वादाख़िलाफ़ी

दिल्ली में टूटती गाड़िया लोहारों की बस्तियां और खाली पड़े पुनर्वास फ़्लैट

गाड़िया लोहार समाज के लिए निर्माण किए गए आवसीय मकान और दुकानें अब खंडहर हो चुके हैं. कारवां के लिए अखिलेश पांडेय

दरमियानी उम्र के राजेश लाल राठौर अ​ब भी उसी जगह बसर कर रहे हैं जहां मैं उनसे 2019 में मिला था. गाड़िया लोहार जाति समाज के राठौर का एक कच्चा घर है, जो दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में बंजर पड़े एक हाउसिंग परिसर की दीवार से सट कर खड़ा है. इस दीवार के सहारे आबाद गाड़िया लोहार समाज की एक छोटी सी बस्ती, बीते दो दशक से अधिक समय से दीवार के उस पार निर्मित सोसायटी में बसने की उम्मीद कर रही है. इस बार की मुलाक़ात में दीवार का सहारा भी छिन जाने के खौफ़ में थे.

फ़रवरी 2025 में दिल्ली में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से झुग्गी-झोपड़ियों को हटाने की मुहिम तेज़ हो गई. बीते महीने, अकेले जेलरवाला बाग और वज़ीरपुर में ही 300 से ज़्यादा ‘अवैध घर’ ढहा दिए गए. दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए), रेलवे और नगर निकाय सार्वजनिक भूमि से ‘अवैध अतिक्रमण’ हटाने के निर्देश देने वाले न्यायालय के आदेशों का हवाला देते हैं.

दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के झुग्गी-झोपड़ियों को बचाने के चुनावी वादे जिस तरह सरेआम झूठ साबित हुए हैं उससे राठौर और उनके समुदाय के अन्य लोगों की चिंता और बढ़ गई है. उनके लिए अब संघर्ष की दिशा बदल गई है. यानी अब सोसायटी में बसने की नहीं, बल्कि जहां बसे हुए हैं वहीं बने रहने की लड़ाई मुख्य हो गई है. मुख्यमंत्री गुप्ता के यह कहने के बावजूद कि गाड़िया लोहारों की झुग्गी नहीं तोड़ी जाएगी, अधिकारी लगातार अलग-अलग जगहों पर उनकी झुग्गियों पर बुल्डोज़र चला रहे हैं.

बीती 20 जून को राजापुरी की झुग्गी ढहा दी गई. झुग्गीवासी गाड़िया लोहार समाज की आरती ने बताया कि उन्हें भरोसा था कि उनकी झुग्गी नहीं तोड़ी जाएगी. इस भरोसे का कारण था दिल्ली की मुख्यमंत्री गुप्ता के वे बयान जिनमें उन्होंने बार-बार दोहराया है कि झुग्गियों के किसी भी स्थायी निवासी के साथ अन्याय नहीं होने दिया जाएगा. आरती कहती हैं, 'हमने उनकी (बीजेपी) बातों पर भरोसा किया और इसलिए निश्चिंत हो गए थे. हमें दुख है कि उन्होंने हमारे साथ विश्वासघात किया है.'

हालांकि विश्वासघात और गाड़िया लोहारों का नाता काफ़ी पुराना है. उत्तर भारत का एक आम शहरी, ख़ासकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का, सालों से गाड़िया लोगों को देखता आया है. कभी शहर के फुटपाथों पर लोहे के छोटे-मोटे सामान बेचते नज़र आते हैं, तो कभी सड़क किनारे खड़ी अपनी सजी-धजी लकड़ी की गाड़िया लोहारों के साथ अगल-अलग उम्र के ये लोग आग जला कर खाना पकाते दिख जाते हैं. गाड़ी के पहियों पर उनके कपड़े सूख रहे होते हैं. 'जैसे कुछ इस तरह के इत्मीनान में हों कि न कहीं जा रहे हैं, न कुछ खास कर रहे हैं, बस जी रहे हैं. हालांकि भीड़-भाड़ वाले शहरों के बीच जी रहे हमारे देश के ये नागरिक, हुनरमंद कारीगर हैं,’ जैसा कि प्रसिद्ध इतिहासकार रीमा हूजा ने मुझे बताया था वैसा ही 2019 में मंगोलपुरी की अपनी यात्रा में मैंने पाया था. इस बार ऐतिहासिक खानाबदोशी के बाद स्थायी बसावट की उनकी डबडबाई उम्मीदें बस्ती तोड़ने के अभियान में दम तोड़ती दिख रही हैं.

गाड़िया लोहार समुदाय की उत्पत्ति और प्राचीनता को लेकर ढेरों कहानियां हैं, हालांकि सबसे लोकप्रिय कहानी है कि गाड़िया लोहारों का वंश 16वीं शताब्दी के राजा महाराणा प्रताप के शाही लोहारों से जुड़ा है, जो राजस्थान स्थित चित्तौड़गढ़ किले से शासन करते थे. 1568 में, चित्तौड़गढ़ पर मुग़ल सम्राट अकबर का कब्जा हो गया. लोहार भाग गए और उन्होंने कसम खाई कि वे तभी लौटेंगे जब उनके राजा को गद्दी पर वापस बिठाया जाएगा.

सदियों से, गाड़िया लोहार बैलगाड़ियों या गाड़ियों (जिससे उनके नाम में ‘गाड़िया’ जुड़ा) में उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में यात्रा करते रहे और गांवों के लिए कृषि उपकरण और रसोई के बर्तन बनाते और मरम्मत करते रहे. लेकिन 1950 के दशक तक, कई गाड़िया लोहार समूहों ने अपनी घुमंतू जीवनशैली और व्यवसाय छोड़ दिया और शहरों में आ बसे. उन्होंने रेल की पटरियों और सड़कों के किनारे खाली ज़मीन पर छोटी-छोटी झोपड़ियां और भट्टियां बनाईं. वे औज़ार और बर्तन बनाते और बेचते रहे. 

गाड़िया लोहार समुदाय की इस पहचान का राजनीतिक लाभ हमेशा बीजेपी और आरएसएस उठाते रहे हैं. 16वीं सदी के मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप संघ के राष्ट्रीय नायकों की सूची में आते हैं और काफ़ी प्रशंसित हैं. बीते सालों में बीजेपी और संघ ने इस नाम पर काफ़ी उग्र राजनीति की है.

2019 में मंगोलपुरी की अपनी मुलाक़ात के वक़्त राजेश लाल राठौर और उनके परिवार ने मुझे 2003 का एक पोस्टर दिखाया था जिसे उन्होंने बतौर सबूत संभाल कर रखा था. वह जिस हाउसिंग सोसायटी के बाहर बस रहे थे दरअसल वह सोसाइटी दो दशक से भी अधिक पहले उनके समुदाय के लिए ही बनी थी.

2003 में, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने दिल्ली के उत्तरी उपनगर मंगोलपुरी में गाड़िया लोहारों के लिए 34 मकान और 34 दुकान बनवाए थे. तत्कालीन केंद्रीय श्रम मंत्री साहिब सिंह वर्मा ने इस हाउसिंग कॉम्प्लेक्स का उद्घाटन किया था. इससे पहले 1996 में दिल्ली के मुख्यमंत्री रहते हुए वर्मा ने राजस्थान सीमा के नजदीक उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के नांगलोई के पास 20 परिवारों को चारा बाज़ार में बसाने में मदद की थी.

2019 में राठौर की 65 साल की दादी प्रेमा से मेरी मुलाक़ात हुई थी. उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें डीडीए की बनाई इस हाउसिंग सोसायटी में अपना ख़ुद का फ़्लैट मिलेगा, लेकिन वह उसी सपने के साथ इस दुनिया से चली गईं. उनके पास 16 साल पुरानी एक तस्वीर थी, जिसमें उनके दिवंगत पति दिखाई दे रहे थे और उसमें मंगोलपुरी में गाड़िया लोहार समुदाय के लिए डीडीए द्वारा बनाए गए 34 कमरों और 34 दुकानों वाली बंदोबस्ती का उद्घाटन समारोह भी नज़र आ रहा था. 

दो दशक पुराने पोस्टर में साहिब सिंह वर्मा की तस्वीर छपी थी. इसमें महाराणा प्रताप वंश गाड़िया लोहार समिति दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष की ओर से समुदाय को मकान और दुकान देने के लिए उनका हार्दिक धन्यवान दिया गया था.

2019 की इस फ़ोटो में राजेश लाल राठौर और उनके परिजन 2003 के एक पोस्टर के साथ दिखाई दे रहे हैं. इस पोस्टर पर लिखा है: 'मकान व दुकानें देने के अवसर पर साहिब सिंह वर्मा और बंडारू दत्तात्रेय का हार्दिक धन्यवाद.' कारवां के लिए अखिलेश पांडेय

हालांकि ये मकान लाभार्थियों को कभी आवंटित नहीं किए गए और अब जर्जर हालत में हैं. रिहाहशी सोसाइटी की बुनियाद के पत्थर पर साल 2001 में शहरी विकास मंत्री रहे अनंत कुमार, सांसद साहिब सिंह वर्मा और अन्य का नाम आज भी दर्ज है. सोसायटी के उद्घाटन के पत्थर पर साल 2003 लिखा है, जिसमें केंद्रीय श्रम मंत्री साहिब सिंह वर्मा और केंद्रीय शहरी विकास, आवास एवं गरीबी उन्मूलन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभाग) बंडारू दत्तात्रेय का नाम है. 

2019 से 2025 तक मैं कई बार इस इलाके में गया और जर्जर खंडहरों को और बर्बाद होते हुए देखा. पहले लोहे के जो दरवाज़े बंद रहते थे वे अब पूरी तरह गायब हैं. पूरा परिसर गंदगी से भरा हुआ है और दुकानों और मकानों की फ़िटिंगें भी गायब हैं. परिसर नशेड़ियों और शराबियों का अड्डा बन गया है.

बर्बाद होती इस राज्य संपत्ति की स्थिति जानने के लिए मैंने 2019 में डीडीए को एक मेल भेजा था, लेकिन उसका कोई जवाब नहीं आया. अगले छह सालों तक मैंने वह मेल कई बार भेजा, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. मैंने व्हाट्सऐप पर मैसेज भी किए और डीडीए के मीडिया कम्युनिकेशन और पीआर विभागों से बैठक के दौरान बात भी की, लेकिन उन्होंने अपनी असमर्थता जाहिर की और मुझे बताया कि उन्हें मैसेजों का संबंधित विभाग ने कोई जवाब नहीं मिला. हाल ही में मैंने वही मेल पीआर निदेशक को भी भेजा और विभाग के एक अन्य अधिकारी को व्हाट्सऐप पर मैसेज किया, ताकि कुछ जानकारी मिल सके, लेकिन महीना बीतने के बाद भी कोई जवाब नहीं मिला है.

अपनी रिपोर्टिंग के दौरान मुझे यह महसूस हुआ कि दिल्ली अर्बन शेल्टर इम्प्रूवमेंट बोर्ड (डीयूएसआईबी) के पास इस बारे में कोई स्पष्ट डेटा नहीं है और उन्होंने इस ख़ास समुदाय के बारे में कोई साफ़ बात नहीं कही. गाड़िया लोहार समुदाय को अभी तक राजधानी में कोई विशिष्ट दर्जा नहीं मिला है.

असल में, गाड़िया लोहार का दर्जा अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है. राजस्थान में वे एमबीसी (मोस्ट बैकवर्ड कास्ट) में हैं, हरियाणा में बीसी (बैकवर्ड कास्ट) में, और दिल्ली में लोहार कास्ट में आते हैं, जो ओबीसी (अदर बैकवर्ड कास्ट) के अंतर्गत है.

सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पर आधारित हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन) के सितंबर 2019 में रिलीज़ हुए सर्वे की रिपोर्ट में गाड़िया लोहार समुदाय से जुड़े कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. शहर की 58 बस्तियों में किए गए इस सर्वे में पता चला कि दिल्ली में सिर्फ़ 2 फीसदी लोगों के पास जाति प्रमाण पत्र है.

रिपोर्ट के अनुसार, गाड़ियाओं की 64 फीसदी आबादी के पास आज भी शौचालय सुविधा नहीं है, 41 फीसदी को पेयजल की समस्या है और 78 फीसदी के पास इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम या आंगनवाड़ी सुविधा नहीं है, जो बच्चों को पौष्टिक भोजन और प्री-स्कूल शिक्षा प्रदान करती है. इसके अलावा 44 फीसदी बस्तियों में स्कूल तक पहुंच नहीं है.

विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, दिल्ली में 2017 और 2018 में गाड़िया लोहार के कई घर तोड़े गए थे. 2017 में, जैसा कि 2025 जून में मटियाला में हुआ, मानसरोवर पार्क के फ्लाईओवर के नीचे बने घरों पर, जो दिल्ली की सबसे बड़ी गाड़िया लोहार बस्ती थी, बिना किसी नोटिस के बुलडोज़र चला दिया गया और घरों को अंदर के सामान समेत तोड़ दिया गया. 2009 में, दिल्ली सरकार ने 2010 कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले 'सौंदर्यीकरण' के नाम पर कई बस्तियों को तोड़ा.

9 जून, 2025 को, दिल्ली सरकार के अतिक्रमण हटाने के अभियान के बाद पश्चिमी दिल्ली के मटियाला में अपने-अपने कागज़ात इकट्ठा करते गाड़िया लोहार समाज के लोग. कारवां के लिए अखिलेश पांडेय

विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार, दिल्ली में लगभग 20,000 से 25,000 गाड़िया लोहार रहते हैं. ये पूर्व घुमंतू लोग अब स्थायी रूप से बसे हुए हैं, लेकिन उन्हें बार-बार दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में जाना पड़ा क्योंकि सरकारें बार-बार उनके घरों को तोड़ती रही हैं.

हालांकि, 2008 में, विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग ने घुमंतू लोगों के लिए विशेष राज्य संरक्षण की सिफ़ारिश की. आयोग ने कहा कि केंद्र सरकार को अपनी आवास योजना निधि का आधा हिस्सा ऐसे समुदायों के लिए आरक्षित करना चाहिए और विशेष सामाजिक-आर्थिक बसावट क्षेत्र स्थापित करने चाहिए जहां वे रह सकें और काम कर सकें. आयोग ने सिफ़ारिश की कि राज्य सरकारें गाड़िया लोहार समुदायों को ज़मीन और आवास आवंटित करें.

9 जून की दोपहर को मैं मटियाला इलाके में था, जहां मैंने समुदाय के लोगों और गाड़िया लोहार संघर्ष समिति के सदस्यों से बातचीत की. मुझे पता चला कि यह समुदाय लंबे समय से बीजेपी का समर्थक रहा है. बातचीत के दौरान समुदाय के सुभाष चंद्र ने बीजेपी के साथ अपने सक्रिय रिश्ते के बारे में खुल कर बताया और कुछ पुरानी तस्वीरें भी दिखाईं. उन्होंने कहा कि हर एक राजनीतिक रैली में उन्हें बुलाया जाता था. उनके पास कुछ परिचय पत्र थे जो बीजेपी के साथ उनके जुड़ाव को दिखाते हैं. उस दिन वह अपने क्षेत्र के जन प्रतिनिधि और मुख्यमंत्री को पत्र लिख रहे थे और अपने दस्तावेज़ इकट्ठा कर रहे थे ताकि अपनी नागरिकता का सबूत दे सकें. 

चिलचिलाती गर्मी में 16 जून को मेरी मुलाक़ात सितारा से हुई. सितारा को बुख़ार था और वह एक खाट पर लेटी थीं. सितारा कहती हैं, 'मुझे बुख़ार है, मेरी पोती को पीलिया हो गया है और बाकी लोग भी इस हालत में बीमार हो रहे हैं. हम कहां जाएं? हमारे पास कोई और जगह नहीं है. कोई भी हमारी हालत देखने नहीं आया. लोग सिर्फ़ वोट के लिए आते हैं. कॉरपोरेशन के लोग अब भी आकर हमें जगह छोड़ने को कह रहे हैं और बोलते हैं कि जब मलबा हटाया जाएगा, तो हमारा बाकी सामान भी हटा दिया जाएगा. हमें डर है, लेकिन हम कहीं नहीं जाएंगे.'

समुदाय के हितों की हिफ़ाजत के लिए बनी गाड़िया लोहार संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय गाड़िया लोहार ने बताया कि वह मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद और मेयर से मिल चुके हैं. इसके अलावा उन्होंने आरएसएस के लोगों से भी झंडेवालान ऑफिस में मुलाक़ात कर अपनी व्यथा सुनाई है. 'हम लगातार कोशिश कर रहे हैं कि अपने लोगों के घर टूटने से बचा सकें और जिनसे भी हम मिले, उन्होंने हमें अश्वासन दिया है कि अब आगे कोई डिमोलिशन नहीं होगा.'

सुभाष चंद्र कहते हैं, '1996 में, दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा ने नांगलोई में गाड़िया लोहार को 25 प्लॉट दिए थे, और अब वे वहां बिना किसी डिमोलिशन के डर के रह रहे हैं. हमारे लिए ऐसी कोई योजना क्यों नहीं हैं?' वह बताते हैं, 'पहले की सरकारें, चाहे कांग्रेस हो, आम आदमी पार्टी हो या बीजेपी, जब उन्होंने हमसे कोई जगह छोड़ने को कही, तो हमने छोड़ी क्योंकि उन्होंने हमें किसी दूसरी जगह बसाने की बात भी की. दिल्ली में हमारे समुदाय  के साथ ऐसा ही चलता रहा. मैं खुद पहले टोडापुर में था जहां से सालों पहले हमें मटियाला भेजा गया था. इस बार उन्होंने यह नहीं बताया कि हम कहां जाएं. वे आए और हमारे घरों को तोड़ दिया.'

प्रसिद्ध इतिहासकार और ‘हिस्ट्री ऑफ़ राजस्थान’ की लेखिका रीमा हूजा कहती हैं, 'दिल्ली जैसे स्थानों में उनका पुनर्वास सबसे ज़रूरी चीज़ है. लेकिन विडंबना यह है कि उन्हें लगातार नज़रअंदाज़ किया गया है. आजकल जिस तरह वे डिमोलिशन से पीड़ित हैं, वह एक गंभीर मामला है और इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.'

हूजा आगे कहती हैं, 'इतने सारे खाली हॉस्टल्स और घर मौजूद हैं, फिर उन्हें अधिकृत कॉलोनियों में खाली पड़े घरों में वैध जगह क्यों नहीं दी जा सकती? उनके पास जीवन कौशल हैं, तो फिर रिहाइश के साथ-साथ कोऑपरेटिव सोसाइटी की सदस्यता क्यों नहीं मिलनी चाहिए? कोई क्यों आगे नहीं आता और मेटल वर्किंग कोऑपरेटिव्स बनाने में मदद करता? अगर स्थायी घर नहीं होंगे, तो बच्चों की शिक्षा प्रभावित होगी. अगर अब भी उनके रहने की जगहों को तोड़ा जाता रहा, तो क्या गरीब बच्चों की शिक्षा के इस संकट को हम और नहीं बढ़ा रहे होंगे?'

रिहाहशी सोसाइटी की बुनियाद के पत्थर पर तत्कालीन शहरी विकास मंत्री अनंत कुमार, सांसद साहिब सिंह वर्मा और अन्य का नाम आज भी दर्ज है. कारवां के लिए अखिलेश पांडेय

साहिब सिंह वर्मा के कार्यकाल में गाड़िया लोहार समुदाय के पुनर्वास के बारे में जानने के लिए मैं नांगलोई गया था जहां मेरी मुलाक़ात भीम सिंह से हुई थी. आज वह गाड़िया लोहार समुदाय के सीनियर सदस्य हैं. उन्हें इस बसावट का प्रधान भी कहा जाता है.

भीम सिंह ने बताया कि बीजेपी को समुदाय के प्रति बहुत सम्मान रहा है क्योंकि इसका जुड़ाव महाराणा प्रताप से माना जाता है और इसी वजह से उस समय के सीएम ने उन्हें वहां फ़्लैट देकर उनका पुनर्वास किया था. उन्होंने मुझे वह पत्थर भी दिखाया, जिस पर योजना और नेता का नाम गुदा हुआ था. सौंदर्यीकरण के नाम पर दिल्ली में चल रहे झुग्गी-बस्तियां तोड़ने के सरकारी अभियान को लेकर वह चिंतित थे. उन्होंने कहा, 'बीजेपी के नए नेता हमारे बारे में ज़्यादा जानते नहीं हैं इसलिए हमें यह सब झेलना पड़ रहा है.’