उत्तर प्रदेश में, जहां लोकसभा की सबसे अधिक सीटें हैं, वहां दो चिर प्रतिद्वंद्वी पार्टियों ने, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को पराजित करने के लिए साथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा की है. इस गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रखे जाने पर जमकर चर्चा हो रही है. सपा नेता अखिलेश यादव ने कहा कि “चुनावी गणित को ठीक रखने” के लिए कांग्रेस को गठबंधन में शामिल नहीं किया गया है, ऐसा करने से बीजेपी की हार सुनिश्चित होती है.
इस तरह के चुनावी गणित में उत्तर प्रदेश की गोंड जनजाति को हमेशा ही नजरअंदाज किया जाता रहा है. लेकिन अब यह बदलने लगा है. 2015 में ग्राम पंचायत चुनावों में गोंड समुदाय ने अप्रत्याशित रूप से सीटें जीती थीं. राज्य के बलिया जिले में गोंड समुदाय की उपस्थिति दूसरे नंबर पर है. 17 खंडों में 954 सीटों में 48 गोंड उम्मीदवारों का निर्वाचन, प्रधान के पद में हुआ. वहीं एक का निर्वाचन खंड प्रमुख के पद पर और एक का पंचायत सदस्य के पद पर चयन हुआ. बलिया के श्री मुरली मनोहर टाउन पोस्ट-ग्रेजुएट कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर राजीव कुमार के अनुसार, “इन चुनावों ने गोंड समुदाय को आत्मविश्वास और नई दिशा प्रदान की और उन्हें अपने प्रतिनिधित्व और आवाज के बारे में सोचने का अवसर दिया”.
भारतीय मानवशास्त्रीय सोसायटी, गोंड समुदाय को द्रविड़ समूह के कृषक समुदाय के रूप में परिभाषित करती है. गोंड समुदाय मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र सहित मध्य भारत में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. बहुत समय तक उत्तर प्रदेश में आदिवासियों की उपस्थिति पर कम ध्यान दिया गया. जिन कार्यकर्ताओं से मैंने बात की उनका कहना था कि गोंडों के राजनीतिक दावे के पीछे गोंडवाना आंदोलन की भूमिका है. 1990 से राज्य में सक्रिय यह आंदोलन, समुदाय की स्थिति को ऊपर उठाने के लिए है. आज भी भारत के आदिवासियों के लिए अपनी शर्तों में रहना मुश्किल है. उन्हें लगातार अपमान और यौन उत्पीड़न सहित हिंसा के खतरों का सामना करना पड़ता है. 2016 में बलिया जिले के शिवपुर दियार नुम्ब्रे गांव के गोंड परिवारों के घरों को जला दिया गया था. उस घटना के पीड़ित जगत गोंड ने मुझे बताया, “हम लोग भी स्थाई आवासों में रहना चाहते हैं लेकिन हमें जमीन का मालिकाना अधिकार नहीं दिया जाता. इस वजह से हम लोग भूमिहीन हैं.”
गोंडवाना आंदोलन पर आंशिक रूप से 1967 की नक्सलबाड़ी आंदोलन का असर पड़ा. हालांकि यह आंदोलन हिंसक नहीं था. पृथक राज्य की मांग ने इस आंदोलन को गति तो दी है लेकिन इसके मुख्य मुद्दे गरीबी, साक्षरता की कमी और भूमि अधिकार हैं. गोंडवाना आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने इस समुदाय को राजनीतिक अधिकार के प्रति जागरूक बनाने के लिए काम किया है. 80 साल के प्रख्यात गोंड नेता छित्तेश्वर गोंड ने अनुसूचित जाति के दर्जे की मांग वाले संघर्ष की ओर इशारा करते हुए मुझे बताया कि सबसे जरूरी है पहचान और आदिवासी के रूप में इस पहचान को स्थापित करना. “1966 से ही मैं एक नेता और कार्यकर्ता के रूप में अलग अलग सामाजिक और राजनीतिक समूहों के बीच इसी बात का प्रयास कर रहा हूं”. वह बताते हैं कि आंदोलन का लक्ष्य आंशिक रूप से पूरा हुआ है और अभी इसे बहुत आगे तक जाना है.
छित्तेश्वर गोंड इस आंदोलन में 1990 में इसकी शुरुआत से ही जुड़ गए थे. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जन अधिकारों को लेकर हो रही लड़ाइयों में हमारी सक्रिय भागीदारी को देख कर गोंडवाना आंदोलन हम लोगों से जुड़ गया और इसके कार्यकर्ता राज्य का भ्रमण करने लगे. धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में आंदोलन ने अपनी जड़ जमा ली. बलिया के बाद इस जिले में सबसे अधिक आदिवासी आबादी है. वह कहते हैं, “अब हमारे युवा राजनीतिक रूप से महत्वकांक्षी हैं और समुदाय का नेतृत्व कर रहे हैं”. मैंने जिन कार्यकर्ताओं से बात की उनके अनुसार आज इस आंदोलन को व्यापक रूप से गैर-आदिवासी समुदाय का समर्थन मिल रहा है. कुमार ने बताया, “यह आदिवासी समुदाय, आत्मसम्मान और स्थिरता के लिए भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर संघर्षरत है”.
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