उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरण पर गोंड समुदाय का कितना रहेगा असर?

गोंड समुदाय मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र सहित मध्य भारत में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. नोह सीलम/एएफपी/गैटी इमेजिस
12 April, 2019

उत्तर प्रदेश में, जहां लोकसभा की सबसे अधिक सीटें हैं, वहां दो चिर प्रतिद्वंद्वी पार्टियों ने, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को पराजित करने के लिए साथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा की है. इस गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रखे जाने पर जमकर चर्चा हो रही है. सपा नेता अखिलेश यादव ने कहा कि “चुनावी गणित को ठीक रखने” के लिए कांग्रेस को गठबंधन में शामिल नहीं किया गया है, ऐसा करने से बीजेपी की हार सुनिश्चित होती है.

इस तरह के चुनावी गणित में उत्तर प्रदेश की गोंड जनजाति को हमेशा ही नजरअंदाज किया जाता रहा है. लेकिन अब यह बदलने लगा है. 2015 में ग्राम पंचायत चुनावों में गोंड समुदाय ने अप्रत्याशित रूप से सीटें जीती थीं. राज्य के बलिया जिले में गोंड समुदाय की उपस्थिति दूसरे नंबर पर है. 17 खंडों में 954 सीटों में 48 गोंड उम्मीदवारों का निर्वाचन, प्रधान के पद में हुआ. वहीं एक का निर्वाचन खंड प्रमुख के पद पर और एक का पंचायत सदस्य के पद पर चयन हुआ. बलिया के श्री मुरली मनोहर टाउन पोस्ट-ग्रेजुएट कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर राजीव कुमार के अनुसार, “इन चुनावों ने गोंड समुदाय को आत्मविश्वास और नई दिशा प्रदान की और उन्हें अपने प्रतिनिधित्व और आवाज के बारे में सोचने का अवसर दिया”.

भारतीय मानवशास्त्रीय सोसायटी, गोंड समुदाय को द्रविड़ समूह के कृषक समुदाय के रूप में परिभाषित करती है. गोंड समुदाय मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र सहित मध्य भारत में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. बहुत समय तक उत्तर प्रदेश में आदिवासियों की उपस्थिति पर कम ध्यान दिया गया. जिन कार्यकर्ताओं से मैंने बात की उनका कहना था कि गोंडों के राजनीतिक दावे के पीछे गोंडवाना आंदोलन की भूमिका है. 1990 से राज्य में सक्रिय यह आंदोलन, समुदाय की स्थिति को ऊपर उठाने के लिए है. आज भी भारत के आदिवासियों के लिए अपनी शर्तों में रहना मुश्किल है. उन्हें लगातार अपमान और यौन उत्पीड़न सहित हिंसा के खतरों का सामना करना पड़ता है. 2016 में बलिया जिले के शिवपुर दियार नुम्ब्रे गांव के गोंड परिवारों के घरों को जला दिया गया था. उस घटना के पीड़ित जगत गोंड ने मुझे बताया, “हम लोग भी स्थाई आवासों में रहना चाहते हैं लेकिन हमें जमीन का मालिकाना अधिकार नहीं दिया जाता. इस वजह से हम लोग भूमिहीन हैं.”

गोंडवाना आंदोलन पर आंशिक रूप से 1967 की नक्सलबाड़ी आंदोलन का असर पड़ा. हालांकि यह आंदोलन हिंसक नहीं था. पृथक राज्य की मांग ने इस आंदोलन को गति तो दी है लेकिन इसके मुख्य मुद्दे गरीबी, साक्षरता की कमी और भूमि अधिकार हैं. गोंडवाना आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने इस समुदाय को राजनीतिक अधिकार के प्रति जागरूक बनाने के लिए काम किया है. 80 साल के प्रख्यात गोंड नेता छित्तेश्वर गोंड ने अनुसूचित जाति के दर्जे की मांग वाले संघर्ष की ओर इशारा करते हुए मुझे बताया कि सबसे जरूरी है पहचान और आदिवासी के रूप में इस पहचान को स्थापित करना. “1966 से ही मैं एक नेता और कार्यकर्ता के रूप में अलग अलग सामाजिक और राजनीतिक समूहों के बीच इसी बात का प्रयास कर रहा हूं”. वह बताते हैं कि आंदोलन का लक्ष्य आंशिक रूप से पूरा हुआ है और अभी इसे बहुत आगे तक जाना है.

छित्तेश्वर गोंड इस आंदोलन में 1990 में इसकी शुरुआत से ही जुड़ गए थे. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जन अधिकारों को लेकर हो रही लड़ाइयों में हमारी सक्रिय भागीदारी को देख कर गोंडवाना आंदोलन हम लोगों से जुड़ गया और इसके कार्यकर्ता राज्य का भ्रमण करने लगे. धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में आंदोलन ने अपनी जड़ जमा ली. बलिया के बाद इस जिले में सबसे अधिक आदिवासी आबादी है. वह कहते हैं, “अब हमारे युवा राजनीतिक रूप से महत्वकांक्षी हैं और समुदाय का नेतृत्व कर रहे हैं”. मैंने जिन कार्यकर्ताओं से बात की उनके अनुसार आज इस आंदोलन को व्यापक रूप से गैर-आदिवासी समुदाय का समर्थन मिल रहा है. कुमार ने बताया, “यह आदिवासी समुदाय, आत्मसम्मान और स्थिरता के लिए भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर संघर्षरत है”.

1991 में इस आंदोलन से गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का जन्म हुआ. निचले और व्यापक स्तरों पर संगठनिक समितियों का निर्माण हुआ. आज समुदाय के बहुत से युवा चुनावों में भाग ले रहे हैं. आज गोंड लोग पहले से कहीं अधिक मजबूती के साथ लोकसभा चुनावों में लड़ने के लिए तैयार हैं. कुमार ने बताया कि उनके पास अब स्थानीय नेता और कार्यकर्ता हैं जो उन्हें रास्ता दिखा रहे हैं और उनके अधिकारों की लड़ाई में मार्गदर्शन कर रहे हैं.

प्राप्त प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, 1970 के दशक के आरंभ तक, उत्तर प्रदेश में कोई भी अनुसूचित जनजाति नहीं थी. 2001 के सेंसस के अनुसार उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति की आबादी 107963 थी जो राज्य की कुल आबादी का 0.1 प्रतिशत हिस्सा है. 2011 में जनजाति की आबादी बढ़ कर 0.8 प्रतिशत हो गई. छित्तेश्वर गोंड जैसे कार्यकर्ताओं के अनुसार यहां आंकड़ा गलत है. उन्होंने मुझे बताया कि उत्तर प्रदेश में 50 से 60 लाख गोंड हैं. यदि इस आंकड़े में उत्तर प्रदेश के खरावर जैसी अन्य जातियों को जोड़ दिया जाए तो प्रदेश में आदिवासी जनसंख्या 1 करोड़ से अधिक हो जाएगी.

छित्तेश्वर गोंड कहते हैं, “संविधान की अनुसूची के हिसाब से हम लोग 13 जिलों में हैं. किंतु वास्तविकता यह है कि हम प्रदेश के 62 जिलों में फैले हुए हैं. यह सभी लोग एक समुदाय की तरह खुद को देखते हैं और जब से यूपी में गोंडवाना आंदोलन चालू हुआ है तब से उन्हें अपनी शक्ति का एहसास हो गया है. इसलिए 2018 के सेंसस के अनुसार हम लोग 60 लाख से अधिक हैं”.

2002 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) कानून के जरिए गोंड समुदाय और अन्य समुदाय को अनुसूचित जाति से हटाकर अनुसूचित जनजाति में शामिल कर लिया गया था. हालांकि इससे उनकी निर्वाचन संभावनाओं में घात लगा. अब यह लोग अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित निर्वाचन सीटों से चुनाव नहीं लड़ सकते. इस समुदाय की उपस्थिति को राज्य के केवल 13 जिलों में चिन्हित किया गया है जबकि इस समुदाय की उपस्थिति राज्य के अन्य जिलों में भी है. ऐसे जिलों में वे अब भी अनुसूचित जाति की श्रेणी में हैं. छित्तेश्वर गोंड ने बताया, “यदि आदिवासी महिला इन जिलों से बाहर शादी करती हैं तो उसकी आदिवासी पहचान खत्म हो जाती है”. छित्तेश्वर आगे बताते हैं, “कल्पना कीजिए कि एक आदिवासी लड़की अनुसूचित जनजाति दर्जे वाले जिले से बाहर किसी अनुसूचित जाति के दर्जे वाले गोंड लड़के से विवाह करती है तो उसकी पहचान बदल जाती है. यहां पहचान और अधिकारों के गुम हो जाने से जुड़ा सवाल है”.

गोंडवाना आंदोलन में शामिल लोगों के साथ मिल कर राजनीतिक दल हर साल अपनी जनसंख्या का सर्वे कर रहे हैं ताकि वे सरकार को अपनी संख्या का सही आंकड़ा बता सकें. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरा सिंह मरकाम ने तर्क दिया कि सेंसस में बताए गए आंकड़े से अधिक संख्या में आदिवासी समुदाय की उपस्थिति है. “13 जिलों में हम अनुसूचित जनजाति श्रेणी में आते हैं और हमारी जनसंख्या राज्य की कुल आबादी का 2 प्रतिशत है, यदि हम सारे उत्तर प्रदेश में अपनी आबादी को देखें तो यह 4 प्रतिशत हो जाएगा”.

छित्तेश्वर ने मुझे सरकारी दस्तावेज और सूचियों को दिखाते हुए कहा कि गोंड आदिवासियों की कुछ उप जातियों को अगड़ी जाति की श्रेणी में रखा गया है इसलिए उन्हें आरक्षण की सुविधा नहीं मिल पाती है. ओझा और नायक सरनेम उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों के सरनेम भी हैं. इस बात का लाभ उठाते हुए कई गैर आदिवासी लोगों ने नौकरी, शिक्षा और छात्रवृत्ति पाने के लिए नकली प्रमाण पत्र बनाए हैं. हाल में प्रकाशित मीडिया रिपोर्ट के अनुसार ऐसे बहुत से नकली जाति प्रमाण पत्र देवरिया, सदर और रुद्रपुर तहसील में बनाए गए हैं.

खबरों के मुताबिक गोरखपुर, बलिया, आजमगढ़, देवरिया और महाराजगंज सहित अन्य जिलों में सरकारी अधिकारियों ने इस बात की जांच शुरू की है. छित्तेश्वर गोंड कहते हैं, “ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमें ऊपरी जातियों के लोगों ने अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र बनाए हैं. हमारे समुदाय के महत्वकांक्षी युवा इसका मजबूती से विरोध कर रहे है”.

कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि उत्तर प्रदेश में गोंडा समुदाय अन्य जनजातियों के लिए छाते की तरह है. गोंड आंदोलन की सफलता से उत्साहित होकर आगामी लोकसभा चुनावों में बहुत से अन्य आदिवासी समुदाय भी अपनी स्थिति को मजबूत बनाने और अपनी मांगों को उठाने के लिए अभियान चला रहे हैं. मरकाम ने मुझसे कहा, “हम चुनावों में अपने गौरव और आत्मसम्मान के लिए भाग लेते हैं. हमने दो या तीन ऐसी जगहों पर चुनाव लड़ने की योजना बनाई है जहां अभी गठबंधन को लेकर निर्णय नहीं हुआ है. यदि इन जगहों पर गठबंधन बन जाता है तो हम फिर अलग तरह से विचार करेंगे”.

गोंडवाना आंदोलन के असर से इस समुदाय के युवाओं का राजनीतिकरण हुआ है. अन्य जातियों के मुकाबले उत्तर प्रदेश के आदिवासी समुदायों में साक्षरता दर काम है. इस समस्या से जूझने के लिए गोंडवाना आंदोलन के युवा सदस्य, शिक्षा और साक्षरता के प्रति जागरूकता लाने के लिए कार्यक्रम चला रहे हैं. इसका समुदाय में ऐसा असर हुआ है कि अब शिक्षित युवाओं ने साथ मिलकर समुदाय का प्रतिनिधित्व राज्य स्तर पर करने का मन बनाया है.

इसका एक उदाहरण अरविंद गोंड है. अरविंद ने पॉलिटिकल साइंस में एमए किया है और पूर्व में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा था. “मैंने सिर्फ यह बताने के लिए कि हम लोगों का भी अस्तित्व है, चुनाव लड़ा था. मुझे बहुत समर्थन नहीं मिला क्योंकि उस वक्त समुदाय बिखरा हुआ था. लेकिन अब लोग इस बात को महसूस करते हैं और माहौल बदल गया है”.

निर्वाचन क्षेत्रों में आदिवासियों के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए अन्य पार्टियों ने भी लोकसभा चुनावों से पहले आदिवासी शाखाओं की स्थापना की है. अरविंद कहते हैं, “इन शाखाओं को केवल भटकाने के उद्देश्य से बनाया गया है लेकिन इनका बहुत असर नहीं पड़ेगा. लोगों को समझ में आ गया है कि एकता में ही शक्ति है और आने वाले चुनावों में यह बात दिखाई देगी”.

गोंडों ने प्रगतिशील विचारों वाली पार्टियों के साथ राजनीतिक गठबंधन बनाने के प्रयास किए हैं. मुख्यत: ये लोग समाजवादी पार्टी को वोट देते आए हैं. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के अध्यक्ष हीरा सिंह मरकाम बताते हैं कि पार्टी गठबंधन के लिए तैयार है और समाजवादी पार्टी से बातचीत चल रही है. वह कहते हैं कि ये लोग सोनभद्र से चुनाव लड़ने का मौका चाहते हैं. मरकाम ने कहा, “यदि ऐसा होता है तो हम समाजवादी पार्टी को पूरे यूपी में समर्थन देंगे और पूरा आदिवासी समुदाय समाजवादी पार्टी को समर्थन देगा.”