एनडीए में वापसी असंभव : सी. के. जानू

साभार: सी. के. जानू
21 February, 2019

19 फरवरी को केरल में आदिवासी अधिकार आंदोलन के इतिहास की सबसे हिंसक घटना की सालगिरह मनाई जाती है. अगस्त 2011 में केरल के वयनाड जिले में आदिवासी समुदाय ने विरोध प्रदर्शन किया. राज्य सचिवालय के सामने किए जा रहे इस प्रदर्शन में खेती योग्य भूमि की मांग की जा रही थी. प्रदर्शन बिना रुके 48 दिनों तक चला. तब राज्य के सीएम एके एंटनी थे जो आदिवासियों को जमीन देने पर राजी हो गए. लेकिन यह रजामंदी एक साल भी लागू नहीं रही और इसकी वजह से आदिवासियों ने दोबारा प्रदर्शन शुरू कर दिया. जनवरी 2003 में आदिवासी समुदाय ने वयनाड के मुथंगा के जंगलों में झोपड़ियां बना लीं, जो उनके विरोध प्रदर्शन का हिस्सा था. झोपड़ियां जगंल में उनका घर होने के अधिकार का प्रतीक थीं. प्रदर्शकारियों को आदिवासी गोत्र महासभा यानी एजीएमएस ने इकट्ठा किया था. ये समूह आदवासियों के जमीन अधिकार की लड़ाई लड़ता है. इसका नेतृत्व सी. के. जानू कर रही थीं. वे केरल के सबसे प्रमुख आदिवासी नेताओं में से एक हैं.

उस साल फरवरी में प्रदर्शनकारियों से इलाके को खाली करवाए जाने के प्रयास के तहत झोपड़ियों में आग लगा दी गई. प्रदर्शनकारियों ने जंगल अधिकारियों पर लूट का आरोप लगाकर उन्हें बंदी बना लिया. इसके बाद असंख्य अदिवासियों की गिरफ्तारी के साथ-साथ उनके खिलाफ जमकर हिंसा हुई. अति तो तब हो गई जब 19 फरवरी को पुलिस ने प्रदर्शन की मुख्य जगह पर गोली चला दी. इसमें एक प्रदर्शनकारी और एक पुलिस वाले की मौत हो गई. जानू और उनकी साथी गीतानंदन एजीएमएस में समन्वयक थे. उन्हें प्रदर्शन के दो दिन बाद गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में जमानत पर छोड़ा गया. उस दौरान प्रदर्शन में शामिल जिन आदिवासियों के खिलाफ केस दर्ज हुआ था, वे आज तक उस केस को लड़ रहे हैं.

इसे “मुथंगा संघर्ष " के नाम से जाना गया. आदिवासियों को जमीन का अधिकार दिलाने के लिए कई आंदोलनों की श्रृंख्ला में से एक, मुथंगा संघर्ष, का नेतृत्व जानू ने किया है. 2016 में जानू के एनडीए से जुड़ने की अफवाह थी. फिर जानू ने घोषणा की कि वे जनाधिपत्य राष्ट्रीय सभा यानी जेआरएस नाम की एक नई राजनीतिक पार्टी बनाएंगी. इसके तुरंत बाद एजीएमएस के अपने साथियों के हल्के विरोध के बावजूद उन्होंने गीतानंदन के साथ भारतीय जनता पार्टी नीत एनडीए का दामन थाम लिया. अक्टूबर 2018 में उन्होंने कोझीकोड में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई. इसमें उन्होंने ऐलान किया कि उनकी पार्टी, जेआरएस, गठबंधन से अलग हो रही है क्योंकि उनकी पार्टी से किया गया वादा पूरा नहीं किया गया.

कारवां की रिपोर्टिंग फेलो आतिरा कोनिक्करा ने जानू से बातचीत की. जानू ने एनडीए से जुड़ने के कारण, उसे छोड़ने का उनका फैसला और आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए राजनीतिक तकत की अहमियत पर पूछे गए सवालों का जवाब दिया. उन्होंने कहा, “अगर आप भारत का इतिहास देखेंगे तो पाएंगे कि जिन समुदायों के पास राजनीतिक ताकत थी उन्होंने बदलाव हासिल किया है. ऐसे में जब आप इस सिस्टम का अध्ययन करते हैं तो पता चलता है कि सिर्फ राजनीति में घुस कर ही सफलता मिल सकती है.”

आतिरा कोनिक्करा : जब आप एनडीए का हिस्सा बनीं तो आपसे और आपकी पार्टी से क्या वादे किए गए थे?

सी. के. जानू : पहले उन्होंने हमें पार्टी से जुड़ने को कहा. हमने कहा कि केरल में जो पार्टियां पहले से मौजूद हैं हम उनसे नहीं जुड़ेंगे, हमरा स्टैंड यही था. हमारे बीच दो-तीन महीनों तक बातचीत जारी रही. बाद में हमने कहा कि हमें अगर गठबंधन के मोर्चे पर सहयोगी मान लिया जाता है तो हम बातचीत जारी रख सकते हैं. जब मोर्च को लेकर बात शुरू हुई तो हमने जनाधिपत्य राष्ट्रीय पार्टी का निर्माण किया. 

जब हमने पार्टी बनाई तो हम (एनडीए) मोर्चे से गठबंधन सहयोगी की तरह जुड़ गए और हमें वयनाड के बथेरी चुनाव क्षेत्र में एक सीट दी गई. हम इस सीट पर लड़े. हमने उनसे कहा भी था कि अगर हम ये सीट हार जाते हैं तो हमें एक राज्य सभा सीट दी जानी चाहिए. हमने इसकी भी मांग की कि जेआरएस सदस्यों को कॉर्पोरेशनों और ऐसी संस्थाओं के बोर्ड की सदस्यता दी जानी चाहिए और आदिवासी आबादी वाले क्षेत्र को भारतीय संविधान की अनुच्छेद 244 के तहत अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए. (अनुच्छेद 244 में आदिवासी इलाकों के प्रशासन के लिए विशेष प्रावधान हैं.) केरल में जंगल के अधिकारों का हनन किया जा रहा है. इसे यहां वैसे लागू नहीं किया गया है जैसे किया जाना चाहिए था. सो हमने मांग की कि केरल में इस कानून को लागू करवाने में केंद्र सरकार हस्ताक्षेप करे. उन्होंने हमसे ऐसे बात की कि जैसे इन बातों में हमारा समर्थन करेंगे.

एके : क्या बातचीत के लिए आप बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से मिलीं? इसके नतीजे क्या रहे?

सीकेजे : एनडीए से जुड़ने के बाद मैं अमित शाह से 2016 में मिली. वे अपनी पार्टी के सम्मेलन के लिए केरल आए थे. वह पहला मौका था, जब मैं उनसे मिली. हमने उनसे सभी मुद्दों पर बातचीत की और उनके सामने अपनी मांगें रखीं. उन्होंने राजीव चंद्रशेखर (मीडिया टाईकून और कर्नाटक से राज्य सभा सदस्य) को इसमें हस्ताक्षेप करने का काम सौंपा. उन्होंने हमें भरोसा दिलाया कि कुछ दिनों में समाधान निकाला आएगा. हम एनडीए की मुलाकातों में लगातार अपनी मांग उठा रहे थे. हमें अपनी सभी मांगों की फेहरिस्त बनाते हुए एक चिट्ठी ड्राफ्ट करने को कहा गया. हमने पार्टी के लेटर हेड पर सभी मांगें लिखीं और उन्हें दे दी.

अमित शाह ने उन दो बैठकों में हिस्सा लिया था जिसमें हमने अपने मुद्दे उठाए थे. इसके अलावा हम उनसे फिर मिले जब वो अलाप्पुझा (केरल का एक जिला) के दौरे पर थे. मैं उनसे तीन बार मिलीं और उनसे सीधे बात की. उन्होंने जवाब में कहा कि वे व्यस्त हैं और जब चुनाव खत्म हो जाएंगे तो हमारे मुद्दों को छह महीने, तीन महीनों में हल कर दिया जाएगा. वे हर बार यही कहते थे. लेकिन ढाई सालों के बाद भी प्रक्रिया शुरू नहीं हुई. उन्होंने हमारे बीच हुई बातचीत पर कोई प्लान या प्रोग्राम शुरू नहीं किया. 

एके : आपको कब महसूस हुआ कि आपकी कोई भी मांग पूरी नहीं होने जा रही. आपने गठबंधन तोड़ने का फैसला कब लिया?

सीकेजे : हमारे बीच तीन से चार दौर की बातचीत हुई और हम पार्टी की केरल यूनिट से भी इस बारे में जानकारी हासिल करते रहे लेकिन कुछ नहीं हुआ. वे लोग व्यस्त थे. दो सालों के बाद भी हमने कोई ऐसा कदम नहीं देखा जो इस ओर उठाया गया हो. इससे हमारी पार्टी में बात बिगड़ने लगी. शुरू से ही एनडीए से जुड़ने को लेकर विरोध था. सबने ये कह कर विरोध किया कि एनडीए दलित और आदिवासी विरोधी है. हमने इस विरोध से पार पा लिया. दो साल बाद पार्टी में चर्चा शुरू हुई कि कैसे बीजेपी हमसे ठीक वैसे ही पेश आ रही है जैसे एलडीएफ (यानी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट जो अभी केरल की सरकार चला रही है) और यूडीएफ (यानी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट जो इसके पहले राज्य की सरकार चला रही थी) पेश आते थे. इससे हमारी अपनी पार्टी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगा. हमें पार्टी कायम रखने के लिए कोई फैसला करना था. हमने पार्टी के भले के लिए एनडीए छोड़ने का फैसला लिया. जैसा कि हमने एनडीए का साथ छोड़ दिया, हमने कहा कि हम किसी पार्टी के साथ बातचीत को तैयार हैं, जो हमें लोकतांत्रिक शिष्टाचार के अनुसार स्वीकृति प्रदान करे.

एके : कोझिकोड की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आपने कहा कि आप अस्थायी रूप से एनडीए को छोड़ रही हैं. क्या आप अब भी उस पर कायम हैं?

सीकेजे : नहीं, हमने इसे पूरी तरह से छोड़ दिया है. हमें अब एनडीए से कोई लेना-देना नहीं है. वापसी का सवाल ही नहीं है क्योंकि उन्होंने हमें स्वीकृति नहीं दी. हमने एक बेहद राजनीतिक लाइन ली थी. कोई भी आंदोलन तभी आगे जा सकता है जब कार्यकर्ताओं की आवाज को सुना जाए.

एके : बीजेपी शासित राज्यों में दलितों को खिलाफ हिंसा हुई है. ऐसे भी माना जाता है कि एनडीए के साथ खड़ा होना संघ परिवार के साथ खड़ा होना है.

सीकेजे : हां, लोग ऐसा भी मानते हैं. हमने एक अलग स्टैंड लिया. जहां तक केरल का सवाल है, यहां की अनुसूचित जाति और जनजाति की बेहाली के लिए बीजेपी जिम्मेवार नहीं है. वह केरल में कभी सत्ता में नहीं रही. अगर वह सरकार में आती, तब हमारी बदहाली की जिम्मेदार हो सकती थी. लेकिन केरल के मामले में ऐसा नहीं है. केरल की अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आंदोलनों को कभी भी किसी भी आंदोलन द्वारा एक राजनीतिक विंग के रूप में नहीं देखा गया है. हर किसी ने उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है. एलडीएफ और यूडीएफ को इन्हें स्वीकार करना चाहिए था. लेकिन इन लोगों को कभी भी रैली के कार्यकर्ता, वोट बैंक और पोस्टर चिपकाने वालों से ज्यादा इन्हें नहीं माना. ऐसे में एनडीए जब तीसरे मोर्चे के रूप में आई तो हम इसका हिस्से बनने के लिए बातचीत के लिए आगे आए. जब एलडीएफ और यूडीएफ ने हमारी नहीं सुनी तो एनडीए ने केरल के हाशिए के और पिछड़े वर्गों को सहायता की पेशकश की. ये हमारे लिए सही था. मैं नहीं कह रही कि उत्तर भारत में दलित और आदिवासियों के खिलाफ हमले नहीं हो रहे हैं. हम यहां के पृथक वर्ग का नेतृत्व कर रहे हैं.

एके : क्या आपके राजनीति में आने के फैसले से आदिवासी गोत्र महासभा पर प्रभाव पड़ा है?

सीकेजे : इसका गोत्र महासभा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. पार्टी के जिला अध्यक्ष, सचिव, अध्यक्ष सभी गोत्र महासभा की गतिविधियों का नेतृत्व कर रहे हैं. मैं अभी भी गोत्र महासभा की राज्य अध्यक्ष हूं.

एके : आपके और गीतनंदन के बीच मतभेद हो गए थे. अभी आपके संबंध कैसे हैं? क्या आप अभी भी साथ काम करते हैं?

सीकेजे : गीतानंदन सर राजनीतिक मत के खिलाफ हैं. हम अपने मामलों की सुनवाई के लिए साथ जाते हैं और इस बारे में बात करते हैं. लेकिन जब से मैं राजनीति में आई, हमने कभी साथ काम नहीं किया.

एके : जब आपने 2003 में मुथंगा संघर्ष का नेतृत्व किया था तो प्रदर्शनकारियों को माओवादी करार दे दिया गया था. तब एक सोच थी जो भी आदिवासी प्रदर्शन करता है माओवादी है. क्या अभी भी ऐसा है?

सीकेजे : अभी भी ऐसा है. जो प्रदर्शन करते हैं उन्हें माओवादी, नक्सलवादी और आतंकी करार दे दिया जाता है. ऐसे भी आरोप लगे थे कि मुथंगा प्रदर्शन में लिट्टे और द पीपुल्स वॉर ग्रुप (भारत का एक पूर्व माओवादी संगठन) का हाथ था. मुझे नहीं पता कि लिट्टे और पीडब्ल्यूजी क्या हैं. हमारा नक्सलियों से कोई लेना-देना नहीं हैं. लेकिन हमारे संघर्ष के माथे यही मढ़ दिया गया. ऐसे शब्दों का इस्तेमाल आंदोलनों को दबाने के लिए किया जाता है. इसके सहारे वे लोगों के समर्थन में सेंध लगा देते हैं. ये लोगों से हमें दूर कर हम पर हमला करने की एक सोची समझी चाल है.

एके : क्या आदवासियों के प्रति मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के रुख में कोई बदलाव हुआ है?

सीकेजे : एलडीएफ के रुख में बेशक बदलाव हुआ है. वे लोग अब हमारे लोगों से मिलने, बात करने और उन्हें सुनने को तैयार हैं. इसलिए उन्होंने हमें स्वीकार किया है. हमारे बीच उनसे गठबंधन सहयोगी के तौर पर जुड़ने को लेकर दो-तीन राउंड बातचीत हुई है. पार्टी ने एलडीएफ का साथ देने और उनके साथ काम करने का फैसला किया है. हम फिलहाल इसी दिशा में बढ़ रहे हैं.

एके : आदिवासी आंदोलन के नेता के तौर पर आप समुदाय को लेकर राजनीतिक पार्टियों की उदासीनता से परिचित होंगे. ऐसे में आपको किस बात से यकीन हुआ की राजनीति सही रास्ता है?

सीकेजे : आप भारत के इतिहास पर नजर डालिए. जिन भी समुदायों ने राजनीति में हिस्सा लिया वे बदलाव करने में सक्षम रहे हैं, वे सभी मुख्यधारा का हिस्सा बन गए हैं. लेकिन वे लोग जो इस सिस्टम का हिस्सा नहीं बन पाए उनकी स्थिति दयनीय रही है. उनका विनाश हुआ है और यहां तक ​​कि उनकी जाति विलुप्त हो गई है. ये भारत में बेहद साफ तौर पर दिखाई देता है. ऐसे में जब आप इस सिस्टम को समझते हैं तो आप सीखते हैं कि आप राजनीति का हिस्सा बन कर ही जी सकते हैं.

 मैं पिछले 35 सालों से आंदोलनों का हिस्सा रही हूं. हमारा प्रदर्शन तीन से चार महीनों तक जारी रहेगा. इस खास मुद्दे पर गहराई से चर्चा की जाती है और इसे हल करने के लिए कुछ कदम उठाने के तरीके तलाशे जाते हैं. एक बार प्रदर्शन समाप्त हो जाता है तो इसके लिए बनाई गई योजनाएं त्याग दी जाती हैं. ऐसे में हमें शुरू से प्रदर्शन करने की दुर्दशा झेलनी पड़ती है. 2001 में एक समझौता हुआ था कि केरल के सभी भूमिहीन आदिवासियों को खेती आधारित आजीविका के लिए जमीन दी जाए. सरकार ने एक आदिवासी मिशन की स्थापना की. उस प्रदर्शन के एक साल बाद प्रक्रिया का सही तरीके से पालन किया गया था. मिशन ने भूमिहीन आदिवासियों का सर्वेक्षण किया जिनके लिए जमीन को चिन्हित किया गया. इस प्रक्रिया का एक साल तक ठीक से पालन किया गया. इसके बाद प्रोग्राम ही बंद कर दिया गया. हमें वह प्रोग्राम फिर से शुरू करना पड़ा जो हमने मुथंगा संघर्ष के दौरान शुरू किया था. इसी तरह से अगले प्रदर्शन को भी मुथंगा संघर्ष से ही शुरू करना पड़ा. ऐसे में प्रक्रिया को लागू करवाने के लिए बार बार नए प्रदर्शन करने पड़ते हैं. कोई जिंदगी भर तो विरोध प्रदर्शन नहीं कर सकता है. प्रक्रिया का कोई निष्कर्ष होना चाहिए तभी कोई समाधान निकलेगा. यह राजनीति में घुस कर ही संभव है. 

हाल ही में (2014 में) हमारा नीलपुसाराम (एक तरह का विरोध प्रदर्शन जिसमें लोग लगातार खड़े रहते हैं.) 162 दिनों तक चला. लोगों के समर्थन की वजह से यह सफल रहा. मांग की गई थी कि भूमिहीनों को जमीन दी जाए. मुथंगा संधर्ष में हिस्सा लेने के दौरान मार खाने वाले और अभी तक केस लड़ रहे लोगों के लिए एक विशेष पैकेज की भी मांग की गई थी. हरजाने में जमीन और पुनर्वास की भी मांग की गई थी. लोग जाड़ा, गर्मी और बरसात में 162 दिनों तक खड़े रहे. उन्होंने अपने पांव के जख्मों की भी परवाह नहीं की. प्रदर्शन केरल सरकार के सचिवालय के बाहर बने फुटपाथ पर किया जा रहा था. हमारा ये प्रदर्शन जो सचिवालय के बाहर 162 दिनों तक चला वह विधानसभा के भीतर एक दिन में सफल हो गया होता. ऐसे में हम अपने प्रदर्शन का तरीका बदल रहे हैं. हम अब फुटपाथ पर प्रदर्शन नहीं करेंगे. हम विधानसभा के भीतर प्रदर्शन करेंगे. ऐसे करने के लिए हमें भीतर जाना होगा. हमने इस राजनीतिक पार्टी का निर्माण इसी के हिस्से के रूप में किया. ढेर सारे सांसद विधायकों की पार्टी बना कर हमारा इरादा पैसे कमाने का नहीं है. हमने पार्टी इसलिए बनाई क्योंकि यही तरीका है जिससे लोगों को संकट से पार लगाया जा सकता है. हमें इतने लंबे समय तक ये रास्ता नहीं अपनाने का दुख है.

एके : आदिवासी समुदाय के लिए आपकी मांगें क्या हैं?

सीकेजे : आदिवासियों की वर्तमान स्थिति में बदलाव होना चाहिए. केरल के अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के पास भारत के बाकी नागरिकों के बराबर हक होना चाहिए. जमीन पर रहने का मौलिक अधिकार हर इंसान के पास है. जन्म के बाद खाना, कपड़ा और मकान इंसान के मौलिक अधिकारों में आता है. लेकिन आदिवासियों के मामले में मौलिक अधिकारों का हनन होता है और उनसे दूर रखा जाता है. हमारी पार्टी इन्हीं मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ बनाई गई है.

एके : अपने पहले जंगल में स्व-शासन के तरीके की वकालत की है. इस पर अब आपकी क्या राय है?

सीकेजे : स्व-शासन कोई समानांतर सरकार जैसी बात नहीं है. ये मौजूदा सरकार के भीतर काम करने वाला एक तरह का तंत्र होता है. मुझे लगता है कि हमें इसकी दरकार है. अगर ऐसा होता है तो जमीन आदिवासियों के हिस्से में कई पीढ़ियों तक रहेगी. जंगल, झील, प्रकृति इस क्षेत्र के लोगों की संपदा है. ये उनकी आजीविका के श्रोत हैं. ऐसे में इन्हें संजोने के लिए ऐसे सिस्टम को लाने में क्या हर्ज है? आज लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलाई जा रही है. ऐसे सिस्टम के सहारे तानाशाही की जगह लोकतंत्र को बहाल किया जा सकता है. अगर आप लोगों को जमीन देते हैं और वे जमकर खेती कर अपनी आजीविका कमाने लगते हैं तो इससे एक नई कृषि क्रांति का आगाज होगा. इस कृषि क्रांति के बाद राज्य को किसी पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा. ये एक स्वतंत्र राज्य के तौर पर विकसित हो जाएगा. मेरा मानना है कि हर किसी को इसे पहचानना चाहिए, सहमत होना चाहिए और इसके लागू करवाने का प्रयास करना चाहिए.

एके : क्या आपकी पार्टी की सदस्यता वयनाड तक सीमित है?

सीकेजे : हमारे सदस्य केरल के हर जिले में हैं. अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्य हैं. अन्य पृथक समूह भी हमसे जुड़ने के लिए आगे आ रहे हैं. हम पृथक लोगों के एक समूह में तब्दील होना चाहते हैं जिसके लिए जाति और धर्म मायने नहीं रखता है. केरल में 36 आदिवासी समूह हैं. हम इन 36 समूहों के लिए एक धर्म की स्थापना करने की सोच रहे हैं. इनमें अदिया, पनिया, कुर्चा, कुर्मा, कट्टुनायका, चोलानायका शामिल हैं. इन सबने आदिवासी पहचान को मान्यता दी है. इसलिए हम सोच रहे हैं कि आदिवासी को ही एक धर्म में तब्दील कर दें. हम आदवासियों के नेताओं से इस पर चर्चा कर रहे हैं.

हमारे लोग हिंदुत्व से अलग हैं. हम हिंदू संस्कृति से अलग हैं. हमारा विश्वास, पूजा करने का तरीका, रीति-रिवाज, शादी सब कुछ हिंदू सिस्टम से अलग है. हममें से कोई भी हिंदू नहीं है. हम आदिवासी हैं.

एके : लोक सभा ने हाल ही में एक बिल पास किया है जो आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देता है. आपकी इस आरक्षण पर क्या राय है?

सीकेजे : आरक्षण के सहारे समाज के पृथक वर्ग को मुख्यधारा में लाया जाता है. सवर्णों में पिछड़ों को आरक्षण की दरकार नहीं है. आरक्षण गरीबी खत्म करने का हल नहीं है. गरीबी खत्म करने के लिए रोजगार और भोजन से जुड़े काम की आवश्यकता है. उन्हें अन्य सवर्णों के बराबर लाने के लिए रोजगार के अवसर मुहैया कराने की दरकार है. इसके बदले उन्हें आरक्षण देना एक किस्म का हमला है. ये इन लोगों का समर्थन पाने की एक चाल है. ये सवर्णों का तुष्टीकरण करने को लेकर उठाया गया एक कदम है.

एके : आप केरल में महिला दीवार श्रृंख्ला का हिस्सा बनीं. इससे जुड़ने के आपके क्या कारण थे?

सीकेजे : महिलाओं की दीवार सारी महिलाओं का एक साझा प्रयास था. आने वाला समय महिलाओं के साझे प्रयास का समय होने वाला है. ऐसी पहल उन चीजों की शुरुआत है. ऐसे में एक महिला के तौर पर सार्वजनिक क्षेत्रों में हमें राजनीति से अलग हट कर एक साथ आना चाहिए. क्या महिलाओं को महिलाओं के साझा प्रयास में साथ नहीं देना चाहिए? ऐसे मामलों में पार्टी की राजनीति को दरकिनार कर दिया जाना चाहिए. ये महिलाओं से जुड़ी एक पहल है. यह मायने नहीं रखता कि किस पार्टी ने इसका आयोजन किया था. महिलाएं अपने मतभेदों को पाट कर आईं वे चाहे कांग्रेस, लेफ्ट, बीजेपी, आदिवासी या दलित महिलाएं ही क्यों न हों. समाज के हर तबके से आने वाली महिलाओं ने इसमें हिस्सा लिया. भविष्य में महिलाओं से जुड़ी ऐसी और पहलों की शुरुआत होने की संभावना है.