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असम संभवतः एकमात्र ऐसा भारतीय राज्य है जो नागरिकता कानूनों को लेकर सबसे सतर्क रहता है. इसलिए जैसे ही केंद्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने इस साल 11 मार्च को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के नियमों को अधिसूचित किया, राज्य में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. नियमों को अधिसूचित करना एक चुनावी पैंतरा है ताकि बीजेपी यह जता सके कि चार साल पहले पास इस कानून के राष्ट्रव्यापी विरोध के बावजूद कानून को लेकर बीजेपी की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है.
अधिसूचना जारी होने के तुरंत बाद गुवाहाटी के कॉटन विश्वविद्यालय में छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. गुवाहाटी विश्वविद्यालय छात्र संघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कैडर के बीच झड़प की ख़बर भी आई. राज्य के सबसे ताकतवर छात्र संगठन ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) ने अधिनियम की प्रतियां जलाई. अखिल गोगोई के नेतृत्व वाले किसान संगठन, कृषक मुक्ति संग्राम समिति, ने भी विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. गोगोई को पहले 2019 में सीएए विरोध प्रदर्शन में उनकी भूमिका को लेकर आतंकवाद विरोधी कानून के तहत एक साल से अधिक समय तक जेल में बंद रखा गया था. असम प्रशासन ने विरोध प्रदर्शन के ख़िलाफ़ दमनकारी रुख़ अपनाया. मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने धमकी दी कि आंदोलन में भाग लेने वाले राजनीतिक दलों और संगठनों का पंजीकरण रद्द कर दिया जाएगा और पुलिस प्रमुख ने ट्वीट किया कि विरोध प्रदर्शन से होने वाले नुकसान की भरपाई बंद का आह्वान करने वाले संगठनों से की जाएगी.
असम में 2018 में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया था. उस वक़्त तक यह केवल एक विधेयक था. यह कानून नहीं बना था. 2019 में भी राष्ट्रव्यापी घटना बनने से पहले असम उन पहले राज्यों में से था जहां सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन शुरू हुए. 2019 के विरोध प्रदर्शन राज्य के इतिहास के सबसे बड़े प्रदर्शनों जैसे थे. ये 1979 और 1985 के मध्य असम आंदोलन के विरोध प्रदर्शनों की याद दिलाते थे. लेकिन तुलनात्मक रूप देखें तो पाएंगे कि 2024 में सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हल्का हो गया है. उपस्थिति कम है और उत्साह भी कम है. यहां तक कि जो लोग 2019 में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे, जैसे कि नेता गोगोई और संगठन आसू, वे भी बड़ी भीड़ जुटाने में नाकाम दिख रहे हैं.
राज्य में सीएए विरोधी आंदोलन का विकास 2019 की तरह न हो पाना असम में जातीय-राष्ट्रीयतावादी संगठनों की घटती प्रासंगिकता को दिखाता है जो वैसे भी धर्मनिरपेक्षता या लोकतंत्र को लेकर बहुत चिंतित कभी नहीं थे. ये जातीयतावादी आंदोलन हमेशा ही असमिया हिंदू कुलीन वर्ग के हितों के पोषक रहे. हिंदू कुलीन वर्ग ने हमेशा अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने का विरोध किया है. इस वर्ग ने सीएए विरोधी आंदोलन को जातीयतावाद या जातीय-राष्ट्रवाद को मजबूत बनाने के साधन के रूप में देखा है. पहले भी, खासकर 1980 के दशक में, असमिया राष्ट्रतीयतावादी संगठनों ने राज्य में "बाहरी लोगों" के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर आंदोलन किए. इसके चलते यह हुआ कि उन लोगों को नागरिक ही नहीं माना गया जो 25 मार्च 1971 के बाद राज्य में आकर बसे थे. तब भी आसू जैसे संगठनों ने आप्रवासी विरोधी भावना की लहर पर सवार होकर सत्ता में आने का प्रयास किया. तब आसू और अन्य संगठन "बाहरी लोग" विरोधी भावना को भुनाने में कुछ हद तक ही सफल रहे थे लेकिन अब यह भावना हिंदुत्व पर सवार होकर हावी हो रही है.
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