हसदेव का जंगल सौंपकर कहां जाएं हम : जयनंदन पोर्टे

चित्रांगदा चौधरी
चित्रांगदा चौधरी

जनवरी 2019 को पर्यावरण मंत्रालय की फॉरेस्ट एडवाइजरी कमिटी ने परसा कोयला खंड की माइनिंग से जुड़े स्टेज- 1 को हरी झंडी दे दी. यानी सैद्धांतिक रूप से ये कोल माइनिंग के लिए हरी झंडी थी. ‘परसा कोयला खंड’ उत्तरी छत्तीगढ़ के हसदेव अरंद जंगलों में स्थित है. यहां ओपन-कास्ट माइनिंग के लिए 2000 एकड़ में फैले जंगल का सफाया करना पड़ेगा. दरअसल, इस तरह की माइनिंग में मिट्टी और जंगल को हटाकर ही कोयला निकाला जाता है क्योंकि कोयला इनके नीचे होता है.

परसा खदान छत्तीसगढ़ के हसदेव अरंद क्षेत्र के उन 30 खदानों में शामिल है, जिनकी नपाई हुई है. यह केंद्रीय भारत के सबसे बड़े जंगली इलाके में से एक है. ये जंगल में रहने वाले आदिवासी समुदाय का घर है. इनमें गोंड भी शामिल हैं जो काफी हद तक जंगल से उत्पन्न उत्पादों और खेती पर निर्भर हैं. यह क्षेत्र जैव-विविधतापूर्ण से भरा है. यह घने साल के जंगलों, दुर्लभ पौधों, पूरे साल बहने वाली जल की धाराओं और वन्यजीव की कई प्रजातियों के साथ पारिस्थितिक रूप से नाजुक है.लेकिन यहां मौजूद कोयले का प्रचूर भंडार इसके अद्भुत पारिस्थितिक तंत्र के लिए खतरा है. हसदेव आरंद कोलफील्ड की नपाई कोयला मंत्रालय ने की है. इससे पता चला है कि यहां एक बिलियन मिट्रिक टन से ज्यादा ऐसा कोयला है जिसका पता है. यह 1,878 स्क्वायर किलोमीटर के दायरे में फैला है, जिसमें 1,502 स्क्वॉयर किलोमीटर का इलाका जंगली जमीन है.

परसा कोयला खंड हसदेव के जंगलों में स्थित तीन खदानों में से एक है, जो राजस्थान राज्य विद्युत निगम लिमिटेड को दिया गया है. ये राजस्थान सरकार का एक विद्युत निगम है. आरआरवीयूएनएल ने इसके लिए अडाणी इंटरप्राइज लिमिटेड को माइन डेवलपर ऑपरेटर (एमडीओ) के तौर पर अपना हिस्सा बनाया है. जैसा कि कारवां ने अपनी पहली रिपोर्ट में बताया है कि एमडीओ के विचार को भारतीय कोयला इंडस्ट्री से जुड़े किसी कानून की मान्यता प्राप्त नहीं है. ये कोल माइन्स एक्ट में भी नहीं है. कारवां पहले ही बता चुका है कि एमडीओ का विचार पीएसयू औरर एमडीओ के बीच वापस से बनी कोई सहमति नहीं है और ये ना तो केंद्र और ना ही कोयला मंत्रालय के निरीक्षण का विषय है. कोयला खदानों के आवंटन में पारदर्शिता का ये अभाव सुप्रीम कोर्ट के 2014 के फैसले का उल्लंघन है.

मार्च 2013 से एईएल उस कोयला खंड की भी खुदाई करता आया है जो आरआरवीयूएनएल को मिला था. ये द परसा ईस्ट एंड कांता बासन यानी पीईकेबी माइन है. यह भी हसदेव क्षेत्र में स्थित है. पीकेईबी में माइनिंग ऑपरेशन नेशनल ग्रीन ट्रीब्यूनल द्वारा 2014 के उस निर्णय के बावजूद जारी है जिसमें ट्रिब्यूनल ने एमओईएफसीसी से खदान के लिए ग्रीन क्लियरेंस का फिर से मूल्यांकन करने को कहा था. कारवां द्वारा एक खोज में ये बात सामने आई थी कि आरआरवीयूएनएल और एईएल के बीच समझौता अपारदर्शी और एईएल के लिए बेहद फायदे वाला है.

पीईकेबी का खदानों में काम और हसदेव के जंगलों में सरकार द्वारा और कोयला खदान खोले जाने की योजना ने पिछले पांच सालों में छत्तीसगढ़ में जमीन से जुड़े कई संघर्षों को जन्म दिया है. इन प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाली एक संस्था ‘हसदेव आरंद बचाओ संघर्ष समिति’ यानी एचएबीएसएस है. ये हसदेव क्षेत्र के 40 गांवों में फैला हुआ है. ये वैसे गांव हैं जिन पर या तो खदान से जुड़े काम का बेहद बुरा असर पड़ा है या पड़ेगा. एचएबीएसएस की प्रेस रिलीज के मुताबिक 24 फरवरी को एफएसी अनुमति के खिलाफ प्रदर्शन करने 150 ग्राम सभाएं एक साथ हसदेव मोर्गा गांव पहुंचीं. चित्रांगदा चौधरी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने जयनंदन सिंह पोर्टे का साक्षात्कार किया है. पोर्टे एचएबीएसएस के एक सदस्य हैं. उन्होंने प्रदर्शन और गांव पर पड़ने वाले माइनिंग के प्रभावों पर बात की. पोर्ट घाटबर्रा गांव के निवासी हैं जो वर्तमान पीईकेबी खदान की सीमा से लगा है. उन्होंने कहा, “आज गांव वालों का इस बात में विश्वास है कि अगर हम लड़ते हैं तो जंगल को माइनिंग से बचा सकते हैं. हमें कानून के बारे में बहुत अच्छे से पता है और हमारी ताकत ग्राम सभा है.”

चित्रांगदा चौधरी ओडिशा में मल्टीमीडिया पत्रकार, शोधकर्ता और ओपन सोसाइटी इंस्टीट्यूट की फेलो हैं.

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