भाषा, विरासत और जीवन बचाने की जद्दोजहद में दिल्ली के गड़िया लोहार

गड़िया लोहार समुदाय की सांस्कृतिक पहचान भी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है क्योंकि उनका पारंपरिक पेशा अब जीवन निर्वाह की ​न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए भी मुश्किल होता जा रहा है. ऋषि कोछड़/कारवां

2012 में किरण सिंह सांखला छोटी थीं और सरकारी अधिकारियों ने उनके परिवार को पश्चिमी दिल्ली के अस्थाई घर से बेदखल कर दिया. उनके परिवार को पहले भी कई दफा अस्थाई आवास से बेदखल किया जा चुका था लेकिन यह बेदखली खास तौर पर सांखला के लिए बहुत दुश्कर थी. वह उस वक्त दसवीं कक्षा की परीक्षा दे रही थीं. इस बेदखली में उनकी कुछ किताबें गुम हो गईं और कुछ खराब हो गईं. “इसने मेरे करियर को बुरी तरह प्रभावित किया,” सांखला ने मुझे बताया. वह अब 23 साल की हैं. वह आगे कहती हैं, “हमारा पूरा समुदाय इस तरह की बेदखली भोग रहा है.” सांखला का परिवार गड़िया लोहार समुदाय से ताल्लुक रखता है जो ऐतिहासिक दृष्टि से घुमंतू लोहारों का समूह है. इस समुदाया का रिश्ता राजस्थान से है.

दिल्ली के अन्य गड़िया लोहारों की तरह सांखला और उनके परिवार ने काफी समय इन विध्वंसों से उभरने में बिताया जबकि इसी दौरान वे अपनी आजीविका के लिए कड़ा संघर्ष कर रहे थे. शौचालय और पीने योग्य पानी की व्यवस्था जैसी दैनिक आधारभूत चीजें भी उनके लिए मुख्य चुनौतियों में से एक है. “घर के पुरुषों का समय मुख्यत: भोजन का इंतजाम करने में ही गुजरता था,” सांखला ने बताया. ऐसी हालत में “शिक्षा की परवाह कौन करता?” इसके बावजूद उनकी इच्छा वकील बनने की थी. उन्होंने “विपरीत परिस्थितियों में भी लैंप पोस्ट की लाइट में पढ़ाई की.” लेकिन वह अपना सपना पूरा नहीं कर पाईं. उन्होंने दिल्ली विश्वविध्यालय से कला में स्नातक की पढ़ाई की. उन्होंने मुझे बताया कि अपने समुदाय में 25 वर्षीय दोस्त रीना गड़िया को छोड़कर किसी अन्य स्नातक को नहीं जानतीं.

2018 में रीना और सांखला ने गड़िया लोहारों पर काम करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क द्वारा दिल्ली में संचालित एक शोध अध्ययन में भाग लेना शुरू किया. एचएलआरएन ने समुदाय की 58 बस्तियों का सर्वेक्षण किया. जिसकी अनुमानित जनसंख्या पच्चीस हजार तक है. सितंबर 2019 में इस संगठन ने “सीमांत का मानचित्र : दिल्ली का गड़िया लोहार समुदाय” नाम से एक विवरण प्रकाशित किया. इस विवरण ने रीना और सांखला के अनुभवों की पुष्टी की. इसमें बताया गया है कि सर्वेक्षित गड़िया लोहार समुदाय में 64 प्रतिशत के पास शौचालय नहीं है, 44 प्रतिशत के पास स्कूल नहीं है और 41.4 प्रतिशत लोग स्वच्छ पानी की सुविधा से वंचित है.

इतिहासकार रीमा हूजा के अनुसार गड़िया लोहार “भारत की भौतिक संस्कृति” में अपने योगदान के बावजूद इतिहास और वर्तमान दोनों के द्वारा सताए लोग हैं. दस से अधिक गड़िया लोहार बस्तियों में मैंने जो रिपोर्टिंग की उससे यह बात पुष्ट होती है कि सरकार इस समुदाय को मूलभूत सुविधाएं प्रदान करने में असफल रही हैं जिसके कारण यह दिल्ली का एक सीमांत समुदाय बना हुआ है. समुदाय की सांस्कृतिक पहचान, जो पारंपरिक लोहार कार्य पर आधारित है, भी व्यवसाय के रूप में धूमिल हो चुकी है और अब मात्र न्यूनतम जीविका ही प्रदान करती है. “दिल्ली जैसी जगह में उनका पुनर्वास बेहद जरूरी है, लेकिन वह उपेक्षित ही रहे हैं,” हूजा ने मुझे बताया.

समुदाय की किंवदंतियों के अनुसार गड़िया लोहारों ने सोहलवीं शताब्दी में महाराणा प्रताप के समय से राजस्थान के चित्तौरगढ़ इलाके में लोहार का काम किया है. गड़िया लोहार तलवारों और ढालों के कुशल कारीगर थे. सोहलवीं शताब्दी के आखिर में जब चित्तौरगढ़ को मुगलों ने जीत लिया और महाराणा प्रताप को अपनी प्रजा के साथ शहर छोड़ना पड़ा, उस समय लोहारों ने राजा के सामने कसम खाई की जब तक वह मुगलों को हरा नहीं देते और अपना किला वापस नहीं पा लेते तब तक वह वापस घर नहीं लौटेंगे और घर, बिस्तर जैसी दैनिक आवश्यकताएं त्याग देंगे.

इसलिए लोहार घुमंतू बन गए और बैलगाड़ी को ही अपना घर बना लिया. तब से समुदाय को गड़िया लोहार के नाम से जाना जाने लगा. गड़िया मतलब बैलगाड़ी व लोहार मतलब लोहे का सामान बनाने वाले. उन्होंने ''लोहे का सामान बनान जारी रखा जैसे- बैलगाड़ी का धातु से बना भाग, बर्तन और पहिए आदि,'' हूजा ने बताया.

लेकिन समय के साथ, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति काफी बिगड़ गई. हूजा ने कहा कि इसके बावजूद, "उन्होंने अपनी उत्पत्ति के स्थान के कई सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई तत्वों को बरकरार रखा है." उन्होंने कहा कि "अपनी अनवरत यात्राओं में, उन्होंने इन तत्वों को स्थानीय संस्कृतियों में भी उड़ेला है और साथ ही साथ जहां की यात्रा की वहां से भी बहुत कुछ आत्मसात किया है.” गड़िया लोहार कभी भी घर वापस नहीं जा सके. प्रतीकात्मक जीत के रूप में, 1955 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चित्तौरगढ़ किले में लगभग चार हजार गड़िया लोहारों के साथ एक मार्च का नेतृत्व किया. उनमें से कुछ राजस्थान में बस गए. हूजा ने मुझसे कहा कि राजस्थान में "उनकी स्थिति दिल्ली से बेहतर है."

जिन गडिया लोहारों से मैं राष्ट्रीय राजधानी में मिला उनके पास अभी भी रहने की कोई ढंग की व्यवस्था नहीं है. पांच सदस्यों वाला रीना का परिवार पिछले 35 वर्षों से मंगलापुरी के फुटपाथों पर रह रहा है. वे दस वाई दस फीट के अस्थाई घर में रहते हैं. इस घर की एकमात्र कंक्रीट की दीवार पार्क की बाउंड्री है और बाकी हिस्सा प्लास्टिक और तिरपाल से ढका है. परिवार इस जगह का उपयोग नहाने, खाना पकाने और सोने के लिए करता है. रीना ने बताया कि वह “अपने समुदाय के लिए एक उदाहरण बनने और उसकी पहचान कायम करने के लिए” भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती हैं. “लेकिन पैसों की तंगी के कारण मुझे अपने परिवार का भी ध्यान रखना होता है.”

साठ साल की रीना की मां मशाल, को जो भी काम मिल जाता है वह करती हैं. मां ने कहा कि उनके परिवार की आधी आय निजी शौचालयों का इस्तेमाल करने पर खर्च हो जाती है. मशाल ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि किसी दिन, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, विकास के उन वादों को पूरा करेंगे जो उन्होंने चुनाव के दौरान जनता से किए थे और उनका समुदाय भी प्रगति कर सकेगा.

केंद्र सरकार का स्वच्छ भारत मिशन, जिसका उद्देश्य शौचालयों का निर्माण करके देश को खुले में शौच से मुक्त बनाना है, उस गड़िया लोहार समुदाय के अधिकांश सदस्यों तक नहीं पहुंचा है, जिनसे मैंने बात की. एचएलआरएन की प्रबंध निदेशक शिवानी चौधरी ने कहा कि योजना घरों में शौचालय बनाने पर केंद्रित है, लेकिन गड़िया लोहारों के पास "रहने के लिए स्थाई जगह नहीं है".

एचएलआरएन के अनुसार, कई गड़िया लोहार अस्थाई घरों में रहते हैं, जो झुग्गी कहलाने के भी लायक नहीं हैं. कई गड़िया लोहारों ने सरकारी अधिकारियों के साथ के अपने अनुभव सुनाए कि कैसे वे उनके घरों को अवैध बताते हैं और वहां से बेदखल करने को मजबूर करते हुए घरों को ध्वस्त कर देते हैं. चौधरी ने कहा, "राज्य सरकार का नारा 'जहां झुग्गी, वहीं मकान' उनके लिए लागू नहीं होता."

दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड, दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ी, बस्तियों में जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में काम करता है. इसकी जिम्मेदारी यह पता लगाना भी है कि किन झुग्गियों के पुनर्वास और विकास की जरूरत है. एचएलआरएन की रिपोर्ट के अनुसार, झुग्गी-झोपड़ी बस्ती की सूची में केवल पांच गड़िया लोहार बस्तियां शामिल हैं जिसके लिए डीयूएसआईबी जिम्मेदार है. "हमने पाया कि न तो उनकी कोई पहचाना ही होती है और न ही उनको कोई स्वीकार करता है." उनके अनुसार, राज्य सरकार की एजेंसियों ने एचआरएलएन को बताया कि "वे इस समुदाय का एक सर्वेक्षण शुरू करेंगे."

केंद्र सरकार ने एक बार गड़िया लोहारों को दिल्ली में घर उपलब्ध कराने के प्रयास किए थे. एचएलआरएन की रिपोर्ट के अनुसार, गड़िया लोहार पुनर्वास योजना के एक भाग के रूप में, केंद्र सरकार की एक संस्था, दिल्ली विकास प्राधिकरण ने 2003 में मंगोलपुरी में समुदाय के लिए 34 दुकानों वाले घरों वाली बस्ती का निर्माण किया था. तत्कालीन केंद्रीय श्रम मंत्री साहेब सिंह वर्मा और तत्कालीन केंद्रीय शहरी विकास मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने बस्ती का उद्घाटन किया था.

लेकिन अब तक घरों और दुकानों को समुदाय को आवंटित नहीं किया गया है. यह बस्ती समय के साथ खंडहर सी बन गई हैं और बस्ती के प्रवेश द्वार पर कूड़े का अंबार लग गया है. गड़िया लोहारों का एक परिवार, जो डीडीए के एक गैर आवंटित घरों के सामने अस्थाई घर में रहता है, ने उद्घाटन समारोह की तस्वीरों को सहेज कर रखा है. उन्हें अब भी उम्मीद है कि उन्हें मकान आवंटित किए जाएंगे. डीडीए ने घरों के आवंटन के बारे में पूछे गए मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया.

समुदाय की सामाजिक-आर्थिक और आधिकारिक स्थिति एक राज्य से दूसरे राज्य में भिन्न होती है. राजस्थान में, उन्हें सबसे पिछड़ी जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जबकि हरियाणा और दिल्ली में वे अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में आते हैं. एचएलआरएन सर्वेक्षण के अनुसार, राजधानी में केवल दो प्रतिशत गड़िया लोहारों के पास जाति प्रमाणपत्र हैं, जो समुदाय को प्रदान की जाने वाली शिक्षा और नौकरी में आरक्षण का लाभ उठाने के लिए आवश्यक हैं. दिल्ली के अधिकांश गड़िया लोहार अपने अधिकारों से अनजान दिखे.

वित्तीय बाधाओं के बावजूद, दिल्ली में मुझे मिले गड़िया लोहारों को अपनी विरासत पर गर्व है. उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के बुध विहार क्षेत्र में, सत्तर साल के एक गड़िया लोहार बंजारा, सड़क के किनारे प्लास्टिक से ढके अस्थाई आश्रय में रहते हैं. जीवन निर्वाह के लिए वे कृषि और निर्माण मजदूरों द्वारा उपयोग किए जाने वाले लोहे के उपकरणों की मरम्मत से प्रति दिन एक सौ रुपए से कम कमाते हैं. बंजारा को अपनी मातृभाषा के आलावा दूसरी कोई भाषा नहीं आती, जिसके चलते उन्हें मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता है. उन्होंने एक क्षतिग्रस्त और धूल भरी बैलगाड़ी को अपने समुदाय की शान के प्रतीक के रूप में बचा कर रखा है.

हूजा ने कहा कि समुदाय का मानना है कि महाराणा प्रताप के प्रति उनकी प्रतिज्ञा पीढ़ी दर पीढ़ी खत्म होती जा रही है. भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने वाली और इंडियाज ऐलिफेंट की लेखिका तृप्ति पांडे ने मुझे बताया कि समुदाय के लिए अपने पारंपरिक व्यवसाय के दम पर जीवित रहना मुश्किल है" इसलिए समुदाय के बहुस सारे लोग निर्माण मजदूरों में बदल गए हैं, जबकि कुछ ने पर्यटन उद्योग की जरूरत को पूरा करने के लिए अपने पुश्तैनी कौशल का इस्तेमाल करते हुए लोहे के स्मृति चिन्ह बनाने का काम चुना है.”

दिल्ली के जितने भी शिक्षाविदों से मैंने गड़िया लोहारों की संस्कृति और शिल्प को समझने के लिए संपर्क किया उनमें से बहुत ही कम ऐसे थे जो समुदाय के अस्तित्व के बारे में जानते थे. संग्रहालय विज्ञान शास्त्री (म्यूजियॉलजिस्ट) जोग श्री पवार ने 2015 में अपने पोस्टग्रेजुएशन के दौरान बस्तियों का दौरा करके समुदाय का अध्ययन किया था. पवार ने कहा कि अन्य खानाबदोश समुदाय, जैसे मंगणियार, कालबेलिया, भील वगैरह, अपनी कला और शिल्प का प्रदर्शन करते हुए "दुनिया के साथ संवाद" कर रहे हैं “लेकिन मुझे लगता है कि गड़िया लोहार अभी भी छिपे हुए हैं. अगर उन्हें उचित समर्थन नहीं मिलता है, तो उनकी कला खो जाएगी.”

किरण सिंह सांखला बड़ी होकर वकील बनना चाहती थीं. उन्होंने "विषम परिस्थितियों में लैंप पोस्ट की रोशनी में" अध्ययन किया. लेकिन सांखला अपने सपने को पूरा नहीं कर सकीं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से कला में स्नातक की पढ़ाई पूरी की. ऋषि कोछड़/कारवां

गड़िया लोहार समुदाय की अपनी भाषा है, लेकिन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में सेंटर फॉर लिंग्विस्टिक जस्टिस एंड इडेंजर्ड लैंगुवेज के निदेशक प्रसन्नाशु के अनुसार, इसका कोई नाम नहीं है. केंद्र की स्वदेशी और लुप्तप्राय भाषाओं की परियोजना ने इसे गड़िया लोहार भाषा का नाम दिया है. “यह खतरे में है क्योंकि बोलनेवालों की संख्या कम है. भाषा को आत्मसात करने और शैक्षिक सुविधाओं का दबाव व्यावहारिक रूप से कुछ भी नहीं है,” उन्होंने कहा. समुदाय के सामने चुनौती बहुत बड़ी है. "गड़िया लोहार को अपने शैक्षिक और आर्थिक विकास पर ध्यान देना है और साथ ही उन्हें अपनी संस्कृति और भाषा को संरक्षित करना है," उन्होंने कहा. रीना और सांखला दोनों वर्तमान में एक अनुबंध के आधार पर स्वदेशी और लुप्तप्राय भाषाओं की परियोजना पर काम कर रही हैं.

ये दोनों अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही हैं और 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में मतदान करेंगी. सांखला ने कहा कि वोट देते समय वह सोचती हैं कि कौन सी पार्टी गड़िया लोहारों की समस्याओं का समाधान कर सकती है. रीना और सांखला दोनों के लिए दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा शिक्षा है. एचएलआरएन सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 84 प्रतिशत सर्वेक्षण बस्तियों में निवासियों के पास मतदाता-पहचान पत्र थे. मैंने रीना से पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि उनके समुदाय के अन्य सदस्य भी आगामी चुनाव में मतदान करेंगे. “वोट डालना हमारे समुदाय में गर्व की बात मानी जाती है. इससे हम महसूस करते हैं कि हम भारत के नागरिक हैं, हमारा भी वजूद है,” रीना ने कहा.

2018 में, उन दोनों ने और समुदाय के कुछ अन्य युवाओं ने गड़िया लोहार संघर्ष समिति का गठन किया. समिति का उद्देश्य अपने समुदाय के लिए बिजली, पानी और शौचालय जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की मांग करना था. समिति अपने समुदायों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए दिल्ली की बस्तियों में गड़िया लोहारों से मुलाकात करती है. सितंबर 2018 में समूह ने समुदाय के पांच सौ से अधिक सदस्यों को जुटाया और दिल्ली के मंडी हाउस से संसद भवन तक विरोध मार्च किया. "हम कोशिश कर रहे हैं, लेकिन जो हम पाना चाहते हैं वह मुश्किल है," सांखला ने कहा. “कोई नहीं सुन रहा है. लेकिन हम अपनी लड़ाई जारी रखेंगे. ”

अनुवाद : अंकिता