असम के मियां कवियों पर बुद्धिजीवियों का हमला

06 अगस्त 2019
अहमद द्वारा लिखी इस कविता की पंक्तियां थीं, “लिखो, लिखो कि मैं मियां हूं/एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र का नागरिक जिसके पास कोई अधिकार नहीं है”.
जीशान ए. लतीफ/कारवां
अहमद द्वारा लिखी इस कविता की पंक्तियां थीं, “लिखो, लिखो कि मैं मियां हूं/एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र का नागरिक जिसके पास कोई अधिकार नहीं है”.
जीशान ए. लतीफ/कारवां

इस साल 10 जुलाई को असम में रहने वाले पत्रकार प्रणवजीत डोलोई ने 10 लोगों पर आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने का आरोप लगाते हुए गुवाहाटी के पनबाजार पुलिस स्टेशन में यह शिकायत दर्ज कराई कि इन लोगों की गतिविधियां असमी लोगों को दुनिया भर में जीनोफोबिक के रूप में बदनाम कर रही हैं. डोलोई ने दावा किया कि ये 10 लोग नेशनल सिटिजन रजिस्टर को अपडेट किए जाने की मौजूदा प्रक्रिया को बाधित कर रहे हैं जो असम के भारतीय नागरिकों की सूची है और जिसे 31 अगस्त को प्रकाशित किया जाना है. डोलोई की शिकायत का आधार स्कूल अध्यापक और सामाजिक कार्यकर्ता हाफिज अहमद द्वारा लिखी और बहुप्रचारित कविता ‘लिखो मैं मियां हूं’ थी. अहमद द्वारा लिखी इस कविता की पंक्तियां थीं, “लिखो, लिखो कि मैं मियां हूं/एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र का नागरिक जिसके पास कोई अधिकार नहीं है.” पुलिस ने डोलोई की शिकायत के आधार पर प्राथमिकी दर्ज करते हुए सभी 10 लोगों को अन्य अपराधों के साथ-साथ विभिन्न समूहों में वैमनस्य फैलाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया.

असम में “मियां” शब्द बंगाली मूल के असमी मुस्लिमों के लिए पश्चिम बंगाल से पलायन कर आए लोगों के रूप में एक धब्बे की तरह इस्तेमाल किया जाता है. बल्कि एक कदम आगे जाकर उन्हें बांग्लादेश से आए हुए अवैध प्रवासी कहा जाता है. जो इस बात को ध्यान में रखते हुए अपने आप में एक गंभीर आरोप है कि एनआरसी की प्रक्रिया के तहत ऐसे लोगों से उनकी भारतीय नागरिकता छीने जाने का प्रस्ताव है. खुद बंगाल-मूल के मुस्लिम हामिद ने उस उत्पीड़न को रेखांकित करते हुए जिसका सामना इस समुदाय के लोग करते हैं, बताया कि कैसे इन लोगों पर एनआरसी प्रक्रिया के तहत भारतीय नागरिकता छिन जाने का खतरा कहीं अधिक है.

यह कविता तब वायरल हुई जब पहली बार इसे साल 2016 में ऑनलाइन प्रचारित किया गया और इससे बंगाल मूल के बाकी मुस्लिमों को कविता लिखने की प्रेरणा मिली. इस तरह लिखी गई कविताओं में न सिर्फ बंगाल मूल के मुस्लिमों का दर्द बयान किया गया था बल्कि ऐसा उनकी अपनी बोली में किया गया-तब तक ऐसी इन आवाजों की सार्वजनिक दायरे में कोई जगह नहीं थी. उदाहरण के लिए, एक अन्य बंगाल मूल के मुस्लिम कवि शालिम एम हुसैन ने अहमद की कविता के जवाब में “नाना, मैं लिख चुका हूं” शीर्षक से कविता लिखी. उन्होंने लिखा, “जब ये बदमाश मुझे बांग्लादेशी कहते हैं तब मेरी स्थिति समझिए/और मेरे क्रांतिकारी ह्रदय को बताइए/लेकिन मैं मियां हूं.” गुवाहाटी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली शोधार्थी और सामाजिक कार्यकर्ता 28 वर्षीय रेहाना सुल्ताना ने मुझे बताया कि उन पर शालिम की कविता का बहुत असर हुआ क्योंकि उन्हें लगा कि वे उन्हीं के समुदाय के लिए ये कविता लिख रहे हैं. उन्होंने आगे बताया, “फिर मैंने मियां समुदाय के लिए असमी में वह कविता लिखी जिसमें बताया गया था कि कैसे मियाओं को असम में अपनी पहचान साबित करनी पड़ती है.

काजी के अनुसार न तो पुलिस केस और न ही सोशल मीडिया पर होने वाले हमले उन्हें या बाकी कवियों को लिखने से रोक पाएंगे.

वास्तव में असम के बंगाल मूल के मुस्लिमों को कविता की इस नई धारा ने ऐसा अवसर प्रदान किया जिससे वे अपनी शर्तों पर अपनी पहचान परिभाषित कर सकते थे. असम के तेजपुर विश्वविद्यालय में कल्चरल स्टडीज में अपना परास्नातक कर रहे 26 वर्षीय छात्र काजी शरोवर हुसैन के अनुसार, कवि “मियां” शब्द पर नए सिरे से अपना दावा कर रहे थे. काजी ने बताया, “असम के नदी किनारे स्थित चारचपोरी इलाकों, जहां मुख्यतः बंगाल मूल के मुस्लिमों की बड़ी आबादी रहती है, में रहने वाले लोगों को परिभाषित करने के लिए कोई उचित शब्दावली नहीं है.” उन्होंने कहा, “आप मियां में गाली देते हो, वही हमारी पहचान है.” शालिम, सुल्ताना और काजी का नाम प्राथमिकी में दर्ज है.

अमृता सिंह कारवां की असिस्टेंट एडिटर हैं.

Keywords: Miya Poetry Miya Muslims NRC Assam National Register of Citizens
कमेंट