गिरफ्तारी और प्रत्यर्पण के डर से भारत से बंगलादेश भाग रहे रोहिंग्या शरणार्थी

शरणार्थी शिविरों में रहने वाले रोहिंग्याओं का कहना है कि भारत सरकार की नीतियों के कारण उन पर प्रत्यर्पण का खतरा मंडरा रहा हैं. अदनान अबिदी/रॉयटर्स

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दिल्ली के कालंदी कुंज में रोहिंग्या शरणार्थियों के शिविर में रहने वाले मोहम्मद शाकेर कहते हैं, “वे भाग्यशाली हैं जो बंगलादेश पहुंच जाते हैं. जो लोग सीमा पर पकड़े जाते हैं उनकी हालत बहुत खराब है.” रोहिंग्या लोग म्यांमार (पूर्व में बर्मा) के मुसलमानों को कहा जाता है. बर्मा की सेना की हिंसा के चलते ये लोग बार्डर पर कर भारत आ गए. 2008 से लेकर आज तक तकरीबन 40 हजार रोहिंग्या, म्यांमार से भाग कर भारत आए हैं. लेकिन हाल के दिनों में वे एक बार फिर निर्वासित होने के खतरे का सामना कर रहे हैं और भारत में उनके खिलाफ बढ़ रही भावनाओं के कारण यहां से भाग कर बंगलादेश जा रहे हैं.

नरेंद्र मोदी सरकार रोहिंग्या को “राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा” मानती है और उन्हें शरणार्थी का दर्जा नहीं देती. अगस्त 2017 में केन्द्र सरकार ने राज्यों को निर्देश दिया था कि वे रोहिंग्या लोगों की पहचान कर उनका प्रत्यर्पण कराएं. करीब 15 हजार रोहिंग्या शरणार्थियों हेतु संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त कार्यालय (यूएनएचसीआर) में शरणार्थी के रूप में पंजीकृत हैं. सितंबर 2018 में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने रोहिंग्याओं को “अवैध घुसपैठी” बताते हुए, कहा कि “सरकार इन लोगों के लिए भारत को शरण स्थल बनने नहीं देगी”. उसी महीने गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राज्य सरकारों को सभी रोहिंग्याओं का बायोमेट्रिक डेटा लेने का निर्देश दिया. इस साल फरवरी में गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने लोक सभा में बताया कि सरकार ने राज्यों को “निरंतर रूप” से सर्वे कर रोहिंग्याओं को प्रत्यर्पित करने का निर्देश दिया है.

रोहिंग्या साक्षरता कार्यक्रम के संस्थापक और कालंदी कुंज के शरणार्थी शिविर में रहने वाले अली जोहर कहते हैं, “लोग चिंतित हैं कि पहचान कर लिए जाने के बाद उन्हें वापस भेज दिया जाएगा.” रोहिंग्या शरणार्थी समिति के अध्यक्ष निजामुद्दीन कहते हैं, “लगातार हो रहा सत्यापन और प्रत्यर्पण एक दूसरे से संबंधित विषय हैं.” इन लोगों का डर अकारण नहीं है. गत वर्ष अक्टूबर से अब तक भारत ने 12 रोहिंग्या शरणाथियों को वापस भेजा है. ये सभी असम की जेल में बंद थे.

मैंने इस साल जनवरी में कालंदी कुंज और शाहीन बाग स्थित दो रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का दौरा किया. इन शिविरों में 100 से अधिक परिवार रहते हैं. इन में से अधिकांश परिवारों ने मुझे बताया कि भारत सरकार ने दवाब का माहौल बन रखा है और इन लोगों को लगातार प्रत्यर्पण के डर के साए में रहना पड़ रहा है. निजामुद्दीन ने कहा, “हाल में जो सत्यापन फॉर्म हम लोगों को बांटा गया वह बर्मा की सरकार द्वारा हमें बांटे गए फार्म से मिलता जुलता है.” हाल में हुई गिरफ्तारियों और प्रत्यर्पण की नीति के कारण दिल्ली में रह रहे रोहिंग्या शारणार्थियों में डर समा गया है और बहुत से शरणार्थी बंगलादेश भाग गए हैं.

कालंदी कुंज शिविर में रहने वाले शाकेर रोहिंग्या मानवाधिकार पहल के साथ काम करते हैं. उनका कहना है कि बंगलादेश जाने की इच्छा रखने वाले रोहिंग्याओं में से 3 प्रतिशत सीमा सुरक्षा बल द्वारा बार्डर में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं. एक ईमेल के जवाब में यूएनएचसीआर के ऑफिस ने बताया कि दिसंबर 2018 से भारत से बंगलादेश जाने वाले रोहिंग्या शारणार्थियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. 16 जनवरी और 3 फरवरी के बीच बीएसएफ ने 68 रोहिंग्याओं को हिरासत में लिया और उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजा है. खबरों के मुताबिक सिर्फ जनवरी में ही 1300 रोहिंग्या बंगलादेश भाग गए. शरणार्थी शिविरों मे रहने वालों ने मुझे बताया कि गत 8 महीनों में जो भी रोहिंग्या बंगलादेश भाग गए उन लोगों ने वापस लौटने से इनकार किया है. इन लोगों का कहना है कि सितंबर 2018 में गृहमंत्री के निर्देशों के बाद से निरंतर हो रहे सत्यापन के कारण ऐसा हो रहा है. वहीं रहने वाले मोहम्मद सलीमउल्ला का कहना है कि 2012 और 2014 में भारत सरकार हर साल एक बार रोहिंग्याओं की गिनती करती थी लेकिन पिछले तीन-चार महीनों में ऐसी 100 जांच की गई हैं. सलीमउल्ला का कहना है कि सरकार कई तरह के फॉर्म भरवाती है और बायोमेट्रिक ले रही है जिसके चलते यह डर बन गया है कि कहीं सरकार उन्हें बर्मा न भेज दे.

भारतीय अधिकारियों ने जो फॉर्म भरने के लिए रोहिंग्याओं को दिए उनमें से एक का शीर्षक है “निजी डेटा फॉर्म”. इस फार्म में म्यांमार में रह रहे इन लोगों के परिजनों की जानकारी मांगी गई. इस फार्म में आवेदकों के बच्चों, भाई-बहनों, माता-पिता और बीवी एवं पति की जानकारी मांगी गई. शरणार्थियों का कहना है कि इस तरह की जानकारी देते हुए ये लोग डरे हुए थे. निजामुद्दीन ने बताया, “यह बहुत डरावनी बात होगी अगर भारत सरकार बर्मा की सरकार के साथ ये जानकारियां साझा करती है. इससे वहां रहने वालों की जान खतरे में पड़ सकती है.”

शरणार्थियों ने बताया कि जून 2014 में इसी तरह का सर्वे म्यांमार सरकार ने भी करवाया था. 1982 में म्यांमार सरकार ने रोहिंग्याओं का नागरिक दर्जा समाप्त कर दिया था लेकिन इन्हें वोट देने का अधिकार था. लेकिन जून 2014 के सर्वे के आठ महीने बाद फरवरी में इन लोगों से वोट देने का अधिकार भी छीन लिया गया. इस दौर में बर्मा की सेना और बहुसंख्यक बुद्धिस्टों ने रोहिंग्याओं पर अत्याचार किए. म्यांमार में रोहिंग्याओं को भीषण मानवाधिकार हनन की घटनाओं का सामना करना पड़ा. 2017 में राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार कार्यालय ने बंगलादेश में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों की आपबीती को रिकार्ड किया. रोहिंग्याओं को बर्मा में न्यायेतर हत्या, जबरन लापता कर दिया जाना, यातना, अमानवीय व्यवहार, बलात्कार और अन्य प्रकार की लैंगिक और यौन हिंसा, मनमानी गिरफ्तारियां, देश निकाला और जबरन स्थानांतरण जैसी घटनाओं का सामना करना पड़ा.

हाल में भारत में भी इन लोगों को बहुत सी ऐसी ही हिंसाओं का सामना करना पड़ रहा है. निजामुद्दीन के अनुसार, “आज भारत की जेलों में 300 से अधिक रोहिंग्या कैद हैं जिन्हें अवैध रूप से सीमा पार करने के अपराध में पकड़ा गया है. उनका एकमात्र अपराध यह है कि भारतीय सीमा में प्रवेश करते वक्त उनके पास वैध दस्तावेज नहीं थे. अगर उनके लिए पासपोर्ट हासिल करना आसान होता तो क्या उन्हें बर्मा छोड़कर भागने की नौबत आती.”

उनके अनुसार, आधिकारिक माध्यमों से भारत आने वाले अन्य शरणार्थियों की तुलना रोहिंग्याओं से नहीं की जा सकती. “देखिए यहां तक की राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद तक मानता है कि बर्मा में हम लोगों का जनसंहार किया जा रहा है. हम लोग ऐसी परिस्थियों से भाग रहे हैं और भारत सरकार हमसे पासपोर्ट मांग रही है.” कोलकाता के रास्ते भारत में प्रवेश करने वाले सलीमुद्दीन का कहना है कि जो लोग यूएनएचसीआर तक पहुंच पाए उन्हें यहां रहने की इजाजत मिल गई. “लेकिन यदि कोई यूनएचसीआर पहुंचने से पहले पकड़ लिया जाता है तो उसे जेल में डाल दिया जाता है.”

रोहिंग्या कैंपों में कई शरणार्थियों ने मुझसे आपबीती साझा की. उनकी बातों से लगता है कि आज जो कुछ उनके साथ हो रहा है वैसा पहले नहीं था. इनमें से अधिकांश रोहिंग्या 2010 और 2012 के बीच भारत आए हैं और उस वक्त जब इन लोगों को पकड़ा जाता तो बीएसएफ इनसे अच्छा बर्ताव करती थी. कालंदी कुंज शिविर में रह रहे मोहम्मद सिराजुल्ला म्यांमार के रखाइन राज्य के मुंगताव प्रांत से हैं. सितंबर 2012 में हुई सांप्रदायिक हिंसा से बचने के लिए वे भारत भाग आए. 1982 में जब रोहिंग्याओं की नागरिकता छीन ली गई तब से रोहिंग्या आबादी मुख्य रूप से रखाइन में रहती है.

सिराजउल्ला ने मुझे बताया, ”बुद्धिस्ट लामाओं ने हमारे गांव को चारों ओर से घेर लिया. पुलिस भी उनसे मिली हुई थी. मेरे दो दोस्तों को मेरे सामने मार डाला.” सिराजउल्ला को इस कदर पीटा गया कि उनका जिस्म सूज गया. “इसके बाद मैंने बर्मा छोड़ दिया.” बंगलादेश आने में उन्हें तीन घंटे लगे. वहां से बस पकड़ कर वे भारतीय सीमा में आए और पैदल चल कर भारत में प्रवेश किया. “मुझे अगरतला में बीएसएफ ने पकड़ लिया. मुझे तेज बुखार था. एक उप महानिरीक्षक ने मुझे दवा, खाना और पहनने के लिए कपड़े दिए. इसके बाद वे मुझे दिल्ली ले कर आए और दो हफ्तों तक अस्पताल में मेरा इलाज कराया. इसके बाद मुझे यूएनएचसीआर ने शरणार्थी कार्ड दे दिया.”

लेकिन पिछले दो सालों से भारत में रह रहे रोहिंग्याओं की हालत बेहद खराब हो गई है. अगस्त 2017 में रोहिंग्याओं के एक उग्रवादी धड़े के हमले के बाद बर्मा सेना की जवाबी कार्रवाई के कारण छह लाख से अधिक रोहिंग्या देश छोड़कर बंगलादेश भाग आए. उस साल सितंबर में बीएसएफ के अधिकारियों ने खुलासा किया कि भारत में घुस रहे रोहिंग्याओं पर मिर्च पाउडर छिड़का जा रहा है और उन पर स्टनगन (मूर्छित करने वाली बंदूक) का इस्तेमाल किया जा रहा है. हाल ही में जनवरी में बीएसएफ ने 68 रोहिंग्याओं को हिरासत में ले लिया. इनमें बहुतों का आरोप है कि उनको पीटा गया और यूएनएचसीआर का शरणार्थी कार्ड भी छीन लिया गया. लेकिन बीएसएफ ने इन आरोपों का खंडन किया है.

सलीमउल्ला के अनुभव से भी एहसास होता है कि रोहिंग्याओं के प्रति भारत के रवैये में बदलाव आया है. 2012 में सलीमउल्ला पश्चिम बंगाल के रास्ते भारत आए थे. उन्हें उसी साल शरणार्थी कार्ड मिल गया. “2014 में मुझे लॉन्ग टाइम वीसा मिल गया जिसे हर साल नवीकरण किया जा सकता था. लेकिन 2017 से सरकार ने वीसा रिन्यू करना बंद कर दिया. सलीमउल्ला और मोहम्मद शाकेर ने सितंबर 2017 में भारत सरकार के अगस्त 2017 के निर्देशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर शरणार्थियों के अधिकारों की रक्षा करने की अपील की.

याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत भूषण का कहना है कि सरकार का निर्देश अवापसी के सिद्धांतों के खिलाफ है. अंतर्राष्ट्रीय कानून की मान्यता के अनुसार, यदि किसी को देश वापस भेजने पर उसकी जान को खतरा होने की आशंका हो तो ऐसा नहीं किया जाना चाहिए. नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए राष्ट्रसंघ के सम्मेलन में इस सिद्धांत को रखा गया है. 1979 में भारत ने इस सम्मेलन का अनुमोदन किया था. सितंबर में गृहमंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में शपथपत्र दायर कर बताया कि “रोहिंग्या शरणार्थी नहीं हैं.” शपथपत्र में कहा गया है कि “शरणार्थी का दर्जा हासिल करने के लिए एक प्रक्रिया का पालन करना होता है और किसी ने इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया है. भारत में किसी भी रोहिंग्या को शरण नहीं दी गई है और न ही किसी ने इसके लिए आवेदन किया है.”

हालांकि अदालत ने सरकार से कहा कि रोहिंग्या संकट को मानवीय संकट मानने पर विचार करे लेकिन प्रत्यर्पण प्रक्रिया नहीं रोकी. इस साल 3 जनवरी को भारत सरकार ने पांच शरणार्थी परिवारों को प्रत्यर्पित कर दिया. यह केस अभी भी अदालत में लंबित है.

निजामुद्दीन का कहना है कि ”सरकार ने अदालत के सामने जो रुख तैयार किया है वह भारत में धर्म के नाम पर हो रही राजनीति के चलते है.” वह कहते हैं कि बीजेपी रोहिंग्या मामले का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है. “हम लोगों को किसी भी राजनीतिक दल के सत्ता में आने से कोई फर्क नहीं पड़ता. बात बस इतनी सी है कि हमें यहा रहने दिया जाए.” वह कहते हैं कि जैसे ही बर्मा सरकार उन्हें नागरिक मान लेगी, वे और उनके जैसे अन्य लोग तुरंत ही चले जाएंगे.

सलीमउल्ला और शाकेर का कहना है कि पांच से आठ साल तक जेलों में रहने के बाद लोग मानने लगते हैं कि भारतीय जेलों में हमेशा के लिए कैद रहने से अच्छा है कि म्यांमार लौट जाएं. ”इसलिए ये लोग कह रहे हैं कि ‘हमें बर्मा वापस भेज दो, अब हम जेल में कतई नहीं रहना चाहते.’” भारत सरकार इसे रणनीति के रूप में इस्तेमाल कर रही है. अब कार्ट कहती है कि देखिए ये लोग वापस जाना चाहते हैं और बर्मा की सरकार इन्हें वापस लेने को तैयार है तो आप लोग बीच में क्यों पड़ रहे हैं”.

दिल्ली के शिविरों में रहने वाले रोहिंग्याओं का कहना है कि अपने ही मामले में कुछ न बोल पाने के कारण वे लोग असहाय महसूस करते हैं. शाकेर कहते हैं, “हम लोग कोई नागरिकता नहीं मांग रहे. हम यहां लड़ने नहीं आए बल्कि अमन की चाहत में आए हैं. हम बस इतना चाहते हैं कि हमें शरणार्थी दर्जा दे कर जिंदा रहने दिया जाए. एक बार हमारे देश की हालत सुधर जाए और हम लोगों को नागरिक मान लिया जाए तो हम लोग लौट जाएंगे.”

लेकिन भारत में रह रहे अधिकांश रोहिंग्याओं की बर्मा में घर या जमीन नहीं है. प्रत्यर्पित शरणार्थियों को बर्मा के शिविरों में रखा जाता है. केवल रखाइन प्रांत में 23 ऐसे शिविर हैं जहां 128168 रोहिंग्या रहते हैं. हालंकि म्यांमार सरकार इन्हें ट्रांजिट कैंप मानती है पर निजामुद्दीन का कहना है कि रोहिंग्याओं को यहां सालों तक रखा जाएगा. “2011 में कई लोगों को मार दिया गया और उनके घरों और संपत्तियों को नष्ट कर दिया गया. उस वक्त जिन लोगों को विस्थापितों के शिविरों में रखा गया था वे आज तक वहीं रह रहे हैं.”

दिसंबर 2018 में रॉयटर्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इन शिविरों में रहने वाले लोग “पहले ही की तरह आने जाने में रुकावटों का सामना कर रहे हैं. आधिकारिक चैक प्वाईंटों का संजाल और स्थानीय बुद्धिस्टों की हिंसा के डर से मुस्लिम आबादी स्वतंत्र रूप से यहां वहां नहीं जा सकती.” निजामुद्दीन ने रोहिंग्याओं को बर्मा में वापस लेने के सरकारी दावों के पीछे के मकसद पर सवाल उठाए. “इन दावों पर हम कैसे यकीन कर लें? वहां हम लोगों पर अब भी खतरा बना हुआ है.”

म्यांमार में मानवाधिकार स्थिति पर राष्ट्रसंघ की विशेषदूत यांघी ली ने भी रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस लेने के लिए सुरक्षित परिवेश निर्माण में बर्मा सरकार की “उदासीनता” का उल्लेख किया है. 25 जनवरी के अपने पत्र में यांघी ने लिखा है, “राहिंग्याओं के खिलाफ हिंसक अभियान अभी भी जारी है. सुरक्षा बल रोहिंग्या जनसमुदाय को धीरे धीरे खत्म कर रही है और उन्हें बंगलादेश भाग जाने को बाध्य बना रही है.”

शरणार्थियों ने मुझे बताया कि यूएनएचसीआर जैसी संस्थाओं को उनकी सुरक्षा के लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है. “यदि भारत सरकार हमें यहां रखना नहीं चाहती तो यूएनएचसीआर जैसी संस्थाओं को अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ काम करना चाहिए ताकि कनाडा जैसे देश जो हमें लेने को तैयार हैं हमें वहां भेजा जा सके.” शाहीन बाग शिविर में रहने वाले 66 साल के मोहम्मद सलीम कहते हैं, “हमें जहां स्वीकार किया जाएगा हम वहां जाने को तैयार हैं लेकिन म्यांमार नहीं जाएंगे.”

33 वर्षीय मुनीरा का कहना है कि जब तक हमारे लोगों पर यातना और दुर्व्यवहार किया जाता रहेगा तब तक हम बर्मा नहीं लौटेंगे. वह दिल्ली में अपने शिविर के समीप आवासीय कॉलोनियों के घरों में काम करती हैं. वह कहती हैं, “जो लोग बर्मा लौटे उन लोगों को पढ़ने भी नहीं दिया जाता. आज मेरे तीन बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं. यहां कम से कम हम जिंदा तो हैं और मेरे बच्चे पढ़ भी रहे हैं.”