भारत के अदृश्य लोग

कोरोना विमर्श से गायब भारत का घुमंतू समाज, लॉकडाउन के बाद भी जारी रहेगा आजीविका का संकट 

पुष्कर में रायका घुमंतू समुदाय की महिला अपनी बेटी के साथ. इस समाज के लोग ऊंटों के कारवां के साथ चलते हैं. फोटा : अश्वनी शर्मा

होटल में कठपुतली का खेल बंद हो जाने से राजस्थान के जैसलमेर के 37 साल के ज्ञानी भाट हताश हैं. भारत की ढेरों घुमंतू जातियों में से एक भाट समाज के ज्ञानी की 70 साल की मां शांति देवी पिछले छह महीनों से बीमार हैं. बेहतर इलाज की उम्मीद में वह अपनी मां को जैसलमेर से जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में ले आए थे और यहीं शहर में रोजी-रोटी के लिए एक होटल में शाम को कठपुतली का खेल दिखाने लगे थे. लेकिन लॉकडाउन की वजह से खेल बंद हो गया. ज्ञानी ने मुझे बताया, “मुझे यह कठपुतली अपने पुरखों से मिली है. हम गांव-गांव जाकर कठपुतली के खेल के जरिए मौखिक इतिहास बताते हैं. हमारी कला मजमों पर टिकी है. जब गांव में हम भीड़ लगा ही नहीं पाएंगे तो हमारा घर कैसे चलेगा?” ज्ञानी ने आगे कहा, “मेरे परिवार में मेरे मां-बाप के अलावा पत्नी, दो छोटी लड़कियां और एक लड़का हैं. माता-पिता बूढ़े हैं. हमें कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती. हम पढ़े-लिखे नहीं हैं. बस कठपुतली नचाते हैं.”

भाट ने मुझे कहा, “कला केंद्रों पर से तो हम जैसे लोक कलाकारों को पहले ही बाहर निकाल दिया गया था. अब गांवों से भी बाहर निकाल दिया.” उन्होंने बताया कि पिछले साल 2 अक्टूबर को जयपुर के जवाहर कला केंद्र में कठपुतली नचाने का ठेका निजी कंपनी को दिया गया था जिससे वह बेदखल हो गए.

यही हालत प्रदेश के अजमेर जिले के घासीराम भोपा का है जो पाबूजी की फड़ बाचते हैं. (फड़ एक कपड़ा होता है जिस पर बहुत सारी आकृतियां बनी होती हैं. भोपा उन चित्रों को देखकर अपने लोक वाद्य यंत्र रावण हत्थे की धुन पर कहानी सुनाते हैं. ये कहानियां राजपूत राजाओं के इतिहास और यहां के लोक देवी-देवताओं से जुड़ी होती हैं. घासीराम ने बताया, “हमारे टोले में 140 लोग हैं जिसमें 84 बच्चे हैं. एक भी बच्चा स्कूल नहीं जाता. हमारे पास ना बीपीएल कार्ड हैं, ना कोई जमीन का पट्टा. गांवों में घूमकर रावण हत्था बजाकर अपना घर चला रहे थे. उस पर भी सरकार ने रोक लगा दी. हम खाएंगे क्या? हमने लॉकडाउन में एक समय खाना खाकर टाइम निकाला है.”

हिंदुस्तान में 1200 से भी अधिक घुमंतू समुदाय रहते हैं. इनकी आबादी देश की आबादी का कुल 10 फीसदी है. इन समुदायों के पास खास तरह के हुनर हैं और प्रत्येक के पास विशिष्ट प्रकार का ज्ञान है. ये जीवन जीने के अलग-अलग नजरिए हैं. समाज को देखने के अलग-अलग चश्मे हैं. पारंपरिक रूप से घूमंतु समाज के लोग जड़ी-बूटियों और पर्यावरण प्रबंधन के ज्ञान, संगीत एवं मनोरंज और शिल्प कला के पेशे से जुड़े हैं. ये लोग अपने कामों का प्रदर्शन लोगों के बीच करते हैं. लॉकडाउन में सरकार ने ऐसे सभी स्थानों को बंद कर दिया जहां ज्यादा लोग एकत्र हो सकते थे. साथ ही सरकार ने सभी धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर रोक लगा दी या वहां पर लोगों की संख्या निश्चित कर दी. सरकार के इन फैसलों से लोक कलाकारों का काम रुक गया है.

अप्रैल और मई में शोध के दौरान इन समुदाय के लोगों ने मुझे बताया कि लॉकडाउन को तो वे जैसे-तैसे निकाल लेंगे लेकिन उन्हें डर है कि लॉकडाउन के बाद हालात बदतर होंगे. उनका कहना था कि कोरोनावायरस के समाप्त होने के अगले 6-7 महीने तक ना शहर में जाने की अनुमति होगी और ना ही गांवों में घुसने दिया जाएगा. यदि अनुमति मिल भी गई तो लोग उनको स्वीकार नहीं करेंगे. अगले एक साल तक उनको जिंदा रहने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ेगी.

इन सभी समुदायों पर कोरोना का प्रभाव भी अलग-अलग तरीके से पड़ रहा है. इन प्रभावों से निपटने हेतु सरकार के उपाय भी अलग-अलग होने चाहिए लेकिन हकीकत यह है कि अब तक किसी भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार ने देश की इस 10 फीसदी जनसंख्या के लिए एक शब्द तक नहीं कहा है.

हालांकि 2005 में केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने बाल कृष्ण रैनके की अध्यक्षता में घुमंतू समुदाय की स्थिति के अध्ययन के लिए एक कमेटी गठित की थी जिसका काम उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में बताना तथा समुदायों के उत्थान हेतु जरूरी उपाय सुझाना था. रैनके आयोग ने अपनी रिपोर्ट 2008 में केंद्र सरकार को सौंपी. उस रिपोर्ट के अनुसार हिंदुस्तान की कुल आबादी का 10 फीसदी हिस्सा घुमंतू समुदायों का हैं. इसमें 94 फीसदी घुमंतू लोग बीपीएल श्रेणी से बाहर हैं. 72 फीसदी लोगों के पास अपनी पहचान के दस्तावेज नहीं हैं. 98 फीसदी लोगों के पास अपनी जमीन नहीं है. 57 फीसदी तंबू में रहते हैं. अकेले राजस्थान राज्य में 52 घुमंतू समुदाय हैं जिनकी आबादी 70 लाख से अधिक है. वहीं मध्यप्रदेश में 61 घुमंतू समुदाय हैं जिनकी आबादी 80 लाख के करीब है. ऐसे ही कर्नाटक और तेलंगाना राज्य हैं. सभी राज्यों में इन समुदायों की हालत एक जैसी है. 

राजस्थान के ढोली कलाकार चिरंजी ढोली ने मुझे बताया, “हमारा सारा जीवन तो अपने जजमानों के तीज-त्योहारों और शादी-विवाह में ढोल बजाने पर निकल गया है. हम लोग पढ़े-लिखे तो हैं नहीं. हमारा तो जजमानों से ही घर चलता है. हम लोग हर महीने अलग-अलग गांवों में जाते हैं. जब गांव में जा नहीं पाएंगे तो हम लोग अपना घर कैसे चलाएंगे? ऐसे ही बही भाट (जागा) जिसका काम पोथी बाचना है, आम इंसानों के इतिहासकार हैं. इनका काम अपने जजमानों के पीढ़ियों का रिकॉर्ड रखना है. उनके शादी-विवाह में जाकर कविता करना है. ग्रामीण भारत में आज भी इनकी पोथी की जानकारी के आधार पर ही शादी-विवाह तय होते हैं क्योंकि इनके पास उपलब्ध जानकारियां सबसे प्रामाणिक मानी जाती हैं.

राजस्थान के राजसमंद जिले में रहने वाले मांगेलाल भाट कहते हैं, “हमारा तो सारा जीवन ही हमारे जजमानों पर टिका है. हम वर्ष भर अपने जजमानों के यहां घूमते रहते हैं. केवल बारिश के समय रुकते हैं. लेकिन इस बार तो गांव वाले हमें आगे कई महीनों तक कोरोना के डर से अपने घरों में घुसने नहीं देंगे.” उन्होंने आगे बताया, “हम लोग अपने जजमानों के घरों पर ही ठहरते हैं. वहीं खाना खाते हैं. रात में वहीं सोते हैं. अगले दिन अगले जजमान के घर चले जाते हैं. हम गांव में कहां होटल में रहेंगे? हमारे पास इतना पैसा कहां से आएगा?”

मांगेलाल ने बताया, “हम तो दिन भर में 100- 200 रुपए कमा पाते है. हमारे लिए सरकार कुछ सोचती ही नहीं है. हमारे पास पिछले 1000 वर्ष का इतिहास लिखा है. हमारी जानकारी पर ही बड़े-बड़े इतिहासकार अपनी किताब लिख देते हैं और हमारी बही फटी-पुरानी दीमकों की भेंट चढ़ रही हैं.”

देश में कई ऐसे घुमंतू समुदाय हैं जो मंनोरजन के काम से जुड़े हैं. कलंदर भालू का खेल दिखाते हैं और मदारी बंदर का. इनके अलावा बाजीगर समुदाय के लोग अपने हाथ की सफाई के जरिए मनोरंजन करते हैं और नट रस्सी और लकड़ी के सहारे अपनी कलाबाजियां दिखलाकर अपनी जीविका चलाते हैं. ये सभी समुदाय निरंतर घूम-घूम कर, सड़क किनारे मजमा लगाकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं लेकिन अब सरकार ने भीड़ लगाने पर रोक लगा दी. भारत सरकार भालू और बंदर के खेल-तमाशे पर पहले ही रोक लगा चुकी थी. इन खेलों पर रोक के बाद इस समाज के बहुत से लोग जड़ी-बूटियों से इत्र, मंजन, मल्हम और तेल बनाकर बेचने लगे. कुछ लोग नगीने और मनके पिरोने का काम करने लगे. (मनके और नगीने एक तरह के तराशे हुए पत्थर होते हैं जिन्हें नाम और राशि के आधार पर माला में या अंगूठी में पिरोया जाता है. ये काम कलंदर, बाजीगर और मदारी समुदाय के लोग करते हैं.)

मध्य प्रदेश के भोपाल  में रहने वाले मुन्ना कलंदर ने मुझे फोन पर बताया, “पहले तो सरकार ने हमसे बंदर-भालू छीन लिए और बदले में कोई रोजगार भी नहीं दिया. अब हम सड़क किनारे मजमा लगाकर नगीने बेचते हैं और कुछ लोग तेल, मंजन, इत्र बेचते हैं.” मुन्ना ने कहा, ”यदि हम सड़क किनारे बैठकर नगीने नहीं बेचेंगे तो खाएंगे क्या? हमारे पास कोई दुकान या प्रॉपर्टी थोड़े है.” कलंदर ने आगे कहा, “सरकार ने आज तक तो हमें कोई सहायता दी नहीं, हमसे केवल छीना ही है. अब सड़क पर बैठने का भी अधिकार छीन लिया. हम तो दिन भर में 100-150 रुपए कमा पाते थे. अपना एक झोला रखते हैं. जहां कुछ लोग दिख जाते हैं. वहीं अपने झोले को खोलकर बैठ जाते हैं. यही हमारी चलती-फिरती दुकान है. हमारा जीवन तो इसी फुटपाथ की भीड़ पर टिका है. सरकार आगे एक साल तक सड़क पर मजमा लगने नहीं देगी तब हम क्या करेंगे?” कलंदर ने पशु अधिकार की परिभाषा में विरोधाभास का भी उल्लेख किया. उन्होंने कहा, “हमारा संविधान बराबरी पर टिका है किंतु एक ओर हम बंदर का खेल नहीं दिखा सकते वहीं हिमाचल प्रदेश सरकार बंदर को मारने पर ईनाम भी देती है.” 

सिंगीवाल, गोंड चित्तौड़िया, कंजर और कालबेलिया समुदाय जड़ी-बूटियों के जानकार होते हैं. ये साल में दो बार ही जड़ी-बूटियां एकत्र करते हैं. एक बार मार्च-अप्रैल के महीने में और दूसरी बार बारिश होने के बाद. गरमुंडा, पलाश, कचनार और कदंब जैसे फूल हमारे लिए भले ही सुंदरता की अभिव्यक्ति हों लेकिन इन समाजों के लिए ये फूल आयुर्वेदिक औषधियां हैं. इन समाजों के लोगों को इन फूलों के विभिन्न औषधिक गुणों का पता होता है. मार्च और अप्रैल में जब ये फूल झरने लगते हैं तो इन फूलों को बीन-सुखाकर पाउडर बना लिया जाता है. फिर इस पाउडर को अन्य औषधियों के साथ मिलाकर मिश्रण तैयार किया जाता है. इस मिश्रण को बेच कर ये साल भर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं. रेगिस्तान में इस समय गरमुंडा और हरड़ इत्यादि जड़ी-बूटियां मिलती है. कालबेलिया समुदाय के लोग इसे  पीसकर फांकी बनाते है जो पशुओं और इंसानों के पेट दर्द, कब्ज और एसिडिटी के इलाज के काम में आती है.

अभी मई में जब मैं जैसलमेर के सम में बालू रेत के टीलों पर तंबुओं में रह रहे 50 साल के मूकनाथ कालबेलिया से मिला तो उन्होंने मुझे बताया कि साल के इसी समय वे जड़ी-बूटियों से जन्म-घुट्टी तैयार करते हैं जो छोटे बच्चों को पिलाई जाती है. उन्होंने बताया कि इसी समय सांप अपने बिलों से बाहर निकलते हैं और केंचुली छोड़ते हैं. उन्होंने कहा, “उस केंचुली से हम लोग सुरमा बनाते और बाजार में बेचते हैं. अब हम साल भर अपनी आजीविका कैसे चलाएंगे?”

जयपुर शहर से 10 किलोमीटर दूर कानोता (बस्ती) में तंबू लगाकर रह रहे 70 वर्षीय प्रकाश सिंगीवाल ने मुझे बताया था कि जो जड़ी-बूटियां बारिश के मौसम में होती हैं वे जंगल से संबंधित होती हैं. ये जड़ी हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिमी घाट और झारखंड-ओडिशा के घने जंगलों में मिलती हैं. जंगल अधिनियम पारित होने के कारण घने जंगल में घुसने पर रोक लग गई. अधिकारी परेशान करने लगे और जाने की अनुमति नहीं मिलती. इससे बारिश के बाद वाली जड़ी-बूटियों पर उनके अधिकार समाप्त हो गए. सिंगीवाल लोग सदियों से हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिम घाट और दंडकारण्य के जंगलों से जड़ी-बूटियों लाते हैं और साल भर बेचने का काम करते हैं. प्रकाश सिंगीवाल समुदाय के पटेल भी हैं यानी ऐसा व्यक्ति जो अपनी आने वाली पीढ़ियों को जड़ी-बूटियों का ज्ञान देता है और जंगल से बूटियों को प्राप्त करने के नियम-कायदे बताता है.

सिंगीवाल ने बताया, “चूंकी जंगल जाना नहीं हो पाता इसलिए अब पूरा जीवन इन मार्च-अप्रैल की जड़ी-बूटियों के ऊपर टिका है. इस बार वह भी नहीं ला पाए. अब साल भर क्या करेंगे? हम तंबू में रहते हैं फिर भी हमें बीपीएल कार्ड नहीं मिलता. कोरोना से मरें न मरें इस भूख से जरूर मर जाएंगे.”

कोरोनावायरस से बचाव के लिए सरकार ने जो नियम बनाए हैं उनसे हस्तशिल्पियों पर भी नकारात्मक असर पड़ा है. बांसफोड़ समुदाय बांस के उत्पाद बनाता है. पत्थरफोड़, पत्थर की गट्टी बनाता है. घुमंतु समाज बंगाली सजावट की वस्तुएं तैयार करता है. तुरी समुदाय तिनके बीनकर झाड़ू बनाता है. उरई खोदता है. कुचबंदा समुदाय कूच बांधने का काम करता है. गवारीन ग्रामीण महिलाओं की आवश्यकता की आपूर्ति करती हैं. इन सभी समुदायों के बाजार, किसान और खेती होती हैं. पिछले दो महीने से काम बंद है और अब बारिश शुरू हो जाएगी. जिसमें 4 महीने काम बंद रहता है. किंतु यहां समस्या यह है कि उसके बाद भी इस समाज को किसानों के पास ही जाना पड़ेगा और इस स्थिति में वह क्या करेगा? जालौर के रहने वाले जबराराम बांसफोड़ ने बताया, “हम बांस की जो वस्तुएं बनाते हैं वे साल में दो बार ही बिकती हैं. जिसमें अधिकांश खेती-किसानी से जुड़ी हुई हैं. हमारी वस्तुएं सरकार नहीं खरीदती. इन्हें किसान ही लेते हैं.” उन्होंने आगे बताया, “यह सीजन तो निकल गया. अब तो रबी के मौसम का ही इंतजार करना पड़ेगा. तब तक घर कैसे चलाएं? हम तो साल भर घूम-घूमकर अपने किसान जजमानों पर ही आश्रित रहते हैं.”

जो गवारीन सर पर टोकरी रखकर गांव- गांव में जाती है. ग्रामीण महिलाओं की आवश्यकताओं की आपूर्ति करती है. उन महिलाओं को शहर की बातें बताती है. महिलाएं भी इकट्ठी होकर बड़े चाव से उसकी बातें सुना करती हैं. उस गवारीन को गांव में घुसने की अनुमति नहीं मिलेगी. यदि मिल भी गई तो उन घरों में नहीं जा सकेगी जिसके आंगन में बैठकर बड़े चाव से रोटी खाती थी. दूसरी तरफ ग्रामीण महिलाएं बहुत कम शहर जा सकती हैं. वे अपनी जरूरत की चीजों के लिए इसी गवारीन पर आश्रित थीं. अब पुरुषों पर निर्भर हो जाएंगी. इससे उनकी स्वतंत्रता में बाधा पैदा होगी.

रायका-रेबारी, साटिया, बंजारा, बागरी और बावरिया जैसे पशुचारक घुमंतू समाज को भी लॉकडाउन ने तोड़ कर रख दिया है. रायका-रेबारी ऊंट, साटिया गाय और बैल, बंजारे गधे और बागरी और बावरिया भेड़-बकरी पालते हैं. हम जो हजारों-हजार ऊंट, भेड़-बकरियों और गाय-बैलों का टोला देखते हैं उनमें इन समाज के लोगों के पशु तो बस नाम मात्र के होते हैं. ये लोग चरवाहे हैं. इन पशुओं के मालिक कोई और होते हैं. कालाधन रखने वालों का ये सबसे सुरक्षित स्थान है. इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है. सबसे बड़ी बात है ये पूंजी निरंतर बढ़ती ही जाती है. इसी का नतीजा है कि आज अधिकारियों, राजनेताओं के सबसे ज्यादा पशुधन हैं.

लॉकडाउन में मध्य प्रदेश में फंसे राजस्थान के पशुचारक ने मुझे बताया कि उनके पास फिलहाल 6000 भेड़- बकरियां हैं और 2000 ऊंट और 200 गधे लेकिन वे सब एक रसूखदार राजनेता के हैं. उन्होंने बताया कि पशुचारकों के पास अपना खुद का रेवड़ इतना ही रहता है कि वे अपना गुजारा कर सकें. उन्होंने कहा, “हम पढ़े-लिखे नहीं हैं. हमारे पशुचारकों में शायद ही आपको कोई पढ़ा-लिखा मिले. हम तो सदियों से जंगल-रेगिस्तान में घूमते रहते हैं. यदि ये सारी संपत्ति हमारी ही हो तो हम क्यों ऐसे भटकते फिरें?”

घुमंतू लोग तो महज चरवाहे हैं. मुश्किल से किसी के पास पांच या 10-20 पशु होते हैं. ये लोग किराए पर इन्हें चराते हैं. इनको एक भेड़-बकरी को दिन भर चराने का डेढ़ रुपया जबकि एक ऊंट का पांच रुपया मिलता है. साल के दो समय ही ये लोग अपने घरों से निकलते हैं. कुछ समुदाय, जो ऊंट पालक हैं, वे मार्च महीने में चैत्री मेले से निकल लेते हैं. राजस्थान के बाड़मेर में होली के त्योहार के पास चैत्री मेला लगता है. सदियों से यह परंपरा रही है कि मार्च के शुरुआत में ये लोग अपने पशुओं को लेकर चैत्री मेले में आते हैं फिर वहां से अपने रेवड़ को लेकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ या हरियाणा, पंजाब या फिर उत्तर प्रदेश की ओर निकल जाते हैं. ये लोग हरियाणा, पंजाब के रास्ते उत्तराखंड की सीमा के करीब तक जाते हैं. जो भेड़-बकरी पालक हैं वे मध्य प्रदेश के उज्जैन तक जाते हैं. वे नवंबर माह में निकल पड़ते हैं तथा जिन पशुचारकों को उत्तर प्रदेश, बिहार की तरफ जाना होता है वे दिसंबर माह में कूच करते हैं. 

इन सभी के वापस लौटने का समय जुलाई से सितंबर के बीच का होता है जब रेगिस्तान में बारिश हो जाती है. जबकि इस वक्त उत्तर भारत के राज्यों में खेती शुरू हो जाती है. अपनी यात्रा के दौरान इनका रेवड़ खेतों में बैठता है जिससे खेतों को खाद मिल जाती है. ये जैविक खाद कम पानी में अच्छी पैदावार देती है. बदले में भेड़-बकरी और ऊंटों को फसल की कटाई के बाद शेष बचा डंठल, पत्तियां और भूसा मिल जाता है जो पौष्टिक होता है.  उसको भेड़-बकरियां चाव से खाती हैं.

लेकिन इस बार दो समस्याएं पैदा हुई हैं. पहली, जिन लोगों को हरियाणा-पंजाब की तरफ निकलना था वे लॉकडाउन की वजह से निकल नहीं पाए क्योंकि निकलने का वक्त मार्च में होता है और उसी वक्त लॉकडाउन लगा दिया गया. जो समुदाय पिछले साल नवंबर में मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार गए थे वे लौट नहीं पाए. राज्यों की सीमाएं बंद कर दी गईं. गांव में इनको घुसने नहीं दिया जा रहा है और राज्य सरकारें मदद नहीं कर रही हैं. इन लोगों ने मुझे बताया कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि आगे क्या होगा. यदि वापस भी आ जाते हैं तो उस रेवड़ को खिलाएंगे क्या? और उनकी मजदूरी का क्या होगा?  आगे भी नहीं जा सकते क्योंकि फसल कटे काफी समय बीत गया है. खेत में कुछ बचा नहीं और एक परेशानी यह भी है कि आगे गए तो वापस कब लौटेंगे? इससे उन खेतों को जैविक खाद नहीं मिल पाई जो हर साल उस मिट्टी को जीवंत बना देती थी. गांव के लोग अपने मवेशियों का साठा (अदला-बदली) करते थे. अब वह नहीं हो पाएगा. ग्रामीण लोग कुछ पैसे देकर अपने कमजोर पशु की इनके जानवरों से अदला-बदली कर लेते थे. जो चरवाहे वापस लौट आए हैं उनको जो चराने का पैसा मिलता था, वह आमदनी बंद हो गई है.

बंजारा समाज के लोग अपने गधों के जरिए और ओड़ जाति के लोग अपने खच्चरों के जरिए मिट्टी को समतल करने का काम करते थे और पाल बनाते थे. जोहड़ की छटाई करते थे. टांके के पानी का रास्ता बनाते थे. आज भी राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा में बंजारे जोहड़ की पाल बनाते हैं. आज मनरेगा के नाम पर इन समुदायों के कामों को छीन लिया गया है.

रेगिस्तान में बावड़ियां, टांके, कुएं और जोहड़ बनाने का काम बंजारे करते रहे हैं. बंजारों के पास बड़ा कारवां होता था जिसमें हज़ारों ऊंट, गधे और बैल होते थे जिनको लेकर वे जैसलमेर से पाकिस्तान के मुल्तान, सिंध होते हुए अरब मुल्कों तक जाया करते थे. बंजारे अरब से अरबी कपड़े, मुल्तान से मुल्तानी मिट्टी और नमक लाया करते थे. पूरे भारत मे राशन आपूर्ति का काम बंजारे ही करते थे. ये बंजारे ही थे जो कभी युद्ध के मैदान में राजा की सेनाओं की रसद आपूर्ति भी करते थे. इन्होंने अपने इस कारवां को पानी उपलब्ध करवाने के लिए जोहड़, टांके, झीलें, बावड़ियां बनाईं. आज भी राजस्थान और हरियाणा में जोहड़ या तालाब बनवाना हो या नींव खोदनी हो ये सारे काम बंजारे ही करते हैं. उनके पास पानी के प्रबंधन की बेहतरीन जानकारी होती है. पूरे गांव का पानी एकत्र करके वे एक जोहड़ में ले आते हैं. लेकिन अब मनरेगा के तहत जोहड़ छंटाई के नाम पर गड्ढे खोदने के काम किए जा रहे हैं. एक तो इससे पारंपरिक ज्ञान नष्ट हो रहा है, दूसरा बंजारों से उनका काम भी छिन रहा है.

लॉकडाउन के चलते जीव-जंतुओं पर भी अतिरिक्त दबाव बना है. कुछ घुमंतू समुदाय, जैसे वन बावरी, बावरिया, मोग्या, शिकारी और बंगाली लोग शिकार पर जीवन यापन करते थे. जिसके कई ऐतिहासिक और पर्यावरणीय कारण थे. किंतु आजाद भारत मे धीरे-धीरे वन्य जीव संरक्षण और जंगल के अधिनियम से शिकार की दर कम होती चली गई. धीरे-धीरे इन समुदायों ने अपने कार्य को बदला था. कोई फूस का घोड़ा बनाता है तो कोई लकड़ी की मूर्ति लेकिन अब वे सब काम बंद हो गए हैं.  अब इन समुदायों पर दबाव बढ़ रहा है. इस बात की ज्यादा संभावना हैं कि दोबारा से शिकार की प्रवृत्ति बढ़ जाए. इससे अवैध गतिविधियों के बढ़ने की आशंका हैं. अभी भी शिकार होते हैं किंतु वे इतनी ही मात्रा में होते हैं जहां प्रकृति उनकी क्षतिपूर्ती कर पाती है. पुष्कर के अजय वन बावरी ने मुझे बताया कि पहले जंगल से मोम, शहद और गोंद इत्यादि छोटी-मोटी वस्तुएं लाते थे लेकिन “सरकार ने जंगलों से हमें बाहर कर दिया. फिर घास-फूस के घोड़े और लकड़ी की मूर्ति बनाकर अपनी आजीविका चलाने लगे. अब  वो भी बंद कर दी गई है. हम तंबुओं में रहते हैं. फिर भी हमारा बीपीएल कार्ड नहीं है. मजबूरी में हम अब तीतर, बटेर और मोर ही मारेंगे.”

पारंपरिक काम छीन लिए जाने से एक खतरा यह भी हो गया है कि पूर्व में देह व्यपार से जुड़ी कुछ घुमंतू जातियां दुबारा इस पेशे में धकेल दी जाएंगी. हिंदुस्तान में आज भी सबसे अधिक देह व्यापार में नट, कंजर, पेरना, बेड़िया और गिलारा घुमंतू समुदाय के लोग शामिल हैं. इसके कई ऐतिहासिक और व्यवस्थाजन्य कारण हैं. आज भी मुंबई में बार डांसर के रूप सबसे अधिक कंजर और नट समाज की महिलाएं हैं. अजमेर के बांदरसिंदरी गांव के विक्रम राज नट ऩे मुझे बताया कि हमारे बच्चों के पिता के नाम के सामने मामा या नाना का नाम लिखा जाता है क्योंकि हमें पता ही नहीं हैं कि हमारा बाप कौन है.

विक्रम ने बताया, “अकेले बांदरसिंदरी गांव से 43 नटनी मुंबई में बार डांसर के तौर पर काम करती हैं. सरकारी और सामाजिक संस्थाओं के प्रयासों से यहां देह व्यापार में निरंतर कमी आ रही थी किंतु अब ज्यादा संभावना है कि रोजगार के अभाव में यह समुदाय वापस देह व्यापार की ओर लौट जाए. इससे पिछले 20 वर्ष की मेहनत पर भी पानी फिरने की संभावना बढ़ गई है.”

मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में बेड़िया समुदाय भी देह व्यपार की इसी विभीषिका से निकल नहीं पाया था कि इस संकट ने उसे फिर उस ओर धकेल दिया है. इस काम में संलिप्त 40 साल की एक औरत ने नाम का उल्लेख ना करने को कहते हुए बताया कि पहले एक ग्राहक से 30 रुपए मिलते थे लेकिन पिछले दो महीने से उसका काम बंद है. उसने बताया, “भुखमरी की हालत में जी रहे हैं. मेरी तीन बेटियां हैं. सबसे बड़ी वाली की उम्र 14 साल है. मैं सोचती थी कि इनको इस धंधे में नहीं लाऊंगी लेकिन अब कोई चारा नहीं बचा है.” उसने बताया कि फिलहाल “ग्राहक नहीं आ रहा है लेकिन क्या मालूम नई लड़कियों के लिए ग्राहक आ जाएं. मेरे जैसी कितनी ही और महिलाएं हैं. सब यही कर रही हैं. हमारे नाम पर कितनी संस्थाएं चल रही हैं लेकिन हमारे लिए कुछ नहीं किया. एक बार 5 किलो राशन मिला था. अब कुछ नहीं है. यह मेरी खोली है जिसमें अपनी 3 लड़कियों के साथ जी रही हूं.”  

कुछ घुमंतू समुदाय सामाजिक सहिष्णुता की जीवंत मिशाल हैं. जैसे मुस्लिम मिरासी हिंदू देवी-देवताओं की आराधना गाते हैं. कालबेलिया शिव के भगत हैं किंतु निकाह पढ़ते हैं. मुस्लिम बहरूपिये हिंदू देवी-देवताओं का रूप बनाकर प्रेम और शांति का संदेश देते हैं तो हिंदू बहरूपिये ईमाम और फकीर बनकर भाईचारे का पैगाम देते हैं. मार्च के आखिर में कोरोनावायरस को लेकर तबलीगी जमात को निशाना बनाया गया. इस बहाने मुसलमान सब्जी वालों या फेरी लगाने वालों के बहिष्कार वाले वीडियो और रिपोर्टें सामने आईं. इससे यह आशंका बढ़ी है कि मुस्लिम घुमंतू समुदाय पर अत्याचार बढ़ेंगे. हरियाणा के नारनौल में कामड़नाथ जोगी के डेरे को वहां के स्थानीय लोगों ने खदेड़ दिया. राजस्थान के टोंक में रहिदा से किसी ने सब्जी नहीं खरीदी. बहुरूपियों को अब पुलिस थाने, नजदीक पुलिस चौकी और सरपंच से अनुमति लेना पड़ेगी.

कामडनाथ जोगी ने मुझे बताया, “हम शिव के भगत हैं. मंदिर के पुजारी भी हमारे पूजा करने के बाद मंदिर में जाते हैं. आज हम मुसलमान हो गए. हमारा कोई स्थाई ठिकाना तो है नहीं. अब हम कहां जाएंगे? कभी हमसे कागज मांगते हैं. कभी बीमारी फैलाने का आरोप लगाते हैं.” उन्होंने कहा, “एक समय था जब लोग अपने बच्चों का नामकरण हमसे करवाते थे. हम पत्थर की बनी हाथ की गट्टी लाते थे. बच्चे के जन्म पर उसे जो जन्म-घुट्टी पिलाते हैं उसे हम बनाते थे, हम लाते थे. तब किसी को समझ नहीं आया कि हम मुसलमान हैं.” 


अश्वनी शर्मा स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट हैं और घुमंतू समुदायों के साथ काम करने वाली सामाजिक संस्था नई दिशाएं के संयोजक हैं और हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय में पीएचडी हेतु रामचंद्र गुहा और शेखर पाठक के रेफरल स्टूडेंट हैं.