बिजली के बिना जीने को मजबूर दिल्ली के जय हिंद कैंप के लोग

जय हिंद कैंप में 8 जुलाई, 2025 से बिजली नहीं है. कारवां के लिए अखिलेश पांडेय

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दक्षिण दिल्ली के रईस इलाकों में से एक, वसंत कुंज, की रौनक पास के मसूदपुर इलाके के जय हिंद कैंप से है. जय हिंद कैंप एक दिन की छुट्टी कर ले तो वसंत कुंज का स्वर्ग बजबजाता नर्क बन जाएगा. ऊंची तनख्वाहों वाला वसंत कुंज कैंप से मिलने वाली रोजमर्रे की मदद के बिना शायद ही कभी वक़्त से काम पर पहुंच सकता है. 

नसीमा खातून अपने दो भाइयों के साथ इसी कैंप में रहती हैं. वह वसंत कुंज के घरों में साफ़-साफ़ाई और खाना बनाने का काम करती हैं. उनके भाई इन इलाकों में कूड़ा उठाने का काम करते हैं. हाल ही में नसीमा का दो घरों का काम छूट गया. इन घरों में उन्हें सुबह जल्दी काम करना होता था. कुछ दिनों से वह वक़्त से नहीं पहुंच रही थीं. ऐसे में काम छूटना तय ही था.

समय से न पहुंचने की वजह बहुत बचकाना जान पड़ सकती है कि वह सोती रह गईं, समय पर आंख नहीं खुली. बीती 8 जुलाई को दिल्ली की उमस भरी चिपचिपी गर्मी में पसीने से लत बिजली विभाग के अधिकारी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवानों के साथ पहुंचे और बिना चेतावनी बिना वजह बताए कैंप की बिजली काट गए. तभी से नसीमा खातून की रात की नींद भी आधी हो गई.

बिजली कटौती मई 2024 के ज़िला अदालत के उस निर्देश के बाद हुई जिसमें बिजली वितरण कंपनी बीएसईएस को बिजली कनेक्शन काटने का निर्देश दिया गया था.

कैंप में बिजली कटने की बात जानकर मैं 20 और 21 जुलाई को वहां गया. मैं यह जानने की कोशिश में था कि इस गर्मी और बारिश का उन लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ा है जबकि दिल्ली में बिना बिजली के गर्मी का एक दिन काटना मुश्किल है. कैंप में 1,000 से अधिक परिवार, जिसमें बच्चे, बूढ़े, बीमार और गर्भवती महिलाएं हैं, अपना जीवन बिना बिजली के बिता रहे हैं.

महिपालपुर से वसंत कुंज की ओर जाते हुए मुख्यमार्ग से दाईं ओर मसूदपुर गांव के पास एक कच्चा रास्ता है जो कीचड़ से सना था. रास्ते के दोनों तरफ कूड़े और उसमें से निकले हुए कबाड़ का ढेर था. कहीं यह कबाड़ ट्रकों में लादा जा रहा था. हवा में कूड़े के सड़ने की गंध थी और जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया सड़क के दाहिनी ओर घनी बस्ती दिखाई देने लगी.

नसीमा खातून अपने दो भाइयों के साथ इसी कैंप में रहती हैं. वह वसंत कुंज के घरों में साफ़-साफ़ाई और खाना बनाने का काम करती हैं. कारवां के लिए अखिलेश पांडेय

ज़्यादातर घर टिन के बने थे औ कुछ में पक्की दीवारें भी थीं. चारों तरफ गंदगी, तंग और पतली गलियां थीं, जिनके दोनों तरफ छोटी-छोटी कोठरियां थी जिनके बाहर महिलाएं छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लिए हुए हाथ से पंखा झल रही थीं.

खातून ने मुझे बताया कि गर्मी और फिर बिजली कटौती की वजह से वह रात को ठीक से नहीं सो पाती. नसीमा कहती हैं कि उनके जैसी और भी महिलाएं हैं जिनका काम छूट गया या छूट रहा है और हालत मुश्किल होती जा रही है.

'लगभग दो हफ़्ते से बिजली नहीं है और हम गर्मी के मारे सो नहीं पा रहे. जीवन बहुत कठिन हो गया है यहां. छोटे घर, अंधेरा, गर्मी और उमस ने हाल बेहाल कर दिया है. बिना बिजली के कैसे कोई रह सकता है ऐसी गर्मी में?' खातून ने मुझसे पूछा. नसीमा खातून पश्चिम बंगाल के कूच विहार इलाके से हैं और लगभग दो दशक से कैंप में रह रही हैं.

मैंने वहां कुछ और महिलाओं से बात की. उन्होंने कहा कि चूंकि बिजली नहीं है और कमरे बिना रोशनी और खिड़की के हैं तो छोटे बच्चों को गर्मी से राहत देना उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता है, क्योंकि रात में कोई भी ठीक से सो नहीं पाता. अपनी पोती पर पंखा झलते हुए नूरजहां ने बताया कि कैंप में सबसे ज़्यादा परेशानी छोटे बच्चों, नवजात शिशुओं और गर्भवती महिलाओं को है.

रुकसाना बेगम गर्भवती हैं जो दो महीने पहले ही गांव से दिल्ली अपने पति के पास आई हैं. उनके पति भी कूड़ा उठाने का काम करते हैं. रुकसाना कहती हैं कि वह एक बेहतर ज़िंदगी का सपना लिए दिल्ली आई थी लेकिन बिजली नहीं होने के चलते उनको बहुत दिक्कत हो रही है.

कैंप में गर्भवती महिलाओं की स्थिति के बारे में और जानने के लिए जब मैंने कुछ लोगों से बात की, तो पता चला कि एक गर्भवती महिला को उसके घर वालों ने बिजली नहीं होने के कारण गांव भेज दिया. लेकिन रास्ते मे ही उनकी डिलिवरी हो गई और बच्चा नहीं बच पाया. महिला की सास मनोरा बीबी ने बताया कि डिलीवरी के डेढ़ महीने बचे थे और वह पहला बच्चा था. इसलिए परिवार ने यह जानकर गांव भेजने का सोचा कि कोई परेशानी न हो लेकिन ट्रेन में ही डिलीवरी हो गई. 'बिजली नहीं काटी गई होती तो बहु को गांव नहीं भेजना पड़ता,' मनोरा ने कहा. वह भी आसपास के इलाके में कोठियों में काम करती हैं और उनके पति कूड़ा उठाते हैं.

जय हिंद कैंप में लोग अपने घरों में बिजली मंदिर और मस्जिद के मीटर से लेते थे और सामूहिक बिल जमा किया जाता था. मंदिर के मीटर की देखभाल करने वाले विमलेंदु राय ने बताया कि सब ठीक चल रहा था और 2014 में जब से मंदिर और मस्जिद में मीटर लगे तभी से लोग वहीं से ही बिजली ले रहे थे और बिल भर रहे थे. फिर भी 3 जुलाई को आख़िरी बार बिल भरने के बाद, बिना बताए अचानक 8 तारीख को बिजली काट दी गई और मीटर को विभाग अपने साथ ले गया. राय कहते हैं कि ज़मीन पर कोर्ट का जो स्टे था उसकी मियाद पूरी हो गई थी इसलिए बिजली काट दी गई. 'अब कब सबको बिजली मिलेगा पता नहीं,' राय ने कहा. उन्होंने यह भी बताया कि तीन लोग कोर्ट से दुबारा स्टे ले आए हैं तो शायद उनका अपना मीटर लगे लेकिन पूरे कैंप के लिए सबको स्टे लाने की ज़रूरत पड़ेगी.

जब मैं पहले दिन यानी 20 जुलाई को कैंप में गया और पत्रकार के तौर पर अपना परिचय दिया तो कोई भी मुझसे बात करने को तैयार नहीं हुआ. उनका कहना था कि मीडिया बाहर जाकर झूठ फैला रही है कि यहां बांग्लादेशी रहते हैं जबकि सब भारत के हैं और विभिन्न राज्यों से हैं और मिलजुल कर रहते हैं. बहुत समझाने के बाद कुछ लोग बात करने को तैयार हुए. उनके मन का डर साफ़ दिख रहा था. सरकार के रुख पर उन्हें शक था क्योंकि इतनी मीडिया के आने के बावजूद उनकी सुनवाई कहीं नहीं थी.

शहरी विकास के साये में तकरीबन तीन दशक पहले यह कैंप बसा और समय के साथ इसकी आबादी भी बढ़ती गई. ठेकेदार के जरिए दिल्ली पहुंचाए गए मज़दूरों को तब खाली और वीरान पड़ी उस जगह पर झुग्गी में रहने के लिए छोड़ दिया गया. वक़्त के साथ यहां एक बड़ी बस्ती बन गई और आज 1400 से अधिक परिवार और तकरीबन 5000 लोग किसी तरह यहां जी रहते हैं.

विमलेंदु ने बताया कि 2014 में बस्ती में एक भीषण आग लगी थी. इसके बाद प्रशासन ने दौरा किया और एक सर्वे हुआ. इसके बाद झुग्गियों को नंबर मिला. प्रणव ने बताया कि उनके घर का नंबर 302 है. उन्होंने अभी नंबर प्लेट नहीं लगाई थी जबकि बहुत से घरों पर इसे देखे जा सकता है.

कैंप में हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदाय के लोग रहते हैं. हालांकि यहां मुस्लिम समुदाय की बहुलता है जो अधिकांश पश्चिम बंगाल के कूच विहार के निवासी हैं. तीन दशक में बसी इस बस्ती में कुछ भी नियोजित नहीं है : न सीवर है, न पानी की लाइन, न सड़क. स्थानीय झुग्गी वासियों का कहना है कि उन सब की जांच-पड़ताल हुई है. उनके पास योग्यता के कागज़ हैं फिर भी उनके साथ एक भेदभाव है और भाषाई तथा आंचलिक स्तर पर उनको बाहर का समझा जाता है.

राहत के लिए लाइन लगाकर खड़े कैंप के लोग. कारवां के लिए अखिलेश पांडेय

अपने बच्चे को गोद में लिए शाकिरन बीवी अपनी झुग्गी के बाहर रखे एक बड़े से ड्रम से पाइप के सहारे पानी को छोटे डिब्बे में भर रही थीं. मैं उनके पास जाते ही उन्होंने अपना चेहरा ढक लिया और जाने लगीं. मैंने उनसे बात करने की गुजारिश की तो उन्होंने बताया कि क्योंकि वह बंगाली बोलती हैं इसलिए बाहर के लोग उनको बांग्लादेशी कहते हैं. शाकिरन बताती हैं कि उनकी शादी भी इसी बस्ती में हुई और वह 20-25 साल से यहीं रह रही हैं.

पहले कूड़ा उठाने और अब पानी का काम करने वाले सूरत अली भी लगभग दो दशकों से कैंप में हैं. वह कहते हैं कि लोगों में डर फैल गया है कि आज बिजली कटी है कल को झुग्गी भी टूट सकती है क्योंकि माहौल ऐसा ही है और सरकार कभी भी कहीं भी बुलडोजर चला दे रही है. अपना पक्ष रखते हुए उन्होंने कहा, 'हमारे पास यहां का निवासी होने के सारे प्रमाण हैं फिर भी एक अनिश्चित भविष्य को लेकर वह चिंता है.’

कैंप और वहां की जमीन पर अपना हक़ जाहिर करते हुए उत्तर प्रदेश के महराजगंज निवासी श्याम सिंह कहते हैं कि तीन दशक से यह कैंप है. 'ऐसे में कोई कैसे हमें हटा सकता है. हमारे भी अधिकार हैं और उनकी भी रक्षा होनी चाहिए,' उन्होंने कहा.

दोनों दिन मुझे दिल्ली जल बोर्ड के टैंकर दिखाई दिए. ये कैंप में पानी पहुंचाने आए थे. बिना बिजली वाली इस झुग्गी में पानी पहुंचाने आए टैंकरों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की तस्वीर चस्पा थीं. औरतें और बच्चे ड्रम या डिब्बों में पाईप से पानी भर रहे थे. उन्होंने बताया कि पानी मिलने का समीकरण बहुत अलग है और आज-कल पानी की सप्लाई भी लगभग आधी हो गई है. लोगों ने बताया कि हर घर को पानी महीने में दो या तीन बार ही मिल पाता है.

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