प्रेरणा मिली. इस तरह लिखी गई कविताओं में न सिर्फ बंगाल मूल के मुस्लिमों का दर्द बयान किया गया था बल्कि ऐसा उनकी अपनी बोली में किया गया-तब तक ऐसी इन आवाजों की सार्वजनिक दायरे में कोई जगह नहीं थी. उदाहरण के लिए, एक अन्य बंगाल मूल के मुस्लिम कवि शालिम एम हुसैन ने अहमद की कविता के जवाब में “नाना, मैं लिख चुका हूं” शीर्षक से कविता लिखी. उन्होंने लिखा, “जब ये बदमाश मुझे बांग्लादेशी कहते हैं तब मेरी स्थिति समझिए/और मेरे क्रांतिकारी ह्रदय को बताइए/लेकिन मैं मियां हूं.” गुवाहाटी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली शोधार्थी और सामाजिक कार्यकर्ता 28 वर्षीय रेहाना सुल्ताना ने मुझे बताया कि उन पर शालिम की कविता का बहुत असर हुआ क्योंकि उन्हें लगा कि वे उन्हीं के समुदाय के लिए ये कविता लिख रहे हैं. उन्होंने आगे बताया, “फिर मैंने मियां समुदाय के लिए असमी में वह कविता लिखी जिसमें बताया गया था कि कैसे मियाओं को असम में अपनी पहचान साबित करनी पड़ती है.
वास्तव में असम के बंगाल मूल के मुस्लिमों को कविता की इस नई धारा ने ऐसा अवसर प्रदान किया जिससे वे अपनी शर्तों पर अपनी पहचान परिभाषित कर सकते थे. असम के तेजपुर विश्वविद्यालय में कल्चरल स्टडीज में अपना परास्नातक कर रहे 26 वर्षीय छात्र काजी शरोवर हुसैन के अनुसार, कवि “मियां” शब्द पर नए सिरे से अपना दावा कर रहे थे. काजी ने बताया, “असम के नदी किनारे स्थित चारचपोरी इलाकों, जहां मुख्यतः बंगाल मूल के मुस्लिमों की बड़ी आबादी रहती है, में रहने वाले लोगों को परिभाषित करने के लिए कोई उचित शब्दावली नहीं है.” उन्होंने कहा, “आप मियां में गाली देते हो, वही हमारी पहचान है.” शालिम, सुल्ताना और काजी का नाम प्राथमिकी में दर्ज है.
पुलिस केस और एनआरसी के आसन्न प्रकाशन के मद्देनजर बंगाल-मूल के मुस्लिम समुदायों की कविता के बारे में बातचीत का रिश्ता अब केवल इस समुदाय के संघर्षों से नहीं है. इस कविता की बोली मुख्य धारा के लोगों द्वारा बोली जानी वाली असमी भाषा से अलग है और कवियों द्वारा इस्तेमाल हुई यह बोली ही इस विवाद के केंद्र में रही है. अब्दुल कलाम आजाद, स्वतंत्र शोधार्थी और जिनका नाम उन 10 लोगों में शामिल है जिनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज हुई है, ने मुझे बताया, “मियां कविता पर होने वाली हर चर्चा प्राथमिकी तक सीमित है, उसमें इस्तेमाल होने वाली भाषा आदि तक. जिस वजह से मियां कविता का दौर आरम्भ हुआ-यानी मियाओं का दुःख और अपमान और उस अस्तित्व का संकट जो हम पर मंडरा रहा है, पर पर्याप्त ध्यान नहीं जा पा रहा.”
यह विवाद मुख्यधारा और देसी या असमी आबादी और राज्य में रहने वाले बंगाल मूल के मुस्लिम समुदाय के बीच पहले से ही चल रहे सत्ता-संघर्ष का भी उदाहरण है. इस साल जून में, दिलीप बोराह और हीरेन गोहेन जैसे असम के विख्यात बुद्धिजीवियों ने सार्वजनिक रूप से बंगाली मूल के मुस्लिम समुदाय की बोली की यह दावा करते हुए आलोचना की थी कि कविता में इस बोली का इस्तेमाल असमी भाषा का अपमान है. इस आलेख से समुदाय की कविता और असमी राष्ट्रवाद पर एक तीखी ऑनलाइन डिबेट शुरू हो गई थी.
आजाद के अनुसार, “असम में पाठक वर्ग के एक छोटे से हिस्से ने पिछले तीन सालों में हमारी कविताओं को स्वीकार करना और उन पर चर्चा करना शुरू कर दिया था जबकि पाठक वर्ग के बड़े हिस्से ने मियां कविता पर अपनी चुप्पी बरकरार रखी और उसकी उपेक्षा की.” लेकिन पिछले दो महीनों में कविता की अपने विषय और अपनी बोली के लिए इतने बड़े स्तर पर आलोचना हुई कि उसने अब साहित्य को भी पीछे छोड़ दिया है. आजाद ने बताया, “असमी पाठक वर्ग के बड़े हिस्से को खतरा महसूस हुआ और अब जवाबी हमला होना शुरू हो गया. इस विवाद के चलते कवियों को साइबर हमलों और ट्रोलिंग का भी सामना करना पड़ा-रेहाना को कई सन्देश मिले जिसमें उनका बलात्कार करने की धमकी दी गई थी जबकि काजी को जान से मारने की कई धमकियां मिलीं.
असम के गौरीपुर में स्थित प्रमथेश बरुआ कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर परवीन सुल्ताना ने कहा, “क्षेत्रीय मीडिया ने तटस्थ चर्चा के नाम पर कवियों को ही चुप कराया. चर्चाओं से जुड़े ये कार्यक्रम पूरी तरह एकतरफा थे.” उन्होंने बताया, “असम में बाकी समुदाय भी अपनी भाषा जैसे राजबोंगशी में कविता लिखते हैं लेकिन कहीं भी इस बात पर जोर नहीं दिया कि वे ऐसा करते हुए असमी भाषा से दूर हो रहे हैं.”
डोलोई के शिकायत करने के साथ ही ये विवाद अपने चरम पर पहुंच गया और 4 दिन के भीतर ही असम के तीन पुलिस स्टेशनों में ऐसी ही शिकायतें की गईं. इन शिकायतों से चिंतित पुलिस स्टेशनों ने तीनों शिकायतों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की. दो शिकायतों में रेहाना और अहमद का भी नाम था. प्राथमिकी में आरोपियों के रूप में जिन लोगों को चुना गया और जिनके खिलाफ पुलिस केस दर्ज हुआ, वह पूरी तरह निरंकुश लगता है. पहली प्राथमिकी में 10 लोगों का नाम है जिनमें से अधिकांश एक-दूसरे के मित्र और सहयोगी हैं. लेकिन प्राथमिकी में केवल अहमद की कविता का जिक्र है. बाकी बचे नौ में से पांच लोग एक सिविल सोसायटी अभियान कारवां-ए-मुहब्बत के वीडियो में नजर आ रहे हैं जिसे यूट्यूब पर 23 जून को प्रकाशित किया गया है. इस वीडियो में यह बताया गया है कि असम में बंगाल मूल के मुस्लिमों का दुःख-दर्द क्या है और कैसे वे कविता के जरिये अपनी पहचान का दावा फिर से पेश कर रहे हैं. वीडियो में अहमद, रेहाना, अब्दुल, अब्दुर रहीम और अशरफुल हुसैन-जिनका नाम प्राथमिकी में दर्ज किया गया है, कविता गाते नजर आ रहे हैं. प्राथमिकी में जिन दो अन्य महिलाओं-करिश्मा हजारिका और बनामल्लिका चौधरी पर आरोप लगाया है, वे न तो बंगाल मूल के मुस्लिम समुदाय से हैं और न ही विवादित बोली में कोई कविता लिखी है. ये सभी कवियों के दोस्त हैं जिन्होंने सोशल मीडिया पर उन्हें समर्थन दिया. इसी समर्थन में हजारिका ने अपनी लिखी हुई एक असमी कविता भी सोशल मीडिया पर साझा की.
इस बात पर बहुत कम स्पष्टता है कि बाकी नौ का नाम प्राथमिकी में क्यों जोड़ा गया. इस मामले की जांच कर रही अधिकारी पहारी कोंवर भी पक्के तौर पर इसकी वजह नहीं बता सकीं. उन्होंने माना कि डोलोई की शिकायत को उन्होंने प्राथमिकी के रूप में दर्ज किया और आरोपों की बिना कोई जांच किए उन सभी लोगों को गिरफ्तार कर लिया जिनके नाम शिकायत में शामिल थे. डोलोई ने कहा कि उसने उन लोगों का नाम लिया जिन्होंने या तो कविता लिखी या जिसका वे सोशल मीडिया पर प्रचार कर रहे थे. जब मैंने उससे यह पूछा कि उसने मूल कविता के लिखे जाने के तीन साल बाद ही शिकायत दर्ज क्यों कराई, डोलोई ने पुष्टि की कि उसकी शिकायत का आधार कारवां-ए-मुहब्बत है. उसने जोड़ा, ऐसा क्यों है कि ये लोग उस समय कविता का प्रचार कर रहे हैं जब एनआरसी की प्रक्रिया चल रही है?
कोंवर खुद मामले से जुड़ी बाकी जानकारियों के बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कह पाईं. जब मैंने उनसे पूछा कि बाकी नौ के नाम प्राथमिकी में क्यों शामिल किए गए हैं, उन्होंने कहा, शायद एक-दो की आवाज है, शायद एक-दो ने लाइक किया है. उन्होंने आगे कहा कि शायद कुछ लोगों का नाम वीडियो साझा करने के चलते प्राथमिकी में जोड़ा गया है. जब मैंने उनसे कहा कि बहुत से लोगों ने इसे साझा किया है तो उन्होंने कहा, जिस समय उन्हें मिला है, शायद उतने लोगों का ही नाम है जिन्होंने शेयर किया है या स्प्रेड किया है. एक के बाद एक दर्ज हुईं तीन प्राथमिकी में से दो में “मियां परिषद” नाम के संस्थान के सदस्यों का नाम शामिल किया गया है. शालिम और रेहाना दोनों ने मुझे बताया कि प्राथमिकी में जिन कवियों का नाम शामिल किया गया है, उनका इस संस्थान से कोई लेना-देना नहीं है. यहां तक कि इन दो मामलों में से एक मामला, जो सिवसागर पुलिस स्टेशन में दर्ज हुआ है, की जांच कर रहे अधिकारी प्रफुल सुकिया ने माना कि इस संगठन का कविता से कोई संबंध नहीं है. उन्होंने इस बात का कोई कारण नहीं बताया कि क्यों इन लोगों का नाम प्राथमिकी में जोड़ा गया है. उन्होंने आगे बताया कि इन लोगों के नाम प्राथमिकी में शिकायत के आधार पर जोड़े गए हैं. अंतिम प्राथमिकी तो बंगाल मूल के मुस्लिम समुदाय की कविता के खिलाफ की गई. जेनरिक साधारण सी शिकायत पर आधारित है जिसमें किसी व्यक्ति सा संगठन का नाम नहीं लिया गया है.
इस साल 18 जुलाई को कारवां-ए-मुहब्बत ने दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में कवियों को अपना समर्थन व्यक्त करने के लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस की शुरुआत में ही कारवां अभियान शुरू करने वाले सामाजिक-अधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने कहा कि बंगाल मूल के मुस्लिम समुदाय की कविता पर एकाएक हमले को एनआरसी के सन्दर्भ में देखना चाहिए. यहां तक कि चार दर्ज प्राथमिकी में से दो में एनआरसी का जिक्र किया गया है- एक प्राथमिकी में दावा किया गया है कि समुदाय की कविता अपडेटेड एनआरसी के जारी होने के बाद माहौल को खराब करने की एक साजिश है. प्रेस कॉन्फ्रेंस में मंदर ने जोर देकर कहा कि असम में लोग एनआरसी की निरंकुश और जड़ प्रक्रियाओं के चलते संकट में हैं. अगर आप बंगाली नाम लिखते हुए स्पेलिंग में छोटी सी भी गलती कर देते हैं तो ये आपको विदेशी घोषित करवाकर बंदी गृह में डालने के लिए काफी है. मंदर ने कहा, अगर आप इस व्यथा को कविता के रूप में बाहर नहीं आने देंगे तो भारत का ये गणतंत्र किस ओर जा रहा है.
उन्होंने कहा कि एनआरसी के बहुत बड़ी संख्या में लोगों के लिए अकल्पनीय मानवीय प्रभाव होंगे क्योंकि भारतीय राज्य अपने नागरिकों को मान्यता नहीं देगा. भारत की आरएसएस की कल्पना में मुस्लिमों को हमेशा दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है. अब आपने उनके लिए गैर-नागरिक के रूप में रहने का तरीका ईजाद कर दया है.
आजाद ने जोड़ा कि नस्लीय-राष्ट्रवादियों ने बंगाल मूल के मुस्लिम समुदाय के प्रति जहर बो दिया है इसलिए एनआरसी के प्रभाव इन समुदायों के लिए और भी ज्यादा खराब होंगे. उन्होंने कहा, नागरिकता के संकट ने जिस अधिकारविहीनता को जन्म दिया है, उसने लगभग सभी बंगाल मूल के असमी मुस्लिमों पर असर डाला है. इसलिए यह स्वभाविक है कि कुछ कवि अपनी कविताओं में इस डर की भावना को संबोधित करेंगे. रेहाना ने जोड़ा कि उनकी कविताओं को एनआरसी पर किसी हमले के रूप में देखा जा रहा है जबकि कविता के इस आन्दोलन में इस विषय से जुड़ी सिर्फ दो या तीन कविताएं हैं. उन्होंने कहा कि कवियों ने मोटे तौर पर असम में महिलाओं की स्थिति और अपने समुदाय की परंपरा आदि से जुड़े सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को संबोधित किया है.
यहां तक कि सभी कवि वैचारिक रूप से एनआरसी परियोजना के खिलाफ भी नहीं थे. उदाहरण के लिए, काजी ने कहा कि एनआरसी से उनके समुदाय को फायदा मिलता. उन्होंने बताया, लोगों को बांग्लादेशी या विदेशी बोला जाता है, ये जो गाली-गलौच है लोग उनसे निकल पाएंगे. लेकिन एनआरसी की प्रक्रिया में आने वालें दिक्कतें, राज्य द्वारा किया जा रहा सूचनाओं का दस्तावेजीकरण- हम इसके खिलाफ हैं. हम मांग करते हैं कि एनआरसी की प्रक्रिया को दुरुस्त करने की जरुरत है.
एनआरसी की आलोचना का असम में कोई बहुत स्वागत नहीं हुआ है. परवीन ने बताया, असम का व्यापक समुदाय, असम का मुख्य धारा समाज आदि एनआरसी प्रक्रिया की भारी विसंगतियों और उसके चलते हो रहे शोषण की ओर इशारा करने पर बहुत सहज महसूस नहीं करता. इसके चलते भी राज्य में कवियों का समर्थन आधार दरक गया है. काजी और रेहाना ने बताया कि पहले जिन लोगों ने उनका समर्थन किया था उन्होंने कविता के इस विवाद में उनकी बोली की महत्ता बढ़ने के बाद उनका विरोध करना शुरू कर दिया. मंदर ने यह भी बताया कि कैसे कवि अपने संघर्ष में अकेले पड़ गए हैं. उन्होंने कहा, ये ऐसा वक्त है जब मुस्लिम अपने आपको सार्वजनिक दायरे में नदारद महसूस कर रहे हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद कारवां की सदस्य और लेखिका नताशा बधवार ने इस चिंता में आवाज मिलाते हुए कहा, जिन कुछ लोगों ने कवियों के खिलाफ बोला है, उनमें अध्यापक और मार्गदर्शक शामिल हैं. ये वे लोग थे जिन्होंने स्वयं कवियों का समर्थन किया था ...यह बहुत सदमा देने वाला है.
पनबाजार पुलिस स्टेशन द्वारा डोलोई की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज करने के दो दिन बाद गोहेन समेत असम के सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह ने कवियों के खिलाफ दर्ज हुई प्राथमिकी का विरोध किया था. लेकिन आजाद ने कहा कि उन्हें इस बयान की गंभीरता पर संदेह है. दुर्भाग्य से प्रो. हीरेन गोहेन, प्रो दिलीप बोरा और अन्य लोगों द्वारा अनावश्यक और असमय खड़े किये गए विवाद से मियां कवियों के खिलाफ अनेक प्राथमिकी दर्ज हो गईं. आजाद ने कहा, प्राथमिकी के विरोध में उनका विरोध महज एक तमाशा था. आजाद का संदेह निराधार नहीं है- भारतीय जनता पार्टी की बहुसंख्यक प्रवृत्तियों के कड़े आलोचक रहे गोहेन ने साल 2018 में लिखा था कि असम के बंगाल मूल के मुस्लिमों को याद रखना चाहिए कि उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी और उनकी सुरक्षा मुख्य तौर पर स्थानीय लोगों के विश्वास और साख पर निर्भर है.
शायद इस पूरे विवाद का सबसे विडंबनापूर्ण और सार्थक विवरण यह है कि मियां कविता का विरोध कर रहे लोग कवियों को बाहरी और उनकी बोली को अपमानजनक बता रहे हैं जबकि ये कवि अपनी असमी पहचान की दावेदारी पेश कर रहे हैं. एक ऐसी ही कविता, जिसमें यह भाव नजर आता है, का उदाहरण देते हुए रेहाना ने बताया, हम असमी में बोलते हैं, असमी-माध्यम के स्कूलों में पढ़ते हैं, असमी कपड़े पहनते हैं, असमी खाना खाते हैं इसके बावजूद भी हम असमी क्यों नहीं हैं? काजी और परवीन दोनों ने मुझे बताया कि कवियों पर लगातार यह आरोप लगा कि उनकी कविता चलो-पलटई अभियान 2021 से जुड़ी है- यह एक सोशल मीडिया अभियान है जिसमें बंगाली बोलने वाले असम के समुदाय से अपील की गई है कि वह साल 2021 की जनगणना में अपनी भाषा बंगाली लिखें. कवियों ने ऐसे किसी भी आन्दोलन के साथ जुड़ाव से इनकार किया. काजी ने कहा, हम उसका भी विरोध करते हैं. हम कहते हैं कि हम असमी हैं- हम असमी में लिखते हैं, हमनें असमी में पढ़ाई की है, हम इसे अपनी मातृभाषा मानते हैं.
कवियों ने जोर देकर कहा कि उनके अपनी बोली के इस्तेमाल को गलत ढंग से असमी संस्कृति पर हमले के रूप में बताया जा रहा है. अपनी बोली का स्पष्टीकरण देते हुए शालिम ने कहा, ”मैंने कविता ‘नाना, लिखी है’ उस बोली में लिखी, जिसे मैं घर पर बोलता हूं. जो बात मैं कविता के जरिये कहना चाहता था, वह बहुत निजी थी और उसे किसी मानक भाषा में नहीं कहा जा सकता था. रेहाना ने भी कहा कि उनके गुस्से की कई बार सही झलक उनकी अपनी बोली में ही आ पाती है. उन्होंने कहा, कुछ शब्द-जैसे मेरे अनुभव और मेरी भावनाएं- जो मैं अपनी बोली मियां में ही बयान कर सकती हूं. मैं किसी और बोली का इस्तेमाल कर ऐसा नहीं कर सकती.
हजारिका, जिनका नाम प्राथमिकी में अपनी बोली में कोई कविता नहीं लिखने के बावजूद जोड़ा गया है, गुवाहाटी विश्वविद्यालय में लिंग्विस्टिक से अपनी पीएचडी कर रहीं 26 वर्षीय शोधार्थी हैं. उन्होंने बोली पर खड़े किए गए विवाद की वजह पर सवाल खड़ा किया. हजारिका ने कहा, हर राज्य में बहुत सी बोलियां हैं. अगर इन बोलियों का इस्तेमाल किया जाए तो भाषा और समृद्ध होती है. एक लिंग्विस्टिक छात्रा के रूप में मेरा ये मानना है. हजारिका ने कहा, “मुख्यधारा यह तय करने वाली कौन होती है कि वे कविता को अपनी बोली में लिख सकते हैं या नहीं?”
दूसरी तरफ, डोलोई का दावा है कि यह असमी बोली ही नहीं है. डोलोई इसे बंगाली भाषा कहते हैं, लेकिन इसमें असमी लहजा आता है. उनका कहना है कि जिन लोगों के खिलाफ शिकायत की गई है, वे राज्य में अपनी कविता के जरिए खुद को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने जोर देकर कहा, “वे बंगाली मुस्लिम हैं. वे पूर्वी बंगाल से पलायन कर आए हैं.” कारवां की प्रेस कॉन्फ्रेंस में लेखक और कवि अशोक वाजपेयी ने इस पूरे विवाद में कविता की तारीफ की. उन्होंने कहा, “कई बार हमें कविता की रक्षा करनी पड़ती है क्योंकि विरोध सही कारण के लिए होता है. इस मामले में कविताएं अच्छी हैं और यहां तक कि विरोध का स्वरूप भी बहुत ठोस है.” लेकिन असम की पुलिस ने अपने तरीकों से कवियों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153A लगाकर उन्हें धार्मिक और क्षेत्रीय आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य बढ़ाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया.
गुवाहाटी हाई कोर्ट ने 17 जुलाई को उन दस में से नौ लोगों को अग्रिम जमानत दे दी जिनका नाम पहली प्राथमिकी में शामिल था. 43 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता और दसवें आरोपी बनामल्लिका चौधरी ने अपनी विडंबना कुछ यूं व्यक्त की, “मैं पीस और कनफ्लिक्ट स्टडीज की शोधार्थी हूं और फिर वे कहते हैं कि मैं समाज में अशांति फैला रही हूं.” अगले ही दिन बाकी तीन मामलों में आरोपी बनाए गए कवियों को भी अग्रिम जमानत मिल गई.
इसके बावजूद पुलिस द्वारा दर्ज मामलों में कुछ कवियों को रक्षात्मक बना दिया. पहली प्राथमिकी दर्ज होने के बाद अहमद ने एक बयान जारी किया जिसमें उन्होंने असमी भाषा को अपना समर्थन देने की बात कही. उन्होंने कहा, “लोगों ने मेरे साथ असमी भाषा का समर्थन करने पर मारपीट की. इसके बावजूद अगर मेरी कविता से किसी की भावना आहत हुई है तो मैं इसके लिए खेद प्रकट करता हूं.”
सुल्ताना ने कहा कि उन्होंने इस मामले के बारे में अपने माता-पिता को नहीं बताया. उन्होंने मुझे बताया, “मेरे गांव में किसी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज होना बड़ी बात समझी जाती है और एक लड़की के मामले में तो यह और भी बड़ी बात है.” काजी ने कहा, “दक्षिणपंथी लोगों के मन में मुस्लिमों के प्रति नफरत है जिसके चलते उन लोगों ने हमारी शिकायत की.” काजी ने आगे कहा, “मैं कभी नहीं कहता कि मेरा शोषण इस वजह से हो रहा है क्योंकि मैं मुस्लिम हूं, लेकिन कहीं न कहीं ये एक कारण जरुर है.”
लेकिन काजी के अनुसार न तो पुलिस केस और न ही सोशल मीडिया पर होने वाले हमले उन्हें या बाकी कवियों को लिखने से रोक पाएंगे. उन्होंने कहा, “लिख पाएंगे, क्यों नहीं लिख पाएंगे. यह हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है, वे हमें रोक नहीं सकते.”
अनुवाद- अभिनव श्रीवास्तव